6-8 महीने पहले जोश में आकर नए जूते लिए गए - स्पेशली मेड फॉर रनिंग।
पहली बार पहना तो अच्छा सा लगा। लगा सच में दौड़ने-भागने के लिए ही बनाए गए हैं। बचपन में हमारे मुहल्ले के एक चाचा जब नयी नवेली रिलीज हुई हीरो होंडा स्प्लेंडर पर पहली बार बैठे तो उन्होंने अपने बेटे से कहा था - "बेटा, ये वाली मोटरसाइकिल खरीद दे मेरे लिए। चलाकर ऐसा लगा मानो कम से कम पांच साल तो जवान हो ही गया मैं !" उतना तो नहीं पर वैसा ही कुछ फील हुआ। पर सर्दियों का मौसम और आलस... जूते पड़े ही रहे। कभी पहना भी तो कंक्रीट, कारपेट, ट्रेडमिल और लकड़ी के फर्श के अलावा कहीं और रखे नहीं गए। कभी मिट्टी से संपर्क नहीं हो पाया उनका। वैसे भी न्यूयॉर्क में एक 'मिट्टी पर चलना' छोड़ दें तो सब कुछ बड़ी आसानी से मिलता है। जूतों का रंग रूप वैसे का वैसा चकाचक बना रहा !
पिछले सप्ताहांत जब धुप निकली और एक मित्र भी मिल गए तो पार्क तक जाने का कार्यक्रम बन गया । रास्ता कंक्रीट का ही था। पर हुआ कुछ यूँ कि सैंडी देवी के प्रकोप से लकड़ी का एक पूल टूट गया था वो अब भी निर्माणाधीन ही है। अब हमें या तो बहुत लम्बा रास्ता लेना पड़ता या... मिट्टी, घास, पानी, कीचड़ और बर्फ वाला छोटा रास्ता। रास्ता क्या था... हमें ही बनाना था। हम कोई नवाब तो हैं नहीं तो हमने रौंद दिया।
अपना क्या है... हम तो कैसे भी रह लेते हैं ! बचपन में बरसात के बाद कभी खेत की मेढ़ों पर चलते तो काली मिट्टी पैरों में यूँ लिपटती थी की... खैर वो फिर कभी। फिलहाल हम बहुत खुश थे लेकिन जब जूतों की तरफ देखा... मेड फॉर रनिंग ! बनाए ही गए हैं इस दिन के लिए. सब कुछ झेलने के लिए - ढेर सारे रिसर्च के बाद। जैसे क्रमिक विकास के बाद हमारे और अन्य जानवरों के शरीर प्रकृति के अनुकूल होते हैं कुछ वैसे ही। पर बेचारों के रंग रूप और हालत देख दया आई। कोई शिकायत नहीं ...'स्पेशली मेड' तो थे ही और ऐसा भी नहीं कि टूट गए या चलने में दिक्कत हुई हो। लेकिन ऐसा लगा कि दस दिन ऐसे पहन लो या गलती से कहीं अगर पहन कर गाँव के इलाके में चले जाओ तो बैरीकूल कहते - "इ सब जूता के बस का नहीं है यहाँ झेल पाना। इ सब उहें पहनियेगा" । जब से बने चकाचक शोरूम के एसी में पड़े रहे। बिक जाने के बाद भी शान में कुछ कमी तो हुई नहीं। पहली बार जमीन पर पड़े थे... बिकने के पहले तो खैर जूते होते हुए भी हाथो हाथ ही लिए जाते थे! खुद को भी पता नहीं रहा होगा कि पैरों में रहने के लिए बनाए गए हैं! बेचारे जूतों की क्या गलती ! किस्मत ही ऐसी पायी ...मैंने अपने मित्र से कहा - "यार, मेरे जूतों को ऐसी जमीन पर चलने की आदत नहीं है। इनकी हालत देखी नहीं जा रही मुझसे" . ...जूते अगर मेरी सोच सुन रहे होते और बोल सकते तो पक्का गरिया देते कि साले हम तो बने ही इसी के लिए हैं... कोई और जानवर कहे तो समझ में आता है लेकिन तुम इंसान? ! दिमाग में ये जवाब आया तो वो खुद शांत हो गया । इंसानी दिमाग है... न बोलने वाले से भी बुलवा लेता है. और पता नहीं क्या क्या ऊटपटाँग सोचता रहता है ।
इंसानी दिमाग... चला गया कुछ साल पहले जब हम पुणे में रहा करते थे। कभी कभार हम कुछ झोपड़ियों में बच्चों को पढ़ाने चले जाते और कभी कोंकण के ऐसे समुद्री तटों पर जहाँ उन दिनों केवल बीएसएनएल का नेटवर्क आता था - यानी हमारे मोबाइल नहीं चलते। हमारे साथ अक्सर ड्यूड-ड्यूडनी प्रजाति के भी लोग होते - उन जूतों की तरह ही स्पेशली मेड फॉर लिविंग ऑन अर्थ ! पर रनिंग-रनिंग ते सौ गुनी... का फर्क भी होता है न। कुछ जूते मोची के यहाँ सिल पड़े होते हैं... रफ। सुना है किसी जमाने में पहनने के पहले सरसों तेल में डूबा के रखना होता था... ऐसे भी जूते होते थे। और 'स्पेशली मेड' तो खैर देखा ही है !
हमारे साथ वाले अक्सर कहते कि - इन झोपड़ियों और गाँवों में रहना कितना सुकून भरा होता है न। कितनी अच्छी किस्मत है इन लोगों की... सब कुछ प्राकृतिक ! पोल्यूशन नहीं ...सुकून की जिंदगी... कोई झंझंट नहीं... हेवेनली ! वॉव ! ...वगैरह वगैरह। मुझे सारी बातें तो याद नहीं पर आपके पास भी इंसानी दिमाग है... आप यहाँ कुछ 'वगैरह' खुद जोड़ सकते हैं.
मैं और मेरे एक बनारसी दोस्त कुछ कहते तो नहीं पर आपस में हम बात जरूर करते कि एक बार ऐसे रहना हो तो इन्हें पता चले। हमें लगता कि उन्होने वास्तविकता देखी ही कहाँ है ! उन्हें तो उन जूतों की तरह पता भी नहीं होता कि ....खैर ... खेतों में लगी फसलें न पहचानने वालों का हम मजाक उड़ाते हुए कह देते कि अरे गेंहू तो फैक्ट्री में बनता है। आप माने न माने एक दिल्ली के लड़के ने मानने से इनकार कर दिया था कि गुड (गुड़) मिल में नहीं बनता ।
वैसे हमारे और उनमें कोई फर्क तो होता नहीं था... सब साथ जाते, एक जगहों पर रहते। बनाए गए तो वो भी हैं हमारी ही तरह कहीं भी रहने को... पर उन जूतों की तरह - "झेल न पायेंगे ! " वाली बात लगती। ऐसा नहीं कि मेरे जूते झेल नहीं पाएंगे पर ... उनका रंग रूप देखा नहीं जाता :)
हम दोनों अक्सर बात करते कि हम दोनों में से किसने ज्यादा देहाती जीवन देखा और जीया है। खैर हम तो सबकी तरह यही सोचते रहे कि बाकी क्या रह पायेंगे ऐसी जगहों पर और अपना क्या है... हम तो रह ही लेंगे। एक ऐसे ही दिन कोंकण में कहीं हम गाडी के अन्दर बैठे जा रहे थे। सड़क पर एक भैंस जा रही थी तो गाडी धीरे करनी पड़ी। ... भैंस ने सर झटका और मैंने फ्रंट सीट पर बैठे बैठे अपना सिर झटक कर किनारे कर लिया। कार का सीसा बंद था। मेरे बनारसी मित्र ने तुरत कहा - "ओझा ! यही गाँव में रहे हो? ! आज पता चल गया कितना रहे हो।"
बाकी इसके बाद हमने डिफेंड किया ही होगा... आप समझ ही गए... इंसानी दिमाग आप भी रखते हैं !
हम अपने को लेकर बहुत कुछ सोचते हैं... दूसरों को लेकर भी। पर दूसरों की तो छोडिये अपने बारे में भी कहाँ पता होता है कि हम क्या हैं ! वैसे जो गरीबी, झोपड़ी, गाँव वगैरह को देख... हेवेंली और वॉव ! कहते है... मैं उन्हें अब भी 'स्पेशली मेड फॉर' की श्रेणी में ही रखता हूँ - वो झेल न पायेंगे :)
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~Abhishek Ojha~