Aug 28, 2008

लाली देखो लाल की... !

शीर्षक से तो आप अनुमान लगा ही नहीं सकते कि मैं क्या लिखने जा रहा हूँ. पहले इस दुःख और खुशी के संगम को बताने से पहले दो बातें बता दूँ.

- पहली ये की शुक्रवार का बड़ा बेसब्री से इंतज़ार रहता है. पहला तो सनातन कारण है: सप्ताहांत की शुरुआत. पुणे ऑफिस में ये खुशी दुगुनी हो जाती है क्योंकि इस दिन जींस-टी-शर्ट-स्पोर्ट-शू पहन कर ऑफिस जा सकते हैं. इसमें जो खुशी है वो शायद वही समझ सकता है जो चप्पल-हाफ पैंट और टी-शर्ट में क्लास जाता हो और अचानक आप उसे फोर्मल पहनने के बोझ तले दबा दो. साल में जीतनी बार दाढी बनाता हो महीने में उससे ज्यादा बार बनाने को बोल दो.

- दूसरी ये की न्युयोर्क ऑफिस में ऐसा नहीं होता यहाँ लोग कोई भी दिन हो शूट बूट में आते हैं, पर हमने ये फैसला लिया की चाहे जो भी हो पहले शुक्रवार को तो कुछ भी पहन के जाना बनता है. आगे से तो वैसे भी नहीं पहन पायेंगे ! तो हमने अपनी नई टी-शर्ट का उदघाटन कर दिया.

पूरे दिन तो ठीक रहा कुछ लोग अजीब निगाहों से देखते तो बस यही लगा की 'ऐसे ड्रेस में क्यों आ गए हो भाई?' वाली प्रश्न भरी दृष्टि है. असली बात तो शाम को पता चली.

अब किस्मत फूटी उसी दिन हमारे बॉस लंच पर लेकर चले गए, उन्हें भी यही दिन मिला था :( ... ख़ुद को बुरा लगा की ये क्या ड्यूड बन के आ गए हैं. चलिए इतना तो ठीक, ऐसी बातों से ज्यादा परेशान नहीं होता.

शाम को हमारे एक बहुत करीबी दोस्त हैं जो यहीं रहते हैं पिछले दो सालों से, पहला सप्ताहांत... तो मिलने आए. ४-५ घंटे साथ रहे, खूब भटके उनके साथ न्युयोर्क की गलियों में. बहुत अच्छा लगा, बहुत दिनों बाद मुलाकात हुई थी पर चलते-चलते असली बात बता गए.
बोले:
'ये क्या पहन रखा है?'
'क्यों इसमें क्या बुराई है? भाई बहुत मंहगे कपड़े हैं, अच्छे नहीं लग रहे क्या?' (ना समझ में आए तो सवाल का जवाब सवाल ही हो सकता है !)
'देख अच्छे तो हैं, मस्त लग रहा है पर ये रंग...'
'रंग?'
'हाँ ये लाल-नीला रंग... ये सब यहाँ पहनोगे तो लोग समलैंगिक समझेंगे'
'व्हाट?' (ऐसे उलूल-जुलूल झटके लगे तो अंग्रेजी बोलना ही पड़ेगा)
'Welcome to America Dude ! चिल्ल मार, कोई नहीं!'

कोई तो नहीं और चिल्ल भी मार ली मैंने पर अब जाके माजरा साफ़ हुआ, कहाँ सुबह सोंच के निकले थे की आज तो कहर ढाएँगे और यहाँ .... ! अमेरिकी अंग्रेजी का एक ही शब्द मुंह से निकल सकता है: F*** !
क्या सोच रहे होंगे दिन भर लोग... ऑफिस में ! खैर उसने समझाया की वो भी कई बार पहन के चला गया और ठीक है इतना भी कुछ नहीं है पर आगे से मत पहनना ! जब इतना कुछ नहीं ही है तो आगे से क्यों नहीं पहनूं ? अब दोस्त है तो क्या कहे बेचारा ! तसल्ली देना तो फर्ज बनता है.

अब आप कहेंगे की इस दुःख भरी दास्ताँ में खुशी का लम्हा कहाँ मिल गया? अरे भाई नई टी-शर्ट कम से कम एक दिन तो पहन ली पहले ही पता चल गया होता तो बेचारी धरी की धरी रह जाती. अब क्या करुँ कैसे भी हालात हो अपनी तो खुशी ढूंढ़ लेने की आदत है :-)



किसी समलैंगिक भाई को बुरा लगे तो माफ़ी भई, इस पोस्ट का मकसद किसी की भावनाओं को ठेस पहुचाना नहीं है. मैं तो शत-प्रतिशत सच और आपबीती सुना रहा हूँ. आपलोग सामान्य न सही सामान्य रूप से रह तो सकते हैं, मानता हूँ सबको आपना साम्राज्य विस्तार अच्छा लगता है पर कपडों को तो छोड़ सकते थे... ऐसे ही लडकियां नहीं मिलती और अगर कपडों के कारण (वो भी जब अपने दिमाग में हो की मस्त कपड़े पहन रखे हैं) ऐसा हो तो.

छोडो यार आप लोगों को क्या मालूम कि लड़की क्या चीज़ होती है !


~Abhishek Ojha~

Aug 23, 2008

पन्द्रह पंचे पचहत्तर, छक्का नब्बे... !

निवेश बैंकिंग और अंको का मस्त नाता है, आप चाहें न चाहें अंको से पाला पड़ता ही रहता है. तो हुआ यूँ के मैं एक स्प्रेडशीट खोले बैठा अंको को देख रहा था और कुछ ऐसा बोला:

'पन्द्रह छक्का नब्बे, सात पिचोत्तर... उम्म्म... कुछ एक मिलियन होना चाहिए'

अब क्या करें?... अपनी आदत है बीच-बीच में बोल देना... जो करता हूँ, कभी-कभी बीच में बोल भी देता हूँ. मुझे क्या पता था की लोग इतनी फुर्सत में होते हैं और एक-एक शब्द सुनते रहते हैं... मेरे बगल में जो सज्जन थे उन्हें बड़ा मजा आया ... उन्होंने पूछा:
'व्हाट यू जस्ट सेड?'
'नथिंग, आई वाज़ जस्ट लूकिंग ऐट दिस पोर्टफोलियो एंड सम नंबर्स असोसिएटेड विथ दिस !'

लेकिन इतनी आसानी से मान जाते तो पूछते ही क्यों? इतना तो वो भी समझ ही गए थे कि मैं क्या बोला था... लेकिन वो मेरे मुंह से सुनना चाहते थे... तो मुझे कौन सी शर्म आ जायेगी ! मैंने भी बोल दिया की कुछ नंबर जोड़-घटा रहा था और अपनी थोडी बचपन से आदत है... जोड़-घटाव करता हूँ तो उन्हें गुनगुना भी लेता हूँ ! ये गुनगुना लेने वाली बात उन्हें कुछ हजम नहीं हुई और उनके चेहरे के भाव से ऐसा लगा की अपच कुछ ज्यादा ही हो गया है... उनके सवाल का संतुष्ट हल उन्हें नहीं मिला, या फिर उन्हें जो मेरे मुंह से सुनना था वो नहीं मिला, या फिर गुनगुनाने वाली बात थोडी भारी हो गई !

मैंने सोचा की अपनी तरफ़ से थोडी दवा-दारु कर दी जाय मैंने कहा देखिये मैं जो गुनगुना रहा था आपको सुनाये देता हूँ: 'पन्द्रह दुनी तीस तियां पैंतालिस चौका साठ पांचे पचहत्तर छक्का नब्बे सात पिचोत्तर आठे बिस्सा नौ पैन्तिसा झमक-झमक्का डेढ़ सौ !'

और मुड़ के फिर अपने डब्बे (कम्प्यूटर को डब्बा कहने की भी आदत है !) की तरफ़ देखने लगा... ऐसे काम करने के बाद सामने वाले का चेहरा देखने में जो मजा आता है वो शायद आप नहीं समझ सकते... वो आश्चर्य मिश्रित हँसी... हँसी मिश्रित उत्सुकता देखने लायक थी, इधर-उधर भी देख रहे थे की किसी और ने सुन तो नहीं लिया... कमाल है ! बोल में रहा हूँ और टेंशन उन्हें हो रही है... इतनी चिंता क्यों मोल लेते हैं लोग? पर इस गुनगुनाने का कमाल देखिये पास ही आके बैठ गए!
बोले: 'ये क्या था?'
मन तो किया की बोलूँ ये तुलसीदास की एक चौपाई है जिसमें कुम्भकर्ण बन्दर-भालुओं की गिनती करता है मजा तो बहुत आता लेकिन पीटने का डर हो तो चुप रह जाने में ही भलाई है !
'देखिये इसे पहाडा कहते हैं, आप जिसे टेबल कहते हैं ना, वही टू वन जा टू वाला, मेरी मुलाकात उससे थोडी देर से हुई उससे पहले से मैं इस दोहे चौपाई वाले को जानता हूँ और अब इस जन्म तो साथ नहीं छूटना इससे !'
वो मुझसे उम्र में बड़े हैं उन्हें लगा की क्यों बच्चे को परेशान करना बोले:
'पढ़ा तो मैंने भी पहाडा ही था लेकिन ऐसे नहीं, ये थोड़ा मस्त है और वैसे भी अब याद कहाँ है... बच्चों को रटाते-रटाते हम भी टेबल वाले हो गए हैं' वैसे ये भूल जाने वाली बात मुझे कुछ जमी नहीं... और इस भूल जाने वाली बात से ही याद आई हमारे दूर के रिश्ते की एक आंटीजी... आज से ३-४ साल पहले वो घर आई तो हिन्दी में बात कर रहीं थी... और उन्होंने कहा कि भोजपुरी तो वो भूल ही गई हैं, बच्चो के साथ रहते रहते अब बोल ही नहीं पाती! मैं उस समय कुछ ज्यादा ही छोटा था खैर उन्हें कुछ बोल तो अभी भी नहीं पाता बड़े रिश्तेदारों के सामने ना बोलने की आदत है अच्छी या बुरी पता नहीं ! बस बोलता ही नहीं :-)

हाँ तो ये बात मेरी समझ में नहीं आती की वो पहली बोली जो बचपन में बोलना सीखा हो, कोई कैसे भूल सकता है? पहाडा तो चलता है... वैसे ये भी थोड़ा कठिन ही लगता है कि पहाडा पढ़ा हो बचपन में और उसकी जगह टेबल ले ले ! भूलना तक तो समझ में आता है पर उसको टेबल से विस्थापित करने वाली बात थोडी मुश्किल लगती है, वैसे पढाते-पढाते सम्भव है...
पर बोली? नई सीख लो चाहे जीतनी... पर पहली बोली भूल जाओ... मेरे गले नहीं उतरती ! कोई ऐसा बोल रहा है तो कोरा झूठ नहीं तो और क्या कहेंगे? क्या आपके साथ ऐसा हो सकता है की आप बचपन से २०-२५ सा तक रोज़ जो बोली बोल रहे हों, उसके लिए बाकी जिंदगी में कभी ऐसा मौका आ जाय कि आपको वो बोलना ही ना आए?

पर ठीक है भोजपुरी वाले हिन्दी और हिन्दी वाले अंग्रेजी बोलने में अपनी बड़प्पन तो मानते ही हैं !

हाँ तो बात थी मस्त पहाडे की... अपनी तो सच्चाई है भाई जितना पढ़ा, जितने प्रोजेक्ट किए दिमाग में जब भी अंक चलते हैं तो भले ऐसे जितना ट्वेंटी-फोर्टी झाड़ता रहूँ अन्दर 'पंद्रह दूनी तीस तियां' ही फिट हो गया है... अब आप बड़ाई मानें या बुराई... पुराना प्रोग्राम है ! पर अब क्या करें, हम तो आए ही दुनिया में ३०-४० साल बाद... साला एक बात नई पीढी से नहीं मिलती :(

हाँ तो ऐसा लगा की अंकलजी को चिडियाघर का कोई प्राणी मिल गया है... बोले की बस एक बार और सुना दो !
अरे हद है ! अब बच्चा तो हूँ नहीं... तब की बात और थी.
वैसे ये काम बचपन में तो खूब किया... तेज होने की यही परिभाषा थी... चलो बेटा बताओ तो 'कितना नवें १०८?' हम तुरत बोलते १२ ... उसके बाद थोड़ा भारी १८-१९ पर.
पर भारी हल्का सब हो जाने के बाद अंत में यहीं आता था... 'अरे पन्द्रह का बड़ा अच्छा सुनाता है ये... आपने सुना है की नहीं?, बेटा एक बार १५ का पहाडा सुना दो' और हम राग भैरवी में तान छेड़ देते... 'पन्द्रह दुनी तीस तियां...'
और फिर 'वाह ! कितना तेज लड़का है !'
यही करके जिंदगी भर तेज कहाना होता तो कितनी आसान होती जिंदगी...

अब फिर से यही आग्रह आ गया तो क्या करता... एक बार फिर सुना दिया:
'पन्द्रह दुनी तीस तियां पैंतालिस चौका साठ पांचे पचहत्तर छक्का नब्बे सात पिचोत्तर आठे बिस्सा नौ पैन्तिसा झमक-झमक्का डेढ़ सौ !' अब सुनाया भी लय में...

अब आया मजेदार सवाल: 'बेटा बाकी सब तो ठीक लेकिन ये झमक-झमक्का क्या है?'
अब क्या बताऊँ इसका जवाब तो मैं भी बहुत दिनों से ढूंढ़ रहा हूँ... इस पहाडे के बाकी संस्करणों में शायद ये शब्द होता भी नहीं है... अब ये दुर्लभ संस्करण लेकर घूम रहा हूँ तो कुछ तो कारण देना ही पड़ेगा... मैंने कहा की ये बस लय बनाने के लिए है, और इसका कोई गणितीय मतलब नहीं है. कुछ ऐसा हुआ होगा की छमक-छमक पायल बज रही होगी किसी की और किसी कवि ह्रदय मास्टर ने छमक-छमक्का जोड़ दिया और फिर बिगड़ के झमक-झमक्का हो गया होगा ! (मैंने उनसे कहा की इसकी व्युत्पति के बारे में ज्यादा जानना हो तो एक हमारे शब्दों के ज्ञानी अग्रज हैं उनसे संपर्क कर लीजिये, अब क्या करूँ इससे ज्यादा सोच पाता तो क्या यही अंक गुनगुनाता?)

प्रसन्न होके चल दिए... 'बहुत अच्छे बेटा!' शायद उन्हें भरोसा हो गया की ऐसा पहाडा पढ़ा हुआ आदमी जोड़-घटाव गुनगुना भी सकता है! अब तो बस डर है की किसी दिन उनके यहाँ चला गया तो... बच्चों के सामने ना गाना पड़ जाय ! और कहीं किसी मीटिंग में ना बोल दें की ओझा बाबू १५ का पहाडा बहुत अच्छा गाते हैं... आप हिन्दी वाले तो फिर भी मेरी मजबूरी पर हंस सकते हैं... किसी फिरंगी के सामने उन्होंने बोल दिया तो उसके तो गले ना उतरनी !



इस बीच दो बड़े लोगों से बात हुई जिन्हें आप सब जानते हैं... न तो उनका परिचय देने की जरुरत है ना उनके विनम्रता की. कई बातों के लिए मैं अक्सर लिखता हूँ की लिख नहीं सकता... या फिर कह नहीं सकता... तो बस उसी तर्ज पे... कह नहीं सकता कितनी खुशी हुई... कितना अच्छा लगा. बस फोन पे बात हुई तो औटोग्राफ नहीं ले पाया... आशीर्वाद ही मिल पाया है, और उस पर तो अपना अधिकार है. माँगने की भी जरुरत नहीं. बिना मांगे ये मिला और ढेर सारा स्नेह... विनम्रता और स्नेह शायद आप समझ गए: समीरजी और लावण्याजी. बस अब तो नंबर मिल गया है... इसी आशीर्वाद, स्नेह और विनम्रता की दुहाई देकर परेशान करता रहूँगा :-)


~Abhishek Ojha~

Aug 13, 2008

कहाँ हो भाई ?

पिछली पोस्ट ऐसे मुहूर्त में शेड्यूल हुई की उस पर आई टिपण्णी भी कई दिनों तक नहीं देखी गई... आज रीडर खोल के देखा तो पता चला कि न्यूज़ और सम्पादकीय फीड को हटा भी दूँ तो भी अपठित लेखों की संख्या ५०० पार कर गई है... समय अभी आगे भी कुछ दिनों तक नहीं मिलने वाला है, घर पर जो मस्त इंटरनेट है उसका उपयोग ना करने का जो दुःख है वो तो मैं ही समझ रहा हूँ और इधर कुछ इस तरह के ईमेल आ रहे हैं:
'कहाँ हो भाई?'
'मर गए क्या?'
'नया नंबर तो दे दो !' (मुझे तो लगता है कि बिना मोबाइल के अब हिन्दुस्तान २ मिनट भी नहीं चल पायेगा ! नंबर नहीं लग रहा मतलब बस एक ही बात हो सकती है कि चेंज कर लिया ! बिना मोबाइल के भी भला कोई रहता है क्या? हद है !)
'ऐसे, कैसे, कहाँ गुम गए हो?, कोई ख़बर ही नहीं है !'

और कुछ मित्रगण ऐसे शुभाषितों का उपयोग करते हैं कि यहाँ लिख ही नहीं सकता. कुछ लोगों को नंबर दे दिया तो फोन करके गाली दे रहे हैं. आप भी कुछ मतलब न निकाल ले इसलिए हमने सोचा कि एक ब्लॉग-विज्ञप्ति दे दी जाय. ब्लॉग विज्ञप्ति में बस इतना ही कि अभी ये अज्ञातवास और अपने ब्लॉग के साथ-साथ आपके ब्लॉग पर अनुपस्थिति जारी रहेगी १०-१२ दिनों तक. उसके बाद ही वापसी सम्भव है...

हाँ अपने ब्लॉग का तो कुछ नहीं कर सकता पर आपके पोस्ट रीडर में पड़े इंतज़ार कर रहे हैं, उनको पढ़ लिया जायेगा, और गणित के ब्लॉग पर छुट्टी चल रही है... आनंद लिया जाय !

तब तक अजित जी के ब्लॉग पर हमारा लंबा बकवास पढ़ सकते हैं ! ये लीजिये एक तस्वीर भी चेपे जा रहे हैं ! आजकल इधर ही डेरा जमा है... बाकी लिखने का समय होता तो आपके ब्लॉग पर टिपियाता नहीं? और हाँ एक बात पता चली की मैं अपने ब्लॉग से भी पहचाना जाता हूँ, साला अपनी तो कोई औकात ही नहीं है, अब लोग इस ब्लॉग के सहारे पहचानते हैं... :(





~Abhishek Ojha~

Aug 1, 2008

इस मोड़ से जाते हैं... !

पुणे में मानसून अपने पूरे खुमार पर है और ऑफिस की उसी खिड़की से जिससे कभी उजडे हुए पहाड़ और ढेर सारे निर्माणाधीन भवन दीखते थे. अब हरे भरे पहाड़ और आपस में लड़ते-भिड़ते अठखेलियाँ करते बदल दीखते हैं... हरियाली ही हरियाली है. निर्माणाधीन भवनों पर नज़र ही नहीं जाती, वो तो अभी भी वहीँ है पर कई बातों की तरह या तो दीखते नहीं या मैं उन्हें देखना नहीं चाहता. सुना है जहाँ ऑफिस है वहां ३-४ सालों पहले कुछ नहीं था. नया विशेष औद्योगिक क्षेत्र (SEZ) बना और मुंबई के पास होने के कारण दिन दुनी रात चौगुनी के हिसाब से इतना विकास हुआ कि सैकड़ों कंपनियाँ खड़ी हो गई. इसका मतलब ये कि जब मैंने सोचना चालु किया होगा कि कहाँ नौकरी करूँगा तब यहाँ भी काम चालु हुआ होगा. कहाँ से कहाँ के तार जोड़ता है भगवान् भी !

सड़क पर अंधाधुंध गाडियां जा रही है सुना है शहर में डीजल की कमी है... डीजल और पेट्रोल बंद ही हो जाय तो क्या-क्या रुक जायेगा? बहुत बड़ा डरावना जवाब है छोडो कभी और सोचेंगे !

अच्छा इस पहाड़ काट कर बनाई गई सड़क की जगह पर पहले क्या रहा होगा?

शायद यहाँ से एक पगडण्डी जाती होगी... और इधर कोई नहीं आता होगा. कोई क्यों नहीं आता होगा? ३-४ किलोमीटर तक तो चरवाहे आ ही जाते होंगे... गाय, बकरी, भेड़. इस क्षेत्र में जंगल तो घनघोर होने वाला मौसम नहीं लगता पर इस हाल में भी जंगली जानवर तो खूब होते ही होंगे... खरगोश, तीतर, बटेर... ! कौन कहता है की कोई नहीं आता था... पूरा भरा पूरा समाज दिख रहा है यहाँ तो. हिरन होते होंगे और चरवाहों के जानवर भटकते होंगे तो ढूंढने भी निकल पड़ते होंगे... गाना गाते हुए. सुना है गाना गाने से डर नहीं लगता !

शिवाजी जब सिंहगढ़ फतह कर के शिवनेरी के किले की तरफ़ जा रहे होंगे तो इधर से ही गए हों, सम्भव है ! अब घोड़ा सड़क से तो चलाते नहीं होंगे, वैसे भी छापामार युद्ध करना है तो जंगल से तो ही ज्यादा जाते होंगे? उनके साथ तानाजी, शम्भाजी... खूब सारे सिपाही. कभी यहीं इस बिल्डिंग के नीचे डेरा भी डाल लेते होंगे... शिविर, आग, सिपाही, हथियार... जानवर गाली देते होंगे... साले आदमी परेशान करने आ गए !

सुना है अगस्त ऋषि का आश्रम हरिहरेश्वर में था... तो जब विन्ध्य पार कर दक्षिण आए तो नक्शा लेकर तो चले नहीं थे... भटकते-भटकते सम्भव है इधर से ही निकल लिये हों... बरसात का मौसम हो तो थोडी देर ध्यान लगाया, फिर आगे चल पड़े. ऋषि ठहरे कुछ भी पेड़ों से मिला खा लिया और चल पड़े. सम्भव है यहाँ एक विशाल छायादार वृक्ष रहा हो, और यहाँ थोडी देर उन्होंने विश्राम भी किया हो !

भगवान राम तो खूब भटके और उन बेचारे के पास भी नक्शा नहीं था न लंका का पता, उन्हें तो ये भी नहीं पता था की कहाँ जाना है? वो तो न जाने कहाँ-कहाँ भटके. जंगल-जंगल. सम्भव है यहाँ भी एक पड़ाव... एक पर्ण कुटीर. साधु वेश में स्वयम भगवान. दोनों भाई की मनोरम छटा, वनवासी तृप्त हुए होंगे? सम्भव है इस भवन की जगह पर ही !

पांडवों ने कुछ नहीं छोड़ा... वो तो पक्का ही इधर से गुजरे होंगे... गोवा के पास सुना है कोई पांडवों के नाम पर मन्दिर है. इधर से ही तो गए होंगे? और भगवान श्रीकृष्ण भी तो मुआयना करने आए होंगे की पांडव कैसे हैं? उनकी चरण धूलि भी सम्भव है यहाँ पड़ी हो... और वो मशीन अंधाधुंध खुदाई किए जा रही है? ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !

नानकदेव भी सुना है खूब भ्रमण करते थे... कबीर तो होंगे ही घुमंतू... कौन-कौन गुज़रा है यहाँ से? कौन बता सकता है?

पर यहाँ छिट-पुट जंगल था ४-५ साल पहले तक ये तो सब जानते हैं. जंगल में कुछ वनवासी होंगे... अभी सड़क के किनारे फूल लगाने की कोशिश हो रही है तब तो नाना प्रकार के फूल यूँ ही खिलते होंगे... मस्त खुशबू लिए हवा चलती होगी. और एक दिन सड़क बनाने का काम चालु हुआ होगा और एक ट्रक आया होगा... ट्रक का धुंआ... वनवासियों को बहुत अच्छा लगा होगा. लगा होगा की वाह क्या अलौकिक खुशबु है! क्यों ऐसा क्यों? वो तो अच्छी गंध नहीं होती ! अरे क्यों नहीं होती? रोज जला पेट्रोल/डीजल सूंघते हो तब तो एक सेकेण्ड के लिए ही फूलों की बात सोच के ही आनंद आ गया था. वैसे ही उनके लिए ट्रक नया रहा होगा और ट्रक के पीछे दौड़-दौड़ के सूंघते होंगे... धुंआ... मस्त खुशबु... दैविक गंध.

और फिर बन गया ये सब... लोग आते गए... वाह क्या दृश्य है... बहुत अच्छी जगह है ऑफिस के लिए. ३-४ साल बाद जब अभी की तुलना में ३ गुना हो जायेगा तो भी दृश्य दिखेगा... तब भी एक जंगल होगा... लेकिन दृश्य कुछ और होगा... और जंगल होगा कंक्रीट का ! तब भी लोग जायेंगे इस मोड़ से... पर तब कोई शिवाजी, अगस्त ऋषि, श्रीराम, पांडव, श्रीकृष्ण ... या उन चरवाहों की तरह भटकते हुए नहीं जायेगा. तब उन्हें गाली देने के लिए कोई जानवर नहीं होगा, तब डरने से बचने के लिए गाना नहीं गाना पड़ेगा ! तब लाल हरे सिग्नल होंगे, रास्ते के इधर उधर बौने पेड़ होंगे जो अगर बढ़ना चाहे तो काट दिए जायेंगे. होटल में रुकना होगा... जमीन तले ढेर सारे केबल होंगे... ... जगमग करती बिजली होगी... बहुत कुछ होगा. तब जो भी बड़ा आदमी आएगा उसके नाम पर किसी परिसर में एक पेड़ लगाया जायेगा और पेड़ के ऊपर एक चिप्पी, लगाने वाले का नाम ! ...और आने वाली पीढी के दिमाग में शायद ये हलचल नहीं होगी की यहाँ एक बड़ा पेड़ रहा होगा और उसके तले किसी ऋषि ने विश्राम किया होगा... क्योंकि तब उसे किसी के नाम की चिप्पी वाला पेड़ दिखाई देगा !

~Abhishek Ojha~


- ये पूरी हलचल दिमाग में खिड़की से बाहर देखते समय हुई... पहले तो सोचा की ये भी कुछ पोस्ट करने की बात है... पर हलचल से ध्यान आया की मानसिक हलचल को तो ब्लॉग पर ठेलना होता है तो बस ठेल दिया !
- ये पोस्ट शेड्यूल कर दी है जब पब्लिश होगा मैं यात्रा कर रहा होऊंगा. यात्रा पूरी होने पर इस बकवास पर आने वाली आपकी प्रतिक्रिया का बेसब्री से इंतजार रहेगा.
- इस बीच प्रशांत प्रियदर्शी (पीडी) से फ़ोन पर बात हुई, मैंने उनके बारे में एक बात भी गेस कर ली :-) उनसे बात कर के बहुत अच्छा लगा... कमाल है ब्लॉगजगत भी. लगा ही नहीं जैसे पहली बार बात हो रही है... वही रांची-पटना टोन जो मेरा भी है... मेरे ख़ुद के टोन का तो पता नहीं पर उनका थोड़ा बदला सा लग रहा था... लगता है चेन्नई का असर है :-). पर फिर भी टोन तो पकड़ में आ ही गई. !