(आगे अभद्र भाषा हो सकती है...)
दृश्य १: न्यू यॉर्क में एक इनवेस्टमेंट बैंक का ऑफिस - मैं खुशी से नाचते हुए से एक इंसान को देखता हूँ। वो मुझसे कह रहे हैं कि १० साल पहले खोयी हुई उनकी घड़ी वापस मिल गयी। कुछ पल पहले ही स्विट्ज़रलैंड से घड़ी कंपनी के खोया-पाया विभाग ने उन्हें कॉल कार बताया था कि उनकी घड़ी रिपेयर के लिए आई है। कंपनी वालो के रिकॉर्ड में घड़ी चोरी हुई दर्ज कर दी गयी थी तो उनके पास आते ही पता चल गया - अनबिलीवेबल ! पर जैसे ही मुझे पता चलता है कि वो दस साल पहले बीस हजार डॉलर की घड़ी थी। मैं बस ये सोचने लगता हूँ कि दस साल पहले - बीस हजार डॉलर की घड़ी ! ("तब और अब इनकी सैलरी कितनी होगी !" आप कुछ और सोचते तो पता नहीं, मैंने तो यही सोचा था)
दृश्य २: पूर्वी उत्तर प्रदेश में एक खचाखच भरी हुई बस में गर्मी से लोग परेशान से हैं... कुछ औरतें सीटों के बीच की जगह में बैठ गयी हैं। बस चलने में हो रही देरी पर कुछ नौजवान धाराप्रवाह में शरीर के कुछ विशेष अंगो का प्रयोग कर कुछ कुछ कह रहे हैं। – "&^*% हमार हौ हौ कईले बाड़े... अब सवारी आइये जायी त हमारा $%^& पर बैठइहें। आव हेईजा बईठा हम चलाव तानी" (ढीला-ढाला अनुवाद: पता नहीं क्या हौ हौ चिल्ला रहा है अब ये। और सवारी आ ही गयी तो अब क्या मेरे <शरीर का एक विशेष अंग> पर बैठाएगा। आके बैठ जा इधर मैं चलाता हूँ।) मैं एक फोन करने के लिए अपना फोन निकलता हूँ तो मेरे बगल में बैठे अधेड़ पुरुष बहुत गौर से मेरे फोन और मुझे देखने लगते हैं। फोन रखने के बाद वो मुझसे पूछते हैं कि फोन कंपनी का है या चाइना मोबाइल है? मैं कहता हूँ कि कंपनी का ही है तो... "तब त बड़ी महंगा होई, ना? " मैं बस हुंकार में उत्तर दे देता हूँ... "काताना के होई? चार हज़ार?"। मैं सोच में पड़ जाता हूँ क्या जवाब दूँ? चार गुना से भी कम कर कहता हूँ - नहीं उससे थोड़ा महंगा है नौ हज़ार का। मैं उनके चहरे पर आश्चर्य देखता हूँ - "बताव त? काइसन जुग आ गइल बा... नवो हज़ार के मोबाईल मिलता नूँ !" (बताओ तो, कैसा युग आ गया है... नौ हज़ार के मोबाईल भी होते हैं न !)
दृश्य ३: मुंबई: अब तक यही फोन रखे हो? मुझे लगा... फलां वाला मॉडल...
दृश्य ४: मुंबई: पहले दिन ऑफिस जाने के होटल की कार का बिल रू १२४९ + टैक्स। दूसरे दिन कूल कैब – रू ३००। तीसरे दिन ऑटो - रू ५०। दूरी वही...
दृश्य ५: कानपुर: जाड़े की सुबह लगभग ५ बजे। रिक्शे वाले ने कहा एक सवारी ८ रुपया दो सवारी ५-५ रुपया। मेरे सामने ही एक व्यक्ति ये कहते हुए चले गए - "४ रुपया लगता है। ले चलोगे तो बोलो नहीं तो मैं पैदल ही चला जाऊंगा"। और वो एक रुपये के लिए पैदल चले गए।
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This part is intentionally left blank. (कभी समझ नहीं आया कि कुछ किताबों में ऐसे लिखे कुछ खाली पन्ने क्यों होते हैं ! पर आज लिखते हुए कुछ बातें ना लिख ऐसे ही खाली छोड़ देने का मन कर रहा है।)
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दृश्य ६: "तू मुंबई आ रहा है? मैं उस वीक आईटीसी मराठा में रहूँगा.... पर वहाँ से तो बहुत दूर है तेरा होटल। एक काम कर अपने दिल्ली-मुंबई के फ्लाइट डिटेल्स भेज दे... सेम फ्लाइट में मैं भी चलूँगा वो बैटर रहेगा !" वक़्त और दूरी का हिसाब और कीमत... इस स्टेटमेंट में कई बातें दिखती हैं...
दृश्य ७: ऐसे दोस्तों के साथ हूँ जो साबित कर देते हैं कि साथ पढे सभी दोस्तों में सबसे खराब वित्तीय हालत उसकी है जो.... भारत सरकार में क्लास वन ईमानदार ऑफिसर है। अपने अपने पैमाने हैं - कौन राजा कौन फकीर !
दृश्य ८: वाराणसी जंक्शन: एक पिता पुत्र का वार्तालाप सुन रहा हूँ, जो रात को इसलिए आ गए थे क्योंकि सुबह जल्दी काम था। रात स्टेशन पर बिताई, खाने के लिए सत्तू घर से लेकर आए थे और अब काम निपटा कर वापस जाने वाली पैसेंजर का इंतज़ार कर रहे थे। पुत्र एक कोल्डड्रिंक की प्लास्टिक वाली बोतल ले आया था तो पिता ने उससे कहा - जा दुकानदार से दो प्लास्टिक के ग्लास मांग कर ले आ। बेटा वापस आया - "नहीं दे रहा, पैसे मांग रहा है - दो रुपये"। बाप ने झिड़क कर - "जा मांग के ले आ... चालीस रुपया लिया है दो ग्लास भी नहीं देगा।" बेटा जाना नहीं चाहता... बाप को लगता है कि ये किसी काम का नहीं ... एक हम थे ! फिलहाल मुझे याद आ रहा था... कुछ दिनों पहले ही मेरे साथ किसी ने कहा था - "पैसे ले लो लेकिन
दृश्य ९: मेरे एक दोस्त अंततः उस रैस्टौरेंट में डिनर कर ही आए.... दारू नहीं पीते तो बस दो लोगों के खाने का टिप और टैक्स मिलाकर ४८० डॉलर। मैंने कहा मैं तो कभी नहीं जा पाऊंगा... कोई और पे ना करे तो... हाँ, अगर कोई 'वैसी' कंपनी हो <एक कंपनी विशेष की खास मॉडलस और कुछ होलीवूड की हीरोइन के नाम> तो सोचा जा सकता है जीवन में एक बार। ... उन्होने बताया फिर ये जगह 'चीप' हो जाएगी !
.... खैर... रोने धोने की बात नहीं है। हमारे एक बहुत सीनियर कलीग कहते हैं [वो अङ्ग्रेज़ी में कहते हैं :) तो आप वैसे सोचिएगा जैसे टीवी ब्रांड्स वाले डबिंग करके दिखाते हैं]- एक जमाना था जब मेरे अकाउंट में तेरह डॉलर थे, मेरी एक सप्ताह की बेटी थी और उतने में मुझे पूरे सप्ताह का खर्चा निकालना था। तब मुझे अपने अकाउंट में बैलेंस चेक करने की हिम्मत नहीं होती थी। बैलेंस मैं अब फिर नहीं चेक करता पर.. दोनों में बहुत अंतर है! ] - वो ये भी कहते हैं कि - "मुझे इस देश ने मौका दिया दान नहीं ! दान दिया होता तो शायद मैं किसी काम का नहीं बचता।" बाई द वे... ये वही घड़ी वाले भाई साहब हैं !
चलते-चलते ... वो जो बस में भाई साहब मिले थे उन्होने दो बातें बताई थी मुझे एक तो ये कि आजकल स्कूल और ईंट भटठे की खेती बहुत हो रही है उत्तर परदेश में। पहले धनी लोग बड़े किसान होते थे अब वो यही दो काम करते हैं। और स्कूल का तो ऐसा है कि घर से दूर और फीस ज्यादा हो तो वो स्कूल उतना ही अच्छा लगता है। तो लड़के आजकल जिले के एक छोर से दूसरे छोर पर पढ़ने जाते हैं - इधर वाले उधर और उधर वाले इधर। लेकिन पढ़ाई सब स्कूल में एक्के है।
और दूसरी बात ये कि... लड़के स्कूल में आजकल टाई तो लगाते हैं लेकिन जब थोड़े बड़े हो जाते हैं तो ऊपर से गमछा भी लेते हैं... और वैसे इसमें कोई हर्जा भी नहीं है :)
PS: सच बातें हैं... बस 'मैं' की जगह कोई और हो सकता है कुछ दृश्यों में :)
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~Abhishek Ojha~
घडी वाले भाई साहन का नजरिया सही है, हमारी सरकार मनरेगा सहित पता नही कितने रेगा चला रही है.
ReplyDeleteरामराम.
पहले तो हम सोचते रहे कि हम कहाँ हैं, बहुत दिन बाद पता लगा कि हम तो मध्यम राग जी रहे हैं।
ReplyDeleteभांति-भांति के लोगों से मुलाकात रोचक रही। :)
ReplyDeleteबढ़िया :)
ReplyDeleteएक ही दिक्काल में कई तरह तरह की सभ्यताएं वजूद में हैं और उनके चाल ढाल -कहीं रुक जाईये
ReplyDeleteआज की ब्लॉग बुलेटिन शो-मैन तू अमर रहे... ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDelete'मैं' की जगह वाली बात पढ़ने से पहले ही कई बार दिमाग में आई। सचमुच दुनिया कितनी विचित्र (कई बार असहज भी) है ध्यान देने वालों के लिए। कितनी बार दिमाग में आता है कि काश दुनिया बदलने वाले भी सही हाथों में डेलीगेट करना जानते होते तो बदलाव में न जाने कितना बदलाव होता ...
ReplyDeleteबहुत बढ़िया, एकदम अभिषेक स्टाइल, जारी रहे।
खुदा कसम, इत्तेफाक ही है कि ढाबे की दीवार पर लिखा कूनिंग का कथन भी बदलाव की ही बात कर रहा था।
Delete@"मुझे इस देश ने मौका दिया दान नहीं ! दान दिया होता तो शायद मैं किसी काम का नहीं बचता।
ReplyDeleteघडी वाले भाई साहेब अच्छी खासी दुनियादारी देखे लगते हैं,
आपने ग्रामीण परिवेश का चित्रण बहुत सुंदर किया है.
मन चकचका दिए बौआ .. अब किस किस बात का तारीफ करें और कौने छोड़ दें ??
ReplyDeleteबहुत दिन बाद ब्लॉग गली आये और गेटवा से घुसते ही मिजाज फरेश ... जियो !!!
एक काल की बहुआयामी कथा
ReplyDeleteबढ़िया अवलोकन
ReplyDeleteहा! हा! हा!
ReplyDeleteढ़
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थर्टीन ट्रैवल स्टोरीज़!!!
bahut achha likha ojha ji tabiyat mast ho gayi.........................
ReplyDelete९ हजार को मोबाईल.. बहुत पुनारा मॉडल उपयोग करते हैं आप..
ReplyDeleteबढ़िया है जी
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