'आप ही हैं ?' – पान (और/या गुटखा) चबाते मुंह में एक पाव तरल पदार्थ भरे एक सज्जन ने मेरे पास आकर पूछा।
(अब इसका क्या जवाब दिया जा सकता है जी? मैं हूँ या नहीं हूँ? हूँ तो कौन हूँ? ! अगर सवाल ‘मैं कौन हूँ?’ हो गया - तो ये तो वैसे ही सृष्टि के सबसे भारी सवालों में आता है. इस सवाल का जवाब देना मेरी क्षमता के बाहर था !)
मैंने पूछा: 'आपको किससे काम है?'
'अरे काम तो होता रहेगा लेकिन हम पूछ रहे थे कि... माने... आपे इधर आए हैं बाहर से?'
'हाँ।'
'वईसे आप करते का हैं?'
'ये बैंक में हैं' - मेरे एक नए मित्र ने मोर्चा संभाला।
'आछाऽऽ… त आप एमबीए किए हैं?'
'नहीं।'
'त सीए किए होंगे?'
'नहीं, ये आईआईटी किए हैं।' - मेरे मित्र ने फिर बताया। (पटना में लोग डिग्री से मतलब नहीं रखते. आईआईटी करना ही कहते हैं. ये प्रक्रिया कैसे की जाती है जी?)
'आईआईटी? त बैंक में का करते हैं?'
'किस स्ट्रीम से थे ? मनेजर हैं?'
'नहीं। वो... ' उनके प्रवाह को रोक मैंने कुछ बोलने कि कोशिश की.
'अब कलर्क तो नहीये होंगे? हे हे हे। वईसे कउन से बैंक में हैं?'
'क्रेडिट स्विस।'
'क्रेडिट… काऽऽ? ई कउन बैंक है? …कहाँ पर है बरांच?'
'यहाँ नहीं है, स्विस बैंक है. इधर मुंबई में ऑफिस हैं ।'
'आछा. वही जिसमें काला पईसा जमा होता है? बंबई में है?' - खुशी से उछल पड़े वो.
'नहीं, नहीं... '
'आछे आप कौन बिभाग में हैं? मैनेजरे न होंगे? अभी त आप बाहर हैं नू? बंबई ब्रांच में थे का पहीले?'
'नहीं वो... ' - वो बस दनादन सवाल दागे जा रहे थे और मुझे बोलने का मौका ही नहीं दे रहे थे.
'आछे सुने हैं कि आजकल अमरीका का भी हालत बहुते टाइट हो गया है?... आछे छोड़िए ई सब। पहिले एक ठो बात बताइये आजकल साफ्टवेयर का मार्केट डाउन में है का? हार्डवेयर का सुने हैं बरी अच्छा चल रहा है आजकल। मेरा लड़का है दसवीं में त हम सोच रहे थे हार्डवेयर स्ट्रीम में डलवा दें उसको, ठीक रहेगा?'
मुझे समझ में नहीं आया क्या बोलूँ... वो धाराप्रवाह में खुद ही सब कुछ बोले जा रहे थे... उन्हें किसी और का कुछ भी सुनना ही नहीं था। आजकल वैसे ही ‘गुड लिसेनर’ बनने की कोशिश में हूँ. मैं अभी सोच ही रहा था कि किस बात को पहले स्पष्ट किया जाय कि वो फिर बोल पड़े...
'लेकिन हमको अभी तक एक बात नहीं बुझाया... आप आईआईटी करके इसमें आ कईसे गए? आछे एक बात बताइये ललूवा का केतना जामा होगा स्विट्जरलैंड में? आप लोग को कुछ पता चलता है? सुने तो हैं कि एकदमे सीक्रेट होता है।' उत्सुकता का ट्रैफिक बढ़ता देख मुझे लगा उनके प्रवाह में कुछ जाम लगेगा. लेकिन…
'आछे रहने दीजिये। पटना में आप लोग का बरांच खुल रहा है का?'
'नहीं. मैं एक... '
'अच्छा त ई बताइये… आप लोग को त जो है सो उपरवार कमाई भी खूब होता होगा? हे हे हे'
'नहीं, अरे आप पहले सुनीये तो... आप मुझे भी कुछ बोलने देंगे ?' - ये मेरा पहला ईमानदार प्रयास था लिसेनर से स्पीकर बनने का.
‘आछे बोलिए’
थोड़ी देर के लिए जब मौका मिला तो मैंने उन्हें समझाने की कोशिश की... पर वो गज़ब के मूड में थे. दरअसल उन्हें सुनना नहीं आता. हर बात बिना सुने बस समझ जाते हैं. नहीं… उन्हें समझने की जरुरत ही नहीं होती. समझे तो वो पहले से ही होते हैं. शायद ही उन्होने मेरा कहा कुछ भी सुना हो।
अब पता नहीं लोगों को क्या बता रहे होंगे कि किससे मिल आए। वैसे खुशी इस बात की है कि जाते-जाते बड़े निराश दिखे:
'आप तब दूसरे टाइप के बैंक में हैं. आ बिभागो आपका दूसरे टाइप का है, आपको कुछो नहीं पता’।
जो भी हो... एक बात तो साफ है। मुझे जो कुछ भी पता है - उनसे तो कम ही पता होगा
जब चले गए तब पता चला क्यों तेजी थी बोलने की । प्रेसर में थे. और बाहर निकलते ही सीढ़ी पर उतरते हुए दूर से ही निशाना लगाकर ठीक कोने में लाल रंग की एक और नयी परत चढ़ा गए। उनके मुंह से निकली पतली लंबी धार रसायन (केमिस्ट्री)की प्रयोगशाला में बनाए गए जेट की याद दिला गयी। ग्लास के पाईप को गर्म कर जेट बनाया था हमने कभी. मुझे लगता है मुंह से जेट बनाना भी शायद एक कला ही है. और निशाना भी अचूक… !
तीसरे तल्ले पर दीवार साफ़ कर फिर से रंगी गयी है. मैं सोचता हूँ चमकती साफ़ दीवार पर पहली बार कोई कैसे थूकता होगा? खुदा जाने कहीं ऐसा तो नहीं कि चकाचक देख थूकने को मन मचल उठता हो ! फिलहाल मुझे ये भी लगा कि पान खाने वाले कम से कम कोने के लिए तो वैसे ही मचल उठते होंगे जैसे खंबे के लिए...
(पटना १)
~Abhishek Ojha~
:) हम भी पूछ लेते हैं, सवाल बहुत दिन से मन में था, आपको सैलरी बोरे में भर के मिलती है क्या?
ReplyDeleteस्विस बैंक के बारे में यही सुना है कि उधर बोरे में भर के पैसे जाते हैं ;) :)
@Puja: ये सवाल तो रह ही गया था. पटना में सैलरी पूछना बड़ा टिपिकल सवाल है. लोग तुरत पूछते हैं पॅकेज कितना है :) औसतन किसी भी कन्वर्सेसन का चौथा-पांचवा सवाल यही होता है.
ReplyDeleteकुछ लोग थोड़े कायदे से पूछते हैं, बाकी डायरेक्ट. कुछ लोग डिस्क्लेमर लगा के (जैसे: मैं तो इसलिए पूछ रहा था कि अगर कभी मूव होना हुआ तो कितना माँगा जाएगा). सैलरी के अलावा घर का किराया, खाने का खर्च, ऑफिस आने जाने का खर्च भी लोग पूछते हैं. पूरा बजट ही जोडने बैठ जाते हैं लोग :)
बोरे में नहीं बैंक-एकाउंट में ही सैलरी मिलती है. वैसे पता नहीं एक बोरे में कितना आता है. अपनी बताएं तो हमें जीने-खाने भर का मिल जाता है :)
ओझा जी, ये तो बताया नहीं कि उपरी कमाई कितनी होती है ? अच्छा वो छोडिये, मेज के नीचे वाली कमाई बता दीजीये, शर्माईये नहीं, घर का मामला है …..
ReplyDeleteरोचक किस्सा...पान की पीक का इतना सुन्दर चित्र देखकर अपने देश की याद आ गई... :)
ReplyDeleteइधर हम है कि अरब देश में रहने के कारण अपने शौहर से उनकी सैलरी नहीं पूछ पाए आज तक...:)
मस्त रंगारंग भेंट है गिलौरी वाली।:)
ReplyDeleteउ कोनवा में एक ठो धर्मिक फोटो धर देते तो पिचकारी पर लगाम लग जायेगी.
ReplyDeleteई कौने जगह में फंस गये हैं आप??
एक हमको देखिये आपसे आज तक नही पूछा कि बरखुरदार कितना खोके (बंगला वाले नही) इकठ्ठा कर लिये हो अभी तक?:)
ReplyDeleteरामराम.
साफ़ कोने और खंबे की तुलना बिल्कुल सापेक्ष लग रही है.
ReplyDeleteरामराम
शुरुआती दौर में तो लग रहा था कि जैसे कोई टटोल कर देख रहा है कि कुर्बानी के लायक ..:) खुशखबरी हो तो बताईयेगा, पार्टी शार्टी का जुगाड़ किया जाये कुछ।
ReplyDeleteपंचम भाई की ग्राम्य सीरिज़ का स्विस सॉरी पटनात्मक वर्ज़न। और रंग बिरंगी मुलाकातों भरी पोस्ट्स का इंतजार है हमें।
पूरा ज्ञान समेट कर, चबाईके, वहीं थूक कर चले गये श्रीमानजी।
ReplyDeleteइतना पीकदार पोस्ट के लिए चित्र इतना भयंकर है कि हमारे जैसे कमजोर दिल वालों को समस्या हो रही है.
ReplyDeleteबहरहाल, इधर ऐसी 'संभावना' युक्त दीवारों पर निर्देशों और निवेदनों के स्थान पर गणेश जी, दुर्गा जी और शंकर जी इत्यादि के टाइल्स सफलतापूर्वक लगाए जा रहे हैं जिससे दीवारें बमुश्किल साफ सुथरी रहने की कोशिशें करती प्रतीत होती हैं.
तन्ख्वाह नासमझ ही पूछते हैं, समझदार तो आपका पद जानकर आपकी आय का हिसाब बना लेते हैं, आप तो उलझाए हुए थे शरीफ आदमी को.
ReplyDelete(मेरे विभाग पुरातत्व से चौंककर कुछ लोग पूछते थे, पद मैं कहता क्यूरेटर तो हिंदी में पूछते, बताता, संग्रहाध्यक्ष, तो और भी गड़बड़ होती, लेकिन पूछने वाले के भाव होते कि कुछ कमाई-शमाई है नहीं तो वइसे ही कुछ आंय-बांय-शांय बता रहा है.)
माने आप पटना का नाम हँसाने पर साफ तुलिए गए हैं का?
ReplyDelete@डॉ. मनोज मिश्र: अरे सर फंसे नहीं हैं.ये बेजोड अनुभव फिर दुबारा मिले न मिले !
ReplyDelete@संजय @ मो सम कौन ?: अरे मालिक खुशखबरी हुई तो बिन आपको बताए रखी कैसे जायेगी? :) वैसे पार्टी तो बिन खुशखबरी भी करने में विश्वास रखते हैं हम. कभी मिलिए तो किया जाय.
@चन्दन: नहीं भाई, कुछ गलत कहा हो तो बताइये :) अब तो पटना से अपनापन हो गया है तो मजाक करने का हक बनता है !
ये पटना संस्मरण/संस्करण (?) जारी रहे।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया!
और चित्र तो गज़ब!! :)
ई सैलरे वाले सवाल पर हम भी थोड़ा अनमनया जाते हैं, पर का करें अपने देस के लोग ना बस !
ReplyDeleteपान की पीक के कोने बहुत देखे हैं, पर आजकल देखने को नहीं मिलते ऐसा लगता है कि लोग सभ्य हो चले हैं।
अरे! नई गाड़ी के नए टायर पर कुकुर को बाथरूम करते नहीं देखा क्या?
ReplyDeleteअच्छा हुआ अनूप जी ने चिट्ठा चर्चा में आपकी सारी पटनाही पोस्टों की लिंक लगा दी. आज सब पढ़ डालूँगी. बहुत दिनों से स्वस्थ्य व्यंग्य पढ़कर हँसने का मन था :)
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