पिछले दिनों एक मित्र मिलने आये। शनिवार का दिन। आराम से पसर के बैठे। खाते-पीते बैकग्राउंड वाले हैं, तो जहाँ बैठें, अच्छा रेडियस घेर लेते हैं। दो-चार दिन पहले हमारी तबियत थोड़ी डाउन थी, तो उस सिलसिले में बात होने लगी। आपकी तबियत गड़बड़ हो तो सामने वाले का कर्तव्य हो जाता है कि कुछ ज्ञान ठेले।
दो-चार बातों के बाद बोले - “ओझा, तुम वीगन बन जाओ।”
हमने कहा जो खाते हैं वो ठीक है, अब क्या कुछ नया खाएंगे और नहीं खाएंगे।
फिर बोले - “अच्छा खाते क्या हो तुम?”
हमने कहा - “नार्मल खाते हैं, दाल-चावल, रोटी-सब्जी वगैरह।“
ऐसे मुंह बनाये जैसे बोल दिया हो कि कुत्ता-बिल्ली खाते हैं !
“केवल कार्ब ! प्रोटीन कहाँ से मिलता है तुम्हे?”
“दाल-वाल से मिल जाता होगा ...थोड़ा उन्नीस-बीस। नहीं तो दूध-दही, अब नाप कर तो खाते नहीं हैं।”
“यही गलती कर कर रहे हैं लोग। क्यों नाप कर नहीं खाते हो? डॉक्टर बोलेगा तब नापोगे? योर फ़ूड शुड बी योर मेडिसिन।”
हमें लगा बिना बात ही ये आदमी गुस्सा हुए जा रहा। ये भी कोई नापने तौलने की चीज है। शांत किया जाय । तो पूछ लिया -
“अच्छा छोडो, कुछ खाओगे? कुछ मीठा? मिठाई पड़ी है फ्रिज में। लड्डू खाओगे?”
“मीठा? शुगर ! बता रहा हूँ मैं ...छोड़ दो।” ऐसा मुँह बनाया आदमी …कहाँ शांत होने की बात थी, कहाँ आग में एक चम्मच घी पड़ गया!
हमें कुछ दिन पहले की देखी एक रील याद आई। रील का जमाना हो गया है तो इधर-उधर से फार्वड होकर आ ही जाता है। वही याद करते हुए हम मन में बोले - “हम क्यों लड्डू छोड़ें बे? तुम छोड़ दो, हम तुम्हारा भी खा लेंगे।”
“संतरा खाओगे?”
“संतरा शुद्ध शुगर होता है!”
“मतलब फल-वल भी नहीं? सुनते हैं कि विटामिन सी वगैरह भी होता है। फल-सब्जी का बड़ाई तो बचपन से सुनते आये हैं।“
“अरे बचपन से सब गलत सुनते आये हो। शुगर माने जहर ! जितना विटामिन सी उससे ज्यादा शुगर होता है उसमें।”
“अच्छा चलो ठीक बात है। चाय पीओगे?
“बनाओ बिना शुगर के। आलमंड या ओट मिल्क रखे हो?”
“अब दूकान थोड़े खोले हैं। एक ही दूध है। हम तो स्किम ना लाये आजतक।”
“स्किम क्यों पीओगे? वो तो और बेकार है। हम बस प्लांट बेस्ड पीते हैं।”
“हम तो वैसे नार्मल दूध ही पीते हैं लेकिन स्किम भी बेकार है? वो तो बहुत चला हुआ है?”
“स्किम से अच्छा नार्मल ही ठीक है। देखो गाय दूध देती हैं तो वो तो चलो प्रकृति ने बढ़िया पौष्टिक बना कर दिया होगा। लेकिन अब स्किम के नाम पर उसमें से फैट निकालने के साथ क्या-क्या निकल गया ये कैसे पता चलेगा? दूध क्या से क्या बन गया, ये तुम्हे पता है?”
“ये तो ठीक बात है। तो दूध में क्या दिक्कत है? वो तो प्रकृति…”
“अरे डेयरी में बहुत फैट होता है। हार्ट के लिए ठीक नहीं है। और स्किम से अच्छा तो पानी मिला के पीयो।”
“पानी मिला के पियें? मतलब ग्वाले जो दूध में पानी मिला के देते थे, उसके पीछे वैज्ञानिक कारण था, नहीं? उनको स्वास्थ्य विभाग से सर्टिफाइड करवा देना चाहिये। और पानी मिला के पीना का क्या मतलब हुआ थोड़ा कम पीने को कह देते।”
“तुम मजाक कर रहे हो?”
“अरे नहीं सीख रहे हैं तुमसे। पर एक दम ही क्रांतिकारी सुझाव हैं तुम्हारे।”
“अब तुम्हें खिलाएं क्या! हाई-फाई हम कुछ रखते नहीं हैं। दूध में पानी जरूर मिला सकते हैं। लो ये वाला चाय पी लो तुम। रोज-इंफ्यूजड ब्लैक टी।“
फैंसी टिन का डब्बा देख कर खुश हो गए कि कुछ तो ढंग का है इसके पास। “तुम इतना फैंसी कब से हो गए?”
“अरे नहीं, वो हमारे लन्दन ऑफिस में कुछ फ्रेंच लड़के हैं। लेबंटी चाह का अमेज़न पेज ट्रांसलेट कर के किताब के बारे मे पढ़े, उनको लगा हम चाय के बड़े शौक़ीन होंगे। तो ये दे गए। हम एक बार कोशिश किये, फिर दुबारा हिम्मत नहीं हुई पीने की। दूध चीनी मिला कर पीने लायक हो जाता है। खैर …लगता है खाने पर बहुत ध्यान दे रहे हो तुम आजकल?” हमें लगा दूध-चीनी की बात पर ये न कह दें कि ऐसे चाय की तौहीन है ये, इसलिए बात बदल दी।
“अरे जरूरी है ! हम इधर-उधर बहुत मेहनत करने के बाद समझे कि खाना ही दवाई है। कायदे का खाओ, सब कुछ ठीक रहेगा।”
“अच्छा। कुछ हमें भी ज्ञान दो।”
“तुम्हे मजाक लग रहा है तो क्या ज्ञान दें!”
सही बात है बिना श्रद्धा के गुरु ज्ञान नहीं दे सकता। हमने कहा, नहीं-नहीं बताओ। बहुत सीरियस हैं हम।
“ब्रेकफास्ट क्या करते हो?” पहले उन्होंने ग्राउंड वर्क करना चालू किया।
“घर पर किये तो ब्रेड, इडली, डोसा, उपमा, पोहा यही सब बाहर …जो मिल जाए, जो मन करे और जितना टाइम हो।”
“खाली कार्ब है तुम्हारे डाइट में। नॉट गुड! सबसे पहले तो फर्मेन्टेड फूड से शुरू करो। पेट में अच्छा बैक्टीरिआ रहना जरूरी है। अब देखो, पहले इंसान नदी का पानी पीता था तो उससे बहुत लाभ वाले बैक्टीरिआ भी पेट में जाते थे, पर अब तो वो है नहीं। तुम्हारे पानी में अच्छा-बुरा कुछ नहीं है! एकदम शुद्ध पानी है।”
“इडली-डोसा फर्मेन्टेड में नहीं आएगा? और पीने के लिए गड़हा के पानी का जुगाड़ किया जाय?”
“इडली-डोसा नहीं, किमची खाओ।”
“कौंची? तुम मेरी किताब पढ़ लिए क्या? कौंची खाना नही होता है।”
“तुम किमची गूगल करो।”
“अच्छा -अच्छा। चलो कर लेंगे।”
“उसके बाद चैट जीपीटी प्लस सब्स्क्राइब करो।”
“उसको कैसे खाएंगे?”
“अरे यार, पहले पूरी बात सुनो, उसको खाना नहीं है। जो भी खाना कभी खरीदो या खाओ, फट से उसका फोटो डाल दो, न्यूट्रिशन और इंग्रेडिएंट्स बता देगा। पैकेज्ड है तो उसके पीछे जो इंग्रेडिएंट्स और न्यूट्रिशन फैक्ट्स होता है उसकी फोटो डाल दो।”
“अच्छा और?” भरोसा नहीं हुआ, आदमी इतना कुछ कर सकता है भोजन के लिए।
“उसके बाद ये वाला मशीन ले लो।”
अपने फोन में फोटो दिखाए और बोले - “बस एक पिंच होगा, तुम्हारा ब्लड वर्क करके बता देगा। खाने के बाद ग्लूकोज वगैरह का लेवल कितना बढ़ा। धीरे-धीरे तुमको खुद आईडिया लग जाएगा क्या खाना है क्या नहीं।”
“भाई हमको सुई लेने से बहुत डर लगता है। खाना भी ढंग का मत खाओ और खाने के बाद सुई! क्या बोल रहे हो।”
“इंजेक्शन नहीं है बस पिंच भर ….और प्रोटीन बढ़ाओ।”
“कैसे बढ़ाएँ?”
अपने बैग में से एक पारदर्शी बोतल निकाले, जिसमें एक स्टील का स्प्रिंगनुमा गोला पड़ा हुआ था। उसमें सतुआ जैसा पावडर डाले और घोर के पी गए।
“ये तुम सतुआ लेकर चलते हो?”
“सतुआ नहीं, प्रोटीन पावडर है। अनाज कौन-कौन सा खाते हो?”
“अनाज मतलब? अनाज का कुछ बनाकर खाते हैं, अनाज थोड़े चबाएंगे। बताये तो दाल-चावल, गेंहू-चना वगैरह।”
“बंद कर दो - किनुआ खाओ।”
“कौंची, किनुआ-बेचुआ जैसे शब्द कहाँ से सीखे तुम? बिहार गए थे क्या?”
“अबे, किनुआ अनाज होता है। चिआ, ओट्स, फ्लेक्स खाओ।”
“फ्लेक्स तीसी होता है न? खाएंगे कैसे उसको? लड्डू बना के?”
“लड्डू बना के खाओगे उससे अच्छा मत ही खाओ। उसका पावडर मिल जाएगा तेल निकालने के बाद वाला - फ्लैक्ससीड मील।”
“तीसी की खली? या भूसी? वो तो पशु आहार होता है?”
“तुम हलवा-पूड़ी और लड्डू खाओ बस। तुम जिसे पशु आहार कह रहे हो, वही उत्तम आहार है।”
“अबे मजाक नहीं सीरियस हूँ मैं। तीसी की खली हम खुद खिलाये हैं बचपन में गाय को। और ये लड्डू से बहुत चिढ़े हो तुम। लगता है कभी बहुत पसंद था तुम्हे। ऐसा भी क्या छोड़ना मज़बूरी है। बेवफा के प्यार टाइप फील कर रहे हो लड्डू बोलते हुए। कभी-कभार खा लिया करो। गुलजार टाइप कोई कवि हो तो कविता लिख देगा तुम्हारे लड्डू से प्यार-चिढ पर। अच्छा चलो, बताओ और।”
“ज्यूकिनी, और एवोकाडो। केल और सेलेरी।” मेरी कही बात अनसुनी कहते हुए बोले।
“एक बात बताओ, तुम्हारे बचपन में घर के पिछवाड़े ज्यूकिनी-एवोकाडो उगता था? भिंडी-लौकी-नेनुआ नहीं? केल और सेलेरी? पालक बोल देते तो ठीक रहता … केल नाली में उगने वाले पौधों का पत्ता लगता है!”
“तुम वही रुके रहो भिंडी-लौकी-नेनुआ में। और हाँ, डेयरी की जगह प्लांट बेस्ड दूध पर स्विच कर लो। हेम्प जानते हो?”
“भूसा?”
“अबे नहीं! एकदम ही गँवार हो ! हेम्प भी गूगल करो। चैट जीपीटी प्रो तो है नहीं तुम्हारे पास। और जो खाना है आठ घंटे में खा लो ...बाकी सोलह घंटे कुछ नहीं।”
“वो क्यों? सोलह घंटे वाली माता का कोई व्रत आया है क्या मार्केट में?”
“अरे, देह बना ही नहीं है तीन बार खाने के लिए ! साइंस की बात है।”
“अच्छा, ये सोलह घंटे रोज उपवास करने से अच्छा महीने में जो पूरा चौबीस घंटे कर ले? एकादशी-शिवरात्रि टाइप्स ताकि थोड़ा पुण्य भी क्रेडिट हो जाए?”
“नहीं, वैसे नहीं होता है। तुम हमारे पिताजी जैसे साउंड कर रहे हो। इंडियन फ़ूड खा रहे हो, जानते हो न, लाइफ एक्सपेक्टेंसी बहुत है नहीं इंडिया में।”
“यार, खाने में लाइफ एक्सपेक्टेंसी सोचें? और जो तुम कह रहे हो उसके अमर होना का डाटा है क्या? जहाँ तक हमें पता है नदी के पानी पीने वाले दिनों में लाइफ एक्सपेक्टेंसी कुछ अधिक न थी.”
“बात वो नहीं है। तुम रहो ऐसे ही - कीटो जानते हो? “
“कीटो?”
“तुम रहने ही दो।”
हमारी शक्ल देख उनको लग गया, कोई फायदा नहीं है। फिर भी बोले - “तुम मछली भी नहीं खाते हो?”
“अभी तो बोल रहे थे वीगन बन जाओ?”
“नहीं वो दूसरा रूट है। सोच रहे थे कि तुम्हे ओमेगा भी नहीं मिल रहा है।” हमें लगा गजब है! ये रूट कहाँ ले जाते हैं? क्यों बने हैं? कहाँ जाना है?
“छोडो ओमेगा और रोलेक्स का चक्कर ! चलो तुम्हारे लिए ओलिव ऑयल में पूड़ी छानते हैं। घी सुन के तो बहिष्कार ही कर दोगे।” ज्ञान के प्रवाह को विराम देना ही ठीक लगा।
“चलो अब तुम्हारे नाम पर आज व्रत तोड़ देते हैं। ओलिव ऑयल है तो खा लेते हैं।” खाये तो एक दर्जन चाप गए। - “बड़ा बढ़िया बना है यार।”
हमने कहा -”बढिया नहीं बना है। भूसा खा के और पावडर पी के तुम्हारे टेस्ट-बड़ बिलबिला रहे थे कि कुछ ढंग का मिल जाए।”
“बालाजी मंदिर का लड्डू है प्रसाद समझ के खा लो।” वो भी दो उदरस्थ कर लिए।
बोले एक महीने की हमारी मेहनत तुम आज खराब कर दिए।
खैर… एक सौ बीस किलो का अद्द्मी पैंसठ किलो के आदमी को ज्ञान दे गया - गड़हा का पानी पीओ, पशु आहार खाओ, दूध में पानी मिला कर पीयो। लड्डू-पेंडा-जलेबी-फल मत छुओ। 🙂
पिछले दिनों एक कृष्ण भगवान के मंदिर गए थे वहाँ भी वीगन कैफेटैरिया! ऊपर फोटो लगी थी दही-मक्खन खाते गोपाल की। मामला कुछ समझ नहीं आया। फिर लगा जैसे कुछ सालों पहले ट्रेंड था … पेट भरने लगता तो लोगों को शौक के कीड़े काटते थे - एसएलआर कैमरा, और ट्रेवल। वैसे ही शायद फैशन के दौर में ये नया आया है !