[छुट्टी का दिन... और कई दोनों के बाद अच्छा मौसम. एक बार फिर खूब भटका... जब पैरों ने साथ छोड़ना चाहा तो ट्रेन का टिकट लेकर बैठ गया... आखिरी स्टेशन तक के लिए... आज हाथ में कोई किताब भी नहीं थी. पीछे बैठे एक जोड़े का वार्तालाप दिमाग में रिकॉर्ड हुआ... उसका रीप्ले: ]
'तुम्हें कहना भी नहीं आता और कोई तुम्हारा मौन तक समझ ले ? वाह ! ये अच्छा है ! तुम कुछ भी ना करो और सामने वाला सबकुछ करे ?'
'अरे तुम्हें तो पता है जब सॉरी और थैंक यू बोलने की जगह भी स्माइल करने वाला इंसान हो तो... '
'क्या?'
'छोडो... तुम्हे समझ में नहीं आएगा.'
'ऐसे कैसे चलेगा? कुछ करो. वरना तुम्हारा कुछ नहीं हो सकता? '
'अरे जाओ, कोई तो होगी जो मौन समझेगी और सुनेगी. कुछ बोलना मुझे तो बनावटी लगता है. और बनावटी बातें नहीं करनी मुझे. हर रिश्ते में बातें कहने की जरूरत नहीं होती...'
'जैसे? '
'तुमने अपने पापा को कितनी बार कहा है कि तुम उन्हें मिस करती हो? खैर... छोडो तुम नहीं समझोगी.'
‘अरे ! ये क्या बात हुई. मैं तो अपने पापा को बोलती हूँ !’
‘हाँ, मुझे लगा था तभी तो मैंने कहा कि तुम नहीं समझोगी. खैर बॉटम लाइन इज मुझसे तो ना हो पायेगा. और अगर मैं ऐसा किसी को कहता भी हूँ तो इसका मतलब है कि वो बनावटी है. वो प्योर नहीं है !'
'अरे तो फिर तुम जो किसी को कहना चाहते हो, वो पता कैसे चलेगा ?'
'ये तो नहीं पता, पर कोई बीमार हो तो मुझे सहानुभूति दिखाना नहीं आता. ये भी नहीं कहना आता कि अपना खयाल रखना, किसी को सान्तवना देना नहीं आता और किसी को कम्प्लीमेंट तो आज तक नहीं दे पाया. डे-वे मनाना उस दिन मेसेज भेजना.. और... खैर छोडो तुम क्या समझोगी. अगर कभी ऐसा कुछ किया हो तो समझ लेना वो दिल से नहीं निकला होगा. जो दिल को छू जाए वो कभी मेरी जुबान से निकल ही नहीं पाता. तुम्ही बताओ भावनाओं को शब्दों में कैसे ढाला जा सकता है ? अगर कुछ बोल दिया जाय तो वो आर्टिफिसियल नहीं हो जाता?. बस अगर मुस्कान देखकर कोई समझ ले तो ठीक. क्योंकि चेहरे पर कैसे भाव होते हैं ये तो भी मुझे नहीं पता. और... कुछ आदतें तो इस जन्म ना बदल पाएंगी. इसलिए कोशिश करना भी बेकार है. ऐसा नहीं है कि आदतें बदल नहीं सकती लेकिन भगवान इंसान के व्यक्तित्व में कुछ ऐसे मजबूत खम्बे गाड़ देते हैं कि उन्हें तोड़ने में १०० साल से ज्यादा लगना होता है और हम तो उससे पहले ही निपट लेते हैं'.
'तुम पागल हो.'
'तुम्हे पता है ये बात अगर कोई लड़की कहे तो लड़के ऐज कम्प्लीमेंट ले लेते हैं.'
'तुम असली पागल हो. '
' ओके. तुम्हे पता है थैंक यू तो मैं बोलूँगा नहीं. '
'उफ़ ! ... एनीवे, आई नो यू. तो तुमसे मैं एक्सपेक्ट भी नहीं करती. बट समटाइम्स आई फील सॉरी फॉर यू. लगता है कि... छोडो तुम कुछ कह क्यों नहीं सकते... इट्स लाइक... हम्म... छोडो तुम नहीं समझोगे.'
'अच्छा? चलो कोई तो है जिसे लगता है कि मैं भी कुछ नहीं समझ सकता. पसंद आया मुझे तुम्हारा ये कहना.'
'अरे लेकिन जरा सोचो... केवल फीलिंग्स से कहाँ कुछ होता है. मैं मानती हूँ कि फीलिंग्स बोली नहीं जा सकती लेकिन किसी और को कैसे पता चल जायेगा? ये सोचा है कभी तुमने? नॉट एवरीवन इज लाइक योर मदर, ओके. तुम कह भी न पाओ और लोग समझ भी लें, ये अच्छा है. लोग इतने भी समझदार नहीं होते मिस्टर कि तुम्हे देख कर तुम्हारे मन की सुन लें !'
'अरे मैं तो अपनी कमजोरी बता रहा था. दरअसल ऐसा नहीं है कि मैं बोलना नहीं चाहता, लेकिन रियलिटी ये है कि बोल ही नहीं सकता. वैसे पूरी दुनिया को मेरा मौन समझने की जरुरत भी नहीं है. जिसे समझना है वो समझ ले यही काफी है...'
'तुम्हारे परम्यूटेशन तुम्ही समझो. '
'एक्जेक्टली ! मैंने तुम्हे बताया था ना जीएच हार्डी ने मैथ्स के प्योर होने के बारे में क्या कहा था? शत प्रतिशत अनुपयोगी होना ही उसकी खूबसूरती है. सोचो जरा... जब कुछ एकदम ही अनुपयोगी हो तो उसका गलत इस्तेमाल हो ही कैसे सकता है? जैसे ही इस्तेमाल होना चालु हुआ ना सिर्फ उसकी शुद्धता चली जाती है वो कुरु.. हम्म... ‘डल और अगली’ हो जाता है.'
'वैसे मुझे कुरूप भी समझ में आता है. ट्रांसलेट करने की जरुरत नहीं है. ओके ?'
'हा हा. हाँ तो मैं कह रहा था कि वैसे ही अगर फीलिंग कह दी जाए तो उसमें मिलावट सी आ जाती है. दैट्स नॉट समथिंग अब्सोल्यूट... देखो अगर कुछ कह दिया जाय तो वो बस उन शब्दों की सीमा में सिमट कर रह जाता है. लेकिन अगर ना कहा जाय तो असीमित, अनंत सा होता है... अगर कोई सुन सके तो ऐसा मौन अद्भुत है, ऐसा मौन तो चीखता भी है बस सुनने वाले होने चाहिए !... छोडो तुम नहीं समझोगी.'
'हर बात के अंत में ये डिस्क्लेमर लगाना जरूरी है कि मैं नहीं समझूंगी ? देखो एडवर्टिजमेंट का जमाना है. किसे फुर्सत है तुम्हारी भावनाएं पढ़ने का ? जब मार्केट ऊपर हो तो स्टॉकस एक्जेक्यूट करके प्रोफिट बुक करना सीखो, नहीं तो धरे ही रह जायेंगे. अच्छा ये बताओ अगर कोई तुम्हारे मौन के चक्कर में कोई इंतज़ार ही करता रह गया तो ? और मान लो अगर वो भी तुम्हारी तरह सोचता हो तो ? तुम्हे तो अपनी भावनाओं में मिलावट पसंद नहीं, ठीक वैसे ही अगर कोई और भी अपना मौन तुम्हारे लिए लेकर बैठा हो तो ?'
'अरे यार छोडो... देखो कितने लोगों से मैं कुछ भी कह देता हूँ. फ्रेंड सर्कल तो तुम्हे पता ही है ऊँगली के पोरों में सिमट आता है. फिर उस सर्कल में लोग धीरे-धीरे आते हैं. जो मुझे जानते हैं... समझते हैं, हाँ तुम जैसे कुछ वाइल्ड कार्ड एंट्री वाले जरूर हैं. पर जहाँ तक मुझे पता है, उसमें ऐसा कोई नहीं है जो मेरी तरह कुछ ना कह पाए.'
'ऐसा तुम्हे लगता है ! छोडो तुम क्या समझोगे. होपलेस केस हो. पूरी कहानी सुना दोगे लेकिन जो कहना चाहिये वो नहीं कहोगे. नहीं कह पाने के लिए भी एक थियोरी जरूर बना डालोगे. लेकिन... छोड़ो... रहने ही दो तुम। '
....
[सुना आज मदर्स डे भी था. 'माँ'... इसके बारे में मेरी मान्यता भी उस लड़के सी ही है। शब्दों में कुछ कह देने से महता कम सी हो जाएगी. कुछ बातें पूर्ण होती हैं... मुझ जैसे के लिए मौन ही उसे वर्णित कर सकता है, शब्दों की क्या औकात !]
~Abhishek Ojha~
अच्छा लिखा है आपने ।शायद अधिकतर लोगों की यही समस्या है। सच तो यही है कि सुनना भी अच्छा लगता है .....
ReplyDeleteरहने ही दिया जी, हमे तो समझ मे ही नही आया !
ReplyDelete:)
ओझा जी
ReplyDeleteहमेशा की तरह नए तरीके और शिल्प में बुना हुआ कथानक....! अच्छी प्रस्तुति
भावनाओं को शब्दों में ढालना, कठिन है और भगवान का खम्बंे गाढना सत्य है, इसी लिये बहुतो को नहीं आता , और कुछ सम्बेदना की बाते एवं वधाई आदि इतनी कोमन हो गई है कि सब उन्हे ही दोहराते है, जिन्हे सुन सुन कर सामने बाला बोर भी हो जाता होगा
ReplyDeleteजानते हो, इस पोस्ट पर एक संवेदनशील टिप्पणी बनती है। मैं कर सकता हूं। पर छोड़ो। तुम समझॊगे नहीं!
ReplyDeleteभावोद्गार के लिए मौन से सुन्दर भाषा और कोई नहीं ...पर समस्या तब होती है जब जरूरतों,पसंद नापसंद के लिए भी दो लोग मौन की भाषा से ही काम चलाना चाहते हैं...
ReplyDeleteरोचक है, वही मन वही घुमावदार रास्ते।
ReplyDelete.आई फ़ील सॉरी फ़ॅर माईसेल्फ़,
ReplyDeleteइतना अच्छा शिल्प देख कर और इटैलियन में लिखे अपने उद्गार पढ़ कर,
आई डॉन्ट फ़ील लाइक एक्सप्रेसिंग माई व्यू, यू हॅव ऑलरेडी पोस्टेड इट, मैन !
एक दोस्त कहता है: कुछ बातें, कुछ ख़ास समय, कोई ख़ास व्यक्ति ही कहे तो वजन है।
ReplyDeleteये आपके लिखे के लिए कह रहा हूँ ।
जबरदस्त !!
गिरिजेश राव की ईमेल टिपण्णी:
ReplyDeleteउपर - ऊपर
एडवटिजमेंट - एडवर्टिजमेंट
बाकी क्या कहूँ? मनु और उर्मी की कई बातें(जो अभी लिखी भी नहीं गई हैं) आप ने
चुरा लीं। बस उर्मी लड़के की जगह पर होती!
...आह! एक कड़ी की मौत का दुख आप क्या जानें?
बड़े खराब मनई हो यार!
गिरिजेश
ये पोस्ट कैसी लगी..अगर कह कर बता दिया जाए तो उस फिलिंग में मिलावट सी आ जाएगी. दैट्स नॉट समथिंग अब्सोल्यूट...अगर कुछ कह दिया जाय तो वो बस उन शब्दों की सीमा में सिमट कर रह जाता है. लेकिन अगर ना कहा जाय तो असीमित, अनंत सा होता है....इसलिए टिप्पणी कैसे की जाए :)
ReplyDeleteबहुत सुंदर , नोक झोक तो चलती ही हे... बहुत सुंदर प्रस्तुति
ReplyDeleteसंयोग सुखद लगा...my lips are sealed !
ReplyDeleteप्यार के रिश्तों में शब्द वास्तव में औपचारिकता बन जाते हैं। आँखें बहुत कुछ कहने लगती हैं।
ReplyDeleteलिखने में ज्यादा मेच्युरटी दिखने लगी है....शायद अपने आप को एडिट करके जो रोकते थे उससे बाहर निकलने लगे हो.....इनदिनों तुम्हे पढने में एक खासा मजा आता है ...
ReplyDeleteप्रतिभाजी का ईमेल कमेन्ट: आपकी पोस्ट छोड़ो तुम नहीं समझोगे पढ़ी. कहे के बीच तैरते अनकहे को पकडऩे और
ReplyDeleteअनकहे में सिमटे कहे को बांचने की कोशिश...पोस्ट अच्छी है.
बहुत सही...
ReplyDeleteकुछ न समझे खुदा करे कोई...।
ReplyDeleteआप तो स्टिंग ऑपरेशन कर आये:)
Itana bhee chup na rahen ki agla chod kar hee chala jaye. pasand aaya aapka ye andaj
ReplyDelete:-).. कुछ नहीं..
ReplyDeleteभावनायें ऐब्सट्रैक्ट होती हैं, शब्द मूर्त होते हैं। सतयुग में लोग मन को पढ लेते होंगे, कलयुग में तो - ऐसऐमऐस/ईमेल/वार्ता/शब्दों का ही सहारा है। दुनिया में हैं, दुनियादारी भी सीखनी पडती है। डॉ. साहब (बडे वाले) के बहकावे में न आये कोई।
ReplyDeleteपांडेय जी की टिप्पणी में ज्ञान छिपा है, काश वे कह देते तो काफी लोग समझ पाते।
क्या आप हमारीवाणी के सदस्य हैं? हमारीवाणी भारतीय ब्लॉग्स का संकलक है.
ReplyDeleteअधिक जानकारी के लिए पढ़ें:
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ReplyDeleteइसे पढ़ने के बाद ब्लैंक हो गई हूं.. पता नहीं.. कहना ज़रुरी है या समझना जरुरी है.. लेकिन कॉन्वर्सेशन काफ़ी अच्छा था.. इतना कुछ याद कैसे रह गया अभिषेक.. :P
ReplyDeleteहा हा हा.. अब आप ये मत कहना कि "तुम नहीं समझोगी !"
ReplyDeletebeautifully written !!
ReplyDeletemaun cheekhta b h, bus sunne wale hone chahiye...i agree with him...hum logo ko sirf sunne aur sunane ki aadat hoti h isliye kuch samajh nhi paate...agar samjhne aur samjhane ki aadat develop karen to 'MAUN' ki aawaaz bhi sun payenge....
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