Nov 4, 2017

सीट नं ६३


बनारस से बलिया जितना पास है जाने के पहले उतना ही ज्यादा सोचना पड़ता है  - व्युत्क्रमानुपात में. इतनी कम दुरी है कि यात्रा तो सड़क से ही करनी चाहिए। ..पर सड़क से की गयी यात्राओं का इतिहास कुछ ऐसा विकट घनघोर रहा होगा कि कोई उसकी बात भी नहीं करता - जाना तो दूर की बात है. और रेल यात्रा का तो ऐसा है कि आपको भी पता ही होगा - सिंगल लाइन,  टाइमिंग , क्रॉसिंग नहीं होनी चाहिए. चेन पूलिंग। यानि बनारस से बलिया जाने वाले प्रॉब्लम की बॉउंड्री कंडीशंस ही इतनी है कि फीजिबल सोल्यूशन बहुत कम हो जाता हैं. (ऑप्टिमाईज़ेशन  की भाषा में उपमा लिखना कितना तो सरल है). जिस दिन अमेरिका से दिल्ली तक आने के लिए जितना सोचना पड़ता है उससे कम या उतना बनारस से बलिया जाने के लिए सोचना पड़े उस दिन मैं तो पूर्वी उत्तर प्रदेश को विकसित घोषित कर दूंगा. भूमिका ख़त्म.

भूमिकोपरांत ब्लॉग के पाठक को मालूम हो कि पिछले दिनों हमें बनारस से बलिया जाना था. शुभचिंतकों से पता चला कि एक नयी-नवेली-बहुत-अच्छी ट्रेन चली है. सुबह सुबह मिल जाए तो तीन घंटा में बलिया लगा देती है. शोध करने के बाद बचे एक ही विकल्प में से उसे ही चुन लिया गया। उसके बाद अनुभवी लोगों की सीख - 'बनारस से बलिया के लिए रिजर्वेशन कौन कराता है? - बौराह' को न मानते हुए (या मानते हुए भी हो सकता है - बौराह वाला पार्ट) हम वो भी करा लिए.

ट्रेन उस दिन एकदम से राइट टाइम थी सो आधे घंटे की देरी से प्लेटफ़ॉर्म पर आ गयी. असुविधा से होने वाले खेद की नौबत भी नहीं आयी। आती तो हमारी पहले से योजना थी बाहर चाय पीने जाकर उसे सुविधा बनाने की। एक बार बनारस में कुल्हड़ में चाय पीए थे वो 'मोमेंट' दोहरा आते। ख़ैर... हम अंदर गए तो कोच में घमासान मचा था. एक लड़का सीट नंबर ६३ पर पहले से सो रहा था. एक सज्जन बोल रहे थे कि उनका रिजर्वेशन है लेकिन लग रहा है कि बैठने को जगह भी नहीं मिलेगी. एक अन्य सज्जन पर्ची पर नीले रंग की स्याही (स्याही को स्याही मत समझना, रिफ़िल वाली - बॉल पॉइंट पेन से  लिखे थे) से एक के नीचे एक पाँच लिखे नंबर (जैसे बनिए के दूकान से सामान लाने के लिए लिस्ट लिखी गयी हो) देखकर बोल रहे थे - 'पांड़ेजी बैठिये न हटा के. तिरसठ, चौसठ, इक्यावन, बावन और पचपन अपना बर्थ है'. पर्ची लहराते हुए पांडे जी के मित्र युद्ध स्तर पर सीटों पर क़ब्ज़ा कर रहे थे।

हम सोच में पड़े थे कि ६३ नम्बर सीट तो ईमेल, एसेमेस वग़ैरह के हिसाब से रेलवे ने हमको भी ऐलॉट किया है  तभी एक नौजवान आया और सीट पर लेटे हुए लड़के से बोला - 'हम  नीचे गए थे पानी पीने तो आप लेट गए ? हमारा रिजर्वेशन है। उठिए'.

लड़का लेटे लेटे बोला - 'हम जौनपुर से सोते हुए आ रहे हैं और आपका रिजर्वेशन है? कम झूठ बोला कीजिए महाराज'
मुझे  देखकर पैर मोड़ते हुए बोला - 'बैठ जाइए। सबके पास चालुए टिकट है'. या तो लड़के को लगा कि एक यही है जिसने अभी तक सीट पर दावा नहीं ठोका। या समझ आ गया होगा कि ज़रूर इसी के पास टिकट है। मिला लेने में ही फ़ायदा है - अनुभव भी तो कोई चीज़ होती है!

ऐसा नहीं है कि हमने ये सब कभी देखा नहीं है। पर ये पर्ची वाला नया कॉन्सेप्ट था। बिलकुल नया।

हम एहसान में मिली जगह पर बैठ गए. जो पानी लेने उतरे थे वो भी खिसका के बैठ लिए। पर्ची वाले सज्जन को अभी भी एक सीट कम पड़ रही थी। उनका फ़रमान था 'हमारा सीट है कम से कम बैठने तो दीजिए'.
लड़के ने बोला - 'आपका सीट  कैसे हो गया? टिकट दिखाइए हम हट जाएंगे.'
'टिकट हम आपको क्यों दिखाएं ? टीटी आएगा तो दिखाएँगे'.
'टीटी आएगा और बोलेगा तो हम भी हट जाएंगे ! टीटीये लिख के दिया है क्या आपको सीट नम्बर? या ख़ुद ही लिख लिए हैं? पर्ची पर लिख लेने से सीट आपका हो जाएगा?' पर्ची की महिमा से वो अपने मित्र पांडेजी को सपरिवार तो बैठा चुके थे लेकिन इस तर्क पर अंतिम सीट उन्होंने छोड़ दिया। उन्हें लगा होगा कि कट लेने में ही भलाई है। 'क्या मुँह लगा जाय' वाला लूक देकर वो कट लिए। फ़िलहाल हम भी अपने सीट पर बैठ ही गए थे। जौनपुर से लेटकर आ रहा लड़का भी उठकर बैठ गया और जो पानी लेने उतरे थे उनका भी सीट पर दूसरी तरफ़ क़ब्ज़ा हो ही गया था। क़ब्ज़े के अवैध होने की बात नहीं थी क्योंकि जब हमने अंततः दिखाया कि टिकट हमारे पास है तो बात ये हो गयी कि दिन का रिज़र्वेशन होता ही नहीं है ! लेकिन मत ये भी था कि भाई जिसने नासमझी में दिन का रिज़र्वेशन करा लिया है तो उसको बैठने को तो मिलना चाहिए ...और वो हमें मिल ही गया था। तो सब कुछ जैसा होना चाहिए वैसा ही हो गया था। आगे कुछ कहने सुनने को बचा नहीं।


इन सबके परे हमें एक चीज़ बहुत अच्छी लगी। इस रूट (की सभी लाइनें व्यस्त होने वाली बात नहीं है बिना पूरी बात पढ़े कंक्लूड मत कीजिए) पर मैं उस उम्र से चल रहा हूँ जब इस इलाक़े में बहुत अभाव था। ग़रीबी थी। घनघोर। (अभी भी है पर... ) तब लोग झोले-बोरे में समान लेकर चलते। कपड़े इतने झकाझक साफ़ नहीं पहनते। अब सबके हाथ में स्मार्ट फ़ोन और सबके पास बैग। खिड़की से बाहर देखने पर साइकिल की जगह मोटरसाइकिलें। जीवन स्तर में  परिवर्तन के लिए किसी इंडेक्स को देखने की ज़रूरत नहीं होती। (इसे राजनीति से जोड़कर मत पढ़िए, व्यक्तिगत अनुभव है। और वो इलाक़ा वैसे ही धीमी गति का है। फ़टाक से कुछ भी कंक्लूड मत कीजिए)। वैसे इलाक़े का तो ये भी है कि स्वच्छ भारत में सरकार ने जब शौचालय बनवा के दिया तो लोगों ने अपने घरों के सामने स्ट्रेटजिक लोकेशन पर बनवाया ताकि उसमें गोईंठा वग़ैरह रखा जा सके!

खैर... हमारे पास बात करने की कमी तो होती नहीं है तो बातों बातों में पता चला युसुफ़पुर (ज़िला ग़ाज़ीपुर) आ रहा है. कहने का मतलब कि ट्रेन युसुफपुर पहुँच रही थी युसुफपुर तो जहाँ है वहीँ रहेगा. आये तो टीटी साहब... बहुत कम सीटें थी जिनपर वैध टिकट वाले लोग थे तो अपने हिसाब से स्ट्रेटजिक लोकेशन देखकर बैठ गए वो भी सीट  नंबर ६३ पर ...एडजस्ट कर-करा के.

'टिकट बनवाएंगे कि किराया देंगे?' उद्घोषणा के साथ. किसी से टिकट मांगने की जरुरत नहीं समझी उन्होंने. उनका तो ये सब रोज का था. केवल कहने को नहीं ...सच में रोज का. चोरी अकेले की हो तो चोरी होती होगी - सामूहिक थी तो मामला ध्वनिमत से ही पारित होना था. जैसा अक्सर होता है यहाँ भी चोरी चोरी नहीं मज़बूरी थी. पर्ची वाले सज्जन ने कहा - 'देखिये अब जनरल में जाना तो संभव ही नहीं था ऊपर से परिवार साथ है तो कुछ कर नहीं सकते थे.'

'सही बात है. उसकी तो गुंजाइस ही नहीं है. चलिए कुछ दे दीजिये।'  टीटी  ने सहमत होते हुए कहा। मुझे लगा ये कुछ दे दीजिये क्या होता है? एकदम लूजूर-पुजूर टीटी। ये भी नया ही था थोड़ा. ऐसे थोड़े कोई मांगता है - माने श्रद्धा से कुछ दे दीजिये ! खैर.. रेल मंत्रालय ने अटेंडेंट को तो 'नो टिप प्लीज'  की वर्दी पहना दी पहले टीटी को ही पहना देते ! जौनपुर से आ रहा होनहार लड़का अपना बैग ठीक करते हुए खड़ा हुआ - 'हमारा तो स्टेशन आ गया... बाकी आप लोग तो पढ़े लिखे लोग हैं. समझदार हैं. देख लीजिये. कुछ न कुछ हिसाब बैठ ही जाएगा.'

'पढ़े लिखे होने' की ऐसे याद दिला गया जैसे चिंतामग्न बानरों से जामवंत के रोल में कह रहा हो- 'स्टेशन अयउँ न त करतेउँ कछुक सहाय तुम्हार' और निकल लिया।

इसी बीच किसी के फ़ोन पर 'कौन दिशा में लेके चला रे बटोहिया' बजा तो कन्फर्म हुआ गाड़ी  सही रूट पर ही है। श्रद्धानुसार बिना किसी झंझट कुछ कुछ लोगों ने टीटीजी को चढ़ावा दिया। ट्रेन रुकी - युसुफ़पुर।

चाय-गरम चाय वाले से मैंने पूछा तो बोला - 'दस रुपए'। खुदा क़सम एक बात झूठ नहीं लिख रहे हैं ...दस रुपया सुनकर हमें लगा महँगाई बहुत बढ़ गयी है (खुदा क़सम का ऐसा है कि एक दोस्त बचपन में झट से 'खुदा क़सम' बोल देता। एक दिन अकेले में राज की बात बताया कि बहुत सोच समझ के उसने फ़ाइनलाइज किया था कि झूठ बोलने में विद्या क़सम खाने का रिस्क नहीं ले सकते, माँ क़सम का भी नहीं। भगवान क़सम में भी रिस्क तो है ही। खुदा कसम में कोई रिस्क नहीं। विभागे अलग है ! गणित विभाग के विद्यार्थी को इतिहास विभाग के शिक्षक से क्या रिस्क।) दस रुपया? युसुफ़पुर में? हमने चाय नहीं पी। जीवन स्तर-वस्त्र सब तो ठीक है लेकिन युसुफ़पुर में दस रुपए की चाय? वैसे युसुफ़पुर अगर कोई इंसान होता तो लड़ पड़ता - क्यों भाई ? हमारे यहाँ की चाय दस रूपये की क्यों नहीं हो सकती ! डिस्क्रिमिनेशन का इल्जाम लग जाता सो अलग ! खैर... चाय के तो हम वैसे भी बहुत शौक़ीन नहीं पर कुछ बातें समझ सी आ गयी। ...कि कैसे जब सुना था किसी को कहते हुए कि 'चार आना पौवा, पेट भरौवा’ जलेबी मिला करती थी। बात याद रह गयी थी बात का मर्म थोड़ा सा ही सही ..समझ अब आया। या कि कैसे कोई सब्ज़ी लेकर आता और उनके बूढ़े पिताजी पूछते कि सब्ज़ी कितने की मिली तो २० रुपए किलो के लिए भी कहते 'बाबूजी २ रुपए किलो’. या फिर अभी हाल में पढ़ा ये ट्वीट। दो रुपए तक की चाय तो हमने भी इस रूट पर बिकते देखा है।

हरे भरे खेतों के बीच से गुज़रते हुए एक जगह रेलवे लाइन के समांतर एक कतार में खड़े कई ट्रक दिखे। ड्राइवर-खलासी खाना बनाने की तैयारी कर रहे थे। आटा गुँथते, सब्ज़ी काटते, एक अरसे बाद किसी को स्टोव (जिसे एक उम्र तक हम 'स्टोप' सुना करते) में हवा भरते देखा! एक ट्रक पर पूनम, सोनी, अजय समेत पाँच नाम लिखे थे। लगा जैसे 'ट्रान्स्पोर्ट कम्पनी' (जैसा हर ट्रक पर लिखा हुआ था - यादव ट्रान्सपोर्ट कम्पनी वग़ैरह) के सीईओ को एक ही ट्रक पर पाँच नाम किसी मजबूरी में ज़बरन घुसाने पड़ गए थे। एक ट्रक पर तुलसी बाबा की चौपाई लिखी थी - 'चलत बिमान कोलाहल होई, जय रघुबीर कहई सबु कोई'। ड्राइवर के बैठने की जगह पायलट लिखने से बहुत ऊँचे स्तर की चीज़ थी ये। कुछ चीज़ें देखकर बिना किसी कारण ही अच्छा लगता है। चलती ट्रेन से ये एक झलक भी वैसा ही था। तुलसी बाबा की उड़ते हुए विमान में कोलाहल होने की दृष्टि भी और उसका ट्रक पर लिखा होना दोनों - स्वीट, क्यूट जैसा.


वैसे तो हमें थोड़ा और आगे तक जाना था लेकिन बलिया स्टेशन आया तो हम उतर गए। एक्सप्रेस ट्रेन छोटे स्टेशनों पर रूकती नहीं और ऊपर से रविवार का दिन। ..नहीं तो 'पढ़ने वाले लड़के' ट्रेन रोक ही देते। इस इलाक़े में पढ़ने वाले लड़के आज भी गुणी होते हैं - 'बलिया ज़िला घर बा त कौन बात के डर बा’ परम्परा के वाहक । चेन, वैक्यूम वग़ैरह खींच-काट के ट्रेन रोकने में सिद्धहस्त। (वैक्यूम कैसे कट जाता है पता नहीं  - बस सुना है) लेकिन ऐसा नहीं होता तो छपरा तक चले जाने का ‘रिक्स’ था तो ‘हम तो कहेंगे कि चलिए बीच में कहीं ना कहीं तो ज़रूर रुकेगी’ के आश्वासन के बाद भी हम उतर गए।

 स्टेशन से बाहर निकलते ही एक लड़का आया - 'भैया, गाड़ी होगा?'

हमने बात करने में रूचि दिखाई तो दो और आ गए। मैंने मन में जोड़ घटाव किया और बताया कि किलोमीटर के हिसाब से पैसे कुछ ज़्यादा हैं। मैं भोजपुरी में बात कर रहा था लड़का हिंदी में !

'हाँ भैया, ओला उबर सब किलोमीटर का हिसाब कर दिया है शहर में लेकिन यहाँ हमलोग को पोसाता नहीं है'। गाड़ी की बात छोड़कर मैंने पहले एक गम्भीर सवाल पूछ लिया - 'ए भाई, बलियो में हिंदी बोलाए लागी त भोजपुरिया कहाँ बोलायी?' लड़का झेंप गया पर बात हिंदी में ही करता रहा। इसी बीच एक दूसरा राज़ी हो गया चलिए हम ले चलेंगे। कॉम्पटिशन का फ़ायदा ! ये दुनिया में हर जगह काम कर जाता है। मोर्गन स्टैन्ली और गोल्ड्मन सैक्स के इग्ज़ेक्युटिव्ज़ से मीटिंग में कह दीजिए कि ' योर रेट ईज़ नॉट कम्पेटिटिव। कंपटिटर्स आर गिविंग अस बेटर रेट' या ज़िला बलिया के गाड़ी वाले हों। मामला कम्पेटिटिव रेट की बात हो जाने पर अपने आप सही रेट पर कन्वर्ज कर जाता है। सामने वाला का टोन  ही बदल जाता है. जय हो कम्पटीशन देवता।  थोड़ी दूर खड़ा एक और गाड़ी वाला हमारी बात सुन रहा था। फ़ाइनल होने के बाद वो आया और बोला कि 'भैया हमारी वाली एसी गाड़ी है लेकिन उसमें थोड़ा ज़्यादा लगेगा'। मैंने उसे बताया मैं भीआइपी तो हूँ नहीं, बात नहीं बनती तो बस से जाने का प्लान था। तो बोला - 'भैया, भीआइपी के कौनो बात नइखे। एसिया में तनी ख़र्चा ढेर लागेला'। हमें उसकी ईमानदार बात पसंद आयी। गाड़ी यानी एम्बेसडर। अभी भी हिंद मोटर में काम किए लोगों के नाती-पोतों को नोस्टालज़ियाने का काम बख़ूबी कर रही हैं खंडहर हो चुकी अंबेसडर कारें।

निर्माणाधीन सड़क अपना नाम सार्थक कर रही थी। सड़क के दोनों तरफ़ हर चीज पर धूल की इतनी गहरी परत थी कि - चढ़ै न दूजो रंग. क्या पेड़, पत्ते और क्या दूकान-घर. घुटन के स्तर की धूल। पर पैड़ल रिक्शा की जगह बैटरी रिक्शा देखना उम्मीद से ज्यादा सुखद था. और ये धूल-धक्कड, पीं-पाँ से भरा 'बलिया शहर' (शहर ही कहते हैं लोग! इस बात पर पटना की याद आयी जब बैरीकूल ने कहा था - भैया, जैसे न्यू यॉर्क को एनवायीसी कहते हैं वैसे ही पटना को भी पटना सिटी कहते हैं।) ५ मिनट में निकल गया तब हवा भी मन को चकाचक करने वाली मिली और हरे भरे खेत भी। बीच बीच में इलाक़े का फलता फूलता उद्योग - प्राइवेट स्कूल और ईंट भट्ठे। यहाँ फिर एक बार लगा जैसे भी हुआ हो बदलाव तो हुआ है। जींस पहने, स्कूटी चलाते लड़कियाँ भी दिखी।

लेकिन असली मन वाली बात हुई जब गाना बजा। और जो मुस्कान मेरे चेहरे पर आयी वो खुदा क़सम झूठ नहीं बोल रहे हैं (फिर से !) वैसी मुस्कान पहली बार इश्क़ में बौराए इंसान के चेहरे पर भी नहीं आती। जब हम पढ़ने वाले लड़के (गुणी नहीं थे, ट्रेन व्रेन का चेन नहीं खींचे है) हुआ करते थे उन दिनों टेम्पो, विक्रम, बस वग़ैरह में एक ख़ास क़िस्म के गाने बजते। और उन दिनों दिमाग़ में मेमोरी भी बहुत होती अंट-शंट बातें याद रखने की ...तो हमें कुछ ऐसे धाँसू गानों की प्ले लिस्ट याद हो गयी थी (गाड़ियों में सुन सुन के घर में वो कैसेट नहीं थे)। ए-साइड में किस गाने के बाद कौन गाना बजेगा, बी-साइड में कौन सा। टी-सिरीज़ के गिने चुने तो लोकप्रिय कैसेट थे इस धाँसू श्रेणी के। यूँ तो कैसेट से और बाद में सीडी से भी बजने वाले गानों की आवाज़, सुर और गति का एक अलग ही स्तर होता - टेम्पो के बाजे में जो मोटर जैसा कुछ होता वो कुछ ज्यादा ही गति से चलते । जिसने वो सुना है वही ये वाली बात समझ सकता है! बिन अनुभव किए वो बात नहीं समझ आनी। तो हम आगे लिखने की कोशिश भी नहीं करने जा रहे। पेन ड्राइव से बज रहे गानों को सुन के लगा ... बदलते ज़माने में कुछ तो है जो बचा हुआ है। - वही प्लेलिस्ट. हमारी ना छुप सकने वाली मुस्कान पर लड़के ने गाने का वोल्यूम बढ़ा दिया और उसके बाद अगला गाना मुहम्मद अज़ीज़ की आवाज़ में जो न गूंजा -

 .... मितवाआSS भुउउउउल न जाना मुझSकोओओ...।


~Abhishek Ojha~

Apr 26, 2017

लिखावट


कुछ दिनों पहले एक मीटिंग में किसी को फाउंटेन पेन से लिखते देखा। हरे रंग की स्याही। घुमावदार लिखावट - कैलीग्राफी जैसी । मुझे ठीक ठीक याद नहीं इससे पहले मैंने ऐसी लिखावट कब देखा था। बहुत अच्छा सा लगा। कई पुरानी बातें याद आयी। सालों पुरानी। खूबसूरत बातें।

सेंट जेवियर्स कॉलेज राँची  - ग्यारहवीं कक्षा। केमिस्ट्री के एक प्रोफ़ेसर मोल कॉन्सेप्ट पढ़ाते थे। उनसे जुडी दो बातें याद हैं - उनकी बंधी हुई चुटिया और लिखावट। ब्लैक बोर्ड पर जब वो लिखते तो उनके हाथों में एक थिरक  होती. 'Avogadro' लिखते तो 'g' के दो गोले बिना चॉक उठाये लिखने के बाद उसके ऊपर की फुनगी बनाने के लिए वो चॉक उठाकर एक झटके से हाथ घुमाते. उनका चॉक ऐसे चलता किअक्षरों के वक्र मोटे-पतले-लचकते हुए ब्लैकबोर्ड पर सौंदर्य बना देते।

रसायन  उनसे कितना सीखा वो याद नहीं पर हम उनके बारे में दो बातें बोलते और दोनों में उनकी लिखावट का जिक्र आता - 'ये किसी जमाने में महारानी विक्टोरिया का शाही फरमान लिखते थे गलती से केमिस्ट्री पढाने लगे'. और दूसरी ये कि लिखते समय उनके हाथ और उनके चुटिया के हार्मोनिक मोशन की फ्रीक्वेंसी सामान होती है. किसी स्प्रिंग से जुड़े की तरह दोनों एक लय में घूमते.

मुझे नहीं याद मैंने उससे अच्छी अंग्रेजी की लिखावट कभी देखा हो वो भी ब्लैक बोर्ड पर  - लाइव ! उनका लिखा हुआ मिटते देख ऐसे लगता जैसे किसी ने खूबसूरत रेत मंडल बनाकर मिटा दिया हो (यहाँ रूककर रेत मंडल के बारे में पढ़ लीजिये। कभी मौका मिले तो उसका बनना बिगड़ना जरूर देखिये और महसूस कीजिये - संसार चक्र।) हमें ऐसी लिखावट अच्छी तो बहुत लगती पर ये उम्र हमने अंको, समीकरणों और ढलान पर गेंद लुढ़कने की गति को समझने जैसी बातों में गुजार दी। ये शब्दों से साथ छूटने की उम्र थी. लिखावट की जगह घसीट कर कम से कम लिखने और ज्यादा से ज्यादा समझने के दिन थे. कागज पर अक्षर की जगह तीर, गोलाई और रेखा चित्रों की खिंचाई होती। कर्व अक्षरों की जगह इक्वेशनों के बनने लगे. हिंदी और अंग्रेजी की कक्षायें सिर्फ जरुरत की हाजिरी भर के लिए गए. ...हमारी लिखावट बुरी नहीं तो कैलीग्राफी जैसी भी नहीं हो पायी.

कलम से याद आया। हमारी पीढ़ी ने घोर परिवर्तन देखा है। पीढ़ी का पता नहीं पर मैंने देखा है। गाँव के स्कूल में जहाँ मैंने पढ़ना-लिखना सीखा। गुरुकुल के जमाने और उसमें कुछ ख़ास अंतर नहीं आ पाया था। लकड़ी की पटरी (तख्ती) और खड़िया  पर मैंने लिखना सीखा - स्लेट और चॉक-पेन्सिल नहीं ढेले सी खड़िया और पटरी। पटरी को शीशे की दवात की पेंदी से घिस कर चमकाना फिर खड़िया का घोल कर धागे से लाइनें बना कर उस पर सरकंडे की कलम से लिखा है मैंने। (घर पर पड़े किसी जमाने के मिट्टी  के दवात भी देखे हैं लेकिन वो कभी इस्तेमाल नहीं किया) लिख लेने के बाद मिटा कर फिर से लिखने को तैयार हो  जाती पटरी। रेत मंडल  की तरह - नो अटैचमेंट्स। लिखने के बाद वाह वाही मिली और बात वहीँ ख़त्म - मिटा कर आगे बढ़ो. सहेज कर रखने का हिसाब नहीं था. इन्वायरमेंट फ्रेंडली ! एक पटरी पीढ़ियों चलती। पटरी और दवात का भी योगदान कम नहीं होता पढ़ाई में -  'फलाने की पटरी है मत लिखो इस पर. दिमाग के भोथर थे पाँचवी पास भी नहीं कर पाए. अपना लिखा खुदे नहीं पढ़ पाते हैं'.

पटरी पर लाइन बनाने के लिए एक धागे को खड़िया के घोल में डूबा कर पटरी के दोनों छोरों पर रख खींच कर छोड़ा जाता. छींटे से लाइन बनती। यज्ञ वेदी पर लाइन बन रही हो जैसे. ज्यादा घोल हो तो लाइन मोटी और भद्दी हो जाती. कम हो जाती तो लाइन दिखती ही नहीं. कम-ज्यादा के संतुलन का अनुमान वहीँ से लगने लगता. लिखने के बाद बचे हिस्से में डिजाइन भी बना देते। शब्द लिखने के लिए सीधी लाइने और गिनती लिखने के लिए ग्रिड. पटरी नहीं कैनवस !

पटरी चमकाना एक झंझट होता। हरे पत्ते लगाकर घिसना। उसी में तेज लड़के पुरानी बैटरी से निकले कालिख को कपडे में लपेट कर पटरी को काला करने का जुगाड़ बनाते. और स्कूल में खड़िया और छोटी मोटी खेलने की चीजों के बदले पटरी काली कर देते. उसी उम्र से व्यापर-धंधे की समझ होती कुछ बच्चों में।

स्याही से परिचय हुआ पुड़िआ घोल कर स्याही बनाने से. हर कपडे की जेब में स्याही लगती। स्कूल ले जाने वाले थैले में भी स्याही लगती। कलम सरकंडे से बनती, तेज धार वाले चाकू से छील कर कैलीग्राफी के निब जैसी। निब  काटना कला था अच्छा नहीं कटा तो बेकार - भोथर. कलम को दवात में डूबा-डूबा कर लिखा जाता । ज्यादा स्याही आ गयी तो फिर भोथर अक्षर. हमने ऐसे लिखना सीखा। - ऑर्गेनिक तरीके से. खड़िया, पटरी, स्लेट, पेन्सिल (स्लेट पर लिखने वाली). फिर रुलदार और चार लाइन वाली कॉपी. लिखने और छपाई के मिलाकर चार तरीके से अंग्रेजी के अक्षर लिखने सीखा था हमने. फाउंटेन पेन  बहुत बाद में हाथ लगी। इन दिनों फाउंटेन पेन के साथ होल्डर और निब से भी कुछ दिन लिखा.  निब भी हिंदी के लिए अलग, अंग्रेजी के लिए अलग. कक्षा छः में ताँबे के जी मार्का पिन को होल्डर में लगाना और लिखना सीखना शुरू ही किया था कि एक झटके से दूसरी दुनिया में ट्रांसपोर्ट हो गया. - टाट से बेंच. हरे रंग के शीशे के बोर्ड ! पढ़ाने वाले सर और हम एक पीढ़ी फाँदकर बॉल पॉइंट पेन पर आ गए. जैसे बचपन में तेज होने पर मास्टर साहब क्लास फँदा देते थे।

फाउंटेन पेन से लिखना शुरू होते ही बंद हो गया. शौक होकर रह गया. उन दिनों फाउंटेन पेन आते जिनमें रबर की ट्यूब होती जिसे पिचकारी की तरह दबा कर दवात में निब डुबोकर स्याही भरी जाती. सालों बाद मुझे किसी ने इतनी महँगी पेन दी जितने में पूरे मोहल्ले की दो चार साल की स्टेशनरी आ गयी होती। वो मैंने वैसे ही सहेज कर रखा है. फिर किसी ने पंख लगा हुआ होल्डर और खूबसूरत दवात भी दिया. इतना खूबसूरत की मुझे खोलने की हिम्मत नहीं हुई. सजा कर रखा हुआ है वैसे ही एक खूबसूरत डायरी के साथ - अटैचमेंट !

मेरी पीढ़ी ही नहीं मुझसे पहले की पीढ़ी के भी कई लोगों ने संभवतः ऐसे नहीं पढ़ा होगा. कई चीजें थी जो अब लुप्त हो गयी. स्याही की पुड़िया, सोखता कागज, स्याही से रंगे कपडे-चेहरे-थैले (फाउंटेन पेन की स्याही को सर में पोंछते रहते और हाथ जब जुल्फों से होते हुए चेहरे पर भी चल जाता...  तो चेहरा रंगीन हो जाता !), गर्म पानी से फाउंटेन पेन की सफाई. अब तो स्याही न्यूज में सिर्फ तभी आती है जब किसी के चेहरे पर पोती जाती है !

कई ऐसे अद्भुत 'बेकार' काम हैं जिसके लिए लोग कई बार पूछ लेते हैं ये कहाँ से सीखा - गांठे बनाना। जूट से रस्सी बनाना। कैसे बताया जाय कहाँ से कहाँ और कब क्या सीखा.


लिखावट एक प्राचीन और मरती हुई कला है.  ये वो कला है जिसके आर्टिस्ट और आप में सिर्फ इतना फर्क होता है कि वो आर्ट बना देते हैं और आप देख कर सोचते तो हैं कि ये तो मैं भी बना सकता हूँ पर आप कभी बनाते नहीं।

आपको लिखना आता है तो लिखिए. कभी कभार ही सही. कोशिश कीजिये आप निराश नहीं होंगे. मैंने अपने फाउंटेन पेन में स्याही कार्टरेज भरा. 'कैंट टॉक व्हाट्सऐप ओनली' के जमाने में लिखना क्या बोलना भी हमारे ही जीवनकाल में खत्म हो जाये  तो अतिश्योक्ति नहीं होगी ! जैसे चिट्ठियां ख़त्म हो गयी... चिट्ठियों से याद आया. कुछ लोगों की लिखावट गोल-मोती जैसी इतनी अच्छी होती जैसे लिखा नहीं पेंटिंग की हो. - लिखते नहीं छाप देते थे लोग! वैसे अक्षरों का फॉण्ट बनाना चाहिये. ये फॉण्ट हम जिसमें टाइप कर रहे हैं ये भी कोई फॉण्ट है !

...लेकिन हम भी देखिये टाइप करके कह रहे हैं कि - लिखना चाहिए :)

~Abhishek Ojha~


Feb 21, 2017

सैंयाजी के मालूम (पटना २१)


शनिवार की शाम... ऑफ़िस कॉम्प्लेक्स लगभग खाली हो चुका था. दिन भर भीड़ से भरी रहने वाली सीढ़ियों से उतरते हुए सन्नाटा अजीब सा लगा. जैसे किसी हॉरर फिल्म में पूरा शहर खाली कर लोग भाग गए हों. बाहर निकल कर मैं सड़क के किनारे टहलने लगा. मेरे पास वक़्त इसीलिए था क्योंकि बीरेंदर ने कहा था कि वो मुझे बाइक से छोड़ देगा और मुझे ऐसे मिली फ़ुरसत में इस तरह घूमना अच्छा लगता इसलिए मैंने उसे दुबारा फ़ोन नहीं किया.

चाय की दुकान अभी भी खुली थी पर चाय का मैं उतना शौकीन नहीं कि अकेले चाय की दुकान पर जाता। वैसे लत हो जाने वाला कभी कोई शौक मुझे हुआ नहीं. फिर मुझे आजतक ये भी समझ नहीं आया कि कुछ लोग अपने शौक को लेकर इतने स्पष्ट कैसे होते हैं कि चाय भी ये वाली, शक्कर इतना ही, फेवरेट कलर, फेवरेट मिठाई, फेवरेट इंसान… चाय के शौक़ीन तो ऐसे होते हैं कि गलती से किसी दिन चाय नहीं पी तो उस दिन सूरज नहीं ढलने देंगे लोग. यहाँ चाय लोगे या कॉफी हमारे लिए कठिन सवाल हो जाता है.

खैर… ऑफिस कॉम्प्लेक्स वाली बिल्डिंग से थोड़ी ही दूर बहुत चहल पहल थी. ठेले वाले, चाउमिन, गोल गप्पे, रिक्शा, बस, टेम्पो, गाड़ियाँ। इतनी चहल पहल कि मैं टकराने से बचते बचाते जा रहा था. आसपास की दुकाने देखते. हार्डवेयर स्टोर, पान की दुकान, सुपर स्टोर, सिंगार गृह, फैशन ही फैशन, सत्तू ठेला, फ्रेस जूस, बोर्ड पर दुकानदार के नाम के आगे लिखा प्रो., बोर्ड के नीचे स्टाइल में लिखा कलाकार का छोटा सा साइन - नीरज आर्ट. जिसमें न के ऊपर बड़ी ई की मात्रा मंदिर के ऊपर ध्वज सी लग रही थी. और आर्ट का र्ट क्षैतिज दिल. मैं टहलते टहलते मौर्य लोक पंहुच गया. लोग ही लोग. मैं अकेला ही भटक रहा था पर इतने विभिन्न तरह के रंग बिरंगे लोग दिख रहे थे कि बोर होने की गुंजाईश नहीं थी.

बीरेंदर का फ़ोन आया तो मैंने कहा कि मौर्य लोक आ जाओ.

‘पहिले बताये होते अभी हम उधरे से आये. सनीचर है त मंदिर चले गए थे’
बीरेंदर आया तो मैंने पूछा - ‘तुम मंदिर-वंदिर भी जाते हो? पता नहीं था.’

‘लीजिये, सनीचर के दिन मंदिर नहीं जाएंगे? माने अब भक्ति है या संस्कार उ हमको नहीं पता लेकिन कभी सोचबे नहीं किये कि काहे जाते हैं. आदत है. बैठिये एक ठो काम है उधरे से आप के छोर भी देंगे। एक ठो चिट्ठी बांचने जाना है”

‘चिट्ठी बाँचने? किसे पढ़ना नहीं आता? और चिट्ठी कौन लिखता है आजकल?’

‘आरे नहीं भैया, कोई सरकारी कागज होगा। चिट्ठी कहाँ आएगा अब. बैठिये बैठिये’

बीरेंदर ने बाइक आगे बढ़ाई और मंदिर की बात पर वापस लौटा जैसे चिट्ठी की बात आ जाने से अधूरी रह गयी बात को पूरा करना हो. बाइक पर लगने वाली तेज हवा से बीच में आवाज़ सुनाई नहीं देती पर मैं यूँ हुंकारी भरता और बीच बीच में हँसता जा रहा था जैसे सब सुन रहा हूँ...

‘उ का है भईया कि हमको याद ही नहीं कब से मंदिर जाते हैं त कभी सोचे भी नहीं कि काहे जा रहे हैं या जाना चाहिए कि नहीं. आदत जैसा हो गया है. केतना न चीज देखिये ऐसे ही हो जाता है. जैसे हम एतना न मंतर सुने हैं बचपन में कि सुनिए के केतना याद हो गया. कुछ पिताजी के पढ़ते सुनते थे आ बाकी पड़ोस के कन्हैया चचा भोरे भोर चालु हो जाते थे. न मतलब पता न ई कि उ का बोल रहे हैं. बस सुनते सुनते रटा गया. जो देखे-सुने उ सीख गए. केतना चौपाई को मुहावरा का तरह इस्तेमाल करने लगे बिना जाने कि किस ग्रन्थ का है आ कौन लिखा है. कभी बाहर कोई नया चौपाई सुनते त आके घर पर पूछते.. कई बार नहीं पता होता त ढूंढा जाता. अब लगता है कि भुला गए सब. मजेदार बात बताएं आपको एक ठो... केतना त कुछ का कुछ सोचते रहे हम बहुत दिन तक. ‘हरी ॐ तत्सत्’ का जगह ‘हरी ओम चकचक’ समझते थे. आ सान्ताकारम बुचक सेनम. बहुत बाद में पता चला कि बुचक सेना नहीं है. आ एक दू ठो तो आज तक पता नहीं चल पाया कि क्या था.’ बीरेंदर ने एक दुकान के सामने बाइक लगाई. पता नहीं मैंने हरी ॐ चकचक सही सुना या बीरेंदर ने कुछ और कहा पर बात समझ आ गयी.

‘आ जानते हैं.. पिताजी जिस सुर में पढ़ते हमको लगता वइसही पढ़ा जाता है. अब कहीं सुन लेते हैं आ धुन अलग हो त लगता है कि गलत गा दिया. - बिलोल बीच बल्लरी बिराजमान मुर्धनि. जैसे उ गाना नहीं है दिल से में 'पुंजिरीथंजी कोंजिकों मुन्थिरी मुंथोलि जिंधिकों वंजरी वर्ना चुंधरी वावे' माने वैसे ही. हमको थोड़े न सब बुझाता था. लेकिन उसी ओज में गा देंगे दो चार शब्द इधर उधर करके अगर कोई शुरू कर दिया तो.’

‘सही है. तुम्हे तो बहुत आता है फिर. बचपन की बातें याद रह भी जाती है. कुछ कविताएं मुझे भी वैसे ही याद है. बचपन का रटा दो और पंद्रह के पहाड़े की तरह याद रह जाता है. बाद का पढ़ा समझ भले आ जाये उन्नीस के पहाड़े की तरह होता है’.

‘ई त एकदम सही बोले आप. पंद्रह दूनी तीस तिया…' बोलते बोलते बीरेंदर रुक गया और... 'बनिकपुत्रं कभी न मित्रं, मित्रम भी त दगा दगी. कहाँ गए हैं रे बनिकपुत्रं? बुलाओ त जरा’ पहाड़ा छोड़ प्रणाम की मुद्रा में आकर बीरेंदर ने वहां बैठे लड़के से पूछा.

‘ऐसे थोड़े न बोलते हैं बुरा लग जाएगा।’

‘इसको बुरा लग जाएगा? ई बनिया थोड़े है इसके मालिक को बोले हैं. आ उ तो गर्वे करते हैं’ बीरेंदर ने हँसते हुए कहा.

‘आ भैया उ आप याद रखने वाला बात एकदम सही बोले’

‘कविता से क्या याद दिलाये दिए आप भी. ई सब बात छेड़ दीजिये त कोई ऐसा नहीं होगा जिसके चेहरे पर मुस्कान नहीं आ जाएगा. अब बात चला है त एगो और मजेदार बात बताते हैं आपको. छोटे थे हमलोग त रोज रात को लालटेन घेर के गोला में बैठ के पर्हते थे. कभी कभी तीन चार भाई-बहन. माने मौसी-मामा सब भी आते रहते थे. उसके बाद माने जे न नींद आता था. दम भर खेल के आते थे त नींद त एबे करेगा. नींद का काट एक्के था - लय में चिल्ला चिल्ला के कविता. आओ बेटा. आ जे न बड़ाई होता था. अरोस परोस का सब आदमी माने ऐसे बोलता था कि बीरेंदर केतना तेज लड़का है. केतना जोर जोर से पढता है. मेरा फेवरेट था - हवा हूँ हवा मैं बसंती हवा हूँ. हम पालथी मार के अपना मुंडी गोल गोल घुमा के पढ़ते थे. ओहिमे नींद आता. मुंडी घूमते घूमते लुढ़क भी जाते थे.

... ढिमलाते…   आ गर्दन झटक के फिर गाने लगते - चढ़ी पेड़ महुआ, थपाथप मचाया; गिरी धम्म SSS से फिर, चढ़ी आम ऊपर, उसे भी झकोरा' 


...सोते सोते उसी में कैसेट फंसने जैसा आवाज भी होने लगता.. त उधर से पिताजी चिल्लाते. ऐ बिरेंदर सो रहा है का रे? त हम कुछ बोलने का जगह  और जोर से पढ़ते  - सुनो बात मेरी -  अनोखी हवा हूँ।  बड़ी बावली हूँ,  बड़ी मस्तमौला। हवा हूँ हवा… मैं बसंती हवा हूँ.  जे न बसंती हवा होता था आपको का बताएं. जब तक खाने का टाइम नहीं होता इहे चलता रहता. उ एक ठो अलगे टाइम था’

बीरेंदर ने ऐसे भाव और मुद्रा से सुनाया जैसे पूरा दृश्य सजीव हो गया हो. ये बातें सुन लगा कि हमें खुद कहाँ पता होता है कि ऐसी बचकानी बातों ने भी हमें वो बनाया होता है जो हम हैं.

बनिकपुत्रं (पता नहीं उनका असली नाम क्या था !) लिफाफा लेकर आये - ‘क्या महफ़िल छेड़े हो बीरेंदर? तनी देखो त ई का आया है’

‘बीरेंदर ने लिफाफा खोल कर पढ़ा - कुछ काम का नहीं है. प्रचार में भेजा है कंपनी वाला।’

‘फिर त बेकारे है. अंग्रेजी में था त हमको लगा कुछ जरूरी होगा।’
‘अब वापस काहे ला रख रहे हैं? लाइए इधर फेंकिए. माने ई सब बटोर के घर भर के का करेंगे?’
‘कागज कभी फेंकना नहीं चाहिए। क्या पता कभी कुछ जरुरत पड़ जाए’
‘अरे महाराज बटोरिये।लाटरी का टिकट है जो जरुरत पड़ जाएगा? ना आपका सीसी भरी गुलाब की पत्थर पे तोड़ दूं वाला परेम पत्र है. संभाल के रखना होता है ! रखिये। मर्हवा के टांग दीजिये’ बीरेंदर ने हाथ जोड़कर कहा।

‘भैया आप कभी चिठ्ठी लिखे हैं? माने किसी और के लिए? कोई बोल रहा हो और आपको लिखना हो. माने हम जैसे अभी बांचे वइसही लिखने का भी खूब काम किये हैं. उ एक ठो अलगे ज़माना था. चिट्ठी लिखे नहीं होते त ना तो हमको लिखना आया होता न पढ़ना। माने… मगही, भोजपुरी में सुनते आ हिंदी में अनुवाद करके लिखते।’

'चिट्ठियां तो बहुत लिखी पर किसी और के लिए तो नहीं लिखा' मैंने कहा.

'हम पहिला बार चौथा पांचवे क्लास में पढ़ते थे तब कोई बुलाया था चिट्ठी पढ़ने. आ हम जो न पढ़े हरहरा के. उ हमको बोले बौआ तनी धीरे धीरे बांचो. नंबर नहीं मिलेगा तेज बांचने का. फर्स्ट नहीं आना है. सामने वाले को समझ में आना चाहिए, थोड़ा महसूस करके पढ़ो - धीरे-धीरे। माने हमको त तेजे पर्हने में लगता था कि बड़ाई होगा. आज भी हम कुछ पर्ह्ते हैं त उहे बात याद आता है कि धीरे धीरे पर्हो नंबर नहीं मिलेगा तेज पर्हने का. तेज भी हर जगह  काम नहीं आता है. माने बताइये कोई आपको कहे कि नींद नहीं आ रहा त उल्टा गिनती गिनो सोते समय. आप फटाक से गिन दिए सैया, निनाबे, अंठानबे,... पांच, चार, तीन दो, एक आ उठ के बैठ गए कि नींद तो आया नहीं हम त सबसे तेज गिन दिए ! धीरे धीरे गिनने वाला कैसे सूत गया?.'

‘तुम्हें उस उम्र की बातें याद है?’

‘ई सब भूलने वाला बात है ? माने जब कोई अपने कलकत्ता वाले सैंयाजी के चिट्ठी लिखवाने बुलाती. लिख दो बौवा कि बाद सलाम के सैंयाजी के मालूम हो कि… शुरू में त बुझाया ही नहीं हमको ‘बाद सलाम के’ क्या?  ये ‘मालूम कि’ और ‘मालूम हो’ वाले डायलॉग... पर्हे लिखे हो न हो ये सबको आता था. जैसे आजकल फ़ोन उठाते ही 'हेलो' बोलना होता है. काहे बोलना होता है पूछियेगा त किसी को नहीं पता होगा। वैसे ही एक अलगे शब्दावली था चिट्ठी का. शुरू शुरू में हमें लिखना आता लेकिन ये शब्दावली नहीं। एक बार त जे न हुआ कि हमको एक ठो नयी नवेली दुल्हन का चिट्ठी लिखना था. दस साल का रहे होंगे हम. बोली कि बउवा लिख दे - सैंयाजी के मालूम कि उँहा खइह ईहां अंचSईह. हम को बुझाया ही नहीं कि लिखना क्या है. हम लिख दिया - वहां खाना यहाँ अंचाना। अंचाना माने हाथ धोना हमको पते नहीं था.'

'हा हा. पढ़ने वाला भी कंफ्यूज ही हो गया होगा कि करना क्या है'

'नहीं भैया कंफ्यूज क्या होगा। मुहावरा है. किताब से पहिले मुहावरा हम ऐसे ही सीखे। अनुवाद करना भी समझिये यहीं सीखे. एक ठो चिट्ठी होती जो सबके सामने बांचते घर भर के लोग बैठ के सुनते। और कभी कभी सीक्रेट बला भी बांचे हैं. लेकिन हम बिना सोचे पर्हते थे १०-१२ साल का उम्र में का बुझायेगा। छोटो को प्यार बड़ो को प्रणाम। सकुशल। आपकी कुशलता की ईश्वर से प्रार्थना। पूज्य, पूजनीय, सप्रेम। इति शुभम. … हम एक में से पढ़ते दूसरे में लिखते. फेंट फेंट के चिट्टी का एक्सपर्ट बन गए थे.

हमलोग बरा बर्हिया टाइम में पले बर्हे। कलकत्ता जाने वाली चिट्ठी में समझ लीजिये कि माताजी क्या लिखवाती, पिताजी क्या लिखवाते आ पत्नी क्या... धीरे धीरे हमको बुझाने लगा था रिश्ता उस्ता भी. अब कहाँ चिट्ठी और कहाँ पर्हने लिखने वाले. माने इतना तेजी से हमेशा बदलाव आता है कि हमीं लोग इतना कुछ देख लिए? पंद्रह पैसा के पोस्ट कार्ड से व्हाट्सऐप तक !  हमको लगता है पहिले ज़माना धीरे धीरे अपडेट होता था. ई फ़ोन के देखिये पता नहीं भीतरे भीतर दिन भर का अपडेट करते रहता है. हमारे खाने पीने के फ्रिकवेंसी से जादे इसका अपडेट होता है. ओहि गति से दुनिया भी अपडेट हो रही है.

खैर… हमरा नाम था चिट्ठी लिखने में. एक ठो नया दुल्हन का चिट्ठी लिखने गए थे. उसके ससुर बोले कि ‘ऐसा मत लिख देना कि उ पढ़ते ही चला आये. पता नहीं ऐसा क्या लिख देता है. अपना दिमाग भी लगाना होता है थोड़ा। समझे कि नहीं?’

हम पता नहीं उस समय हम क्या समझे पर लिखने का तरीका धीरे धीरे बदला और जब समझ आने की उम्र होने लगी त चिट्ठी लिखना बन्दे हो गया. चिट्ठी को फोन खा गया. आ पोस्टकार्ड, अंतरदेसी, टिकट के कुरियर.

‘सही कह रहे हो, वैसी चिट्ठी देखे तो एक ज़माना हो गया’  - मैंने धारा प्रवाह में बोल रहे बीरेंदर के बीच में बोला जैसे ये दिखाना हो कि मैं भी समझ रहा हूँ.

‘हाँ हम बटोर के रखे हैं कुछ. हमको त बहुत लगाव रहा चिट्ठी से. कैथी लिपि का पुस्तैनी चिट्ठी भी रखे हैं हम. बाबूजी दिए थे हमको. ईस्ट इंडिया कंपनी का स्टैम्प वाला। वैसे अब उ संग्रहालय आइटम हो गया है.’

‘फिर तो सही में देखने लायक होगा. वो होगा मढ़वा कर रखने का चीज’

‘वैसे कभी कभी लगता है कि सहेज के रखने से बर्हिया आजे का ज़माना है. डिलीट मार दिए ख़तम. नहीं त खुशबू में बसे खत गंगा में बहाने का जद्दोजहद हो जाता था शायर सब के.’

हम वापस चलने लगे तो बीरेंदर ने बाइक स्टार्ट करते हुए कहा - ‘आ एक ठो सबसे मजेदार बात तो बताना ही भूल गए. पाता कई लोग बड़ा संभाल के रखते थे जैसे कोई खजाना हो. गाँठ खोल के निकालते - कलकत्ता, सूरत, लुधियाना, बम्बई का पता. चुमड़ाया  हुआ कागज. कभी पुराना लिफाफा जिसमें प्रेषक लिखा होता, कभी किसी ठोंगे पर लिखा हुआ, दफ़्ती पर लिखा हुआ. साक्षरता थी नहीं और ऊपर से अभाव ! चिट्ठी लिखने अपना कॉपी कलम लेकर जाना पड़ता। कई बार हम पते को नए कागज पर उतार कर दे देते. बड़ा आशीर्वाद देते उसके लिए भी लोग । और एक बार एक चाची पता बोल कर लिखा रही थी. ग्राम, पोस्ट, जिला सब लिखाने के बाद बोली - हुहें पान के गुमटिया प दिन भर बैठे रहते हैं.

हम भी लिफाफा पर पता के साथ लिख के आ गए - पान के गुमटिया पर दिन भर बैठे रहते हैं.

बहुत दिन तक ये बात सोच कर लगता कि हम भी क्या बकलोल थे… और आज देखिये कैसे चाव से सुना रहे हैं. यही है नोस्टाल्जियाने का ...   आ ऐसा नहीं है कि लोग एक दूसरे से दूर थे उस जुग में. अब भले व्हाट्सऐप वाले नहीं सोच सकते कि कैसा रहा होगा। चिट्ठी और मोबाइल में माने वही अंतर है जो फेसबुक और कॉफ़ी हाउस आ चौपाल में मिलने में ! व्हाट्सऐप आ इन्टरनेट टूल है. टूल से थोड़े दिल जुड़ता है. पहिले चुमड़ाये कागज में लोग पता संभाल के रख लेते थे अब फ़ोन में नंबर रह के भी  एक दूसरे से नहीं बतिया पाते हैं. का कीजियेगा यही सब है. '

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~Abhishek Ojha~