Jan 1, 2013

…there was no one left to speak for me.

 

सच कहूँ तो इस मुद्दे पर मैंने कहीं कुछ नहीं लिखा, कोई पसंद नहीं, कोई टिप्पणी भी नहीं। इससे जुड़ी खबरें भी ठीक से नहीं पढ़ पाया। लोगों ने मुझसे कुछ कहना भी चाहा तो मैंने मना कर दिया । एक तो मुझे हर किसी की बात में लगा कि वो बस इस मुद्दे पर भी कुछ कह कर पसंद और टिप्पणी ही गिन रहे हैं। सारी बहस बेकार लगी। मीडिया के टीआरपी बटोरने जैसी। बहुत कम लोगों की बातों में ईमानदारी और सच्ची चिंता दिखी। कुछ भी कहा लोगों ने... या तो मुझे इतनी समझ नहीं या लोग सच में हर बात पर कुछ भी कह 'हीरो' बनना चाहते हैं । मुझे हर बात से चिढ़ होती गयी... मुझे अपने से भी चिढ़ हुई। इस बात से भी चिढ़ हुई कि मुझे किसी और के कुछ कहने से भी क्यूँ चिढ़ हो रही है - मैं तो वो भी नहीं कर रहा ! लोगों की मेहनत और प्रयास देख भी... खासकर मुझे फेसबूक पर लोगों का लिखना... । मुझे पता है सब वैसे नहीं... पर... जो लगा वो लगा !

  अपने ऐसा होने पर मुझे  जॉन वॉन न्यूमैन का कहा याद आता रहा। एटम बम के आविष्कार के दिनों में उन्होने रिचर्ड फेयनमन से कहा था - You don't have to be responsible for the world that you're in. वैसे शायद निराशा और चिढ़ बस इस एक खबर से नहीं...  हर एक बात से... और मुझे लगा कि ऐसी हर दिशा से आने वाली निराशा से इंसान सामाजिक रूप से गैर जिम्मेदार भी बन सकता है।

दरअसल ऐसी खबरें और बातें पढ़ते हुए कुछ चेहरे दिमाग में आते हैं... उनके जिन्हें आप बहुत प्यार करते हैं। उन बच्चियों, लड़कियों और महिलाओं के... जिन्होने सिर्फ हमें नहीं हमारी रूह पर असर डाला होता है. एक पुरुष होकर मैं जो हूँ - उनसे हूँ।  एक आम इंसान कहीं न कहीं स्वार्थी होता ही है उसे सबसे पहले बस अपने लोगों की याद आती है। पुणे में जब जर्मन बेकरी बम धमाके के बाद लोगों के फोन आए तो मुझे समझ नहीं आया था कि मुझे अच्छा लगना चाहिए या बुरा... खैर... वैसी खबर पढ़ते हुए ऐसे चेहरे याद आते हैं जो उस अनजान चेहरे की जगह हो सकते थे ... और फिर आप सुन्न हो जाते हैं... आगे की खबर पढ़ पाने की हिम्मत मुझमें तो नहीं बचती।

बहुत सी बातें है... फिर लग रहा है क्या फायदा बकबक का। आप भी सब जानते हैं। पता नहीं कितने कारण और कितने समाधान चर्चा में रहे इस घटना के बाद और कब तक रहेंगे।  कल न्यू यॉर्क टाइम्स में एक आर्टिकल में ये लाइने पढ़ी -

In India’s conservative society, male sexual aggression is portrayed in unexpected ways. In Bollywood films, kissing on screen is still rare and nudity forbidden. But the rape scene has been a staple of movies for decades. And depictions of harassment often have an innocent woman resisting nobly, but eventually succumbing to the male hero. One commonly used term for sexual harassment is “eve-teasing,” which critics say implies the act is gentle and harmless.

और ऑफिस में किसी ने एक आर्टिकल भेज मेरा व्यू मांगा।

आप भी मेरी तरह सुन्न हैं तो पढ़िये ये लाइनें -

First they came for the communists,
and I didn't speak out because I wasn't a communist.

Then they came for the socialists,
and I didn't speak out because I wasn't a socialist.

Then they came for the trade unionists,
and I didn't speak out because I wasn't a trade unionist.

Then they came for the jews,
and I didn't speak out because I wasn't a Jew.

Then they came for the catholics,
and I didn't speak out because I wasn't a catholic.

Then they came for me,
and there was no one left to speak for me.

Fast Track Court

गिरिजेशजी ने कहा था कि 01 जनवरी को इस पर कुछ लिखूँ। इस पर इतना कुछ लिखा जा सकता है कि... कुछ लिख नहीं पाऊँगा। उन्होने भागीरथ प्रयत्न किया है आप अगर ये पढ़ रहे हैं तो उन्हें कृपया जरूर पढ़ें। इस पोस्ट को लिखने का मकसद सफल होगा - बलात्कार के विरुद्ध फास्ट ट्रैक न्यायपीठों हेतु जनहित याचिका

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~Abhishek Ojha~