कुछ दिनों पहले एक मीटिंग में किसी को फाउंटेन पेन से लिखते देखा। हरे रंग की स्याही। घुमावदार लिखावट - कैलीग्राफी जैसी । मुझे ठीक ठीक याद नहीं इससे पहले मैंने ऐसी लिखावट कब देखा था। बहुत अच्छा सा लगा। कई पुरानी बातें याद आयी। सालों पुरानी। खूबसूरत बातें।
सेंट जेवियर्स कॉलेज राँची - ग्यारहवीं कक्षा। केमिस्ट्री के एक प्रोफ़ेसर मोल कॉन्सेप्ट पढ़ाते थे। उनसे जुडी दो बातें याद हैं - उनकी बंधी हुई चुटिया और लिखावट। ब्लैक बोर्ड पर जब वो लिखते तो उनके हाथों में एक थिरक होती. 'Avogadro' लिखते तो 'g' के दो गोले बिना चॉक उठाये लिखने के बाद उसके ऊपर की फुनगी बनाने के लिए वो चॉक उठाकर एक झटके से हाथ घुमाते. उनका चॉक ऐसे चलता किअक्षरों के वक्र मोटे-पतले-लचकते हुए ब्लैकबोर्ड पर सौंदर्य बना देते।
रसायन उनसे कितना सीखा वो याद नहीं पर हम उनके बारे में दो बातें बोलते और दोनों में उनकी लिखावट का जिक्र आता - 'ये किसी जमाने में महारानी विक्टोरिया का शाही फरमान लिखते थे गलती से केमिस्ट्री पढाने लगे'. और दूसरी ये कि लिखते समय उनके हाथ और उनके चुटिया के हार्मोनिक मोशन की फ्रीक्वेंसी सामान होती है. किसी स्प्रिंग से जुड़े की तरह दोनों एक लय में घूमते.
मुझे नहीं याद मैंने उससे अच्छी अंग्रेजी की लिखावट कभी देखा हो वो भी ब्लैक बोर्ड पर - लाइव ! उनका लिखा हुआ मिटते देख ऐसे लगता जैसे किसी ने खूबसूरत रेत मंडल बनाकर मिटा दिया हो (यहाँ रूककर रेत मंडल के बारे में पढ़ लीजिये। कभी मौका मिले तो उसका बनना बिगड़ना जरूर देखिये और महसूस कीजिये - संसार चक्र।) हमें ऐसी लिखावट अच्छी तो बहुत लगती पर ये उम्र हमने अंको, समीकरणों और ढलान पर गेंद लुढ़कने की गति को समझने जैसी बातों में गुजार दी। ये शब्दों से साथ छूटने की उम्र थी. लिखावट की जगह घसीट कर कम से कम लिखने और ज्यादा से ज्यादा समझने के दिन थे. कागज पर अक्षर की जगह तीर, गोलाई और रेखा चित्रों की खिंचाई होती। कर्व अक्षरों की जगह इक्वेशनों के बनने लगे. हिंदी और अंग्रेजी की कक्षायें सिर्फ जरुरत की हाजिरी भर के लिए गए. ...हमारी लिखावट बुरी नहीं तो कैलीग्राफी जैसी भी नहीं हो पायी.
कलम से याद आया। हमारी पीढ़ी ने घोर परिवर्तन देखा है। पीढ़ी का पता नहीं पर मैंने देखा है। गाँव के स्कूल में जहाँ मैंने पढ़ना-लिखना सीखा। गुरुकुल के जमाने और उसमें कुछ ख़ास अंतर नहीं आ पाया था। लकड़ी की पटरी (तख्ती) और खड़िया पर मैंने लिखना सीखा - स्लेट और चॉक-पेन्सिल नहीं ढेले सी खड़िया और पटरी। पटरी को शीशे की दवात की पेंदी से घिस कर चमकाना फिर खड़िया का घोल कर धागे से लाइनें बना कर उस पर सरकंडे की कलम से लिखा है मैंने। (घर पर पड़े किसी जमाने के मिट्टी के दवात भी देखे हैं लेकिन वो कभी इस्तेमाल नहीं किया) लिख लेने के बाद मिटा कर फिर से लिखने को तैयार हो जाती पटरी। रेत मंडल की तरह - नो अटैचमेंट्स। लिखने के बाद वाह वाही मिली और बात वहीँ ख़त्म - मिटा कर आगे बढ़ो. सहेज कर रखने का हिसाब नहीं था. इन्वायरमेंट फ्रेंडली ! एक पटरी पीढ़ियों चलती। पटरी और दवात का भी योगदान कम नहीं होता पढ़ाई में - 'फलाने की पटरी है मत लिखो इस पर. दिमाग के भोथर थे पाँचवी पास भी नहीं कर पाए. अपना लिखा खुदे नहीं पढ़ पाते हैं'.
पटरी पर लाइन बनाने के लिए एक धागे को खड़िया के घोल में डूबा कर पटरी के दोनों छोरों पर रख खींच कर छोड़ा जाता. छींटे से लाइन बनती। यज्ञ वेदी पर लाइन बन रही हो जैसे. ज्यादा घोल हो तो लाइन मोटी और भद्दी हो जाती. कम हो जाती तो लाइन दिखती ही नहीं. कम-ज्यादा के संतुलन का अनुमान वहीँ से लगने लगता. लिखने के बाद बचे हिस्से में डिजाइन भी बना देते। शब्द लिखने के लिए सीधी लाइने और गिनती लिखने के लिए ग्रिड. पटरी नहीं कैनवस !
पटरी चमकाना एक झंझट होता। हरे पत्ते लगाकर घिसना। उसी में तेज लड़के पुरानी बैटरी से निकले कालिख को कपडे में लपेट कर पटरी को काला करने का जुगाड़ बनाते. और स्कूल में खड़िया और छोटी मोटी खेलने की चीजों के बदले पटरी काली कर देते. उसी उम्र से व्यापर-धंधे की समझ होती कुछ बच्चों में।
स्याही से परिचय हुआ पुड़िआ घोल कर स्याही बनाने से. हर कपडे की जेब में स्याही लगती। स्कूल ले जाने वाले थैले में भी स्याही लगती। कलम सरकंडे से बनती, तेज धार वाले चाकू से छील कर कैलीग्राफी के निब जैसी। निब काटना कला था अच्छा नहीं कटा तो बेकार - भोथर. कलम को दवात में डूबा-डूबा कर लिखा जाता । ज्यादा स्याही आ गयी तो फिर भोथर अक्षर. हमने ऐसे लिखना सीखा। - ऑर्गेनिक तरीके से. खड़िया, पटरी, स्लेट, पेन्सिल (स्लेट पर लिखने वाली). फिर रुलदार और चार लाइन वाली कॉपी. लिखने और छपाई के मिलाकर चार तरीके से अंग्रेजी के अक्षर लिखने सीखा था हमने. फाउंटेन पेन बहुत बाद में हाथ लगी। इन दिनों फाउंटेन पेन के साथ होल्डर और निब से भी कुछ दिन लिखा. निब भी हिंदी के लिए अलग, अंग्रेजी के लिए अलग. कक्षा छः में ताँबे के जी मार्का पिन को होल्डर में लगाना और लिखना सीखना शुरू ही किया था कि एक झटके से दूसरी दुनिया में ट्रांसपोर्ट हो गया. - टाट से बेंच. हरे रंग के शीशे के बोर्ड ! पढ़ाने वाले सर और हम एक पीढ़ी फाँदकर बॉल पॉइंट पेन पर आ गए. जैसे बचपन में तेज होने पर मास्टर साहब क्लास फँदा देते थे।
फाउंटेन पेन से लिखना शुरू होते ही बंद हो गया. शौक होकर रह गया. उन दिनों फाउंटेन पेन आते जिनमें रबर की ट्यूब होती जिसे पिचकारी की तरह दबा कर दवात में निब डुबोकर स्याही भरी जाती. सालों बाद मुझे किसी ने इतनी महँगी पेन दी जितने में पूरे मोहल्ले की दो चार साल की स्टेशनरी आ गयी होती। वो मैंने वैसे ही सहेज कर रखा है. फिर किसी ने पंख लगा हुआ होल्डर और खूबसूरत दवात भी दिया. इतना खूबसूरत की मुझे खोलने की हिम्मत नहीं हुई. सजा कर रखा हुआ है वैसे ही एक खूबसूरत डायरी के साथ - अटैचमेंट !
मेरी पीढ़ी ही नहीं मुझसे पहले की पीढ़ी के भी कई लोगों ने संभवतः ऐसे नहीं पढ़ा होगा. कई चीजें थी जो अब लुप्त हो गयी. स्याही की पुड़िया, सोखता कागज, स्याही से रंगे कपडे-चेहरे-थैले (फाउंटेन पेन की स्याही को सर में पोंछते रहते और हाथ जब जुल्फों से होते हुए चेहरे पर भी चल जाता... तो चेहरा रंगीन हो जाता !), गर्म पानी से फाउंटेन पेन की सफाई. अब तो स्याही न्यूज में सिर्फ तभी आती है जब किसी के चेहरे पर पोती जाती है !
कई ऐसे अद्भुत 'बेकार' काम हैं जिसके लिए लोग कई बार पूछ लेते हैं ये कहाँ से सीखा - गांठे बनाना। जूट से रस्सी बनाना। कैसे बताया जाय कहाँ से कहाँ और कब क्या सीखा.
लिखावट एक प्राचीन और मरती हुई कला है. ये वो कला है जिसके आर्टिस्ट और आप में सिर्फ इतना फर्क होता है कि वो आर्ट बना देते हैं और आप देख कर सोचते तो हैं कि ये तो मैं भी बना सकता हूँ पर आप कभी बनाते नहीं।
आपको लिखना आता है तो लिखिए. कभी कभार ही सही. कोशिश कीजिये आप निराश नहीं होंगे. मैंने अपने फाउंटेन पेन में
...लेकिन हम भी देखिये टाइप करके कह रहे हैं कि - लिखना चाहिए :)
~Abhishek Ojha~