मौसम और प्राकृतिक छटा तो मनमोहक है... पर अनियोजित शहरीकरण/विकास, बेलगाम यातायात तथा प्रदूषण मन को दुखित कर देते हैं। पानी की किल्लत तो पूरे शहर में है। सिक्किम में प्राकृतिक छटा के अलावा बाक़ी जिन चीजों ने मन मोह लिया था उन सबकी कमी महसूस हुई। सड़क पर दुकान लगाना आम बात है... सिक्किम की तरह आवागमन के लिए कोई निर्धारित किराया सूची भी नहीं है। पीछे लग जाना तो कुछ नहीं... अगर आपके होटल के कमरे में भी कोई कुछ बेचने आ जाये तो घबराने की जरुरत नहीं है। और पालीथीन?... हम जिस दिन दार्जिलिंग पहुचे उसी दिन प्रतिबंधित हुआ, शायद अब कोई जाये तो कम दिखे। सिक्किम से आते हुए हम मल्ली नाम की जगह पर राफ्टिंग के लिए रुके तो एजेंट्स कुछ यूं पीछे पडे और आपस में इतना झगड़ा किया कि... राफ्टिंग के ६ घंटे बाद तक हम ठगा हुआ महसूस करते रहे। 'कोस कोस पर पानी बदले, चार कोस पर बानी' ये सुना तो था पर लोगो का व्यवहार भी इतनी जल्दी बदल जाएगा... कभी सोचा ना ।
सिक्किम से दार्जिलिंग जाते समय रास्ते में पडने वाले जंगल, तीस्ता और रंगीत नदियों का संगम देखने योग्य है। चाय के बगान और देवदार के जंगल भी अच्छा दृश्य बनाते हैं। टाइगर हिल पर व्यतीत की गई सुबह , चाय बगान, नैचुरल हिस्ट्री म्यूजियम जैसी जगहें अच्छी तो लगी लेकिन इनके अलावा वो कुछ नहीं दीखा जो मन को भा जाये। एजेंट्स को तो बस लगता था की हमारा ही इंतज़ार था... और बस हमीं से वो राजा बन जायेंगे। अरे भाई! मुर्गी को मार देने से क्या मिल जाएगा... संयम रखो तो रोज़ एक अंडा तो मिलेगा। विकास के नाम पर बनी अनियोजित और अदूरदर्शी कंकरीट की इमारतें... पानी की किल्लत... प्रदूषण ... अरे बख्स दो यार !
दार्जिलिंग हिमालयन रेल में व्यतीत किया गया समय भी यादगार रहा। दार्जिलिंग हिमालयन की बात आयी तो ये बता दें की १८७९ में इसका निर्माण कार्य प्रारम्भ हुआ था। ८८ किलोमीटर में कुल ३ लूप, ६ ज़ेड रिवर्सल और १३ स्टेशन पड़ते हैं। १९९९ से यह यूनेस्को विश्व धरोहर में शामिल है। अभी भी वाष्प से चलने वाले पूराने इंजन इस्तेमाल किये जाते हैं।
५० साल पहले दार्जिलिंग कैसा था ये देखकर ही अनुमान लगाया जा सकता है... आज उजड़ा हुआ लगता है। सोच कर ये दुःख तो होता ही है ... परायों ने अच्छा रखा था... हम ये क्या कर रहे हैं... । प्राकृतिक सुन्दरता तो अभी बरकरार है पर ऐसा ही चलता रहा तो आख़िर कब तक बच पायेगा।