'अबे सुन, जरा अपनी बाइक दे दे आज... ऐसा कर ले के मेरे घर ही आ जा '
'आके ले जा... वैसे तेरी गाड़ी खराब हो गयी क्या?'
'नहीं आज मौसम थोड़ा अलग सा हो रहा है तो मैडम को ड्राइव पे जाने का मन है... तुझे काम हो तो मेरी गाड़ी ले जा.'
'हाँ ये अच्छा आइडिया है वैसे भी 'वो' छोटी गाड़ी में बैठती नहीं है... तेरी गाड़ी लेकर जाता हूँ आज. शायद आज आ जाये... ही ही ही...'
... यही हाल दिखता है आजकल मुझे अपने इर्द-गिर्द. कार वाले को बाइक पसंद है और बाइक वाले को कार. कैसी बिडम्बना है. छोटी गाड़ी वाले को जो पसंद है वो बड़ी गाड़ी वाले को पसंद करती है. बड़े गाड़ी वाले की मैडम कहती हैं एक अच्छी बाइक नहीं ले सकते थे, ये कोई उम्र है कार में बैठने की?... और उसे खुद लगता है जो है इसकी भी क्या जरूरत थी.
सरकारी नौकरी में चले गए लोगों को लगता है वो अगर प्राइवेट सेक्टर में रहे होते तो आज ना सिर्फ सीईओ होते बल्कि स्टीव जोब्स जैसों की जगह उन्हीं का नाम होता. और प्राइवेट सैक्टर वाले तो खैर... 'सालों ने देश बर्बाद कर रखा है, मैं होता तो दिखा देता कैसे बदला जाता है सिस्टम दो दिनों में... सब के सब साले करप्ट हैं! ...'
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खैर... और भी स्नैपशॉट हैं इस बीमारी के... 'तुम्हारे जितनी मेरी सैलरी होती तो आज पार्किंग में एक और नयी गाड़ी खड़ी होती. ...अबे ये बता फ़ाइनेंस में जाने के लिए क्या पढ़ूँ? सुना है हमारे अभी के पैकेज से दोगुना तो बोनस ही मिल जाता है !' इस ड़ाल से उस ड़ाल उछलते रहने की ये एक अलग ही माया है. बगल वाले के घर के पिछवाड़े में उगे एक बबूल और अरंडी के पेंड भी अपने बगीचे से ज्यादा हरे भरे लगते हैं ! (वैसे अब पेंड की बात ही कौन करता है 'उसकी बालकनी में चार गमले हैं' और एक हम हैं... टाइप का जमाना है). अपने पास जो है वो चाहिए या नहीं इसमें दुविधा हो सकती है लेकिन दूसरे के पास जो है वो जरूर चाहिए. सामने वाले का काम रोचक लगता है अपना पकाऊ !
'ये कर के ही क्या उखाड़ लोगे? कभी सोचा है जीवन में क्या करना है? यही करते रहोगे क्या जीवन भर? पैसा तो तुमसे अधिक एक कॉलेज कैंटीन में चाय बेचने वाला कमा लेता है...'. मैंने थोड़ी देर बाद कहा 'तुम्हें पता है तुम अभी जिससे ये कह रहे थे वो भारत के टॉप 1-2 परसेंट सैलरिड लोगो में आएगा.'
'तो? जो वो करता है उसका वास्तविक जिंदगी से कोई मतलब भी है? सैलरी... हुह... मेरे गाँव चलना कभी एक सिपाही का बंगला दिखाउंगा तुम्हें...'
'अभी भी मौका है छोड़ो ये सब... चलो दरोगा बनते हैं बुलेट से चलेंगे, रोब होगा इलाक़े में अपना... ये जो कर रहे हो इसका कोई फायदा नहीं... अमरीका जाके फ़रारी से भी चलोगे तो एक बुलेट वाले से कम भाव रहेगा... वैसे मुझे पता है तुम वहाँ भी सबवे से ऊपर नहीं उठ पाओगे'
'पहले किसी दरोगा से पूछ लें? कहीं उसे भी ये ना लग रहा हो कि जीवन खराब लिया हो उसने अपना... ढंग से पढ़ा लिखा होता तो आज तुम्हारी तरह किसी सो कॉल्ड मल्टीनेशनल में काम कर रहा होता'
'पागल हो क्या? चल तुझे इसी वीकेंड तुझे एक सिपाही का बंगला दिखा के लाता हूँ...'
'अबे लेकिन अभी तक तो बात पैसे की नहीं थी? जीवन में कुछ मिनिगफूल करने की बात थी ...'
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ओह ! किसी को खेती नहीं करनी, किसी को नौकरी, कोई बीजनेस से ही परेशान है. मजे की बात ये है कि कई नौकरी वालों को लगता है कि अगर वो खेती कर रहे होते तो कायाकल्प कर देते... जो अभी खेती कर रहे हैं वो तो जैसे निरे मूर्ख ही हैं !
अक्सर बच्चे कहते हैं... 'अगर उसकी तरह पढ़ता तो फिर उससे ज्यादा नंबर ला कर दिखा देता, मैं तो पढ़ता ही नहीं'. अरे क्यों नहीं पढ़ रहे हो बे... पढ़ाई के अलावा और क्या-क्या करते हो बताना जरा?
खैर... ड्राइव करने में कितना मजा आता है ये उससे पूछ के देखना जरा जो रात-रात भर गाड़ी चलाता है. कुछ दिनों पहले एक बस की खिड़की से झुग्गी-झोपड़ी देखते हुए किसी ने मुझसे कहा 'हाउ क्यूट न? कितने प्यारे-प्यारे घर हैं'
'... हाँ बड़े क्यूट है... जाओ रह के आओ 4 दिन... फिर अच्छे से पता चलेगा क्यूटनेस क्या होता है.' मोहतरमा बुरा मान गयी और बाजू की सीट से उठकर चली गयीं.
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... अरे जो कर रहे हो वो भी इतना पकाऊ नहीं है जितना तुम सोच रहे हो... और जिसके बारे में सोच रहे हो वो तो उतना रोचक नहीं ही है जितना तुम्हें दिख रहा है... अभी जहाँ हो वो जरा ढंग से कर के तो देखो. इससे आगे मैं तो ये भी कहना चाहता हूँ कि तुम वहाँ जाकर भी ऐसी ही बाते करोगे... लेकिन छोड़ो बुरा मान जाओगे.
...और हाँ मैडम को मौसम और बाइक के कंबिनेशन ने बीमार कर दिया और बड़ी गाड़ी पसंद करने वाली को दरअसल गाड़ी नहीं किसी और में कुछ और ही बात पसंद है ! योर परसेप्शन इस नोट ऑल्वेज़ द रियलिटी...
~Abhishek Ojha~
पोस्ट लिखने के बाद सोचा किसी दरोगा की बुलेट पर बैठी फोटो लगा दी जाय. गूगल किया तो पहले पता चला कि दरोगा फारसी शब्द है. और फोटू तो ऐसी धांसू मिल गयी कि... किसी को भी दरोगा बनने के लिए इन्सपायर कर दे :)
हम तो सोंच रहे हैं की सब बकवास है, पढ़ाई लिखाई छोड़कर गाँव में settle हो लेते हैं ! मस्त, गन्ने उगाया करेंगे और जूस निकालकर पियेंगे, थोड़ी गैय्या को दुहेंगे, और बचे जूस का गुड बना के मस्त पैक कर के multinationals में काम करनेवालों को 200 Rs/kg बेचेंगे! फिर Entrepreneur के नेक्स्ट इस्सू में कवर पर धोती में बत्तीसी दिखाते नजर आयेंगे! कहो कैसा आईडिया है? :)
ReplyDeleteवाह रे ओझा जी ,कलम उठा लेते हैं तो एकदम पस्त कर देते हैं,और इ दरोगन के चक्कर में न पड़ा जाय?
ReplyDeleteजबर्दस्त लेखन ,मस्त पोस्ट.
जो नहीं मिला उसे पाने की आस और जो नहीं किया उसे करने की आस दुनिया में सामान्य लक्षण है। बाजार में सजी दुनिया भर की चीजों में से एक को भी खरीद सकने की क्षमता नहीं है। पर उसे देख पा रहे हैं, इसी में कोई खुश है। उन में से किसी को यदि छू सका तो फिर खुशी का कोई ठिकाना नहीं है।
ReplyDeleteयह पोस्ट बहुतों को आईना दिखा रही है।
वाह बहुत गजब का लिखा आपने अभिषेक जी और क्या खूब पहलू दिखाया है । सच में ही यही हो रहा है आज । जैसा कि द्विवेदी जी ने कहा कि बहुतों को आईना दिखा दिया आपने इस पोस्ट से
ReplyDeleteशानदार...जो है उसके दीगर पर नजर..हाय, बलमा हम वो क्यूँ न हुए.!!
ReplyDeleteबेहतरीन लेखन!! आनन्द आया!!
This life is full of paradoxes,ironies as such and make believes only......
ReplyDeleteहाँ ..ऐसा तब होता है जब हम नही जानते की हम क्या चाहते हैं
ReplyDeleteइसीलिये हम कहता हूं कि ताऊ बनकर रहो फ़िर कोई गम नही.:) बहुत जबरदस्त डबल आईना दिखाती पोस्ट.
ReplyDeleteरामराम.
इसीलिये हम कहता हूं कि ताऊ बनकर रहो फ़िर कोई गम नही.:) बहुत जबरदस्त डबल आईना दिखाती पोस्ट.
ReplyDeleteरामराम.
एकदम एटमबमी पोस्ट। आनन्द आ गया। ऐसे ही लिखते रहो।
ReplyDeleteदारोगा का हमारे तरफ मतलब कुछ यूँ है :" दो"... या तो 'रो' के दो या 'गा' के दो ... पर दो (रिश्वत)
ReplyDeleteसुन्दर पोस्ट
अपने दुख और औरों के सुख आसानी से दिखायी पड़ते हैं । घर की मुर्गी दाल बराबर ।
ReplyDeleteबहुत बम्फाट पोस्ट है!!!
ReplyDeleteऔर दरोगा का फोटू लगाकर तो गर्दा उड़ा दिए हो. देखकर लगा कि काहे नहीं बने दरोगा.
सच लिखा आप ने, लेकिन जो है उस मै ही मस्त रहे तो कितनी शांति हो....
ReplyDeleteIs shehar mein har shaqs pareshaan sa kyun hai....
ReplyDeleteथोड़ा अवकाश तो लेते हैं भईया लिखने में, पर जब लिखते हैं तो वाह !
ReplyDeleteगज़ब की पोस्ट !
दूर के ढोल सबको सुहाने लगते है ।अपनी अकल और दूसरे का पैसा ज्यादा दिखाई देता है ।व्यंग्य कहे या सत्य कथन कहें
ReplyDeleteAj ke har vyakti kee manasikata ka sundar prastuteekaran---behatareen.....
ReplyDeletebahutai mazaa aava bhai,sahi hai ki sabko doosre ka maal achchha lagta hai......ek apni 'bakwaas' chhodkar....
ReplyDeleteहर किसी को वो नहीं चाहिए जो उसके पास है वो चाहिए जो नहीं है ..सही कहा ...बहुत दिनों बाद आपके लिखे लफ़्ज़ों से रूबरू हुई अच्छा लगा ..शुक्रिया
ReplyDeleteयही हाल दिखता है आजकल मुझे अपने इर्द-गिर्द. कार वाले को बाइक पसंद है और बाइक वाले को कार.
ReplyDelete-----------
बोरियत का युग पसरा है। इसको उसकी कार या बाइक की बजाय इसको उसकी और उसको इसकी पत्नी न पसन्द आने लगे कुछ दशकों बाद! :(
वाह क्या खूब लिखा है...
ReplyDeleteअभिषेक भाई ,
ReplyDeleteआपकी कलम की रवानी
" दरोगा जी " की बन्दूक की गोली की तरह
स्पीड पकड कर चलती रहे
हम तो यही दुआ करेंगें :)
स स्नेह,
- लावण्या
एकदम दुरूस्त. एक समय था जब जिप्सी गाड़ी खुद चलाने में आनंद आता था. आगे चलकर गाड़ी बदल गई तो खुद चलाते हुए यूं लगता था मानो ड्राईवर बने बैठे हों. पर दूसरे की थाली में कम कैसे लग सकता है..विचार करने की बात है
ReplyDelete...और हाँ मैडम को मौसम और बाइक के कंबिनेशन ने बीमार कर दिया और बड़ी गाड़ी पसंद करने वाली को दरअसल गाड़ी नहीं किसी और में कुछ और ही बात पसंद है ! योर परसेप्शन इस नोट ऑल्वेज़ द रियलिटी...
ReplyDelete'The End" me sab simat aaya..waise lekhan shaili pathak ko baandh leti hai!
प्रिय सर /मेरे ब्लोग पर दी गई टिप्पणी मे आपने उर्मिला का जिक्र किया है बहुत विद्वानों और कवियों ने उनकी पींडा और विरह का वर्णन किया है और उनके प्रति बरती गई उपेक्षा का विस्तार से वर्णन किया है किन्तु मै एक निवेदन करना चाहूंगा -लक्षमण को बिदा करते वक्त मा ने क्या आदेश दिया था ""रागु रोगु इरिषा मदु मोहू /जनि सपनेहु इन्ह के बस हौऊ""।मन क्रम बचन से सेवा करने का आदेश पाये व्यक्ति ने वैसा आचरण भी किया बन मे " सयन कीन्ह रघुवंश मनि ,पाय पलोटत भाइ"" और जब राम सोते थे तब "उठे लखन प्रभु सोवत जानी "तब क्या करते थे "जागन लगे बैठ बीरासन " क्या पत्त्नी के साथ होते हुये क्य यह सब सम्भव हो पाता आज भी प्रधान मन्त्री के अंगरक्षक अपनी पत्नियों को साथ ले जाते है क्या ? बोर्डर पर रक्षा को तैनात जवान क्या पत्नियों के साथ है? रहा सवाल चलते वक्त न मिलने का इस विषय मे तो बहुत तर्क, वितर्क ,, कुतर्क की गुन्जाइश है ।इसलिये इसे तो इक खूबसूरत मोड देकर छोडना बेहतर ।
ReplyDeleteवो कहते हैं ना दूसरे की बीवी हमेशा ज्यादा खूबसूरत लगती है । वैसे फोटो सचमुच धांसू है और पोस्ट भी।
ReplyDeleteएक चुटकुला याद आ रहा है...
ReplyDeleteएक गांव में एक कलेक्टर पहुंचा. गांव की एक बुढ़िया को एक बच्चे ने बताया कि बहोत बड़ा अफसर कलेक्टर गांव में आया है. बुढ़िया ने पूछा कि क्या वो बड़ा अफसर पटवारी से भी बड़ा है? :)
मिल जाए जो मिट्टी है, खो जाए वो सोना है. ज़िंदगी भी बस अधूरेपन की दास्ताँ है. ...
ReplyDeleteफोटू बिलकुल धांसू है .इन दिनों क्लिनिक के ठीक सामने पिक्चर हौल में भी ऐसी एक फिल्म लगी है .जिसके पोस्टर में ऐसा ही दरोगा झाँक रहा है ...पल्लवी को ये पोस्ट रिकमेंड करता हूँ...दरोगा से थोड़ी ऊपर है वो....
ReplyDeleteओझा भाई......
ReplyDeleteबहुत ही रोचक पोस्ट........आप भी पुलिस (दरोगा ) के चक्कर में फंस गए....!
कमाल की बकवास(तुम्हार टैग) है भई ;)
ReplyDeleteअपना भी यही हाल है.. वैसे प्रतीक से सहमत होगे हम.... और यही सब तो रोज़ चलता है.. जीवन भी शायद इन्ही पसन्दो और नापसन्दो के बीच जीना है :)
गजब का आईना दिखाया है आपने।
ReplyDelete--------
कौन हो सकता है चर्चित ब्लॉगर?
पत्नियों को मिले नार्को टेस्ट का अधिकार?
अभिषेक भाई क्या बात है ......आपके ब्लॉग पर काफी दिनों से ख़ामोशी छाई हुयी है......इस गतिरोध को तोड़िए हुज़ूर.
ReplyDeleteबकवास का परम आनन्द ।
ReplyDeleteजय हो। अच्छा किये इसे पहले नहीं बांचे थे। अब बांच कर मन खुश हो लिये। :)
ReplyDeleteबकिया तुलना करने की बात का क्या कहें! इसई लिये हमको नूर साहब का शेर बहुत पसंद है:
मैं कतरा सही ,मेरा वजूद तो है
हुआ करे जो समंदर मेरी तलाश में है।