Apr 18, 2025

उत्तम आहार - पशु आहार

 पिछले दिनों एक मित्र मिलने आये। शनिवार का दिन। आराम से पसर के बैठे। खाते-पीते बैकग्राउंड वाले हैं, तो जहाँ बैठें, अच्छा रेडियस घेर लेते हैं। दो-चार दिन पहले हमारी तबियत थोड़ी डाउन थी, तो उस सिलसिले में बात होने लगी। आपकी तबियत गड़बड़ हो तो सामने वाले का कर्तव्य हो जाता है कि कुछ ज्ञान ठेले। 

दो-चार बातों के बाद बोले - “ओझा, तुम वीगन बन जाओ।”  


हमने कहा जो खाते हैं वो ठीक है, अब क्या कुछ नया खाएंगे और नहीं खाएंगे। 


फिर बोले - “अच्छा खाते क्या हो तुम?” 

हमने कहा - “नार्मल खाते हैं, दाल-चावल, रोटी-सब्जी वगैरह।“ 

ऐसे मुंह बनाये जैसे बोल दिया हो कि कुत्ता-बिल्ली खाते हैं ! 

“केवल कार्ब ! प्रोटीन कहाँ से मिलता है तुम्हे?” 

“दाल-वाल से मिल जाता होगा ...थोड़ा उन्नीस-बीस। नहीं तो दूध-दही, अब नाप कर तो खाते नहीं हैं।”

“यही गलती कर कर रहे हैं लोग। क्यों नाप कर नहीं खाते हो? डॉक्टर बोलेगा तब नापोगे? योर फ़ूड शुड बी योर मेडिसिन।” 

हमें लगा बिना बात ही ये आदमी गुस्सा हुए जा रहा। ये भी कोई नापने तौलने की चीज है। शांत किया जाय । तो पूछ लिया - 

“अच्छा छोडो, कुछ खाओगे? कुछ मीठा? मिठाई पड़ी है फ्रिज में। लड्डू खाओगे?”

“मीठा? शुगर ! बता रहा हूँ मैं ...छोड़ दो।”  ऐसा मुँह बनाया आदमी …कहाँ शांत होने की बात थी, कहाँ आग में एक चम्मच घी पड़ गया! 


हमें कुछ दिन पहले की देखी एक रील याद आई। रील का जमाना हो गया है तो इधर-उधर से फार्वड होकर आ ही जाता है। वही याद करते हुए हम मन में बोले - “हम क्यों लड्डू छोड़ें बे? तुम छोड़ दो, हम तुम्हारा भी खा लेंगे।”  

“संतरा खाओगे?”

“संतरा शुद्ध शुगर होता है!”

“मतलब फल-वल भी नहीं? सुनते हैं कि विटामिन सी वगैरह भी होता है। फल-सब्जी का बड़ाई तो बचपन से सुनते आये हैं।“ 

“अरे बचपन से सब गलत सुनते आये हो। शुगर माने जहर ! जितना विटामिन सी उससे ज्यादा शुगर होता है उसमें।”

“अच्छा चलो ठीक बात है।  चाय पीओगे? 

“बनाओ बिना शुगर के। आलमंड या ओट मिल्क रखे हो?”

“अब दूकान थोड़े खोले हैं। एक ही दूध है। हम तो स्किम ना लाये आजतक।” 

“स्किम क्यों पीओगे? वो तो और बेकार है। हम बस प्लांट बेस्ड पीते हैं।” 

“हम तो वैसे नार्मल दूध ही पीते हैं लेकिन स्किम भी बेकार है? वो तो बहुत चला हुआ है?”

“स्किम से अच्छा नार्मल ही ठीक है। देखो गाय दूध देती हैं तो वो तो चलो प्रकृति ने बढ़िया पौष्टिक बना कर दिया होगा। लेकिन अब स्किम के नाम पर उसमें से फैट निकालने के साथ क्या-क्या निकल गया ये कैसे पता चलेगा? दूध क्या से क्या बन गया, ये तुम्हे पता है?”

“ये तो ठीक बात है। तो दूध में क्या दिक्कत है? वो तो प्रकृति…” 

“अरे डेयरी में बहुत फैट होता है। हार्ट के लिए ठीक नहीं है। और स्किम से अच्छा तो पानी मिला के पीयो।” 

“पानी मिला के पियें? मतलब ग्वाले जो दूध में पानी मिला के देते थे, उसके पीछे वैज्ञानिक कारण था, नहीं? उनको स्वास्थ्य विभाग से सर्टिफाइड करवा देना चाहिये। और पानी मिला के पीना का क्या मतलब हुआ थोड़ा कम पीने को कह देते।” 

“तुम मजाक कर रहे हो?” 

“अरे नहीं सीख रहे हैं तुमसे पर एक दम ही क्रांतिकारी सुझाव हैं तुम्हारे।” 

“अब तुम्हें खिलाएं क्या! हाई-फाई हम कुछ रखते नहीं हैं। दूध में पानी जरूर मिला सकते हैं। लो ये वाला चाय पी लो तुम। रोज-इंफ्यूजड ब्लैक टी।“ 

फैंसी टिन का डब्बा देख कर खुश हो गए कि कुछ तो ढंग का है इसके पास। “तुम इतना फैंसी कब से हो गए?” 

“अरे नहीं, वो हमारे लन्दन ऑफिस में कुछ फ्रेंच लड़के हैं। लेबंटी चाह का अमेज़न पेज ट्रांसलेट कर के किताब के बारे मे पढ़े, उनको लगा हम चाय के बड़े शौक़ीन होंगे। तो ये दे गए। हम एक बार कोशिश किये, फिर दुबारा हिम्मत नहीं हुई पीने की। दूध चीनी मिला कर पीने लायक हो जाता है। खैर …लगता है खाने पर बहुत ध्यान दे रहे हो तुम आजकल?” हमें लगा दूध-चीनी की बात पर ये न कह दें कि ऐसे चाय की तौहीन है ये, इसलिए बात बदल दी।  


“अरे जरूरी है ! हम इधर-उधर बहुत मेहनत करने के बाद समझे कि खाना ही दवाई है। कायदे का खाओ, सब कुछ ठीक रहेगा।” 

“अच्छा। कुछ हमें भी ज्ञान दो।”  

“तुम्हे मजाक लग रहा है तो क्या ज्ञान दें!”

सही बात है बिना श्रद्धा के गुरु ज्ञान नहीं दे सकता। हमने कहा, नहीं-नहीं बताओ। बहुत सीरियस हैं हम।   


“ब्रेकफास्ट क्या करते हो?” पहले उन्होंने ग्राउंड वर्क करना चालू किया।

“घर पर किये तो ब्रेड, इडली, डोसा, उपमा, पोहा यही सब बाहर …जो मिल जाए, जो मन करे और जितना टाइम हो।”  

“खाली कार्ब है तुम्हारे डाइट में। नॉट गुड! सबसे पहले तो फर्मेन्टेड फूड से शुरू करो। पेट में अच्छा बैक्टीरिआ रहना जरूरी है। अब देखो, पहले इंसान नदी का पानी पीता था तो उससे बहुत लाभ वाले बैक्टीरिआ भी पेट में जाते थे, पर अब तो वो है नहीं। तुम्हारे पानी में अच्छा-बुरा कुछ नहीं है! एकदम शुद्ध पानी है।”   

“इडली-डोसा फर्मेन्टेड में नहीं आएगा? और पीने के लिए गड़हा के पानी का जुगाड़ किया जाय?” 

“इडली-डोसा नहीं, किमची खाओ।”  

“कौंची? तुम मेरी किताब पढ़ लिए क्या? कौंची खाना नही होता है।”  

“तुम किमची गूगल करो।”  

“अच्छा -अच्छा। चलो कर लेंगे।” 

“उसके बाद चैट जीपीटी प्लस सब्स्क्राइब करो।”  

“उसको कैसे खाएंगे?” 

“अरे यार, पहले पूरी बात सुनो, उसको खाना नहीं है। जो भी खाना कभी खरीदो या खाओ, फट से उसका फोटो डाल दो, न्यूट्रिशन और इंग्रेडिएंट्स बता देगा। पैकेज्ड है तो उसके पीछे जो इंग्रेडिएंट्स और न्यूट्रिशन फैक्ट्स होता है उसकी फोटो डाल दो।”  

“अच्छा और?” भरोसा नहीं हुआ, आदमी इतना कुछ कर सकता है भोजन के लिए।  

“उसके बाद ये वाला मशीन ले लो।”  

अपने फोन में फोटो दिखाए और बोले - “बस एक पिंच होगा, तुम्हारा ब्लड वर्क करके बता देगा। खाने के बाद ग्लूकोज वगैरह का लेवल कितना बढ़ा। धीरे-धीरे तुमको खुद आईडिया लग जाएगा क्या खाना है क्या नहीं।” 

“भाई हमको सुई लेने से बहुत डर लगता है। खाना भी ढंग का मत खाओ और खाने के बाद सुई! क्या बोल रहे हो।”  

“इंजेक्शन नहीं है बस पिंच भर ….और प्रोटीन बढ़ाओ।”

“कैसे बढ़ाएँ?” 

अपने बैग में से एक पारदर्शी बोतल निकाले, जिसमें एक स्टील का स्प्रिंगनुमा गोला पड़ा हुआ था। उसमें सतुआ जैसा पावडर डाले और घोर के पी गए।  

“ये तुम सतुआ लेकर चलते हो?”  

“सतुआ नहीं, प्रोटीन पावडर है। अनाज कौन-कौन सा खाते हो?”

“अनाज मतलब? अनाज का कुछ बनाकर खाते हैं, अनाज थोड़े चबाएंगे। बताये तो दाल-चावल, गेंहू-चना वगैरह।” 

“बंद कर दो - किनुआ खाओ।”

“कौंची, किनुआ-बेचुआ जैसे शब्द कहाँ से सीखे तुम? बिहार गए थे क्या?”

“अबे, किनुआ अनाज होता है। चिआ, ओट्स, फ्लेक्स खाओ।”

“फ्लेक्स तीसी होता है न? खाएंगे कैसे उसको? लड्डू बना के?” 

“लड्डू बना के खाओगे उससे अच्छा मत ही खाओ। उसका पावडर मिल जाएगा तेल निकालने के बाद वाला - फ्लैक्ससीड मील।” 

“तीसी की खली? या भूसी? वो तो पशु आहार होता है?”

“तुम हलवा-पूड़ी और लड्डू खाओ बस। तुम जिसे पशु आहार कह रहे हो, वही उत्तम आहार है।”

“अबे मजाक नहीं सीरियस हूँ मैं। तीसी की खली हम खुद खिलाये हैं बचपन में गाय को। और ये लड्डू से बहुत चिढ़े हो तुम। लगता है कभी बहुत पसंद था तुम्हे। ऐसा भी क्या छोड़ना मज़बूरी है। बेवफा के प्यार टाइप फील कर रहे हो लड्डू बोलते हुए। कभी-कभार खा लिया करो। गुलजार टाइप  कोई कवि हो तो कविता लिख देगा तुम्हारे लड्डू से प्यार-चिढ पर। अच्छा चलो, बताओ और।”

“ज्यूकिनी, और एवोकाडो। केल और सेलेरी।” मेरी कही बात अनसुनी कहते हुए बोले।

“एक बात बताओ, तुम्हारे बचपन में घर के पिछवाड़े ज्यूकिनी-एवोकाडो उगता था? भिंडी-लौकी-नेनुआ नहीं? केल और सेलेरी? पालक बोल देते तो ठीक रहता … केल नाली में उगने वाले पौधों का पत्ता लगता है!” 

“तुम वही रुके रहो भिंडी-लौकी-नेनुआ में। और हाँ, डेयरी की जगह प्लांट बेस्ड दूध पर स्विच कर लो। हेम्प जानते हो?”

“भूसा?”

“अबे नहीं! एकदम ही गँवार हो ! हेम्प भी गूगल करो। चैट जीपीटी प्रो तो है नहीं तुम्हारे पास। और जो खाना है आठ घंटे में खा लो ...बाकी सोलह घंटे कुछ नहीं।”

“वो क्यों? सोलह घंटे वाली माता का कोई व्रत आया है क्या मार्केट में?”

“अरे, देह बना ही नहीं है तीन बार खाने के लिए ! साइंस की बात है।”

“अच्छा, ये सोलह घंटे रोज उपवास करने से अच्छा महीने में जो पूरा चौबीस घंटे कर ले? एकादशी-शिवरात्रि टाइप्स ताकि थोड़ा पुण्य भी क्रेडिट हो जाए?”

“नहीं, वैसे नहीं होता है। तुम हमारे पिताजी जैसे साउंड कर रहे हो। इंडियन फ़ूड खा रहे हो, जानते हो न, लाइफ एक्सपेक्टेंसी बहुत है नहीं इंडिया में।” 

“यार, खाने में लाइफ एक्सपेक्टेंसी सोचें? और जो तुम कह रहे हो उसके अमर होना का डाटा है क्या? जहाँ तक हमें पता है नदी के पानी पीने वाले दिनों में लाइफ एक्सपेक्टेंसी कुछ अधिक न थी.” 

“बात वो नहीं है। तुम रहो ऐसे ही - कीटो जानते हो? “

“कीटो?”

“तुम रहने ही दो।”

हमारी शक्ल देख उनको लग गया, कोई फायदा नहीं है। फिर भी बोले - “तुम मछली भी नहीं खाते हो?”

“अभी तो बोल रहे थे वीगन बन जाओ?”

“नहीं वो दूसरा रूट है। सोच रहे थे कि तुम्हे ओमेगा भी नहीं मिल रहा है।” हमें लगा गजब है! ये रूट कहाँ ले जाते हैं? क्यों बने हैं? कहाँ जाना है? 


“छोडो ओमेगा और रोलेक्स का चक्कर ! चलो तुम्हारे लिए ओलिव ऑयल में पूड़ी छानते हैं। घी सुन के तो बहिष्कार ही कर दोगे।” ज्ञान के प्रवाह को विराम देना ही ठीक लगा।

“चलो अब तुम्हारे नाम पर आज व्रत तोड़ देते हैं। ओलिव ऑयल है तो खा लेते हैं।” खाये तो एक दर्जन चाप गए।  - “बड़ा बढ़िया बना है यार।”

हमने कहा -”बढिया नहीं बना है।  भूसा खा के और पावडर पी के तुम्हारे टेस्ट-बड़ बिलबिला रहे थे कि कुछ ढंग का मिल जाए।” 


“बालाजी मंदिर का लड्डू है प्रसाद समझ के खा लो।”  वो भी दो उदरस्थ कर लिए। 


बोले एक महीने की हमारी मेहनत तुम आज खराब कर दिए।  



खैर… एक सौ बीस किलो का अद्द्मी पैंसठ किलो के आदमी को ज्ञान दे गया - गड़हा का पानी पीओ, पशु आहार खाओ, दूध में पानी मिला कर पीयो। लड्डू-पेंडा-जलेबी-फल मत छुओ। 🙂


पिछले दिनों एक कृष्ण भगवान के मंदिर गए थे वहाँ भी वीगन कैफेटैरिया! ऊपर फोटो लगी थी दही-मक्खन खाते गोपाल की। मामला कुछ समझ नहीं आया। फिर लगा जैसे कुछ सालों पहले ट्रेंड था … पेट भरने लगता तो लोगों को शौक के कीड़े काटते थे - एसएलआर  कैमरा, और  ट्रेवल। वैसे ही शायद फैशन के दौर में ये नया आया है !


Dec 31, 2021

सरल करें!

बचपन में किसी बात पर किसी को कहते सुना था – “अभी ये तुम्हारी समझ में नहीं आएगा। ये बात तब समझोगे जब एक बार खुद पीठिका पर बैठ जाओगे।” यादों का ऐसा है कि किस बात पर ये बात कही गयी थी वो अब याद नहीं, पीठिका शब्द किस संदर्भ में आया था वो भी याद नहीं। पर ये बात अब भी याद है। 


ऐसी कई बातें होती हैं जिनकी वास्तविक समझ बिना अनुभव नहीं हो पाती। ऐसी ही एक बात है परीक्षा में किसी को चोरी करते हुए देखना। जब तक आप विद्यार्थी होते हैं ऐसा लगता है कि कोई थोड़ी सी चोरी कर ही ले तो कौन सी दुनिया इधर की उधर हो जाएगी। पता नहीं क्यों इस बात पर प्रोफेसर हलकान होते हैं? या ये भी कि कोई थोड़ा सा इधर-उधर देख ही ले तो कौन सा किसी को पता चल रहा होगा। पर ये एक ऐसी चीज है जिसका पता लगाने के लिए कुछ करना ही नहीं होता। चोर की दाढ़ी में तिनका की तरह जो विद्यार्थी ताक-झाँक कर रहे होते हैं वो अक्सर ऐसी मुद्रा बनाते हैं जैसे किसी बहुत गम्भीर विषय पर सोच रहे हों। अपने बगल वाले की उत्तर पुस्तिका में झाँकते हुए कोई दिख जाए तो तुरंत सोचने की मुद्रा में आकर छत की तरफ देखने लगता है। कुछ तो हवा में हाथ से ऐसी-ऐसी मुद्राएँ बनाने लगते हैं जैसे हायर ड़ाइमेशन की किसी वस्तु को देखने की कोशिश कर रहे हों। जिन्हें लगता है कि वो आसानी से चोरी कर लेते हैं उन्हें कहाँ पता होता है कि वो इसलिए कर लेते हैं क्योंकि जिसे पकड़ना है वो करने देता है, इसलिए नहीं कि वो स्मार्ट चोर हैं।

एक शिक्षक के लिए इसे नजरंदाज करना बहुत कठिन होता है। असली दिक्कत ये होती है कि एक ईमानदार विद्यार्थी से अधिक अंक यदि चोरी वाले का आ जाए ऐसा होते तो नहीं देखा जा सकता। जब ग्रेडिंग रिलेटिव हो तब तो ये और कठिन हो जाता है। और अगर कुछ विद्यार्थी सामूहिक रूप से कोई प्रश्न हल कर दे तब तो ईमानदार सामान्य विद्यार्थियों की बैंड ही बज जानी है। 

एक बार हमारे एक क्लास में भी ऐसा ही हुआ। एक असाइनमेंट का हल कई विद्यार्थियों का एक जैसा ही निकला! अब सबको अंक मिल जाए इस बात से तो मुझे कोई दिक्कत नहीं थी पर उस समाजवाद में जिन्होंने मेहनत कर ईमानदारी से हल करने की कोशिश की थी उन्हें ही कम नम्बर मिल जाते। ग्रेडिंग करते हुए पंच परमेश्वर कहानी की तरह लगा… ग्रेड का फैसला तो बिना भेदभाव वाला और न्यायप्रिय ही होना चाहिए। 

हमने एक दो विद्यार्थियों से बात की तो वो साफ मुकर गए!  एक ने तो ये भी कहा कि आपने ही तो कहा था कि पढ़ाई में एक दूसरे की मदद करो। तो एक दूसरे की थोड़ी मदद कर दी है। जमाना ही ऐसा है। मुझे ऐसे लगा जैसे किसी व्यक्ति को डॉक्टर सलाह दे कि स्वास्थ्य के लिए थोड़ा वजन कम करो और वो उसी पर चढ़ बैठे*: “मेरे बारे में ऐसे कैसे बोल दिया आपने? हम तो body positivity प्रैक्टिस कर रहे थे! बड़ी मेहनत से अपने शरीर को प्यार करना सीख रहे हैं।…” वगैरह. (*बीरेंदर ने लेबंटी चाह में बताया है कि चढ़ बैठने का अर्थ ये नहीं होता है कि कहीं चढ़ के कोई बैठ जाएगा। माने मुहावरा है।)

ऐसे में जब चीजों को क्वांटिफाई कर दिया जाए तो अक्सर (लगभग) दूध का दूध पानी का पानी हो जाता है। यदि समस्या को गणितीय रूप दे कर कह दिया जाए – “सरल करें” तो गणित का आदमी कर ही देगा। (जिन्होंने बचपन में गणित हिंदी माध्यम से पढ़ा हो वो ‘सरल करें’ का अर्थ समझ गए होंगे। हमारे एक गणित के शिक्षक कहा करते – सरल करने को कहा गया था तुम लोग सड़-ल कर दिए हो।) हम पढ़ाते भी मशीन लर्निंग हैं तो हमने सोचा मशीन लर्निंग से ही पता लगाया जाय कि किसके असाइनमेंट में कितना प्रतिशत किसके असाइनमेंट से चोरी है। 


जब ये पता लग गया तो मैंने क्लास में नम्बर देने का फ़ॉर्म्युला बता दिया। कोड दे दिया और कहा कि किसी को फ़ॉर्म्युले से आपत्ति हो तो सुधार करे। परिणाम लगभग सटीक था। उम्मीद से बेहतर। पूरी क्लास ने कहा कि ये तो शत प्रतिशत सच निकल आया! अब किसी को आपत्ति भी नहीं रही। इस तस्वीर में ४० विद्यार्थी हैं। १०० मतलब पूरा ही नकल, शून्य अर्थात् कुछ भी एक जैसा नहीं। जो लाल क्षेत्र में आए थे वो सन्नाटे का छंद हो गए। जो पीले में थे उनमें से कइयों ने बताया कि उन्होंने हल तो खुद से ही किया पर कुछ हिस्से में उन्होंने दूसरों से भी लिए। हरे वाले प्रसन्न!

वैसे अक्सर दो तरह के विद्यार्थियों पर ही पढ़ाने वालों का समय जाता है – एक जो पीछे पड़कर सीखते हैं। दूसरे वो जिनके पीछे पड़ना पड़ता है कि वो किसी तरह पास हो जाएँ। इस चार्ट के बाद भी यही हुआ।

ऐसा होना चाहिए ...जिससे हवा में उड़ने वालों को आइना दिखे! आजकल सोशल मीडिया पर जब रोज कुछ चीजें दिखती हैं तो अक्सर लगता है दुनिया कुछ तो सरल हो जाएगी जब चीजों को ऐसे हल किया जा सकेगा। जब लोगों को उनका पाखंड (हिपाक्रसी) स्पष्ट दिखने लगे। किसी के ट्वीट्स पर मॉडल लगा दो और वो बता दे कि ये आदमी ९० प्रतिशत पाखंडी है! 😊

जैसे एक तो मीडिया/बुद्धिजीवियों की दुनिया रसातल को जा रही है वाली बात। अभी पिछले दिनों ट्वीटर पर एक कविता दिखी। खूब पसंद की गयी। अर्थ कुछ ऐसा था जैसे …बचपन में इतना तो साफ पानी होता था। आने वाली पीढ़ियों को यकीन नहीं होगा कि संसार में कभी पीने को साफ पानी ऐसे मिलता था इत्यादि। वैसे कवियों के पास बिम्ब के नाम पर कुछ भी कहने का पेटेंट है तो हो सकता है कोई कह दे कविता में पानी का अर्थ पानी नहीं यूरेनियम हो। पर पानी को पानी ही माने तो आँकड़े ढूँढने पर पता चला बीते साल दुनिया में सबसे अधिक लोगों को स्वच्छ पीने लायक पानी मिला। पिछले कई वर्षों से हर वर्ष ही इस मामले में ऐसे रहे हैं  – हर बीते साल से बेहतर। पानी से होने वाली बीमारियों का लगभग उन्मूलन हो चला धरती से। पर… अब कवि ही क्या जिसकी बात सीधी और सरल हो! 

वैसे हर अच्छी बात की तरह डेटा अनालिसिस के नाम पर भी लोग कुछ भी करने लगे हैं। तीन लोगों से पूछ कर लोग डेटा अनलिसिस कर उसमें पैटर्न भी निकाल देते हैं! जैसे 'गीता में लिखा है' कह कर लोग कुछ भी अंट-शंट कह देते हैं वैसे ही आजकल डेटा अनलिसिस के नाम पर भी लोग कुछ भी कर देते हैं! इसमें एक समझदारी वाला काम इजराइल ने किया है कि विश्वविद्यालयों में स्नातक स्तर में किसी का विषय कुछ भी हो अब एक विषय सांख्यिकी का जरूर पढ़ाते हैं। 


वैसे जो दिन भर प्रॉपगैंडा फैलाते हैं ये कहते हुए कि हम तो निष्पक्ष हैं उन पर तो कोई भी मॉडल लगा दिया जाय तो उनकी सच्चाई के उजाले का अलकतरा निकल जाएगा। कितनी बातें बिना देखने की कोशिश किए भी दिख जाती है – कई बार कहने वाले कहने को तो सच ही कह रहे होते हैं (महीन चोर) पर …जैसे किस घटना के लिए कैसे एक व्यक्ति विशेष स्पष्ट रूप से ज़िम्मेवार होता है और वैसी ही किसी दूसरी घटना इसलिए हो जाती है क्योंकि पूरा समाज ही घटिया है। कौन सी बात में आपको कड़वी सच्चाई दिखती है और कौन सी बात ‘फनी’ लगती है! किस बात पर आश्चर्य चकित फील करना होता है किस पर ‘फकित’ (तुक बंदी नहीं किए हैं वो क्या है कि बिना इन सब शब्दों के ना तो कूल लगता है ना ही बुद्धिजीवी जैसा)। और कैसे किसी न्यूज़ पोर्टल के आलेख पर लिख दिया जाता है कि ये लेखक के निजी विचार हैं पर ये भी दिखता है कि पोर्टल को केवल एक ही प्रकार के निजी विचार वाले मिलते हैं। इनके पोर्टल की मानें तो भिन्न-भिन्न खोपड़ी में एक प्रकार की ही मति होती है। कम बुद्धि के लोग मुण्डे मुण्डे मतिर्भिन्ना का ग़लत संधि विच्छेद कर देने से भिन्न का अर्थ अभिन्न मान ही सकते हैं। 


और वो लोग जो दुःख, दर्द और हताशा पर लिखते हैं – कट्टर नमाज़ी के पांच वक्त की नमाज़ से भी ज़्यादा नियमित। उनकी लाइनें क्या गजब होती हैं! जैसे – जिस वक्त में हम जी रहे हैं।… ये जो आजकल का दौर है।… एक नाउम्मीद, और हताश पीढ़ी है…। ये जो वर्तमान की सच्चाई है!... एक समाज के रूप में हमें शर्मिंदा होना चाहिए। …वगैरह, वगैरह। लगता है बुद्धिजीवी वर्ग ऐसी ही लाइनों पर जीवित है। दुनिया बदलने से ये नहीं बदलने जा रहा। मज़े की बात ये है कि ऐसे बुद्धिजीवी अक्सर जीवन में कभी स्वयं दुःख देखे ही नहीं होते। ये अक्सर बड़े घरानों के निकम्मे होते हैं जिनका कैरियर व्हिस्की पर बकर काटते हुए अंततः इसी फ़ील्ड में बनता है। खुद दुःख देखे होते तो उन्हें पता होता कि दुनिया किस प्रकार से बदल रही है। ये लोग जीवन भर दुःख को धंधे के रूप में सुनते-पढ़ते हैं और उसे उसी के लिए देखना-बेचना भी सीखते हैं। दुःख लिखने का धंधा – जिससे उनकी रोजी चलती है। अकादमिक गलियारों में गरीबी पर चर्चा करने वालों को बदलती दुनिया कैसे दिखे? जिनके धंधे का रॉ मटीरीयल प्रदूषण हो उसे ग्रीन एनर्जी से क्या मिलेगा? 

(राजनीतिक बात नहीं है) यदि प्रश्न कर दिया जाए कि दुर्घटना, स्वास्थ्य इत्यादि व्यक्ति विशेष कारणों को छोड़ दें तो किस पैमाने पर तुम्हारे किसी भी जानने वाले का जीवन स्तर पिछले बीस सालों में खराब हुआ है? तो उनके पास उत्तर नहीं होगा। 

हमारे यहाँ फैक्टफुलनेस और एन्लाइटन्मन्ट नाउ जैसी पुस्तकें लिखी-पढ़ी नहीं जाती। उन पुस्तकों को पढ़िए यदि आपको दुनिया के परिवर्तन का यथार्थ समझना है तो।

पिछले दिनों डार्टमाउथ के एक प्रोफेसर ने इस बात की अनालिसिस की कि कोविड से जुड़े समाचार मीडिया वाले कैसे दिखाते हैं। मशीन लर्निंग लगाकर अनालिसिस की। निष्कर्ष - सभी वास्तविकता से कई गुना अधिक बुरा दिखाते हैं। जब कोविड बढ़ा तब उस पर फोकस। जब घटा तो उन जगहों पर फोकस जहाँ बढ़ रहा हो, जहाँ लोग मर रहे हों। जब वैक्सीन नहीं थे तो विफलता थी, जब दिए जाने लगे तो उसकी महत्ता ही कम! इसी प्रकार एक डेटा साइंटिस्ट ने १९४५ से २००५ तक साठ वर्षों के न्यू यॉर्क टाइम्स के न्यूज का अनालिसिस किया। और उसी मॉडल से १९७९ से २०१० के  बीच दुनिया के १३० देशों के न्यूज का। मशीन लर्निंग है तो कौन सा बैठ कर एक-कर न्यूज पढ़ना है – तो कर दिए। यहाँ भी नतीजे वही! न्यूज और सम्पादकीय की माने तो – दुनिया निरंतर रसातल को जा रही है। मीडिया ने इसे हर साल पहले से ज़्यादा बढ़ा चढ़ाकर पेश किया है। साल दर साल न्यूज के हिसाब से दुनिया पहले से अधिक बुरी होती गयी है। और मज़े की बात ये कि उनमें से किसी भी पैमाने पर (जिनके लिए मीडिया वाले और बुद्धिजीवी निरंतर लिखते हैं की वो चीजें बुरी होती जा रही है), इन वर्षों में दुनिया की हालत बुरी तो छोड़िए, उन हर एक पैमाने पर दुनिया के हर देश के व्यक्तियों के जीवन स्तर और स्वतंत्रता में अप्रत्याशित सुधार हुआ है। पर ऐसा होने के बावजूद मीडिया उसका विपरीत लिखता गया है। इस निष्कर्ष को देखने की एक दृष्टि ये भी है कि जब भुखमरी थी, जीडीपी पर कैपिटा ५०० डॉलर से भी कम था तब निराशावादी लेखन के साथ आशावादी लेखन भी था। पर निराशावादी लेखन महान था, यथार्थ था। समय बदला। दुर्भिक्ष समाप्त हो गया। जीडीपी पर कैपिटा २००० डॉलर से अधिक हो गया। पर निराशावादी लेखन काम होने की जगह  कई गुना बढ़ गया। धीरे-धीरे ये हो गया कि बुद्धिजीवी आशवादी कैसे लिख सकता है! कोई लिख दे तो बुद्धिजीवी गलियों में उसे सीआईए एजेंट, जो उन गलियों की सबसे बुरी गाली होती है, कह दिया जाएगा!  यथार्थ भले बदलता गया हो पर यथार्थवादी लेखन का अर्थ ही हो गया - निराशावाद। अगर परिवर्तन का यथार्थ देखें तो कई बार ऐसा लेखन वैसे ही हास्यास्पद नज़र आता है जैसे चेचक के उन्मूलन के बाद भी उसे दुनिया के लिए सबसे बड़ा ख़तरा बताते रहना! 


परिवर्तन कैसे होता है ये देखना कठिन नहीं है – मीडिया और बुद्धिजीवी वर्ग के लेंस से दृष्टि हटा कर देखें तो। जिस गाँव में एक पक्का मकान नहीं होता था वहाँ अब एक भी कच्चा नहीं बचा। लोग क्या पहनते थे और अब क्या पहनते हैं। हमने देखा तो नहीं पर सुना है जब शादी तक लोग माँगे हुए कपड़ों में करते थे। झोले और टूटे चप्पलों की जगह बैग और हाथ में मोबाइल। जिस पूरे गाँव में एक फोन नहीं होता था अब हर-घर में कई मोबाइल होते हैं। गाँव के अस्पताल में व्यवस्था नहीं है का आलेख लिखने वाले ये नहीं देखते कि पिछले दस-बीस वर्षों में जहाँ एक टूटा कमरा हुआ करता था वहाँ एक विशाल भवन और एम्बुलेंस खड़ी रहती है। और ये लगभग हर जगह की ही कहानी है। आपके गाँव में दूसरे से साइकिल माँग कर चलने वालों के पास अब मोटर साइकिल अगर आपको नहीं दिखती तब तो आपको ये कोई मशीन लर्निंग नहीं दिखा सकता। एक जमाना था जब प्रौढ़ शिक्षा के नाम पर पैसे फूंके जाते थे उससे कुछ ना हो पाया और वही लोग बुढ़ापे में फोन चलाने के लिए पढ़ना लिखना सीख गए! जिस उमर के आधे लड़के अनपढ़, गाय-भैंस चराते घूमते थे अब कितने रुपए में कितना जीबी डेटा मिलता है और कौन सी फ़िल्म कहाँ देखनी है सब एक साँस में नाप देते हैं। कौन सी परीक्षा में किस कटेगरी में कितना कट -ऑफ गया है। किस देश में कोरोना कितना फैला है आपसे कम नहीं जानते हैं। आप भले आज भी वही घिसी-पिटी कहानी गढ़ते रहो कि एक सब्जी बेचने वाले ने आपसे ऐसा कहा – वैसा कहा! बुद्धिजीवी लोगों का चूँकि पेट बिना मेहनत भरने लगता है तो उन्हें लगता है कि उनका दिमाग भी आम आदमी से ज्यादा हो गया है! वो कैसे मान लेंगे कि एक गाँव-देहात का आदमी, एक ऑटो-टैक्सी चलाने वाला, सब्ज़ी बेचने वाला भी स्मार्ट हो सकता है? उसे तो दुखियारा, बेसहारा, और हताश होना चाहिए। वो कैसे सुखी हो सकता है? वो कहे भी तो हम बता रहे हैं कि वो हमारे पैमाने पर दुखी है!

(पिछले दिनों मैं गाँव गया था और) एक दिन सुबह दूध लाने गया तो देखा कि एक बच्चा फोन पर वही कार्टून/राइम देख रहा है जो दुनिया के सबसे बड़ी कम्पनियों के सीईओ के बच्चे भी देखते हैं – वही यूट्यूब। असमानता, समाजवाद, और दुःख पर भारी भरकम लिखने (रोने) वाले दुःख का धंधा करते रह जाएँगे और दुनिया उनकी परवाह किए बिना बदलती रहेगी। सब हरा-हरा नहीं है, दुनिया वैसे हो जाने के लिए बनी ही नहीं है। लेकिन पिछले कई वर्षों से हरियाली बढ़ती ही गयी है। अद्भुत रूप से। लिखते हुए लग रहा है एक डायलोग लिख दिया जाय - ‘निराशा का दौर है’ का धंधा करने वालों से बिगाड़ के डर से आँकड़े की बात नहीं करोगे?! 😊


हिंदी किताब लिखने के बाद कुछ अकादमिक हिंदी के लोगों से बात हुई तो ये भी पता चला कि विश्वविद्यालयों में हिंदी के पठन-पाठन में भी ऐसा है कि एक ही प्रकार के शिक्षकों-विद्यार्थियों का गुट है! जो एक ही विचारधारा को बढ़ावा देते हैं, उन्हें ही शैक्षणिक नौकरीयाँ मिलती है। इस प्रकार एक लेंस से ही दुनिया को देखने को जो विद्वता कहा जाता है उसका क्रम चलता रहता है। वो आज भी दुनिया वैसे ही देखते हैं जैसे सौ साल पहले कुछ लोग देख गए थे। अरे भई, शोध कर रहे हो तो “फलानेवाद के परिपेक्ष्य”  की जगह कभी वैसे भी दुनिया देख लिया करो जैसी वास्तव में है! 

पोस्ट अपनी लम्बाई को प्राप्त हो रही है। इससे लम्बा लोग पढ़ेंगे नहीं। आप ये पढ़िए, ज़ोरदार बात है, याद रहेगी। कई किताबों में उद्धृत हो चुकी है: 

A few years ago, The New York Times did a story on the working conditions of Foxconn, the massive Taiwanese electronics manufacturer. The conditions are often atrocious. Readers were rightfully upset. But a fascinating response to the story came from the nephew of a Chinese worker, who wrote in the comments section:

My aunt worked several years in what Americans call “sweat shops”. It was hard work. Long hours, small wage, poor working conditions. Do you know what my aunt did before she worked in one of these factories? She was a prostitute.

जो रोना रोते हैं कि दुनिया बड़ी खराब होती जा रही है। उन्हें पन्ने काले करने दीजिए - उनका धंधा है। आप अपना काम मन से कीजिए। सरल कर के दुनिया को देखिए। खुश रहिए। 

नया वर्ष मंगलमय हो।

~Abhishek Ojha~

Jul 27, 2021

रिटायरमेण्ट@45

[आदरणीय ज्ञानदत्त जी की पोस्ट रिटायरमेण्ट@45 पोस्ट पढ़ने के बाद लगा कि दो-चार बातें कहनी चाहिए। तो उन बातों को … पढ़ा जाय।] 


१ पिछले कुछ वर्षों से मैं न्यू यॉर्क के दो विश्वविद्यालयों में ‘मशीन लर्निंग फ़ॉर फ़ाइनैन्स’ नाम का कोर्स पढ़ाता रहा हूँ। मास्टर्स के विद्यार्थियों को। सप्ताह में एक दिन। अक्सर शाम ६ से ८ या ७ से ९। बड़ा मजेदार अनुभव होता है। 

वर्ष २०१९ की बात है। नए कोर्स की पहली ही क्लास थी। क्लास में लगभग ७० की अवस्था के एक वृद्ध भी दिखे। सामने से आकर उन्होंने अपना परिचय दिया - एक अवकाश प्राप्त (अमेरिटस) प्रोफेसर। अपना कार्ड दिया और बताया कि यदि मुझे आपत्ति नहीं हो तो वो ये कोर्स करना चाहेंगे। उन्होंने ये भी बताया कि उनका घर शहर से दूर है और रात को ट्रेनें देर-देर से जाती हैं इसलिए क्लास समाप्त होने के थोड़े पहले ही वो निकल जाया करेंगे। पहली बात मैंने उनसे ये कही कि मुझे भला क्या आपत्ति होगी। ये तो सम्मान की बात है… पर उन जैसे अनुभवी व्यक्ति जब क्लास में होंगे तो शायद मैं थोड़ा असहज हो जाऊँगा। उन्होंने भरोसा दिलाया कि ऐसा नहीं होगा और पूरे सेमेस्टर वो मुझे प्रोत्साहित करते रहे। उन्होंने ना केवल कोर्स किया पर सारे असाइनमेंट और प्रोजेक्ट भी समय पर किया। प्रश्न पूछते, ईमेल करते …सब कुछ किसी भी अन्य विद्यार्थी से कहीं अधिक तन्मयता से। उनसे मैंने बहुत कुछ सीखा। ना उन्हें किसी परीक्षा के लिए पढ़ना था, ना किसी नौकरी के लिए साक्षात्कार देना था। आधी दर्जन किताबों और सौ से अधिक शोधपत्र उनके नाम से छप चुके हैं। भला वो किसी रैट रेस में हैं ना ही उन्हें रिटायरमेंट लेने के लिए पैसों की कमी है। 

२ एक कहानी (*content has been modified for modern audience) – प्राचीन काल की बात है। चिचिलाती धूप में राजमहल के बाहर न्याय पाने वालों की लम्बी लाइन लगी थी। (कोर्ट में हमेशा से ऐसे ही पेंडिंग मुकदमे रहते रहे होंगे। पर मुद्दा वो नहीं है।) लाइन में एक साधु बाबा भी थे। गर्मी का दिन था और सूरज आग उगल रहा था। अचानक साधु बाबा ने अपनी लंगोट खोल दी। नंगे हो गए। लंगोट जमीन पर फेंक नाचने लगे। जैसे कन्हैया कालिया नाग के फन पर नाच रहे हों। शरीर पर और कोई वस्त्र था नहीं, ये दृश्य देख लोगों को वही लगा जो लगना चाहिए था - बाबा सटक गए! पर भले लोग थे, एक नीम के पेंड के नीचे बाबा को ले गए। कोई पानी ले आया तो कोई पंखा। भीड़ भी उत्सुक होकर उधर ही चली गयी! 

इसी बीच किसी सस्ते पत्रकार टाइप के खुरपेंची आदमी ने पूछा – “बाबा, अब कैसा फील हो रहा है? ऐ लंगोट ला के दो कोई बाबा का।”

बाबा बोले – “देखो बच्चा, अब हम एकदम मस्त हैं! तुम लोग जाओ अपना काम करो। अब हमें कोई टेंशन नहीं है। और हाँ, लंगोट रहने दो क्योंकि वही तो सारे समस्या की जड़ थी।” 

मामला रोचक हुआ। किसी ने पूछा – “वो कैसे?”

बाबा बोले – “हम एर्ली रिटायरमेंट लेकर साधु हो गए थे। सोचे थे अब आराम से जप-तप करेंगे। सोलो ट्रिप करेंगे। लद्दाख जाएँगे। अब हम राजा जनक तो हैं नहीं कि सब झमेले के साथ भी विदेह हो जाते। मन का कुछ कर नहीं पाते थे। नौकरी में घिस रहे थे। ख़ैर… साधु बनने के बाद बस एक लंगोट का ही झंझट बचा था सो रिटायरमेंट फंड से ढेर सारा सिला लिए थे। बाकी व्यवस्था रोज के रोज पर मजे में चल रही थी।...एक दिन चूहों ने हमारी झोपड़ी में टंगी लंगोट कुतर दी। लंगोट तो आवश्यक था। तो अब चूहे को भगाने के लिए एक बिल्ली पोस लिए। बिल्ली के पोषण के लिए दूध कहाँ से आता? तो गाय पोस लिए।”

खुरपेंची ने पूछा – “बाबा, बिल्ली चूहा नहीं खा लेती?”

बाबा बोले – “यार पहले इसको चुप कराओ कोई। चूहे के सप्लाई का ठेका लेते हम? साधु आदमी हैं।” इस तरह बात आगे बढ़ी।

“अब गाय लोगों के खेत चरने लगी! तो लोग गरियाने लगे। एक आन्ट्रप्रनर टाइप के आदमी ने सलाह से दी कि आजकल फडिंग, लोन इत्यादि मिलना बड़ा आसान है राजाजी से जमीन ले लो। गाय उसी में चर लेगी। सो हम लिखा-पढ़ी करा के जमीन ले लिए। वो लोग जहाँ-जहाँ बोले थे हम साइन कर दिए – टर्म्ज़ एंड कंडीशनस पढ़े नहीं। (समय से आगे चल रहे थे वैसे ही साइन कर दिए थे जैसे आजकल लोग क्रेडिट कार्ड के फ़ॉर्म पर करते हैं)। दिन मजे में कटते रहे। पर कुछ दिनों पहले एक नोटिस आ गया कि जमीन पर टैक्स नहीं भरे हैं! राज दरबार में आइए। तो हम इधर आ गए। साधु आदमी का कोई क्या बिगाड़-उखाड़ लेगा! लेकिन आज जब धूप लगी और जब खड़े-खड़े हम तिरमिरा गए तो सोचे कि ...हम लिए थे रिटायरमेंट आराम के लिए और यहाँ धूप में कर क्या रहे हैं? कहाँ सोचे थे कि सोलो ट्रिप मारेंगे और यहाँ लगा खड़े-खड़े ही घुटने बोल जाएँगे! लंगोट का झमेला तो अपनी जगह लेकिन तब ये भी तो  नहीं सोचे थे कि घुटनों में दर्द हो जाएगा? जब जामवंत जैसे वीर बुढ़ापे के कारण समुद्र नहीं लाँघ पाए और हम देखो सोचे बैठे थे कि इस उम्र में मौज करेंगे! लेकिन ये तो स्पष्ट ही था कि अभी के लिए तो सारे समस्या की जड़ लंगोट है। ना लंगोट होता, ना ये सब झमेला होता। एक लंगोट हो या संसार का बाकी अन्य कोई भी काम झमेला उतना ही हो जाना है। सच पूछो तो इतना परेशान तो हम अपनी नौकरी में भी नहीं होते थे जितना इस लंगोट… और अब हाल ये है कि एर्ली रिटायरमेंट के नाम पर यहाँ नंगे बैठे हैं।”

खुरपेंची आदमी फिर पूछा – “बाबा, अब करेंगे क्या आप?”

बाबा एक ठंडी आ लेकर बोले – “ये तो कह नहीं सकते कि एर्ली रिटायरमेंट बकवास है... तो अब यहीं चबूतरा मिल ही गया है बैठ कर अर्ली रिटायरमेंट प्लानिंग  पर ज्ञान देंगे। हमें तो अनुभव भी है। बताएँगे कैसे बिना कुछ किए मस्त ज़िंदगी चल रही है। बहुत स्कोप है इस प्लानिंग वाले फिल्ड में आजकल”।

३ हमारे पुराने ग्रूप में एक सज्जन काम करते थे। लिजेंड। हाई स्कूल के बाद दस साल एमआईटी में बीताकर पीएचडी करके ही निकले थे। उन्हीं दिनों में लिखी उनकी किताब इंजीनियरिंग के एक विषय विशेष में अथोरिटी मानी जाती है। फिर कुछ साल वॉलस्ट्रीट में काम किए। वॉलस्ट्रीट में उन जैसे सफल लोगो के लिए पाँच-सात साल रिटायर होने के लिए पर्याप्त होते हैं। उनकी जरूरतें भी कुछ ज़्यादा नहीं थी। तो छोड़ कर कुछ दिन दुनिया घूमे। फिर एक हाई स्कूल में गणित पढ़ाने चले गए। उन्हें कोई भी विश्वविद्यालय रख लेता पर – शौक! चार-पाँच सालों के बाद उन्हें उनके पुराने बॉस ढूँढकर वापस ले आए। लगभग दस सालों तक उन्होंने फिर उन्हीं लोगों के साथ काम किया। 

मैंने उनसे एक बार पूछा कि वो वापस क्यों चले आए – तो उन्होंने कहा “बच्चों को अच्छा जीवन देना था, लगा मास्टरी से नहीं हो पाएगा। और ये काम भी मैं मिस करने लगा था – चैलेंज नहीं रह गया था”। मज़े की बात ये कि लगभग दस सालों के बाद जब उनका ग्रूप बंद हो गया तो जहाँ बाकी लोग दूसरी कम्पनियों में बड़े पदों पर आराम की नौकरियों में चले गए उन्होंने अपने एक मित्र के साथ मिलकर फिर से नया उद्यम शुरू किया। शून्य से। जिन कामों के लिए कभी उनके नीचे दर्जन भर लोग होते थे वो काम भी वो स्वयं करने लगे। उनके जो दूसरे सहयोगी हैं उन्होंने तो कुछ मिलियन डॉलर अमेरिका के एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय को दान में दिए हैं। स्पष्ट है ये लोग पैसे के लिए तो नहीं ही कर रहे कुछ।


४ एक अन्य पुराने सहकर्मी कुछ सालों का ब्रेक लेकर लौटे। मैंने उनसे भी पूछा था तो बोले – “मैराथन दौड़ना था, बच्चों को ग्रेजुएट होते देखना था। अब बच्चे नौकरी करने लगे तो वापस आ गया”। वो नयी नौकरी करने के साथ-साथ एक ऐसे विषय में मास्टर्स भी कर रहे हैं जो पिछले कुछ वर्षों में ही बना है। उम्र साठ से कम नहीं है। यदि धन रिटायरमेंट ले लेने का पैमाना हो तो …वो क्या उनकी अगली पीढ़ी को भी रिटायर हो जाना चाहिए। वो लगभग पाँच साल का रिटायरमेंट तो उस उम्र में ही ले चुके जब आवश्यकता भी थी और उम्र भी। 

५ हमारी बिल्डिंग में एक ऑफिस-स्पेस जैसी जगह  है। वर्क फ्रोम होम होने से वहाँ एक सज्जन अक्सर मिल जाते हैं। धीरे-धीरे परिचय हुआ। अकेले रहते हैं। दो बेटियाँ हैं जो अब दूसरे शहरों में नौकरी करती हैं। लड़का कॉलेज में। पत्नी से तलाक़ हो गया। अब एक बिल्ली है जो साथ रहती है और एक गर्ल फ़्रेंड जो कभी-कभी आती है। एक दिन बोले – “अभी कुछ वर्ष अपने कैरियर पर फोकस करना है मुझे। जो करना चाहता था उसके लिए पहले समय नहीं मिल पाता था।” वो मुझे पैंसठ साल के नौजवान लगते हैं। इस उमर के आदमी को कैरियर पर फोकस करना है? पाठक इस बात की व्याख्या स्वयं करें।

६ एक भारतीय प्रोफेसर ने एक दिन मुझसे कहा – “हमारे स्टूडेंट तुम्हारी बड़ी तारीफ करते हैं।… मुझे लगता है तुम बड़ा मन से पढ़ाते हो। मेरे क्लास में एक दिन गेस्ट लेक्चर देने आ जाओ।” यहाँ से शुरू हुई बात आगे चली तो एक दो मोड़ से कहीं और ही निकल गयी। उन्होंने बताया कि जब वो आईआईटी से निकले थे तब सरकारी नौकरी के अलावा भारत में ज़्यादा कुछ था नहीं। कुछ वर्ष उन्होंने एक केमिकल फैक्ट्री में काम किया। मन नहीं लगा। आईआईएम गए। वहाँ से निकल फिर वही मन नहीं लगने वाली बात हुई। अमेरिका आ गए पीएचडी करने। प्रोफेसर बने तो लगा वो इसी के लिए बने थे। लेकिन इतने वर्षों बाद अब उन्हें लगता है कि अब जोश नहीं रहा। ना पढ़ाने का, ना शोध करने का। अब हर साल लगभग वही पढ़ा देते हैं। “तुम शौक़ से पढ़ाते हो, मेरा अब ये काम हो गया है!” 

मैंने कहा अब कुछ और कर लीजिए तो बोले – “अब जो करना था कर लिए। अब बस।”

७ कम उम्र में रिटायरमेंट लेने का सोचने के दो ही कारण हो सकते हैं – पहला तो ये कि जो कर रहे हैं वो काम घटिया लगता है। मजबूरी में करते हैं। दूसरा ये कि यदि पैसों कि चिंता नहीं होती तो आप कुछ और करते या कुछ भी नहीं करते। दोनों में मजबूरी ही प्रमुख है।

मेरे पास अनेकों किस्से-कहानियाँ हैं। वो ज़्यादातर एक जैसे लोगों की हैं। मुझे ऐसे लोगों की जीवन यात्रा अच्छी लगती है। जिन्हें जब लगा कि ये काम मेरे लायक नहीं है वो छोड़कर दूसरे काम में लग गए। जो किया मन से किया। किसी लक्ष्य को पाने के लिए नहीं क्योंकि लक्ष्य को पा लेने पर अक्सर उससे मोहभंग हो जाता है। दुनिया की हर चीज मिल जाने के कुछ समय बाद ओवररेटेड लगने लगती है।

ख़ैर …यदि २०२१ में आप मजबूरी में नौकरी कर रहे हैं तो गलती आपकी भी है। वो काम अभी कीजिए जिसमें मन लगता है। मेरी किताब (लेबंटी चाह) में बीरेंदर पहले आईटी की नौकरी छोड़ देते हैं। अधिक पैसा मिलने पर भी। ये कहते हुए कि जीवन भर ये तो नहीं किया जा सकता। और उसके बाद सरकारी नौकरी भी छोड़ देते हैं ये कहते हुए कि पैसे का क्या है मन का काम करेंगे तो वो तो बाई प्रोडक्ट है, आ ही जाता है। 

यदि आपको लगता है कि आप पैंतालीस की उम्र में दुनिया की सैर करेंगे तो …ज़िंदगी में एक दम से फ़्री नहीं होने जा रही है। ना आप इतने फिट ही रहने वाले हैं। जो पहाड़ आप अभी चढ़ सकते हैं वो तब नहीं चढ़ पाएँगे। आप जिन जगहों पर जिस प्रकार से बीस की उम्र में जा सकते हैं उस प्रकार से पैंतालीस की उम्र में नहीं। अब पचास की उमर में भी हनीमून के लिए प्रसिद्ध जगहों पर क्यों नहीं जा सकते? कोई मना थोड़े करेगा। पर इस बात का अर्थ आप समझ ही रहे हैं। अमेरिका में हर वैकेशन वाली जगह, क्रूज जहाजों और कैसिनों में रिटायरमेंट के पैसे फूंकते वृद्ध लोग दिखते हैं। बहुतायत में। वो बुरा नहीं है लेकिन अभी साँस रोक कर जमा करना कि उस उम्र में… मौज करेंगे… आप समझ ही रहे हैं। 

और यदि यात्रा करना है या कोई और ही काम तो साल में लगभग महीने भर की छुट्टी तो हर नौकरी में होती है। 
[जो व्यक्ति पैंतालीस की उम्र में रिटायरमेंट की सोच रहा हो उसके लिए मैं ये मान कर चल रहा हूँ कि उसकी आय इतनी तो होगी कि उसे जो करना हो अभी उसके लिए अभी पैसे कम नहीं होंगे। जो फटेहाल होगा वो कमाने का सोचेगा रिटायरमेंट का नहीं।]

पिछले दस सालों में २०२० को छोड़कर एक भी साल ऐसा नहीं रहा जब मैं साल में एक या एक से अधिक देश नहीं गया। काम के लिए नहीं, घूमने के लिए। और मुझे पता है अब वैसी यात्राएँ नहीं हो सकती। दुनिया सामान्य हो जाए तब भी। वही बात कि जो आप बीस के उम्र में कर सकते हैं वो बीस के लिए ही बनी होती है - पैंतालीस के लिए नहीं। और यदि आप सोचते हैं कि जब ग्रह नक्षत्र एक होंगे और फ़ुरसत के दिन रात होंगे तो - वो दिन निकल गया। वो कल था। और आज है, जैसा भी है। आने वाला कल वो दिन नहीं है। 

मुझसे जब मेरे करीबी दोस्त कहते हैं (करीबी इसलिए क्योंकि बाकी कोई कुछ भी कहें क्या फर्क पड़ता है!) कि हम भी जाएँगे एक दिन। तो मैं कहता हूँ “बुरा मत मानना, पर जा चुके तुम। क्योंकि तुम यदि अभी नहीं जा सकते कि व्यस्त हो तो… वो दिन आने से रहा जब तुम्हारे पास करने को कुछ नहीं होगा।” 

और कोरोना के प्रकोप के बाद भी यदि आप को लगता है कि रिटायरमेंट और उसके बाद की योजना वर्तमान के कीमत पर करनी चाहिए तो वो भी ठीक ही है। युधिष्ठिर ने ‘किं आश्चर्यम’ ऐसे ही थोड़े ना कहा था। 

आने वाले कल को ना तो रिस्क टेकिंग ज़्यादा होगी ना जिम्मेदारियां कम होंगी, ना मन तथा शरीर ही ऐसा रहेगा। जैसे कुछ लोगों के दुःख का कारण बदलता है, दुःख नहीं - वैसे ही व्यस्तता यदि अभी है तो कल को समाप्त नहीं होने जा रही। व्यस्तता का कारण भले बदल जाएगा। मैं इस बात की गारंटी लेने को तैयार हूँ। जो मजे में होते हैं वो अपने हर काम के साथ मजे में होते हैं! मुझे ऐसा लगता है कि अभी जमा कर रखना कि जल्दी रिटायरमेंट लेकर आनंद करेंगे सोचने पर आप ना अपने काम के साथ न्याय कर पाएँगे ना अपने व्यक्तिगत जीवन के साथ। 

पढ़ाई इसलिए की कि नौकरी लग जाए, नौकरी इसलिए कि पैसा हो जाएँ, और तब अंत में रिटायर होकर कुछ मन का करेंगे? ये है रैट रेस में पड़े रहना। अभी ही करने लगो मन का। हर काम के साथ। फुलटाईम नहीं तो थोड़ा ही सही। क्योंकि अभी हर काम आने वाले कल के सारे कामों से कम ही है। (अनलेस, ओफ कोर्स, लंगोट उतार कर नाचना हो।) काम में पिस रहे हों तो वो छोड़ कर भी मन का करें। मुझे सरकारी नौकरी वालों का समझ में आता है। वो नहीं छूटती है। पर समय के साथ वो भी धीरे-धीरे बीते जमाने की बात हो रही है। मेरे कई आईएएस मित्र हैं जिनका करोड़ में सैलरी सुनकर मन लपलपाता रहता है। उनके लायक काम भी प्राइवेट सेक्टर में होने लगा है।

वॉरन बफ़ेट का नाम तो सुना ही होगा आपने? नब्बे साल के हैं - पैंतालीस गुना दो होता है वो। पिछले दिनों उन्होंने कहा कि उनकी कोई मंशा नहीं है रिटायर होने की। अब ये तो नहीं ही बताना पड़ेगा कि ना वो किसी रैट रेस में हैं, ना उन्हें रिटायर होने के लिए पैसे जमा करने हैं। यदि आप सोच रहे हैं कि वैसे तो शताब्दियों में एक होते हैं तो अब उदाहरण वैसे ही लोगों का तो दिया जाता है? (इस मुद्दे पर मंगलदास उर्फ़ लँगड़ परसाद का उदाहरण तो नहीं दिया जाएगा ना।)

मुझे ये भी लगता है कि जो इस इंतज़ार में हों कि शीर्ष पर पहुँच कर काम छोड़ देंगे वो शायद ही शीर्ष पर पहुँचते हैं। शीर्ष पर वो पहुँचते हैं जिन्हें शीर्ष पर पहुँचने से घंटा फर्क नहीं पड़ता। उन्होंने पहले से नहीं सोच रखा होता है कि शीर्ष क्या है। वो आज से बीस साल पहले सोच भी कैसे पाते कि एक दिन दुनिया ऐसी होगी? सोचें तो बीते दिनों का शीर्ष आज का साधारण है!

इसी से जुड़ी एक और बात मुझे दिखती है वो है संतोष की गलत अवधारणा। उसके गलत अर्थ ने अपने समाज का बड़ा अनर्थ किया है। अपने समाज में निष्काम कर्मयोगी होने और निकम्मा होने में बस एक इंटरप्रिटेशन भर का फर्क होता है। (जब ना हो पाए तो कह देना कि अरे क्या करना है एक दिन तो सबको मरना ही है जैसी बातें! कुछ करना हमेशा विलासिता के लिए ही नहीं होता। मैं मानता हूँ कि उपभोक्तावाद भुखमरीयतवाद से बेहतर है। और सर्वश्रेष्ठ है वो जो राजा होकर भी निराला है – विदेह। राजा जनक।) फिर ये भी एक कारण है कि एक उम्र के बाद कई लोग (काम से हों ना हों) मन से रिटायर हो जाते हैं। - “अब हो गया जो होना था। अब अपना क्या है बाल-बच्चे कुछ कर जाएँ। हम तो हो गए जो होना था” - मन से रिटायर।

मैं मिला एक व्यक्ति से जो भारत में अस्सी के दशक में इंजीनियरिंग पढ़े, आज आईबीएम के शीर्ष एक्जेक्यूटिव हैं। वो उन चीज़ों के सेल्स में हैं जो पिछले पाँच-दस वर्षों की उपज हैं। उनके बारे में सोचता हूँ तो एक ही बात कि दिमाग में आती है कि उस आदमी ने कितना अपडेट रखा है अपने को! इसी प्रकार मेरे एक पुराने कलिग ने एक दिन फोन किया। एक प्रस्ताव के साथ कि ये वाली पढ़ाई करते हैं। मैं सोचता रह गया कि बाल-बच्चे वाला यह आदमी तो एक तरह से शीर्ष देख चुका है और मुझसे पूछ रहा है कि पढ़ाई कर लूँ? उन्हें चिंता है कि अभी जो लेटेस्ट हो रहा है, ऐसा तो नहीं कि उन्हें नहीं पता? कल को वो अप्रासंगिक तो नहीं हो जाएँगे? 

मैंने पूछा - क्यों करना है अब आपको पढ़ाई? 
तो बोले – “दस साल बाद कौन सी चीजें नयी होंगी और हम उसके लिए कितने तैयार होंगे? और फिर जो करने में मज़ा भी आए वो क्यों नहीं करें? इसीलिए तो तुमसे पूछ रहा हूँ। मुझे पता है हमें वो पढ़ने में बड़ा मज़ा आएगा”। मुझे उनकी बातें किसी एंगल से रैट रेस नहीं लगी। 

और आपको लगता है कि आपसे बस वही होगा जो आप करते आए हैं तो मैं जानता हूँ एक व्यक्ति को जो दर्शन शास्त्र की पढ़ाई पढ़े और अब एक बड़े संस्थान के आईटी प्रमुख हैं। दुनिया के सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों से कम्प्यूटर साइंस पढ़े पचासों लोग उनके लिए काम करते हैं। मैंने उनसे पूछा कि कैसे किया उन्होंने? दर्शन शास्त्र से कोडिंग? उन्होंने बड़ी सरलता से कहा कि कॉल सेंटर जैसी नौकरी से शुरू किया था …और बस सीखते चले गए। 

एक ये भी एंगल है कि यदि अभी आपके पास वारेन बफ़ेट की तरह ढेर सारा पैसा होता तो आप कुछ नहीं करते? उस हिसाब से वारेन बफ़ेट को कब रिटायरमेंट ले लेना चाहिए था? और वारेन बफ़ेट ही क्यों अभी जितने सफल लोग हैं – सीईओ, वैज्ञानिक, डॉक्टर सब को कुछ सालों पहले ही रिटायरमेंट ले लेना चाहिए था, यदि वही श्रेष्ठ है। मुझे ऐसा लगता है कि वर्तमान, बचे हुए जीवन के लिए पर्याप्त पैसा कमाने और उस दिन की प्रतीक्षा करने के लिए नहीं है जब पर्याप्त पैसे हो जाएँगे। यदि इस उधेड़बुन में बर्न आउट है कि कल सुकून होगा तो फिर ये पूरा कॉन्सेप्ट ही एक भ्रम है। इसे मरीचिका कहते हैं।

मुझे लगता है कि सोचना ही है तो स्वस्थ रहने का सोचिए। आपदा स्थिति का सोचिए। और वो काम करने का सोचिए जो मजे-मजे में आप आज ही कर सकते हो, जिसके लिए रिटायरमेंट के दिन की प्रतीक्षा ना करनी पड़े। 

ख़ैर बातें बहुत सी हैं। अंत में इतना कि मुझसे मेरी एक मित्र ने कभी कहा था कि क्या कहानी सुनाओगे बुढ़ापे में कि क्या कर रहे थे अपने टवेंटिज में? मुझे बड़ी खुशी होती है कि मैंने उसकी बात को गम्भीरता से लिया। ये तो नहीं ही कहूँगा कि रिटायरमेंट के लिए पैसे जमा कर रहा था। 

चलते-चलते… (ज्यादा लम्बी पोस्ट हो गयी, अभी फुटकर विचार हैं इसे रिटायरमेंट के बाद अच्छे से लिखा जाएगा 😂) व्यस्तता का तो ऐसा है कि परसाई जी कह गए हैं – “व्यस्त आदमी को अपना काम करने में जितनी अक्ल की जरूरत पड़ती है, उससे ज्यादा अक्ल निठल्ले आदमी को समय काटने में।” :)  

 


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~Abhishek Ojha~