Oct 26, 2013

जंजाल बनाम कंगाल

ग़ालिब के  'बहर गर बहर न होता तो बयाबां होता' के तर्ज पर भोजपुरी में एक कहावत होती है - 'जंजाल नीमन,  कंगाल ना नीमन' (नीमन = अच्छा)। कंगाल अगर फक्कड़ या निराला न हो तो फिर ये कहने की जरुरत नहीं कि क्यों अच्छा नहीं। वैसे कंगाल से एक और भोजपुरी कहावत याद आ रही है - 'राजा लो के का, उ त गुरे खाई के रही जात होई लो' (राजाओं का क्या है, वो तो गुड़ खाकर ही रह जाते होंगे !)  आप इस कहावत के मतलबों पर गौर कीजिये हम आगे बढ़ते हैं।

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बात शुरू हुई जेपी मॉर्गन बैंक पर लगे 13 अरब डॉलर के जुर्माने से। (13 अरब डॉलर ! वैसे जेपी मॉर्गन ये आराम से झेल जाएगा... आप सोचिए कितनी बड़ी रकम है Smile ) थोड़ा और पहले जाएँ तो मंदी के लिए जब बैंको को जिम्मेदार माना गया तो एक जुमला प्रसिद्ध हुआ - टू बिग टु फ़ेल। दरअसल बैंको ने ऐसे काम किए थे जो उन्हें नहीं करना चाहिए था। और जैसे कि करनी का फल मिलता है. जब बुरे दिन आए तो कई बैंको को इतना बड़ा घाटा हुआ कि वो डूब गए। पर सरकार को कुछ बड़े बैंको को  मदद कर बचाना पड़ा क्योंकि वो इतने बड़े थे कि अगर डूब जाते तो अर्थव्यवस्था के लिए तुम्हें भी ले डूबेंगे सनम हो जाता !  उसके बाद सरकारजी ने कहा कि आगे से ऐसा न हो उसके लिए हम कड़े नियम बनाएँगे। जैसा कि होता आया है बहुत सी समितियां बनी। कड़े क़ानूनों का प्रस्ताव हुआ। फिलहाल जब कुछ दिनों पहले जेपी मॉर्गन पर जुर्माना लगा तो फिर ये बात आई कि जेपी मॉर्गन भी 'टू बिग टु फ़ेल' और 'टू बिग टु मैनेज' है। ये खबर पढ़ हमने ट्वीट किया.. और अजित ने जवाब। अजित के जवाब (तस्वीर में) से मुझे लगा कि कुछ लोग बिल्कुल वही समझ लेते हैं जो हम कहना  चाहते हैं -  भले हम कैसे भी कहें ! उदाहरण, बिम्ब, उपमा के नाम पर कुछ भी कहें (वैसे ये बात भी है कि कई लोग, हम कितने ही साफ-सरल शब्दों में क्यों न कहें, कुछ और ही समझ लेते हैं !)

बात तो सही है जब बैंको को इसलिए डूबने नहीं दिया जा सकता कि वो बहुत बड़े हैं तो उन्हें बड़ा होने ही क्यों दिया जाये?

वैसे बात आ गयी बैंक से - रियल लाइफ, इमोशन, रिलेशनशिप पर ! 

बात थोड़ी दार्शनिक सी हो गयी। आप कहेंगे की ये बैंक और 'टू बिग टु फ़ेल' का गणित घुसाना जरूरी है? सीधे नहीं कह सकते जो कहना है? अब बात ऐसी है कि रविदासजी के सामने कठौती थी तो उसी में उनको गंगा दिखी, अगर सामने कॉफी मग होता तो कहावत कुछ और होती। और कबीर दासजी भी सीधे कह सकते थे कि "दुर्बल को न सताइये" इसके लिए "मुई खाल की स्वास से सार भसम होई जाये" कहने की क्या जरूरत थी? हमें कितने दिनों तक यही समझ में नहीं आया था कि किसकी मुई खाल से किसका सार भस्म हो गया ! (सार का मतलब साला भी होता है।)

वास्तविक जीवन में भी क्या चीजें टू बिग टु फ़ेल हो सकती हैं? टू बिग टु फ़ेल तो अच्छी बात है पर उन बैंको की तरह चीजें इस तरह अनियंत्रित हो जाएँ कि उन्हें उनके हाल पर छोड़ देने का विकल्प भी न बचे? अगर जंजाल इतना हो जाये कि इंसान  को लगने लगे कि इससे अच्छा तो कंगाल ही होता? वास्तविक जीवन में रिशतें, भावनायें, आसक्ति, भौतिकता ये जीवन के लिए उतने ही जरूरी लगते हैं जितने अर्थव्यवस्था के लिए बैंक। लेकिन कैसे और किस हद तक? कुछ भी  टू बिग हो जाना बुरी बात नहीं है। ग़ालिब चाचा कहते - जेपीमॉर्गन गर जेपीमॉर्गन न होता सेठ दौलतराम बैंक होता। (ये मत पूछिएगा कि ये कौन सा बैंक है Smile )सब कुछ बहुत ही अच्छा था तभी बैंक इतने बड़े होते गए और किसी ने सवाल भी नहीं किया। पर धीरे धीरे वो अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर के काम भी काम करने लगे। जहां नहीं होना था वहाँ भी वो इतने जरूरी हो गए कि बहुत कुछ उन पर आश्रित होता गया  ।

ऐसी उलझन वास्तविक जीवन में भी वैसे ही होती है जैसे बैंको में। तब तक 'अपार सफल' जब तक डूब न जाएँ ! जैसे हम मानने को तैयार नहीं होते कि हम फेल भी हो सकते हैं। हमें लगता है कि हम बाकियों की तरह नहीं हैं। एक बार कुछ बुरा होने लगे तो भी हम एक घाटा छुपाने को और गलत इनवेस्टमेंट करने लग जाते हैं। फिर एक स्तर के बाद हम ये सोचने लगते हैं कि इतना किया तो हार कैसे मान लें ! हम अपनी गलतियाँ भी नहीं देखते।  फिर से वही गलती करते हैं। हम जीवन में कितने ऐसे काम करते हैं कि इतना किया तो अब कैसे छोड़ दें?... जैसे... मान लीजिये एक मोबाइल फोन कंपनी ने एक नया फोन बनाने में करोड़ो खर्च किए। और उसके पहले ही बाजार में उससे अच्छे फोन आ गए। उन्हें पता है कि ये फोन नहीं चलना... फिर भी उस पर सिर्फ इसीलिए खर्च करते रहना कि... इतना किया तो कैसे छोड़ दें।  इससे बेहतर ये नहीं होगा कि जैसे ही पता चले उसे छोड़ नए प्रोडक्ट में लग जाएँ? पर अक्सर ये नहीं हो पाता... हम हार कहाँ मानने वाले होते हैं। ईमोशनल इनवेस्टमेंट जितना होता है उतना कठिन होता है बाहर निकलना। पर फंसे रहना है तो बेवकूफी। जैसे खाना खराब भी  हो तो इसलिए खाना कि पैसे वसूलने हैं :) एक नुकसान के लिए दूसरा और बड़ा नुकसान। जो गया उसकी सोच में हम बहुत कुछ बर्बाद करते हैं। इतना बड़ा करते जाते हैं कि... टू बिग टु फेल ! पीढ़ी दर पीढ़ी लोग अनुभव से कुछ बातें समझाते रहें पर हमें लगता है कि हम अलग हैं -  उन्हें तो करना ही नहीं आया था।  पर परिणाम वही, दुख वैसे ही!  बैंक में काम करने वालों को भी पिछली गलतियों की केस स्टडी पढ़ाई जाती है और लोग फिर से वैसी ही नयी गलतियाँ करते रहते हैं। हमेशा एक जैसा ही पैटर्न - पहले खूब सफल दिखते हैं फिर बैंक दिवालिया। बैंक में इन सब का कारण लाभ का लालच होता है,  वास्तविक जिंदगी में भावनाएँ, भौतिकता और आसक्ति - स्वार्थ दोनों में । 


टू बिग टु फ़ेल आसक्तियाँ वैसी होती हैं जिनमें आगे बढ़ना आसान होता है वापस लौटना असंभव। और ये बातें तभी पता चलती हैं जब चीजें टू बिग हो जाएँ। इतना आगे चले जाएँ, इतना उलझ जाये कि...


2008 से 2012 के बीच अमेरिका में 465 बैंक डूबे... पर एक लेहमेन का ही नाम आजतक क्यों आता है? कितनी नावें रोज डूबती हैं... एक खबर भी आ जाये तो बहुत है। पर टाइटनिक का डूबना 100 साल बाद भी किसी न किसी रूप में पढ़ने-देखने को मिल जाता है ।  क्योंकि वो 'वर्चुअली अंसिंकेबल' था। क्योंकि लेहमेन कुछ इस तरह जुड़ा ही था बाकी बैंको और कंपनियों से... वरना कितना फर्क पड़ता है सब झाड कर आगे बढ़ जाने में? छोटे मोटे झगड़ों और रिश्तों से कहाँ फर्क पड़ता है।  पर कुछ 'टू बिग टु फ़ेल'  धोखा दे या डूब जाये तो जीवन भर के लिये... सिस्टम हिल जाता है। डूबने लगे तो न उसे ढो सकते हैं न डूबने दे सकते हैं !

जब बैंको को पता होता है कि सरकार उन्हें कठिन दौर में बचाएगी ही, तो वो और खुल कर खेलते हैं।  वास्तविक जीवन में भी 'मॉरल हजार्ड'  हर कदम पर दिखता है जिसे हम कहते हैं 'मजबूरी का फायदा'। जब लोगों को पता होता है कि ये तो सरकार (भले मानस) हैं ! कहाँ जाएँगे ? मदद करेंगे ही। तो फिर वो और ज्यादा मन मर्जी के काम करते हैं। उसी तरह जैसे बड़े बैंक मन मर्जी रिस्क लेते हैं... ऐसे लोगों को भी कभी-कभी वैसे ही कह देना चाहिए जैसे सरकार ने लेहमेन को कह दिया -  भले हिल जाये पूरी दुनिया। सरकार कहती है कि, अर्थव्यवस्था के लिए, किसी को बचाने की कीमत अगर उसके डूबने की कीमत से कम है तो बचाना ही बेहतर है।  जीवन में भी ऐसी हालत क्यूँ हो जाती है कि - कुआं या खाई ! कुछ उस तरह का कि रिश्ते टूटे तो या बचे तो... कौन कम बुरा है सोचना पड़े ।

जब एक बड़ा बैंक डूबता है तो बरगद के पेड़ कि तरह उसपर आश्रित और फिर आश्रित के आश्रित बहुत कुछ ध्वस्त हो जाता है। वैसे ही हमारे भी तार कहाँ-कहाँ से जुड़ जाते हैं। कई बार हम जो कुछ करते हैं उससे जाने-अनजाने कितने लोग प्रभावित होते हैं। 

और सरकार कितने नियम बनायेगी? क्या निगरानी करेगी? किसे अच्छे दिनों में उड़ना पसंद नहीं? कौन यथार्थ सोचना चाहता है ? और उड़ने वाले एक दिन जमीन पर आएंगे ही ! जैसे... मीर साहब ने जीवन भर की शायरी के बाद वसीयत की - "कुछ भी होना तो आशिक न होना"। हमने कहा - मीर साहब, बहुत केस स्टडी पढ़ी आपके वसीयत के जैसी... आपकी वसीयत से आशिको का बनना उतना ही रुका होगा जितना नए नियमों से बैंको का फेल होना ! आग से नाता और किससे रिश्ता वाला गाना है एक? - किशोर दा आप अकेले नहीं हैं किसी का मन समझ नहीं पाता :)

सवाल अब भी वही है कितना बड़ा 'टू बिग' होता है ? कितनी आसक्ति ? कितनी भौतिकता? कैसे (स्वार्थी) रिश्ते?  बेहतर है सब कुछ वैसे हो जैसे हमारे शरीर के अंग... सब अपना काम करते रहते हैं। बिन उनके कुछ नहीं चलना पर ...हम कभी महसूस भी नहीं करते उन्हें ! 

ये तुलना पर बात निकली तो बहुत दूर चली जाएगी। फिलहाल इस  बकवास के बाद कुछ अनुभवी लोगों के ज्ञान पढ़िये -
परिभ्रमसि किं मुधा क्वचन चित्त विश्राम्यतां स्वयं भवति यद्यथा भवति तत्तथा नान्यथा.
अतीतमननुस्मरन्नपि च भाव्यसंकल्पयन् नतर्कितसमागमाननुभवामि भोगानहम्. - भर्तृहरि
(हे मन  ! क्यों निरर्थक भटकता रहता है? कहीं ठहर जा। जो होना है वो वैसा ही होगा। इसीलिए जो बीत गया उसे बिन याद किए, भविष्य के लिए बिन योजनाएँ बनाए,  मैं बिन सवाल किए, जो आता है उसी में आनंद अनुभव करता हूँ)
और  -
विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः । निर्ममो निरहङ्कारः स शान्तिमधिगच्छति ॥  - गीता (जो मनुष्य सम्पूर्ण कामनाओं का त्यागकर निर्मम, निरहंकार और निःस्पृह होकर विचरता है, वह शान्ति प्राप्त करता है।)


सबको शांति प्राप्त हो ... या जैसा कि मैं कहता हूँ जिसके पास जो नहीं है वो प्राप्त हो... ताकि उन्हें समझ आए कि उसमें भी कुछ न रखा :)
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और अब काम की बात -
हमारे नए ब्लॉग को देख आयें। नियमित देखिएगा। आसक्ति होने लायक नहीं  है - गारंटी। फैशन के दौर वाली नहीं,  असली गारंटी :)
ये रहा ब्लॉग के बारे में और ये रही पहली पोस्ट।

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~Abhishek Ojha~