आज घर जाने के लिए समान समेटते समय कुछ पुराने पत्र मिल गए। लिफाफे, अंतर्देशीय और कुछ पोस्टकार्ड... । मैं चिट्ठियों को बहुत संभाल के रखता हूँ या यूं कहिये रखता था... तभी तो आज करीब ढाई-तीन साल के बाद मिली। सबकुछ छोड़कर मैं उन चिट्ठियों में खो गया... । सच बात है... चिट्ठियों में चेहरा दिखता है। करीब पिछले तीन सालों में मुझे एक भी व्यक्तिगत पत्र नहीं आया। डाकिये की जगह कुरियर वाले आते हैं... और लिफाफे का मतलब होता है कोई सरकारी कागजात, कोई बिल, कोई ऑनलाइन ख़रीदा हुआ समान या फिर कोई व्यवसायिक दस्तावेज... ।
पाँच साल पहले जब मैंने इस संस्थान में नामांकन कराया था... सप्ताह में एक चिट्ठी तो आ ही जाती थी। वैसे चिट्ठियों से मेरा नाता बचपन से रहा है... पर यहाँ आने के बाद लगाव कुछ और ज्यादा हो गया था। १० दिन में एक बार फ़ोन भी आ जाता था, पर चिट्ठियों का सिलसिला रुका नहीं। फ़ोन से याद आया... फ़ोन करने के लिए pco पर ३०-३० मिनट इन्तज़ार करना पड़ता था। तीन छात्रावास के छात्र होते दो पीसीओ... सबकी कक्षाएं लगभग साथ ही होती थी... फिर शाम को सब साथ ही फ़ोन करने आते थे। नौ बजे के बाद. हाँ... घर से अक्सर फ़ोन आता था । दौलतरामजी छात्रावास कार्यालय से दौड़ते हुए आते थे... 'आपके घर से फ़ोन है... जल्दी चलिये होल्ड रक्खा है...'। मैं किसी पुराने जमाने की बात नहीं कर रहा... ये बातें २००२-२००३ की ही है।
फिर आया मोबाईल ... । हमने सुना कि जिन नए बच्चों का इस साल दाखिला हुआ है सबके पास मोबाईल है। पहले अभिभावक सीनियर छात्रों से पूछते थे... 'बेटा shopping-complex किधर है... वहां गद्दा, बाल्टी, वगैरह मिल जाता है ना? और भी कुछ समान लिखे हैं counselling-service के booklet में... सब कुछ मिल जाएगा? या कुछ बाहर से भी लाना पडेगा ?' मुझे याद है मुझसे भी पिछले साल एक अभिभावक ने पूछा... 'बेटा shopping-complex किधर है? वहां सिम-कार्ड मिल जाएगा? यहाँ connectivity कैसी है? कौन सा लेना अच्छा रहेगा? इत्यादि'
खैर तीसरे साल में हम थे तब से हमारे मित्रों ने भी लेना शुरू किया... और फिर अंततः हमने भी ले ही डाला। और चिट्ठियाँ? अरे उन्हें तो मैं भूल ही गया था... वैसे उनका सिलसिला मित्रों के मोबाईल लेने के साथ-साथ टूटता गया। उनके मोबाइल पर फ़ोन आने लगे. लोग मुझे ज़रा पुराने विचारो वाला मानते हैं या यूं समझ लीजिये कि कई मामलों में लोग जहाँ से बदलते हैं... मेरी पुरानी आदते और दृढ हो जाती हैं। - नोस्टाल्जिया। विदेश से लौटने के बाद मेरे दोस्तो ने अंग्रेजी में बात-चीत बढ़ा दी... मैंने हिंदी में। जहाँ तक चिट्ठियों का सवाल है... मैंने अपनी पढ़ाई का पहला उपयोग उन्ही पर किया था। चिट्ठियों में जो भावनाएं झलकती हैं... चिट्ठी खोलने से पहले की उत्सुकता...शुभकामनाओं के साथ आरम्भ... । मोबाईल पर I miss you कह देना और बात है... पर इसकी जो अनुभूति चिट्ठी पढ़ कर होती थी... कह नहीं सकता। डाकिये की प्रतीक्षा से लेकर चिट्ठी की आख़िरी पंक्ति पढने तक... सबमें एक अलग ही आनंद होता था। चिट्ठी में लिखने वाले के चहरे के साथ-साथ दिल भी तो झलकता था... । वैसे समय के साथ-साथ सबकुछ बदलता है... पहले दिल से दिल जुड़ते थे... फिर तार से तार जुड़ने लगे... अब कुछ भी नहीं जुड़ता! मोबाईल अत्यावश्यक है ... पर मुझे इन missed calls में कहीँ ना कहीँ चिट्ठियों की कमी महसूस होती है... ।
ये मेरे व्यक्तिगत विचार हैं... और कृपया इसके लिए मुझे पुरानी विचाराधारा का ना समझें... वैसे तो मैं बहुत प्रगतिशील सोच रखता हूँ :-)
पाँच साल पहले जब मैंने इस संस्थान में नामांकन कराया था... सप्ताह में एक चिट्ठी तो आ ही जाती थी। वैसे चिट्ठियों से मेरा नाता बचपन से रहा है... पर यहाँ आने के बाद लगाव कुछ और ज्यादा हो गया था। १० दिन में एक बार फ़ोन भी आ जाता था, पर चिट्ठियों का सिलसिला रुका नहीं। फ़ोन से याद आया... फ़ोन करने के लिए pco पर ३०-३० मिनट इन्तज़ार करना पड़ता था। तीन छात्रावास के छात्र होते दो पीसीओ... सबकी कक्षाएं लगभग साथ ही होती थी... फिर शाम को सब साथ ही फ़ोन करने आते थे। नौ बजे के बाद. हाँ... घर से अक्सर फ़ोन आता था । दौलतरामजी छात्रावास कार्यालय से दौड़ते हुए आते थे... 'आपके घर से फ़ोन है... जल्दी चलिये होल्ड रक्खा है...'। मैं किसी पुराने जमाने की बात नहीं कर रहा... ये बातें २००२-२००३ की ही है।
फिर आया मोबाईल ... । हमने सुना कि जिन नए बच्चों का इस साल दाखिला हुआ है सबके पास मोबाईल है। पहले अभिभावक सीनियर छात्रों से पूछते थे... 'बेटा shopping-complex किधर है... वहां गद्दा, बाल्टी, वगैरह मिल जाता है ना? और भी कुछ समान लिखे हैं counselling-service के booklet में... सब कुछ मिल जाएगा? या कुछ बाहर से भी लाना पडेगा ?' मुझे याद है मुझसे भी पिछले साल एक अभिभावक ने पूछा... 'बेटा shopping-complex किधर है? वहां सिम-कार्ड मिल जाएगा? यहाँ connectivity कैसी है? कौन सा लेना अच्छा रहेगा? इत्यादि'
खैर तीसरे साल में हम थे तब से हमारे मित्रों ने भी लेना शुरू किया... और फिर अंततः हमने भी ले ही डाला। और चिट्ठियाँ? अरे उन्हें तो मैं भूल ही गया था... वैसे उनका सिलसिला मित्रों के मोबाईल लेने के साथ-साथ टूटता गया। उनके मोबाइल पर फ़ोन आने लगे. लोग मुझे ज़रा पुराने विचारो वाला मानते हैं या यूं समझ लीजिये कि कई मामलों में लोग जहाँ से बदलते हैं... मेरी पुरानी आदते और दृढ हो जाती हैं। - नोस्टाल्जिया। विदेश से लौटने के बाद मेरे दोस्तो ने अंग्रेजी में बात-चीत बढ़ा दी... मैंने हिंदी में। जहाँ तक चिट्ठियों का सवाल है... मैंने अपनी पढ़ाई का पहला उपयोग उन्ही पर किया था। चिट्ठियों में जो भावनाएं झलकती हैं... चिट्ठी खोलने से पहले की उत्सुकता...शुभकामनाओं के साथ आरम्भ... । मोबाईल पर I miss you कह देना और बात है... पर इसकी जो अनुभूति चिट्ठी पढ़ कर होती थी... कह नहीं सकता। डाकिये की प्रतीक्षा से लेकर चिट्ठी की आख़िरी पंक्ति पढने तक... सबमें एक अलग ही आनंद होता था। चिट्ठी में लिखने वाले के चहरे के साथ-साथ दिल भी तो झलकता था... । वैसे समय के साथ-साथ सबकुछ बदलता है... पहले दिल से दिल जुड़ते थे... फिर तार से तार जुड़ने लगे... अब कुछ भी नहीं जुड़ता! मोबाईल अत्यावश्यक है ... पर मुझे इन missed calls में कहीँ ना कहीँ चिट्ठियों की कमी महसूस होती है... ।
ये मेरे व्यक्तिगत विचार हैं... और कृपया इसके लिए मुझे पुरानी विचाराधारा का ना समझें... वैसे तो मैं बहुत प्रगतिशील सोच रखता हूँ :-)
शेष फिर कभी... ।
~Abhishek Ojha~
सच कहते हैं. अब तो कोई परिवारिक चिट्ठी या मित्र से पत्र पाये एक अर्सा बीता-सच उस अनुभूति की कमी कहीं न कहीं खटकती तो है.
ReplyDeleteमैं तो पुरातन पंथी हूँ..चिट्ठियों की बात अलग थी.. फोन तो प्रेत-पिशाच का रूप है.. वैसे आप प्रगतिशील होने से बचें.. पतनशील होने के बारे में सोचें..
ReplyDeleteसत्य कथन है आपका। आधुनिकता बहुत से मायनों में भावनाओं से दूर कर देती है, मोबाईल युग का आना और चिट्ठियों का गायब होते जाना इसी बात का एक उदाहरण है।
ReplyDeleteमोबाईल में बातें तो हो जाती हैं आवाज़ सुन लेते हैं लेकिन जो उत्सुकता, अनुमान एक चिट्ठी को खोलते समय होता है, वह बात इसमें नहीं।
hey..this is also my hobby...
ReplyDeleteमगर अब वक्त बदल गया है…।
आपकी ये पत्रों को सहेज कर रखने की आदत तो मुझसे मिलती है । आपकी बातों से पूर्णतः सहमत हूँ और हाँ खुद को प्रगतिशील भी समझने की हिमाकत करता हूँ :)
ReplyDeleteबिल्कुल जी चिट्ठी आई देख कर ही दिल खुश हो जाता था, फिर चाव से उसे कई कई बार पढ़ना। संभाल कर रखना। ये मजा आने वाली पीढ़ी क्या खाक समझेगी।
ReplyDeleteचिट्ठी बांचन के दर्द को अच्छा समेटा। :)
ReplyDeleteआप चूकिं कानपुर में ही हैं इसलिए आपके लिए एक संदेश है, देखें - संभव हो तो पहुँचें।
http://masijeevi.blogspot.com/2007/05/blog-post_07.html
thats true 1 chitthi ki feeling phone mein nahi hai....main bhi ap i saari chitthiyan sambhal ke rakhti hu...aur unhe padti bhi hu....unhe padh ke kuch alag si 1 feeling hoti hai....jise words mein describe karna shayad aasan nahi hoga....par haan aaj ke dinon mein bhi apni bhavanaon ko vyakt karna utna mushkil nahi hai....i prefer writing my thooughts down n sending it in a email....if not a letter...
ReplyDelete"ये मेरे व्यक्तिगत विचार हैं... और कृपया इसके लिए मुझे पुरानी विचाराधारा का ना समझें... वैसे तो मैं बहुत प्रगतिशील सोच रखता हूँ :-)"
ReplyDeleteये मेरी दिल की बात कही आपने... अभिषेक जी, आज इतने दिनों बाद आपकी पोस्ट पढ़ कर मुझे लगा की अब मेरा परिचय अभिषेक ओझा से हुआ. इन चिट्ठियों ने दिल के तार जोड़ दिए. वर्ना मोबाइल में इतना दम कहाँ. बहुत ख़ुशी हुई.
- सुलभ :)
This comment has been removed by a blog administrator.
ReplyDeleteThis comment has been removed by a blog administrator.
ReplyDeleteThis comment has been removed by a blog administrator.
ReplyDeleteफोन ट्विटर है,चिट्ठी ब्लॉग पोस्ट है, चाहो तो बार-बार पढ़ो।
ReplyDeleteदस साल पुरानी पोस्ट है। पढ़ कर मन किया ऐड्रेस माँग कर तुमको चिट्ठी लिख ही मारें अब :)
ReplyDelete