Jun 2, 2019

कॉन्सेप्चुअल फ्रेमवर्क


सामाजिक विज्ञान को विज्ञान की उपाधि जरूर किसी ऐसे व्यक्ति ने दी होगी जिसे लगा होगा कि विज्ञान को विज्ञान कहना डिस्क्रिमिनेशन हो चला है। विज्ञान और तार्किकता बूर्जुआ बन गए हैं। अतार्किकता को क्रांति कर देनी चाहिए! क्योंकि भाव तो अतार्किकता को भी मिलना चाहिए और फिर किसी ने लेख लिखा होगा - इंटेरसेक्सनालिटी ऑफ़ मार्क्सिस्ट सोशल एंड पॉलिटिकल डिस्क्रिमिनेशन के कॉन्सेप्चुअल फ्रेमवर्क के अंतर्गत ऐसे कहा जा सकता है कि अतर्किकता भी विज्ञान है।

इसका मतलब मत पूछियेगा क्योंकि मैं ठहरा गणित का आदमी जहाँ १+ १ दो और केवल दो होते हैं। १+१ की बात आ ही गयी है तो पहले एक जोक बाकी बाद बात में करेंगे। [बात प्रवचन जैसी लगने लगे तो बीच में जोक ठेलने की बड़ी महिमा बतायी गयी है.]

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एक साक्षात्कार में तीन लोग गए। पहला गणितज्ञ। उससे पूछा गया १+१ क्या होता है?
बोला २.
२? कुछ और नहीं हो सकता?
और कुछ? पगलेट हो क्या?

दूसरा आया.  उससे भी वही सवाल।
उसने बोला १.९० से २.१० के बीच कुछ भी हो सकता है।  आंकड़े में गड़बड़ी हुई हो तो १०% त्रुटि की संभावना लगती है।
सांख्यिकी पढ़ी थी उसने और इसका रौब झाड़ना जरूरी लगा उसे।

तीसरा. सामाजिक विज्ञानी. बुद्धिजीवी. उससे भी वही सवाल। गणित-तर्क १, २, जोड़-घटाव का उसे कुछ नहीं पता था।
उसने पहले उठ कर दरवाजा बंद किया. इधर उधर देखा. और धीरे से बोला - आपको कितना चाहिए? एक कॉन्सेप्चुअल फ्रेमवर्क बना के उतना साबित कर देंगे

जोक समाप्त.
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आजकल आंकड़ों के नाम पर कई बार अपनी बात कहने के लिए जो लोग करते हैं उसे विज्ञान में फर्जीवाड़ा कहा जाता है.

बात करनी थी कॉन्सेप्चुअल फ्रेमवर्क की। एक वर्ग है जो बिना (बहुधा अतार्किक) फ्रेमवर्क के नहीं सोच सकता। और अतार्किक फ्रेमवर्क की व्याकपता अनंत होती है। तार्किकता व्यक्ति में एक प्रकार से लाज-शर्म की उपज भी करता है।  तार्किक व्यक्ति को अतार्किक बात करते हुए शर्म आती है। एक बार गलत हो जाने पर अगली बार उसे बोलने से पहले और अधिक सोचना पड़ता है। अतार्किक के साथ इसका उल्टा होता है। जितनी बार गलत हुए अगली बार उतने ही अधिक विश्वास से गलत बोलते हैं।  जैसे हर चुनाव में उनका विशेषज्ञ अनुमान और असली परिणाम एक दूसरे को अपना वही दिखाते हैं जो ३६ में ३ और ६। लेकिन वो ठहरे विशेषज्ञ फिर झाड़ेंगे ही अपनी बात। उन्हें ये नहीं समझ आता कि फिर उठ खड़े हो चल पड़ने का ज्ञान पुनः पुनः वही पगलेटी करते रहने के लिए नहीं होता है :)

मैंने जीवन में कुल मिलाकर कुछ घंटे टीवी समाचार देखा होगा। उसमें भी आजकल सोशल मीडिया पर दिख जाने वाले क्लिप्स मिलाकर। आखिरी बार किसी चुनाव का लाइव परिणाम टीवी पर देखा था वो बिहार के चुनाव थे। और वो पहली और आखिरी बार था। जो अपने आप को और एक दूसरे को सबसे बड़े चुनावी विशेषज्ञ कहते हैं उन्हें लाइव देख रहा था। यादव-गुप्ता-रॉय  - एनडीटीवी पर। हुआ यूँ था कि उनके रुझानों की फीड गलत थी। विशेषज्ञ बोल रहे थे ..but you should realize that only industry Nitish developed in Bihar was brick kilns. He can not win elections again and again with that. थोड़ी देर में उन्हें पता लगा कि असल में नितीश कुमार चुनाव जीत रहे हैं तो...  बिना शर्म, पलक तक ना झपकी बोलने लगे  -Nitish is the man who built Bihar brick by brick. He is true people's leader. The results are a reflection of that. ऐसी मोती चमड़ी ! ये है विशेषज्ञों की असली विशेषज्ञता। वो जो भी बोल रहे हों, हो जो भी रहा हो - अपने ईंट भट्ठे के कॉन्सेप्चुअल फ्रेमवर्क  में झोंक देते हैं।  और आप अपनी सोच यदि इन विशेषज्ञों के कहे से बनाते हैं ! तो ... ये वही लोग हैं जो अंतिम समय तक नहीं जानते थे कि मंत्रिमंडल में किसे क्या मिलेगा। और पता चलने के पांच मिनट में लेख लिख देते हैं कि क्यों किसे कौन सा मंत्रालय मिला !


औद्योगिक संसार में आजकल बहुत कुछ आउटसोर्स किया जाता है इनमें से एक प्रमुख है - प्रेज़ेंटेशन या पिच बुक की डिजाइन। जिन्हें आउटसोर्स किया जाता है वो कंपनी कुछ रेडीमेड टेम्पलेट रखती हैं। एक पसंद नहीं आया तो दूसरा भेज देते हैं। कुछ सालों बाद जब लोग ऊब कर नया डिज़ाइन चाहते हैं और वापस नया डिज़ाइन मांगते हैं तो वो फिर से पिछला वाला भेज देते हैं। ये नहीं तो वो पसंद तो आयेगा ही। वैसे ही ये विशेषज्ञ टेम्पलेट रखते हैं। ये फिट बैठा तो ठीक नहीं तो दूसरा वाला। नया कुछ है नहीं इनके पास। युग बदल गया - चुनाव देखने का तरीका वही।  फॉर्मूले वही।  वोटर के लिए जाति-धर्म ख़त्म हो जाए पर इनके दिमाग में उसके अलावा कुछ है ही नहीं तो उसके बाहर कैसे सोच सकते हैं ! टेम्पलेट ही वही है दूकान भी एक ही टेम्पलेट बेच कर चलाना है।

 बचपन में एक जान पहचान के थे जिनके किराने की दुकान थी। किराने की दूकान यानी जिसमें जरुरत का सब कुछ मिल जाए। वो एक ही प्रकार का चावल रखते - कोई यदि कहता कि थोड़ा महीन दीजिये तो अंदर जाकर वही चावल दोनों मुट्ठी में लाकर दे देते। कोई कहता थोड़ा साफ़ दीजिये तो भी वही करते।  कोई कहता पुराना दिखाइए तो भी वही। और लोग दोनों मुट्ठियों के चावल देख एक वाले को चुनकर कहते हाँ ये वाला बढ़िया है। वो दो रुपया अधिक लगाकर वही चावल तौल देते। वैसे ही ये विशेषज्ञ हैं - चावल इनके पास एक ही है। आपको यदि ये समझ आ गया हो  तो समय है दुकान बदलने का। या जमाना पी२पी का है तो दुकानदार को दलाली ही क्यों देना। अपनी सोच इन्हें आउटसोर्स करने की जगह खुद सोच लीजिये ! जिसे ये विशेषज्ञ थिंकिंग, एनालिसिस वगैरह का नाम देते हैं उसे उन्होंने खुद आउटसोर्स कर रखा है अपने पूर्वाग्रहों को, उस कॉन्सेप्चुअल फ्रेमवर्क को जिसे वो संसार की धुरी समझते हैं। ऐसे लोग संसार में हर जगह बहुतायत में पाए जाते हैं। हो सकता है उन्हें स्वयं नहीं पता वो ऐसे होते हैं। संभवतः वो अपने को समझते तो कलिकाल सर्वज्ञ हैं ठीक वैसे ही जैसे भर्तृहरि परिभाषित मुर्ख !  

 - अर्थात एक अधूरे ज्ञान से भरा व्यक्ति जिसे ब्रम्हा भी नहीं समझा सकते। जो तर्क के प्रति अँधा है.पर जिसे घमंड भी है कि उससे बुद्धिमान कोई नहीं. आप चाहे तो मगरमच्छ के दांतों में फँसा मोती निकाल सकते हैं, समुद्र को भी पार कर सकते हैं,  गुस्सैल सर्प को भी फूलों की माला तरह अपने गले में पहन सकते हैं...  लेकिन इनको को प्रत्यक्ष सही बात समझाना असम्भव। संभव है रेत से भी तेल निकल जाये  या मृग मरीचिका से भी जल मिल जाए। खरगोशों के सींग उग आये; गुलाब की पंखुड़ी से हीरा काटना हलवा हो जाए लेकिन एक पूर्वाग्रही मुर्ख को सही बात का बोध? भ्रम और घमंड का कम्बाइंड इक्वेशन नॉविएर स्टोक्स से भी खतरनाक इक्वेशन होता है। उनकी बातें सुन आयरनी (irony) कपार खुजलाने लगती है कि...  अब कोई नया शब्द ढूंढ लो बे तुमलोग हमसे न हो पायेगा। मैं झूठ नहीं बोल रहा आप अंग्रेजी डिक्शनरी खोल कर रख दीजिये और इनके विचार दो घंटे बजाइये. irony शब्द मिट जाएगा डिक्शनरी से।

एक सत्य कथा बताता हूँ -  मनोहर कहानियों से थोड़ी कम रोचक होगी पर उतनी ही सत्य।
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...एक विश्वविद्यालय है दिल्ली में. वहां एक विद्यार्थी को कहा गया शोध करके आओ कि किसी अमुक योजना से जीवन स्तर में कितना सुधार हुआ. साधारण प्रश्न है. एक विद्यार्थी विभिन्न प्रकार के आंकड़े लेकर कुछ महीनों में आया. सुन्दर अध्ययन.

प्रोफ़ेसर साब लाल हो गए. कहा ये गलत है तुमने तो कुछ किया ही नहीं?
क्यों?
इसमें कॉन्सेप्चुअल फ्रेमवर्क कहाँ हैं? तुमने इस बात का अध्ययन तो किया ही नहीं कि सरकार किसकी थी ! न इसमें कास्ट फैक्टर है. ना रिलिजन.
सर, उसकी क्या जरुरत है? आर्थिक स्थिति तो है.
तुम्हे यही नहीं पता ! प्रोफ़ेसर साब ने असाइनमेंट फाड़ दिया।धमकी दी की फेल हो जाओगे।

फिर विद्यार्थी ने दो घंटे में फ़टाफ़ट लिखा कि इंटेरसेक्सनालिटी ऑफ़ मार्क्सिस्ट सोशल एंड पॉलिटिकल डिस्क्रिमिनेशन इन कॉन्टेक्स्ट ऑफ़ कास्ट सिस्टम के कॉन्सेप्चुअल फ्रेमवर्क के हिसाब से इसका फायदा किसी को नहीं होगा। एक बार फायदा हो भी गया तो उसके बाद क्या? स्टैंडिंग ओबेशन ! तालियां बजायी प्रोफ़ेसर ने और कहा कि इसमें फेमिनिज्म और सोशिऑलोजिकल थ्योरी ऑफ़ पॉवर्टी भी लगाओ. सोशल स्ट्रैटिफिकेशन लगाओ। तुम्हे गोल्ड मैडल दिलाया जाएगा।

गाँव-गाँव घूमकर आंकडे  इकठ्ठा कर किया गया अध्ययन फाड़ कर फेंक दिया गया। पर दो घंटे का तथाकथित अध्ययन फ्रेमवर्क वाले विश्वविद्यालय में वो वैसे ही फिट हो गया जैसे बोल्ट और नट एक दूसरे में फिट हो जाते हैं । कालांतर में वो बालक तथाकथित सामाजिक वैज्ञानिक बना। हर मुद्दे पर राय देने वाला। और उसका होली-दिवाली होते चुनाव। उन दिनों उसकी व्यस्तता ऐसी होती कि एक टांग एक स्टूडियो में तो दूसरी दूसरे स्टूडियो में। हर बार उसकी बातें गलत होती पर उसे अपने लाल गुरु की बातें गाँठ बाँध ली थी। सबसे पहले मेरे घर का अंडे जैसा था आकार की तरह रट लिया था इंटेरसेक्सनालिटी ऑफ़ मार्क्सिस्ट सोशल एंड पॉलिटिकल डिस्क्रिमिनेशन ऐंड सोशियोलॉजिकल थ्योरी ऑफ़ पॉवर्टी  इन कॉन्टेक्स्ट ऑफ़ कास्ट सिस्टम एंड... इसके आगे पीछे कुछ हो कैसे सकता है।  एक अटके हुए रिकॉर्ड की तरह यही बात दोहराते रहता। अंडे जैसा है संसार पर ही रुका रहा कभी बहार निकला ही नहीं। दुनिया बदल गयी पर उसे कुछ नहीं दीखता था। उसके अनुसार प्रत्यक्ष को प्रमाण नहीं चाहिए होता है। यदि कुछ चाहिए होता है तो वो है - कॉन्सेप्चुअल फ्रेमवर्क ।

धीरे धीरे उसे लगने लगा था संसार ही चलता है उसके कॉन्सेप्चुअल फ्रेमवर्क से। उसके बिना उसके कुछ नहीं चल सकता - सूरज,  चाँद किसी की औकात नहीं। कौन सा गुरुत्वाकर्षण बे ? संसार चलता है  इंटेरसेक्सनालिटी ऑफ़ मार्क्सिस्ट सोशल एंड पॉलिटिकल डिस्क्रिमिनेशन  ऐंड सोशियोलॉजिकल थ्योरी ऑफ़ पॉवर्टी  एंड... बंगके बंगाली फिरंग के फिरंगावाली दिल्ली के दिलवाली सब फ्रेमवर्क से चलत हैं.*

दुनिया अपनी गति और नियमों से चलती रही।  वो अपने हिसाब से समाज की संरचना और भविष्य बताता रहा । हर बार वो गलत होता लेकिन बन गया था विशेषज्ञ तो वो कैसे गलत हो सकता था? उसकी बात गलत होती तो पहले उसे सही करने के लिए प्रोपेगंडा करने लगा।  फिर बौखलाहट में दूसरों की  बातों में गलती  ढूंढता। यदि फ्रेमवर्क सही नहीं है तो उसे सही कराने के लिए किसी हद तक जायेंगे ! ऐसा हो कैसे सकता ही कि वो गलत हो। सबको उसमें फिट होना पड़ेगा।

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चुनावों में उसके कही पार्टी की हार हुई तो बोला -

ईवीएम हैक कर लिए?
किसी ने पुछा - हैकिंग क्या होती है? मालूम है?

बोला - हाँ, जब आप गलत हो और गलती नहीं माननी हो तो उसे हैकिंग कहते हैं। अरे मान लो ऑनलाइन गाली-वाली दे दिया किसी को और बाद में माफ़ी मांगने की नौबत आ जाए तो कहना होता है कि अकाउंट हैक हो गया। तो वैसे ही अब ईवीएम ही हैक हुआ होगा। वोट गलत थे।

अच्छा।

उसके बाद वो लग गया अपने फ्रेमवर्क को सही करने के लिए प्रोपैगैंडा में... पर वो फिर फेल हो गया तो बोला - साला सब अम्बानी अडानी का पैसा से चुनाव जीत गया सब। इसलिए मेरा फार्मूला नहीं चला. ब्लडी कैपिटलिज्म.

एक हारने वाली पार्टी वाला बोला - अबे हममें ऐसा क्या नहीं है जो अम्बानी अडानी को उसमें दीखता है? हमने तो और खुला हाथ दिया था हम तो हारे ही नहीं होते कभी !

विशेषज्ञ बोला - अबे चुप करो।  विशेषज्ञ तुम हो या मैं? तुम साले गंवार। जीत तो पाए नहीं मेरे फॉर्मूले से भी।  तुम्हे तो मर जाना चाहिए।  हमारी बात गलत नहीं है।  मीडिया ने जीताया है.

लेकिन उस हिसाब से तो तुम्हे जीतना चाहिए. वो वाली कोशिश तो तुमने की थी?

ये सुनते हुए उसके दिमाग में बत्ती जली - "अबे साला तो मामला ये है. जनता ही *तिया है।"

उसने घोषित कर दिया जनता को समझ ही नहीं है. ये प्रणाली ही खराब है. यशवंत सिन्हा की पेटेंटेड लाइन थी - कोई भी *तिया मुख्यमंत्री बन जाता है. उसी को उसने चोरी कर कहा - कोई भी *तिया वोट डाल देता है। तो क्या होगा। किसी को समझ ही नहीं है।

पर तुम्हारे हिसाब से तो सभी इक्वल हैं?

हैं नहीं। होंगे। हम करेंगे। सब इक्वल हो कैसे सकते हैं बिना क्रांति के? इंटेरसेक्सनालिटी ऑफ़ मार्क्सिस्ट सोशल एंड पॉलिटिकल डिस्क्रिमिनेशन  ऐंड सोशियोलॉजिकल थ्योरी ऑफ़ पॉवर्टी  एंड...

तो अभी क्या है?

अभी हम ज्यादे इक्वल हैं !

ये तो फिर चोरी की तुमने ये तो जॉर्ज ऑरवेल ने तुम्हारी जमात के लिए कहा था।  पर ठीक है जो तुमने खुद ही कहा।

वो बड़बड़ाते रहा - हम गलत कैसे  हो सकते हैं. हम जानते हैं कि किसको किसे वोट देना चाहिए। यदि किसी ने नहीं दिया तो *तिया वो हुआ या मैं? समझ ही नहीं किसी को। उन सालों की तो गर्दन पकड़ के मैं... सारे संसार को कॉन्सेप्चुअल फ्रेमवर्क में फिट होना है. पगलेट फिट ही नहीं हो रहे ! इंटेरसेक्सनालिटी ऑफ़ मार्क्सिस्ट सोशल एंड पॉलिटिकल डिस्क्रिमिनेशन  ऐंड सोशियोलॉजिकल थ्योरी ऑफ़ पॉवर्टी  एंड...

दुनिया अपने हिसाब से चलती रही।


* गुरु गोविंद सिंह जी महाराज का लिखा भजन दिल्ली में गुरुद्वारा बंगला साहिब में सुना था - बंगके बंगाली फिरंग के फिरंगावाली दिल्ली के दिलवाली तेरी आज्ञा में चलत हैं.
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~Abhishek Ojha~