वो:
जगह: लोनावाला
शनिवार का दिन, मूसलाधार बारिश... जिधर देखो जल ही जल... जिधर नज़र उठा लो एक जलप्रपात ... पहाडों पर हरियाली भी अच्छी खासी लौट आई है,
शायद मानसून सीज़न का पहला सप्ताहांत है अच्छी खासी भीड़... मुम्बई-पुणे से खूब लोग आए हैं...,
अधिकतर कॉलेज में पढने वाले और सोफ्टवेयर में काम करने वाले हैं... हमारी मित्र मंडली भीड़ की रेटिंग करे तो ७/१०,
और फिर वो दिख गई... भीगी हुई... कुछ तो ख़ास है उसमें तभी तो भीड़ में अलग दिख रही है... खिलखिलाती हुई, खासकर लड़को को देखकर पता नहीं क्या फुसफुसा देती है... हर दो मिनट पर जुल्फों को ठीक करती हुई और अपने कपडों को नीचे खीचती हुई...
मित्र मंडली से एक की आवाज़ आई... 'जब इतना नीचे करना पड़ता है तो इतना छोटा लेती ही क्यों है !'
सवाल जायज था... फ़िर भी मैंने कहा: 'अरे यार ये कपड़े यूरोपियन माप दंड के होते हैं...'
'तुझे तो बहुत पता है... '
'अरे नहीं यार मुझे क्या पता है कल एक इंटरव्यू ले रहा था उसमे पता लगा[१]... IIT दिल्ली में एक प्रोजेक्ट चल रहा है... जिसमें भारतीय कपडों के लिए सही मापदंड निर्धारित करने का काम चल रहा है... अभी भी हमारे देश में रेडिमेड कपडों का मानदंड यूरोपियन ही होता है... और यूरोपियन मापदंड से कपड़े बनाने पर बहुत ज्यादा मात्रा में कपडों की बर्बादी होती है ... तुमने अक्सर देखा होगा अपनी जींस बड़ी निकल जाती है... ये बात अलग है की यहाँ मामला उल्टा है... in fact all this can be a very good optimization project...[२] वैसे छोड़ ये सब... लेकिन साले इसमें बुराई क्या है तेरी मानसिकता ही ख़राब है'
'हद है यार मेरी मानसिकता को क्या हो गया? मैं ये थोड़े ना कह रहा हूँ की ड्रेस ख़राब है ये तो कुछ ज्यादा ही अच्छा है... पर मैं ये कह रहा हूँ की या तो ऐसा पहनो और निश्चिंत हो जाओ, जैसा की यूरोप में करती हैं... या फिर एक इंच बड़ा ही पहन लेने में क्या बुराई है... ' ये भी सही. खैर मैं ये कहाँ अपनी बातचीत सुनने लगा...(वैसे शीर्षक से ही आप समझ गए होंगे कि मुझे उसके बारे में ज्यादा याद नहीं, कम से कम उसका चेहरा तो याद नहीं) मोहतरमा सबको अच्छी लग रही थी... भीड़ में अलग तो मैं कह ही चुका हूँ ... अगर मित्र मंडली एक शब्द बोलती है ऐसों के लिए तो वो होता है: 'टू होट' !
और अगले दिन तुम दिख गई !
तुम:
जगह: आइनोक्स मल्टीप्लेक्स, पुणे
शो स्टार्ट होने वाला है अभी करीब आधे घंटे बाकी है, पुणे है तो कॉलेज के लड़कियों का कमी नहीं, अक्सर हमारी मित्र मंडली के लोग फिल्में देखने इस कारण से भी जाते हैं, अगर भीड़ की रेटिंग करें तो ८+ होगी... बिना किसी विवाद के !
पहना तो तुमने भी जींस ही है पर बाकी जो कुछ पहना है उसमें कुछ एडजस्ट करने की जरुरत नहीं और उससे क्या तुलना करूं तुम्हारी उसने तो बस कुछ पहनने के लिए पहन रखा था. तुम इधर-उधर देखने में इतना डरी हुई क्यों लग रही हो... ये अदा तो शायद पहले किसी में देखी ही नहीं... लग रहा है जैसे एक हिरनी हिंसक जानवरों के बीच में खड़ी हो... कुछ उछल-कुद नहीं... तुम्हारा भीड़ में अलग दिखने का कारण तुम्हारा कपड़ा नहीं, कोई कृत्रिम अदा नहीं, (तुम्हे कृत्रिमता की जरुरत ही क्या है!) वरन तुम्हारी मासूमियत है... तुम्हारी खूबसूरती ! तुम्हारा चेहरा, झुकती हुई निश्चल बड़ी-बड़ी आंखें क्यों नहीं भूल पाता. क्यों उस १५ मिनट के दौरान की तुम्हारी एक-एक बात याद है.... तुम्हारे कानों में लटके हुए वो पता नहीं... उसे झुमका कहते हैं या कुछ और... रिंग तो नहीं हैं... फिर झुमका ही कहेंगे! अगर मैं चित्रकार होता तो शायद तुम्हारा एक जीवंत चित्र बना सकता. मैं कवि नहीं... अच्छा लेख तक तो लिख नहीं सकता... तुम्हारी खूबसूरती का बयान क्या करूँगा... पर जिसे तुम्हारी खूबसूरती जाननी हो ... तुम्हारा जिक्र करके मेरे चेहरे पे आने वाले भाव को देख ले ! जिसे 'होट' कहते हैं उससे कई गुना 'होट' होते हुए भी क्यों तुम्हे मेरी मित्र मंडली 'होट' कभी नहीं कह सकती... चाहे कोई भी हो तुम्हारे लिए तो एक ही शब्द प्रयोग करने लायक है... खूबसूरत !
फिलहाल मेरी नज़रें तो इतनी तेज नहीं या फिर तुम्हारे अलावा मैं कुछ देख ही नहीं रहा... मेरे मित्र ने बता दिया 'बाप के साथ आई है ! उसे देखो जो बगल में हैं।'
पता नहीं भगवान् ने मुझे ऐसी नज़रें क्यों नहीं दी, मेरे मित्र तो ऐसे-ऐसे है की देखते ही बता दें की 'एंगेजड है या नहीं', 'इसका ब्वायफ्रेंड होगा या नहीं', 'साथ में जो है वो भाई है या ब्वायफ्रेंड', 'माँ, बाप... पूरी कुंडली निकाल के रख देते हैं'... और मुझे तो 'शादी-शुदा है या नहीं' ये भी पहचानने में दिक्कत हो जाती है।
खैर तुम्हारी मासूमियत का कारण बहुत हद तक ये भी हो सकता है की तुम बाप के साथ थी.... पर पता नहीं मन ये कारण मानने को तैयार नहीं है ! जो भी हो अगर इतनी अच्छी लग रही हो तो ऐसे ही क्यों नहीं रह सकते...
शायद तुम्हारा जवाब होगा: 'तुम्हे अच्छा लग जाने से क्या होता है'!,
वैसे भी सबको तो यही लगता है कि मैं दुनिया में २५-३० साल देर से आया हूँ, बनाया तो गया था पहले ही आने के लिए... मेरे मित्र भी तो यही कहते हैं कि मेरे विचार पिछली पीढ़ी वाले हैं। जो भी हो मैं तो तुम्हे तुम्हारे ही रूप में याद रखना चाहता हूँ कभी उसके रूप में मत दिख जाना... जो अमिट छाप दिमाग पर पड़ी है उसे मत मिटा देना !
[१] एक इंटरव्यू में उम्मीदवार से उसके प्रोजेक्ट पर पूछ लिया था, उसी से इस प्रोजेक्ट के बारे में पता चला...
[२]जिस के दिमाग में लड़की के कपड़े देख कर optimization आता हो... इस 'ये तो हद ही हो गई' वाली बात का ख्याल अभी-अभी आया है (क्या आप इससे अधिक नीरस आदमी से मिल सकते हैं? शायद इस जन्म नहीं) लानत है मुझ जैसे आदमी पर !
* लोनावाला में अभी बहुत अच्छा मौसम है... तस्वीरें अभी एक मित्र के कैमरे में है... मिलते ही पोस्ट करता हूँ... भारी बारिश होने के कारण कई अच्छी जगहों के चित्र नहीं ले पाया :(
डिस्क्लैमेर: ये पोस्ट ऐसे ही बिना सोचे-समझे लिखी गई है पर सच्ची घटना है, कुछ सोचा नहीं बस टाइप करता गया.... किसी को कोई आपत्ति हो तो क्षमा चाहता हूँ वैसे भी आप समझ ही गए होंगे की इन चीजों की मुझे कितनी समझ है :-)
~Abhishek Ojha~
अरे optimization पर ही लगे रहोगे तो कभी optimize नहीं कर पाओगे बंधु और इसकी तरह हर चिड़िया फुर्र होती रहेगी। शुरू हो जाओ। टिप्स की ज़रूरत हो तो इधर आवाज़ लगा देना। खैर मज़ाक दरकिनार… बात जो भी हो है मज़ेदार… मेरा अनुभव कहता है कि जो ग़ैर-अनुभवी लोग होते हैं वे सबको पीछे छोड़कर काफ़ी आगे निकल जाते हैं ऐसे मामलों मे…
ReplyDeleteएक बानगी कुछ इस तरह…
"जिन्होने सेक्स को घिनौना समझा अकसर
उन्होने ही तो जन्मीं सबसे सुंदर लड़कियाँ…"
बिना सोचे समझे लिखने में भी प्रवाह तो बना ही लेते हो फिर क्या जरुरत है. और लोग आते ही होंगे सलाह देने. शुभकामनाऐं.
ReplyDeleteक्षमा बड़न को चाहिए छोटन को अपराध :)
ReplyDeleteआप अच्छा लिखते है लिखते रहिए।
ऑप्टिमाइजेशन तो बहुत क्षेत्रों में चाहिये - केवल लड़की के कपड़ों के डायमेंशन में नहीं।
ReplyDeleteवैसे उम्रका तकाजा है - एक उम्र तक ही यह कपड़ों के ड़ायमेंशन की ऑप्टिमाइजेशन करने की कवायद के जाती है। उसके बाद जिन्दगी में और क्षेत्र उग आते हैं - मसलन अपनी सेलरी में घर का खर्च चलाने को ऑप्टिमाइज करना! :-)
सोच समझ कर लिखते तो शायद इतनी इमानदारी से न लिखते ...जो आपने महसूस किया वो लिख दिया ..यही इमानदारी है...सबकी सोच जुदा होती है......लेख बोझिल नही था....यही खासियत थी ..खास तौर से "तुम "वाला स्टाइल मुझे बहुत अच्छा लगा..
ReplyDeleteआँखें नम हो आई.....
ReplyDeleteबिना सोचे समझे लिखना ही ईमानदारी लेखन और दिल की बात कहलाता है ..तस्वीरों का इन्तजार रहेगा
ReplyDeleteबड़ी साफगोई से आपने किसी को देख कर मन में आए सुंदर अहसास और दूसरी तरफ उत्तेजना का फर्क समझा दिया...
ReplyDeleteइतने गहन विचारों से गुजर रहे थे और 'रेफेरेंस नंबर्स ' का भी ख्याल कर लेते हैं। प्रेम भी लगता है आप 'ओब्जेक्टिवेली' कर गुजरोगे ।
ReplyDeleteअच्छा लिखते है लिखते रहिए.शुभकामनाऐं,,,
ReplyDeleteAbhishek, yehan pehali baar aana hua, guru kya baat likhi hai - "लड़की के कपड़े देख कर optimization आता हो... "
ReplyDeleteCollege me jab ye vishay ke baare me para tha, tab socha bhi nahi tha kiaisa bhi optimization aa sakta hai ;)
आप की पिछली नींद न आने वाली पोस्ट पर कमेंट किया और जैसे ही पब्लिश की बारी आई उफ्फ कैन नाट.....
ReplyDeleteसब रह गया पर बता दूँ फिर से कि मुझे तो टी वी देखनी पड़ती है नीद के लिए साथ ही किताब हाथ में हो तो घड़ी कहती है जाओं सो जाओ सुबह बच्चें स्कूल जाएगें कि नही । यह पोस्ट भी बेबाक बयानी , सुन्दर भी......
bina soche likhne mein jo eemandaari aati hai, wo soch samajh kar likhne mein kahaan.....achcha laga aapka ye andaaze bayaan.
ReplyDeletedat was very intresting!!
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