कल मेरे एक मित्र ने कहा की आजकल नींद नहीं आती. मुझे लगा की ये तो सही में समस्या है... और भारतीय होने के नाते अब मेरा कर्तव्य बनता है की मैं कुछ सलाह दूँ. मेरे कर्तव्य की मदद के लिए मुझे अपने स्कूल की एक घटना याद आ गई.कभी-कभी ऐसी यादें बिल्कुल सही समय पर आकर अपना काम कर जाती हैं.
एक बार मेरी हिन्दी की एक शिक्षिका ने पूछा: 'कुछ ऐसा काम बताओ जिसे करने में तुम्हे बहुत अच्छा लगता हो. बात कुछ हटके होनी चाहिए... घिसा-पिटा उत्तर सुन-सुन के मैं थक गई हूँ.' पूरी क्लास घूमते-घूमते मेरा नंबर तो आना ही था... मैंने भी सोचा की इमानदारी से उत्तर दूंगा... और उत्तर हटके तो होना ही चाहिए...
मैंने कहा: 'मैडम... मुझे पढ़ते हुए सोना बहुत अच्छा लगता है... !'
'पढ़ते हुए सोना?' पूरी क्लास हंसने लगी !
मैं कब हारने वाला था... मैंने भी वर्णन करना शुरू किया... 'मैडम देखिये जब तक पढ़ रहे हो... पढ़ाई में मन लग रहा हो तो ठीक नहीं तो बोर होइए. और नींद आने के बाद तो सो जाओ... क्या फर्क पड़ता है. पर ये जो बीच का समय होता है... झपकी लेने वाला... न आप पढ़ रहे हो ना सो रहे हो. वो परमानन्द का समय होता है.'
थोडी चर्चा के बाद अंततः मैडम ने भी माना की परमानन्द तो थोड़ा ज्यादा हो गया पर बच्चे की बात में दम है. पर साथ में मैडम ये भी कह गई... 'बेटा संसार में पढने और सोने के अलावा भी चीज़ें हैं.. कभी इनसे बाहर निकल के देखो दुनिया कितनी रंगीन है!'
मैडम की बात भी ग़लत नहीं थी... जिसको पढ़ाई से जुड़ी किसी भी चीज़ में आनंद आने लगे वो तो वैसे ही नीरस हो गया जैसे आमोल पालेकर गोलमाल में कहते हैं ... 'जिसका नाम भवानी शंकर हो तो वो आदमी तो पैदा होते ही बुड्ढा हो गया' :-). खैर अब मैं मैडम को क्या बताऊं की दुनिया मुझे कितनी रंगीन दिखती है... लेकिन वो रंगीनी जिसकी तरफ़ मैडम का इशारा था वो भी सपने तक ही सीमित रही और सपनों का सम्बन्ध फिर सोने से. खैर मैं ये कहाँ फँस गया सोने-पढने-सपने के झमेले में... असली मज़ा तो इनके संगम में है. हाथ में किताब... नरम बिस्तर और झपकी का जो मज़ा है.. उसकी बात ही कुछ और है.
फिलहाल मेरे मित्र को नींद नहीं आने के बारे में मैंने कुछ यूं जवाब दिया...
उन्होंने कहा: 'कमबख्त नींद है कि आजकल आती ही नहीं है'
मैंने कहा: 'पढ़ते हो नहीं और कहते हो कि नींद नहीं आती है... एक बार किताब उठा के तो देखो फिर पता चले नींद क्या चीज़ है'
उन्हें पहली बार में कुछ समझ नहीं आया... समझाना पड़ा, इसलिए मैंने इतना बखेड़ा लिखा इस लाइन लिखने के पहले, ताकि आपको समझने में दिक्कत ना हो !
वैसे आपने कभी परमानन्द का अनुभव किया है या नहीं?
~Abhishek Ojha~
रोज रात में इसीलिये किताब पढ़ते पढ़ते परमानन्द प्राप्त करते हुये सो जाते हैं. बहुत सही ज्ञान दिया. अब तो किताब का तकिया भी लगा लेंगे. :)
ReplyDeleteअच्छा लिखा है, मस्त.
अरे वाह! जब स्टूडेण्ट थे तो चेपमैन की वर्कशाप टेक्नॉलाजी पर एक किताब टेक्स्टबुक थी। और शर्तिया था कि उसे १० मिनट पढ़ते ही नींद आ जाती थी!
ReplyDeleteसही ज्ञान :) हम तो आज भी इसको अजमाते हैं सोने के लिए ..हमारी नींद को इस आदत का पता है सो मजे से आती है
ReplyDeleteaapne sahi likha hai..
ReplyDeletemain bhi jab Software Engineering ki book uthaata tha to aisa hi kuchh hota tha..
:)
सौ फीसदी सहमत हूँ आपसे ...एक बार हमारे यहाँ भी एक मैडम लेक्चर ले रही थी बोली डिप्रेसन मे लोग ज्यादा खाते है ...मैं बोला पर मैडम मेरी तो भूख मर जाती है.....साडी क्लास हंस पड़ी......फ़िर मैडम ने प्यार से समझाया .......कल रात ही हम" कथादेश" का ताजा अंक पड़ते पड़ते सोये थे.......
ReplyDeleteहमने तो पढ़ना शुरू ही इसलिये किया था कि नींद आ सके। आजकल काफ़ूर हो गयी है। सोचता हूँ किसी entrance exam की तैयारी कर ली जाये। आपने स्कूल-कालेज के दिनों की याद दिला दी।
ReplyDeleteलो करलो बात.
ReplyDeleteअपन तो चेम्पियन हैं पढ़ते हुए सोने के.
सुबह, दिन, दोपहर, रात, घर ऑफिस, घर कभी भी, कंही भी हम तैयार हैं.
पढ़ते हुए सोना अरे हमे तो किताब हाथ मे लेते ही नींद आ जाती है पहले कोर्स की और अब जहाँ मैगजीन पढ़नी शुरू करते है कि बस सो जाते है ।
ReplyDeleteआपकी इस ब्लॉग को पढते हुए नींद आ जाए, यह तो हो ही नही सकता, भले ही आप इसकी पोथी बनवा के ऊपर 'नींद न आने की अनोखी दवा' छपवा दो। बढिया लिखा है !
ReplyDeleteसही लिखा अभिषेक भाई :)
ReplyDeleteअगर कीताब, खुली हो ,
तब आगे पढने की इच्छा भी जाहीर है,
नीँद तो बस्, एक पडाव है ..
- लावण्या
ओझा जी, विस्तृत टिपण्णी के लिए आभार । विशेष रूप से 'विद्या माया' के चिट्टों में आपकी रूचि और ज्ञान देखकर विशेष प्रेरणा मिली। 'अविद्या' का बाज़ार तो यूं भी इस युग में गर्म है :)
ReplyDeletebahut baar bhaiya.. :-)
ReplyDeleteसही कहा आपने। अपना भी यही हाल है। किताब उठाया नहीं कि निंदिया रानी सिर पर सवार हो जाती हैं।
ReplyDeleteसही कहा एकदम...नींद की दवा लेने के लिए तो डॉक्टर का पर्चा ज़रूरी होता है..तब कहीं जाकर केमिस्ट २ गोली देता है! किताबें चाहे जितनी खरीदो...बोर करने वाली हों तो सोने पे सुहागा..सीधे इंजेक्शन का काम करती हैं!धन्यवाद उन लेखकों को जिन्होंने ऐसी ऐसी बोर किताबें लिखी हैं....
ReplyDeleteटिप्पणी देने के लिए टाइप कर रहा हू और परमानंद की प्राप्ति हो रही है.. यदि झपकी आ जाए और टिप्पणी अधूरी रह जाए तो माफ़ कीजिएगा अभिषेक भाई..
ReplyDeleteबंधु! मैनें आपके ब्लॉग का लिंक अपने ब्लॉग में जोड़ा है। यदि आपको आपत्ति हो तो क्रपया मुझे सूचित कर दें।
ReplyDeleteभाई नींद आती तो है पर समय रहते उसका स्वागत ना करने से भाग भी जाती है। वैसे आपका ये लेख आनंददायक रहा।
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