"हैलो सर ! हम मेरु कैब से दुबेजी बोल रहे हैं" जिस सम्मान और गर्व के साथ दुबेजी ने अपना नाम लिया मन किया कहूँ - "दुबे जी प्रणाम !"
नाटे कद के काली-सफ़ेद दाढ़ी और लंबे बाल वाले दुबेजी "हरी ॐ" और "शिव-शिव" करते हुए 12.30 की जगह एक बजे पहुँचे।
"बताइये न मीटर ऑन करना भी भूल गया ! घोडा घास की दोस्ती हो गयी ये तो" थोड़ी देर बाद दुबेजी ने मीटर ऑन करते हुए कहा।
"कुछ बोल नहीं पायी आज ये... इसका ताम-झाम थोड़ा गड़बड़ हो गया है नहीं तो बड़ा बढ़िया बेलकम करती है। अपना मेरु कंपनी का बड़ाई करती है अच्छे से।" - दुबेजी ने मीटर की ओर इशारा किया। "कल इसको ठीक कराना पड़ेगा। हैंग हो गया है... पैसा जोड़ देगी लेकिन रसीद नहीं निकलेगा। लेकिन आपको चाहिए तो आप कस्टमर केयर पर फोन कर दीजिएगा ईमेल में आ जा जाता है आजकल। आपको कोई असुविधा नहीं हो तो पहले ही बता दिया हमने"।
"कोई बात नहीं चलिये"
"इतनी रात को आप क्यूँ चले? कोई रास्ता पूछने के लिए भी नहीं मिल रहा था मुझे। 12 के पहले निकल लेते तो नाईट चार्ज भी बच जाता आपका। किस रास्ते से ले चलें ?"
"रास्ता आप देख लीजिये। मुझे आइडिया नहीं है... जिधर से कम समय लगे ले चलिये। नाईट चार्ज का क्या करें... आने का प्लान तो जल्दी ही था लेकिन लेट हो गया। बात करते करते पता ही नहीं चला"
"हो जाता है..." उसके बाद दुबेजी भजन गाने लगे... "मेरा आपकी दया से... "
"आप अपनी गाड़ी में बाजा लगवा लीजिये" मैंने कहा।
"बाजा के लिए कंपनी का मनाही है। पहले बाजा होता था। लेकिन बहुत कस्टमर कम्पलेन करने लगा कि एक्सिडेंट हो जाता है। सही बात भी है कुछ ड्राइवर जोश वाला होता है... खासकर बीस से तीस एज का नौजवान का जो है गरम खून होता है। उसमें भी कोई वैसा सवारी लड़की जनाना हो तो... अच्छा फैसला है कंपनी का"
जौनपुर के दुबेजी मेरु के पहले मुंबई में पीली-काली पद्मिनी टैक्सी चलाते थे। उन्होने गाड़ी रोक चाय का निमंत्रण दिया और हम चाय पीने चले गए। वहाँ कुछ लोग बात कर रहे थे कट्टरपंथी लोगों की तो दुबेजी ने कहा - "देखिये ऐसा है कि नशा ऐसा कि... जैसे इश्क़ में सिनेमा दिखाओ चाहे भजन एक ही बात दिखता है वैसे ही कट्टरपंथी को भी बस अपना बात ही दिखता है। और बेवकूफ ऐसा कि सब्जी लेने भी जाये और मोल भाव में कहे कि 10 रुपये नहीं आठ रुपये। और सब्जीवाला अगर कह दे कि नहीं साहब 5 रुपये में ले जाओ तो भी वो कहेगा कि नहीं मुझे आठ रुपये में ही चाहिए !"
चाय पर ही उन्हें पता चला कि मैं बैंक में काम करता हूँ। तो उन्होने पूछा कि - "केशियर हैं कि कलर्क?"
मैंने बताया कि कुछ इनवेस्टमेंट से जुड़ा काम होता है। पहले उन्हें थोड़ी सहानुभूति हुई कि "प्राइवेट" नौकरी है पर फिर उन्होने मामला संभाला - "सर हम बताएं? इनवेस्टमेंट तो बस समय, जगह और भाग्य का खेल है... मेरे हिसाब से सही समय पर सही जगह प्रॉपर्टी में इन्वेस्ट कर दीजिये भाग्य चल गया तो... इससे अच्छा कुछ नहीं है। बाकी आप लोग अब जो करते हों।" उन्होने एक लाइन में मेरी नौकरी का कच्चा चिट्ठा खोल दिया और असहमति का सवाल ही नहीं था !
"वैसे एक बात बताएं सर? एक नंबर पर जो है वो बैंक का ही नौकरी होता है। वो क्या है कि... पैसा मिले न मिले दिन भर रहना तो पैसे के बीच में ही होता है। अब कोई नौकरी तो पैसे के लिए ही करता है न? संतोष हो जाता है पैसा देख देख के। और दो नंबर पर जो है वो है मास्टर। कोई कितना भी बड़ा जज-कलक्टर बन जाये अपने शिक्षक के सामने तो सर झुकाएगा ही। है कि नहीं? और तीन नंबर पर जो है... तीन नंबर... देखिये न... जबान से ही उतर गया... तीन नंबर ? क्या था?..." अंत तक तीन नंबर जबान पर आ ही नहीं पाया दुबेजी के।
इस बीच दुबे जी ने कहा - "जा! देखिये न ध्यान ही नहीं रहा और रास्ता लग रहा है गलत ले लिया मैंने" दुबेजी ने गाड़ी वापस ले ली और हम वापस चाय की दुकान पर आ गए। "ऑटो वाले को पता होगा रुकिए पूछते हैं"। उन्होने कहा तो मैं सोच रहा था कि रास्ता तो टैक्सी वाले को भी पता होना चाहिए पर कुछ कहा नहीं... मीटर देखा और मन ही मन सोचा कि दुबेजी ने कम से कम सौ रुपये मीटर तो बढ़ा ही दिया रास्ते के चक्कर में।
"एलएनटी तो यही है देखिये न आपका होटल यहीं कहीं होगा। गया कहाँ?" इस बार रास्ता सही था और होटल वहीं था जहां उसे होना चाहिए। "यहाँ आपके कंपनी ने रखा है?" मैंने कहा हाँ तो दुबेजी ने कहा - "तब बढ़िया कंपनी है।"
उतरने पर दुबेजी ने कहा "सर आप उतना ही किराया दीजिये जितना देते हैं। बीच में गलत रास्ते का कम कर देते हैं"
मैंने कहा - "कोई बात नहीं। आपने जानबूझ कर गलत रास्ता नहीं लिया था। आपकी गाड़ी तो चली ही और मुझे पता भी नहीं कितना किराया होता है।"
दुबेजी ने 100 रुपये लौटाते हुए कहा - "आपको जल्दी थी फिर भी आपने चाय के लिए हमें समय दिया उसके लिए धन्यवाद और हम नाजायज पैसा नहीं लेते। आपसे मिलकर हमें बहुत अच्छा लगा।"
दिल्ली का एक ऑटो वाला... "पैसा क्या लेना यार मैं तो घर जा रहा था लिफ्ट समझ लो" और मुंबई के दुबेजी... यूंही याद आ गए आज :)
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~Abhishek Ojha~