Aug 17, 2012

परमानेंट मेमोरी इरेज़र से मुलाक़ात के पहले तक...

 

कुछ बेवकूफाना हरकतें -
(किया कभी?)

नए 'कटर' से पेंसिल...
और दाँत से गन्ने - छिलकों की लंबाई का रिकॉर्ड तोड़ने-बनाने की कोशिश।

फाउंटेन पेन में सूख गयी स्याही की खुशबू…
बॉलपेन के रीफ़ील में स्याही डालने की कोशिश?

सिग्नेचर की प्रैक्टिस में पन्ने बर्बाद...
अपने नाम के पहले 'डॉ॰' और बाद में 4 अनजान डिग्रियों के नाम।

मशीन के पुर्जे-पुर्जे कर देने के बाद की चिंता – वापस जुड़ेगा कैसे?
अनजान-सुनसान जगह पर शाम और रात के बीच - भटक जाना!

खेतों-पगडंडियों से होते हुए, सुबह पड़ी ओस में नंगे पाँव... मीलों...
वो आम जो किसी चिड़िया के चोंच मारने से गिरे हो? - सबसे मीठे होते हैं।

किसी अनजान को अगले ट्रैफिक सिग्नल से वापस आकर लिफ्ट...
कभी किसी बच्चे का हाथ पकड़कर नाम लिखना सीखाया?

कितने कदम चला - ये गिनना । सीढ़ियाँ?
यूँ ही चलते चलते - क ख ग घ... क्ष त्र ज्ञ - याद है या नहीं..

किसी भिखारी को कभी बर्गर खिलाया? आइसक्रीम?
किसी बीयर बार में दुध? दारू में गंगाजल मिलाकर? - हरी ॐ !

धुप्प अंधेरे में तारों-ग्रह-नक्षत्रों-आकाशगंगा से बातें...
चाँदनी रात में सुनसान समुद्र तट ?

इतना शांत? -... मन विहीन-शून्य दिमाग।
अपने खिलाफ जाकर किसी को प्यार?

किसी के लिए... सिर्फ जान ही नहीं - अपना सब कुछ !
ऐसे सुध बुध खोना - आग लगे तो… उठकर पानी डालने की सुध न रहे ?

एवरेस्ट जैसी बात यूं छुपा लेना - सामने वाले को भनक तक ना लगे !
ऐसा महसूस?- डूबते हुए… अंतिम सांस अधूरी/पूरी होने के ठीक पहले - खींच लिया हो किसी ने !

किसी दरिया में छलांग... झील में पैर ?
पानी के ऊपर पत्थर तो उछाला होगा? कितनी बार?

कुछ ऐसी हरकत जिसे सोचकर आज भी...?
और ऐसा कुछ ? सामने वाले का दिमाग हिल जाये - ऐसे लोग भी होते हैं !

साइकिल पर आगे बैठ बाएँ पैर से डबल पैडल साइकिल चलाया?
डाक टिकट से मुहर हटाने की कोशिश?

…और ...

... वो सब कुछ जिसे भुलाने के लिए 'परमानेंट मेमोरी इरेज़र - मौत' से मुलाक़ात होना ही एक रास्ता हो?

या शायद उसके बाद भी नहीं...कौन जाने !

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....कुछ किया, कुछ देखा ! न गद्य-न पद्य !

~Abhishek Ojha~

Aug 5, 2012

‘मैं’ वैसा(सी) नहीं जैसे ‘हम’ !

 
बचपन में सुनी हुई एक बोध कथा याद आ रही है। आपने भी सुना ही होगा।

एक राजा को अपने राज्य में दूध का तालाब बनवाने का मन हुआ । अब राजा ही थे तो मन तो कुछ भी करने का हो ही सकता है ! जैसे एक बादशाह को मन हुआ और टैक्सपेयर्स के पैसे से उन्होने ताजमहल बनवा दिया... साइड इफैक्ट में - अमर हुआ इश्क़बैरीकूल से पूछूंगा तो कहेगा - अर्थशास्त्र पढे हो? साला इश्क़ का फैक्टर कहाँ से आया बे?  हमें भी इफ़रात के पैसे दे दो तो हम भी चाँद पर दस गुना बेहतर ताजमहल बनवा दें In love  खैर...

राजा ने तालाब खुदवाकर घोषणा कर दी कि आज की रात सब लोग अपने घर से एक-एक लोटा दूध लाकर तालाब में डालें। जनता ने फरमान सुन लिया पर जनता तो जनता है – सॉरी जनार्दन भी है। जो भी हो फिलहाल हुआ कुछ यूं कि लगभग सभी जनार्दनों ने सोचा - इतने बड़े तालाब में अगर मैं एक लोटा पानी ही ड़ाल दूँ तो किसको पता चलेगा ! शायद हाजिरी लगानी हो नहीं तो लोग डालने भी नहीं गए होते । जैसे भी रहा हो हम वहाँ मौजूद तो थे नहीं तो विथाउट लॉस ऑफ जेनेरालिटी मान लेते हैं कि अंततः लगभग सभी ने एक-एक लोटा पानी ही डाल दिया और अगले दिन सुबह पानी से लबालब तालाब तैयार ! एक दो लोगों ने दूध डाला भी हो तो न तो वो भरे तालाब में दिखना था। ना ही किसी का कहना कोई मानता। तो सर्वसम्मति से यही मान्यता बनी कि राज्य की सारी जनता ने तालाब में दूध की जगह पानी ही डाल दिया !

और राज्य की जनता? (यहाँ से मेरी व्याख्या है) सब एक दूसरे से कहते कि यार गज़ब हो गया ! हमने तो दूध ही डाला था ! कोई ईमानदार बचा ही नहीं इस राज्य में – भ्रष्ट शासन, झूठे लोग... आपको पता ही है बाकी बातें जो जनता ने कही होगी । नहीं पता तो किसी दिन ‘एलिटनेस’ [ब्लॉगिंग में कुछ लोग इस शब्द से भड़कते हैं, उस संदर्भ में इसे ना लें Smile ] छोड़िए और किसी भी पान-कम-चाय की दुकान पर सुन आइये। मन न भरे तो भारतीय रेल के द्वितीय श्रेणी में यात्रा कर आइये एक बार।

तब से लेकर आज तक तालाब में पानी डालने वाले किसी को मिले नहीं ! सभी पूछते और ढूंढते रह गए – पानी डाला किसने? जमाना खराब किया किसने। राज्य का नाम चौपट कैसे हुआ? गज़ब है !पूरा तालाब ही पानी का और पानी डालने वाला मिलता ही नहीं। एक मिनट-एक मिनट... सोचने दीजिये। एक सेट (समुच्चय) है। कायदे से सभी उसके सदस्य हैं... लेकिन हर सदस्य उस सेट का सदस्य होने की शर्तें पूरी ही नहीं करता। माफ कीजिएगा ये बहुत साधारण है लेकिन इतना कठिन कि आदतन गणित के बार्बर पैराडॉक्स की याद आ गयी। बर्ट्रांड रसेल ना हल कर पाये तो हम क्या घंटा कर पाएंगे ! (बाई दी वे ‘घंटा’ शालीन शब्द है न? मंदिर में होता है जी ! नहीं तो एडिट करवा दीजिएगा। कर देंगे। Smile हम बाकी ब्लॉगरों जैसे नहीं हैं।)

अब ये जो सेट है अक्सर दिखता है। माने रोज ही ! दिन में दो-चार बार भी। और गारंटी है कि आपको भी दिखता ही होगा। नहीं? फिर से देखिये । अपने देश में देखिये। पूरा देश भ्रष्ट है। और हम सभी ढूंढते जा रहे हैं कि भ्रष्टता हैं कहाँ? खतम कैसे हो ! पानी डालने वाला मिले तो गोली मार दें ! साला जो सिस्टम है... वही भ्रष्ट है पर इंडिवीजुअली कोई नहीं – अब ये कैसे संभव है जी?। हमें तो नहीं समझ आ रहा – कुछ कोंट्राडिकशन सा हो रहा है। बाबा रसेल हल इससे साधारण समस्या हल नहीं कर पाये तो...  [बाबा रसेल को हल्के में मत लीजिएगा। गणितज्ञ समझकर हिला हुआ इंसान समझ रहे हैं तो... नहीं भी समझ रहें हैं तो एक बार प्लीज़ लिंक पर पढ़ आइये बाबा खतरनाक किस्म के प्राणी थे साहित्य में भी नोबल ले गए। बाकी क्या-क्या किया वो... पढ़ ही आइये जरा। Smile ]

जैसे अमेरिका में अपने भारतीय लोग खुद ही कह देते हैं ‘देसीस आर...’ आगे जो भी कहें क्या फर्क पड़ता है? कहने वाले को अब हम क्या कहें इसके अलावा कि आप भी तो उसी समुच्चय के सदस्य हैं? अगर कोई एक बात ‘देसी’ कम्यूनिटी के लिए सच है तो आप भी तो वही हैं? और अगर सभी यही कहते हैं तो... ये बात आई कहाँ से ? आप भी वैसे नहीं, हम भी वैसे नहीं। फिर ये हो कैसे गया? बेवफा तुम नहीं, बेवफा हम नहीं फिर ये क्या सिलसिले हो गए... ऐसा कोई गाना है न? खैर... !

अब देखिये न मैं जितनी लड़कियों को जानता हूँ [नियम नहीं बनाना चाहिए। क्योंकि बहुत कम लड़कियों को जानता हूँ। ...पर फिर भी :) ] – लगभग सब कहती हैं। मैं बाकी लड़कियों जैसी नहीं। मेकअप... बस एक दो कैटेगरी...बाकी लड़कियों जैसे नहीं । शॉपिंग... उतना भी नहीं। लड़कियों जैसी बातें – मैं नहीं करती! अब जब कोई लड़की वैसी होती ही नहीं... तो लड़कियों का वैसा होना ये अवधारणा बनी कैसे? किस लड़की ने तालाब में पानी डाला ? Thinking smile लड़को के लिए भी ऐसी ही बातें हैं... धर्म, देश, राज्य, महिला, पुरुष… वॉटएवर... सभी कह देते हैं - ‘मैं वैसा/वैसी नहीं जैसे हम’। जहां तक मुझे लगता है ‘हम’ की परिभाषा हर एक ‘मैं’ को आपस में रखकर ही बनती है या मैं कुछ गलत हूँ?

अब क्या कहें? इससे आगे समझ नहीं आ रहा -

हे प्रभो ! आनंद दाता ! ज्ञान हमको दीजिये... Smile

बाईदीवे माई लवली रीडर फ्रेंड -आप भी 'वैसे' नहीं न? अरे आप तो नहीं ही हैं इतना तो पता है मुझे :) । ये 'वैसे' टाइप के लोग हैं कौन? ....ढूँढने का कोई फायदा नहीं.

बाबा कबीर ने कहा ही है - बुरा जो देखन मैं चला तुझसे बुरा न कोय...ऐसा ही कुछ कहा था। मुझसे, तुझसे में थोड़ा कन्फ़्यूजन है।


हे प्रभु ! Smile

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~Abhishek Ojha~