‘सोच रहा हूँ मेरे बारे में अगर कोई कुछ पूछे तो उसे तेरे पास फॉरवर्ड कर दूंगा. तुझे तो सब कुछ पता ही है मेरे बारे में.’
‘हम्म... सब कुछ तो नहीं, पर तू मेरी नॉन-बायस्ड कंसिस्टेंट एस्टिमेटर टाइप्स है.'
'क्या? इसमें भी मैं तुम्हारे लिए... ऊँह ! बड़े आए. रहने दो नहीं चाहिए तुम्हारा कम्प्लीमेंट. पता नहीं कम्प्लीमेंट दे रहे हो या गाली. कुछ भी बोलते हो'
'छोड़ो तुम्हें समझ में नहीं आएगा... उस लड़की को देखो परेशान लग रही है. बिजनेस स्टैट्स की बूक लेकर बैठी है. पढ़ा के आऊँ उसे? ये सड़ी सी किताब है... कुछ नहीं होता है इसमें. और इसके सिलेबस में जो होगा वो तो...'
'हाँ तुमने तो बचपन में ही पढ़ लिया होगा... पर ये बताओ हम… नहीं तुम यहाँ उसे पढ़ाने आए हो?
'पढ़ाने तो नहीं आया पर अगर पढ़ाने से किसी की मुसीबत कम हो जाय तो इसमें बुराई क्या है?'
'चुप रहो तुम. और अगर पढ़ने वाली लड़की हो तो ज्यादा ही अच्छा है, नहीं?'
'पढ़ने वाला कोई भी हो बस उसे थोड़ा समझ में आना चाहिए, तुम्हें तो समझ में आता नहीं कुछ.'
'इक्सक्यूज मी? मैं भी पढ़ी-लिखी हूँ. '
'अच्छा? टॉपर तो नहीं थी?'
(...मुस्कुराते हुए) 'एक्चुअल्ली एक पेपर में थी.'
'टीचर को तुमसे प्यार तो नहीं हो गया था?'
'गिरिईईजेश !'
... एक अलग ही मुद्रा, आँखों में एक अलग सा भाव और ध्वनि तरंगों के खास आरोह-अवरोह पर वो चार अक्षर का नाम बोलकर जब अगले कुछ सेकेंड तक उसी मुद्रा में एकटक देखते हुए मौन रहती तो फिर पिछली बात वहीं रुक जाती. ‘थोड़ा ज्यादा हो गया’ या ‘तुम्हें हो क्या गया है?’ कहने का उसका ये अपना तरीका था. और गिरिजेश, जिसे कभी किसी ने इस नाम से पुकारा ही नहीं था, के कानों को ये बहुत ही सुखद लगता. अपना नाम कभी-कभार सुनने की आदत, कहने का तरीका, बड़ी-बड़ी आँखे या उसके चेहरे के भाव इनमें से कौन ज्यादा प्रभावी था उसे नहीं पता. लेकिन नोक-झोंक की ये सीमा उसे बहुत पसंद थी.
'ठीक है मान लिया, लेकिन किसी को अपने कॉलेज का नाम मत बताना. और अगर कभी गलती से बता भी दिया तो ये मत बता देना कि तुम टॉपर थी. एड्मिशन नहीं कराएंगे लोग वहाँ. वैसे तुम्हारे कॉलेज का नाम क्या था?'
'था नहीं है, बुद्धू. एआईपीकेसीटीइ.'
'पूरा?'
'हा हा... नहीं बताती. पूरा नाम चार सेठों के नाम पर है. लेकिन तुम मेरे कॉलेज को कुछ नहीं बोलोगे.'
'सर वी आर क्लोजिंग टु क्लीन, यू विल हैव टू मुव आउटसाइड. ' सुबह 3 बजे के लगभग रात भर खुलने वाले उस कॉफी शॉप में एक लड़का आकर टोकता. इसका मतलब ये होता कि अब बाहर बैठो और फिर कुछ ऑर्डर करो. सुबह के तीन बज रहे होते लेकिन अगल बगल के कॉलेज के लड़के-लड़कियों से खचाखच भरी होती जगह.
'ओके, वन अज़टेक प्लीज. '
'एनिथिंग फॉर यू मैंम?'
'नहीं इन्हें कुछ नहीं चाहिए... '
'नहीं नहीं, मुझे भी चाहिए... हम्म... अ वाटर बॉटल प्लीज.'
....
'चाइए. वो भी पानी... जो मैं बोलूं बस उसका उल्टा करना होता है तुम्हें. पता है तुम्हें कितना पोल्यूशन. ...छोड़ो लैक्चर देने का मेरा वैसे ही मूड नहीं है.'
'सारे संसार का ठेका मैंने नहीं ले रखा है, तुम हो ना लेने के लिए'
'खैर... तुम्हें सोना नहीं है? तुम्हें तो कोई काम होता नहीं है. और तुम्हारे चक्कर में पूरी रात... मेरा पूरा वीकेंड चौपट हो जाता है.'
... फिर वही मुद्रा... वही बड़ी-बड़ी आँखे... निशब्द... एकटक. ओह !
'मुझे नींद आ रही है. चलो छोड़ दो मुझे... नहीं रहने दो. मैं खुद ही जा रही हूँ. कोई भी लिफ्ट दे देगा. नहीं जाना तुम्हारी सड़ी बाइक से. '
'ठीक है जाओ, बाय.'
'गिरिईईजेश !'
और वो फिर चुप हो जाता. हल्की मुस्कान... पर चुप.
'...तुम्हारी गलती नहीं है मैं ही पागल हूँ, आई ही क्यों मैं? मिलेगी कोई तुम्हें... तुम्हारे जैसी ही पागल. बाल देखे हैं अपने एक दिन कैंची लाकर काट दूँगी. कैसे तो लगते हो... लंबे बालों में. ' ये बोलते-बोलते उसका मुँह हल्का टेढ़ा होता और बात अंत तक आते-आते थोड़ी बनावटी लगने लगती.
'हाँ गलती तो तुम्हारी है ही... मैंने कब कहा मेरी गलती है. क्यों आई? किसी के साथ भी ऐसे...?'
'गिरिईईजेश !'.... (...पाँच सेकेंड...) 'क्या कहा तुमने अभी? और किसके साथ देखा है तुमने मुझे?'
'ओ ओ ओ. सॉरी. रोना मत प्लीज. बैठो कॉफी आने दो. थोड़ी देर में चलते हैं. मुझे भी कुछ काम है कल जल्दी उठना है.'
'हाँ जो मर्जी आए बोल दो. और समझाने में तो तुम आम को अमरूद भी साबित कर दो. अपने आपको महात्मा तो समझते ही हो.'
'थैंक यू.'
'गिरिईईजेश !'
यहाँ पर आवृत्ति थोड़ी बदलती. थोड़ी तेज. इसका मतलब होता अब सही में जाना चाहिए.
...
'वो देखो कितनी अच्छी है. '
'ऊँह, एक टन मेकअप... अरे मैं तो तुम्हारी जैसी हो रही हूँ... ऐसा तुम्ही बोलते हो न. एक टन मेकअप !'
'इसमें मुँह टेढ़ा करने वाली कौन सी बात है? उसकी मर्जी मेकअप करे ना करे. मुझे अच्छी लगी मैंने कह दिया. और तुम तो जैसे मेकअप करती ही नहीं हो !'
'जी नहीं... नहीं करती मैं. और कभी करती भी हूँ तो बहुत कम. और ऐसा क्या अच्छा है उसमें? थोड़े और कम कपड़े पहन लेती तो तुम्हें और अच्छी लग जाती...'
'बता दूँ क्या अच्छा है? बाद में कुछ मत बोलना?'
गिरिईईजेश !
….
और इस तरह एक वीकेंड चौपट हो जाता. कभी-कभी उनके कुछ वीकेंड उन वीकेण्ड्स की याद में चौपट हो जाते हैं !
~Abhishek Ojha~
मैं कहूँ कि सब कोरी कल्पना है तो आप मानोगे? मत मानो :)