दशानन रावण अपने पड़ाव के विश्रामकक्ष से गिरिराज हिमालय की शवेत चोटियों की रमणीय छटा निहार रहे थे। संध्या विदा ले रही थी और शिवेन्दु उन पवित्र शुभ्र चोटियों के उपर दैदिप्यमान हो चुके थे। लंकेश के प्रकोष्ठ से दृष्टिगोचर उस सरोवर में शिवेन्दु समेत सम्पूर्ण तारामंडल, पर्वत, वृक्ष, पुष्प, लता, विटप... अपने निष्कलंक प्रतिबिम्ब को हर्षित हो देख रहे थे। कमलो से विलासित उस सरोवर में कुमुद खुल गये थे ओर भ्रमर कमल के प्रेमपाश मे पूरी रात्रि के लिये बँध चुके थे। देवदार वृक्षों को पार कर चँहुओर से आनेवाले मंद-सुगंधित-शीतल-समीर के सानिध्य से दशानन अत्यंत पुलकित हो रहे थे।
वह महातेजस्वी ब्राह्मण, वेदज्ञ, प्रतापी, पराक्रमी, रुपवान तथा विद्वान था। नवग्रह उसकी पराधिनता स्वीकार कर चुके थे। बालि के किष्किन्धा और कैलास के अतिरिक्त, कोई राजा तो क्या इन्द्रलोक भी रावण-राज्य के अन्तर्गत आ गया था।
महर्षि वाल्मिकी के शब्दो मे्-
अहो रूपमहो धैर्यमहोत्सवमहो द्युति:। अहो राक्षसराजस्य सर्वलक्षणयुक्तता॥
और फिर जैसा कि तुलसीदास ने कहा है- प्रभुता पाई काहि मद नाहीं। फलतः वह कई अवगुणों से भी परिपूर्ण था। यथा- यज्ञों का विलोप, देव-असुर-मनुष्य कन्याओं का हरण, धर्म का नाश इत्यादि।
उस सुरम्य प्राकृतिक पड़ाव में भी सदा की तरह सहस्त्रों हरण की हुई कन्यायें थी। जो रात्रि के प्रथम प्रहर के लिये श्रृंगार कर रही थी।
अचानक आत्मविभोर दशानन का ध्यान भंग हुआ। वो अपूर्व सौंदर्य... जिसे ब्रह्मा ने स्वयं गढ़ा होगा। क्या ब्रह्मा का मन पुनः एक बार विचलित नहीं हो गया होगा?* वो रूप-सौंदर्य जो उसके अतिरिक्त मात्र तीन युवतियों को प्राप्त था।**
'देवी आप कौन हैं? आपको पहले कभी नहीं देखा? लंकापति रावण के सम्राज्य में आपका स्वागत है!' लंकापति ने ये काँपती आवाज में कहा था।
'मेरा नाम रम्भा है। मैं एक अप्सरा हूँ। मेरा विवाह कुबेरपुत्र, नलकुबेर से निर्धारित हो चुका है।'
दशानन ने वह गौरवर्ण काया देखा। उस आकर्षण का वर्णन तो रसेश्वर कालिदास को भी कठिन प्रतित होता। वह अतुलनीय वक्ष-कटि-नितंब अनुपात कदापि ब्रह्मा ने सौंदर्य का अधिकतम मापदंड निर्धारित करने के लिये बनाया हो। ब्रह्मा की वह अंग-रचना सौंदर्य तथा आकर्षण का पंजीभूत प्रकटीकरण थी। वैदिक ऋचाओं के ज्ञाता रावण को वह तरुओं के पुष्पित यौवन के समान मादक काया विकल कर रही थी। ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे युवती के रुप में स्वयं कामदेव, अपने सहचर वसंत तथा पत्नी रति के साथ वहाँ उपस्थित हो सारे वातावरण को सकाम कर रहे हों। उस अद्वितीय सुन्दरता को दिव्य आभूषण, पुष्पालंकरण और प्रकृति नई दिप्ति प्रदान कर सौंदर्य में वृद्धि कर रहे थे। ऐसे वातावरण में कालिदास जैसे कवि अभिज्ञानशाकुंतलम् लिख डालते हैं और वात्स्यायन जैसे कामसुत्र ! जीवधारी क्या, निर्जीवों में भी कामभावना जागृत हो जाय।
लंकेश का मन उत्छ्रिङ्खल क्रीड़ा करने लगा। 'देखि लीजो आंखें ये खुली ही रह जायगी।'
मन में उठती हुई तरंगों को रोकते हुए लंकेश ने कहा-'हे रम्भा! तुम इन्द्रलोक की अप्सरा हो, और मेरे पुत्र ने इन्द्रलोक पर विजय पायी है। अब तुम हमारे अधीन हो। तुम हमारी आज्ञा के बिना नहीं जा सकती।'
'हे दशानन! मैं नलकुबेर को अपना पति मान चुकी हूँ और इसप्रकार आपकी पुत्रवधू हुई' सुन्दरी ने सहमते हुए कहा।
'अप्सरायें किसी की पत्नी, वधू या पुत्रवधू नहीं होती। अप्सरायें राजसभा की नर्तकियाँ होती हैं और आज तुम हमारी नृत्यशाला की शोभा बनोगी' रावण ने आदेश की मुद्रा में कहा।
'हे लंकेश! ये अनर्थ ना करें। नलकुबेर मेरी प्रतीक्ष में होंगे। मैने रात्रि के प्रथम प्रहर के बाद उन्हें मिलने का वचन दे रक्खा है।'
'रे मुर्ख अप्सरा! तु लंकापति रावण का अपमान कर रही है।' रावण का मन उस भ्रमर की भाँति हो उठा जिसने नया खिला हुआ परागयुक्त पुष्प देख लिया हो। महाबली रावण ने उस सौंदर्य को अपने बाहुपाश में जकड़ना चाहा। बिलखती हुई उस युवती ने अत्यंत संघर्ष के बाद उस महाबली के बाहुपाश मे आत्मसमर्पण कर दिया।
हाय रे! अबला...। हिमालय-मेना के आँगन में ये अत्याचार! हे शिव! तुमने इस कामदेव को अनंग रुप में क्यों जीवित किया? आज फिर मर्यादा भूल ही गया।
प्रकृति ने जैसे उस मसले हुए पुष्प के साथ रुदन प्रारंभ कर दिया हो। वह रावण जिसके रुदन से ब्रह्मांड आंदोलित हो गया था, इस करुण रुदन का उस पर क्या असर होता! उन्मत्त हो वह अपने विश्रामकक्ष मे वापस चला गया।
उजड़ी हूई वाटिका की तरह रम्भा एक प्रहर देर से नलकुबेर के पास पहुँची। उसके श्रृंगार के केतकी के पुष्प कुम्हला गये थे। उसने रोते हुए सारा वृतांत कह सुनाया...। नलकुबेर गुस्से से जलने लगे। अपने तातश्री के किये पर वह लज्जा और क्षोभ से भर गये। उन्होंने अपनी दोनो भुजायें उपर की और कहा -'हे महापापी रावण! मैं तुझे शाप देता हूँ... अगर तुने पुनः कभी किसी औरत के साथ बलात् करने की कोशिश कि तो तेरे सिर फट जायेंगे।'***
रावण के विश्राम कक्ष में हाहाकार मच गया। नृत्यशाला की हर नर्तकी और हरण की हूई हर एक युवती अब अपनी इच्छा से रावण का विरोध कर सकती थी।
धन्य हो नलकुबेर !
सत्य ही है- 'काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ।'
और श्रीमद्भगवद्गीता की ये पंक्तियाँ :
ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते । सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥२- ६२॥
क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः । स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥२- ६३॥
विषयों का चिन्तन करनेवाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति पैदा हो जाती है, आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है, कामना से क्रोध पैदा होता है। क्रोध से अत्यंत मूढ़भाव (सम्मोह) उत्पन्न हो जाता है, सम्मोह से स्मृति भ्रष्ट हो जाती है, स्मृति भ्रष्ट होने पर बुद्घि का नाश हो जाता है, बुद्घि का नाश होने पर मनुष्य का नाश हो जाता है।
त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः । कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत् ॥१६- २१॥
काम, क्रोध तथा लोभ - ये तीन प्रकार के नरक के द्वार आत्मा का नाश करने वाले अर्थात् उसको अधोगति में ले जाने वाले हैं। अतएव इन तीनोंको त्याग देना चाहिये।
*ब्रह्मा का मन संध्या को बनाने के बाद, उसकी सुंदरता देखकर विचलित हो गया था।
**उर्वशी, मेनका, रम्भा तथा तिलोत्तमा ये चार इन्द्रलोक की सर्वश्रेष्ठ अप्सरायें थी।
***ऐसा माना जाता है कि इस शाप की वजह से ही रावण ने सीताजी के साथ कभी बलपूर्वक व्यवहार नहीं किया।
~Abhishek Ojha~
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ReplyDeleteकथा वाल्मीकि रामायण से ली गयी है परन्तु नवीन प्रस्तुतिकरण अतुलनीय है| स्त्री रूप की विवेचना और पुरुष के उस पर मोहित हो कर उचित अनुचित की चिन्ता किये बिना कार्य करने कि जो व्याख्या लेखक ने की है वह देखने योग्य है| लेख का प्रारम्भ जितना लुभाता है अन्त उस प्रकार से नहीँ किया गया| कभी कभी लगता है जैसे लेखक अपने पथ से भटक गये| रावण की कामभावना और नलकुबेर के क्रोघ का प्रतिफल यह हुआ कि अगली बार रावण किसी और स्त्री के साथ बलपूर्वक कुछ नहीँ कर पायेगा| परन्तु क्या गीता का यह श्लोक मात्र यही उपदेश देता है| रम्भा के इस शोक से सीता सहित अन्य कई स्त्रियों का स्तीत्व बच सका परन्तु रावण को जो फल मिला वह कदापि रम्भा के शोक के बराबर नहीं है|
ReplyDeleteलेखक की लेखन शैली वास्तव मे प्रशंसा के योग्य है| शब्दों का चयन और वाक्य संरचना भूरि भूरि प्रशंसा के योग्य है| इतने सुंदर लेखन के लिये अभिषेक को मेरी ओर से बहुत बहुत बधाई ||
द्वितीय अध्याय के ये श्लोक बहुत महत्व रखते हैं - they signify the ladder of fall!
ReplyDeleteadbhud ! आपकी lekhani में prabhav है। हम और padne के intezaar mien रहेंगे । (sorry transliteration नही हो pa रहा है)
ReplyDeleteवाह अभिषेक, प्रस्तुति तो अत्यंत रोचक है ही हमें इस लिए भी बहुत अच्छा लगा क्युं कि हमें इसके बारे में पहले जानकारी नहीं थी। हम उम्मीद करते है कि आप ऐसे ही और लिखेगे
ReplyDeleteVAH VAH KI JARURAT NAHI HAI HAI EIAN PAR DHYAN DENE KI JARURAT HAI
ReplyDeleteRAM RAM JI