बचपन में किसी बात पर किसी को कहते सुना था – “अभी ये तुम्हारी समझ में नहीं आएगा। ये बात तब समझोगे जब एक बार खुद पीठिका पर बैठ जाओगे।” यादों का ऐसा है कि किस बात पर ये बात कही गयी थी वो अब याद नहीं, पीठिका शब्द किस संदर्भ में आया था वो भी याद नहीं। पर ये बात अब भी याद है।
ऐसी कई बातें होती हैं जिनकी वास्तविक समझ बिना अनुभव नहीं हो पाती। ऐसी ही एक बात है परीक्षा में किसी को चोरी करते हुए देखना। जब तक आप विद्यार्थी होते हैं ऐसा लगता है कि कोई थोड़ी सी चोरी कर ही ले तो कौन सी दुनिया इधर की उधर हो जाएगी। पता नहीं क्यों इस बात पर प्रोफेसर हलकान होते हैं? या ये भी कि कोई थोड़ा सा इधर-उधर देख ही ले तो कौन सा किसी को पता चल रहा होगा। पर ये एक ऐसी चीज है जिसका पता लगाने के लिए कुछ करना ही नहीं होता। चोर की दाढ़ी में तिनका की तरह जो विद्यार्थी ताक-झाँक कर रहे होते हैं वो अक्सर ऐसी मुद्रा बनाते हैं जैसे किसी बहुत गम्भीर विषय पर सोच रहे हों। अपने बगल वाले की उत्तर पुस्तिका में झाँकते हुए कोई दिख जाए तो तुरंत सोचने की मुद्रा में आकर छत की तरफ देखने लगता है। कुछ तो हवा में हाथ से ऐसी-ऐसी मुद्राएँ बनाने लगते हैं जैसे हायर ड़ाइमेशन की किसी वस्तु को देखने की कोशिश कर रहे हों। जिन्हें लगता है कि वो आसानी से चोरी कर लेते हैं उन्हें कहाँ पता होता है कि वो इसलिए कर लेते हैं क्योंकि जिसे पकड़ना है वो करने देता है, इसलिए नहीं कि वो स्मार्ट चोर हैं।
एक शिक्षक के लिए इसे नजरंदाज करना बहुत कठिन होता है। असली दिक्कत ये होती है कि एक ईमानदार विद्यार्थी से अधिक अंक यदि चोरी वाले का आ जाए ऐसा होते तो नहीं देखा जा सकता। जब ग्रेडिंग रिलेटिव हो तब तो ये और कठिन हो जाता है। और अगर कुछ विद्यार्थी सामूहिक रूप से कोई प्रश्न हल कर दे तब तो ईमानदार सामान्य विद्यार्थियों की बैंड ही बज जानी है।
एक बार हमारे एक क्लास में भी ऐसा ही हुआ। एक असाइनमेंट का हल कई विद्यार्थियों का एक जैसा ही निकला! अब सबको अंक मिल जाए इस बात से तो मुझे कोई दिक्कत नहीं थी पर उस समाजवाद में जिन्होंने मेहनत कर ईमानदारी से हल करने की कोशिश की थी उन्हें ही कम नम्बर मिल जाते। ग्रेडिंग करते हुए पंच परमेश्वर कहानी की तरह लगा… ग्रेड का फैसला तो बिना भेदभाव वाला और न्यायप्रिय ही होना चाहिए।
हमने एक दो विद्यार्थियों से बात की तो वो साफ मुकर गए! एक ने तो ये भी कहा कि आपने ही तो कहा था कि पढ़ाई में एक दूसरे की मदद करो। तो एक दूसरे की थोड़ी मदद कर दी है। जमाना ही ऐसा है। मुझे ऐसे लगा जैसे किसी व्यक्ति को डॉक्टर सलाह दे कि स्वास्थ्य के लिए थोड़ा वजन कम करो और वो उसी पर चढ़ बैठे*: “मेरे बारे में ऐसे कैसे बोल दिया आपने? हम तो body positivity प्रैक्टिस कर रहे थे! बड़ी मेहनत से अपने शरीर को प्यार करना सीख रहे हैं।…” वगैरह. (*बीरेंदर ने लेबंटी चाह में बताया है कि चढ़ बैठने का अर्थ ये नहीं होता है कि कहीं चढ़ के कोई बैठ जाएगा। माने मुहावरा है।)
ऐसे में जब चीजों को क्वांटिफाई कर दिया जाए तो अक्सर (लगभग) दूध का दूध पानी का पानी हो जाता है। यदि समस्या को गणितीय रूप दे कर कह दिया जाए – “सरल करें” तो गणित का आदमी कर ही देगा। (जिन्होंने बचपन में गणित हिंदी माध्यम से पढ़ा हो वो ‘सरल करें’ का अर्थ समझ गए होंगे। हमारे एक गणित के शिक्षक कहा करते – सरल करने को कहा गया था तुम लोग सड़-ल कर दिए हो।) हम पढ़ाते भी मशीन लर्निंग हैं तो हमने सोचा मशीन लर्निंग से ही पता लगाया जाय कि किसके असाइनमेंट में कितना प्रतिशत किसके असाइनमेंट से चोरी है।
जब ये पता लग गया तो मैंने क्लास में नम्बर देने का फ़ॉर्म्युला बता दिया। कोड दे दिया और कहा कि किसी को फ़ॉर्म्युले से आपत्ति हो तो सुधार करे। परिणाम लगभग सटीक था। उम्मीद से बेहतर। पूरी क्लास ने कहा कि ये तो शत प्रतिशत सच निकल आया! अब किसी को आपत्ति भी नहीं रही। इस तस्वीर में ४० विद्यार्थी हैं। १०० मतलब पूरा ही नकल, शून्य अर्थात् कुछ भी एक जैसा नहीं। जो लाल क्षेत्र में आए थे वो सन्नाटे का छंद हो गए। जो पीले में थे उनमें से कइयों ने बताया कि उन्होंने हल तो खुद से ही किया पर कुछ हिस्से में उन्होंने दूसरों से भी लिए। हरे वाले प्रसन्न!
वैसे अक्सर दो तरह के विद्यार्थियों पर ही पढ़ाने वालों का समय जाता है – एक जो पीछे पड़कर सीखते हैं। दूसरे वो जिनके पीछे पड़ना पड़ता है कि वो किसी तरह पास हो जाएँ। इस चार्ट के बाद भी यही हुआ।
ऐसा होना चाहिए ...जिससे हवा में उड़ने वालों को आइना दिखे! आजकल सोशल मीडिया पर जब रोज कुछ चीजें दिखती हैं तो अक्सर लगता है दुनिया कुछ तो सरल हो जाएगी जब चीजों को ऐसे हल किया जा सकेगा। जब लोगों को उनका पाखंड (हिपाक्रसी) स्पष्ट दिखने लगे। किसी के ट्वीट्स पर मॉडल लगा दो और वो बता दे कि ये आदमी ९० प्रतिशत पाखंडी है! 😊
जैसे एक तो मीडिया/बुद्धिजीवियों की दुनिया रसातल को जा रही है वाली बात। अभी पिछले दिनों ट्वीटर पर एक कविता दिखी। खूब पसंद की गयी। अर्थ कुछ ऐसा था जैसे …बचपन में इतना तो साफ पानी होता था। आने वाली पीढ़ियों को यकीन नहीं होगा कि संसार में कभी पीने को साफ पानी ऐसे मिलता था इत्यादि। वैसे कवियों के पास बिम्ब के नाम पर कुछ भी कहने का पेटेंट है तो हो सकता है कोई कह दे कविता में पानी का अर्थ पानी नहीं यूरेनियम हो। पर पानी को पानी ही माने तो आँकड़े ढूँढने पर पता चला बीते साल दुनिया में सबसे अधिक लोगों को स्वच्छ पीने लायक पानी मिला। पिछले कई वर्षों से हर वर्ष ही इस मामले में ऐसे रहे हैं – हर बीते साल से बेहतर। पानी से होने वाली बीमारियों का लगभग उन्मूलन हो चला धरती से। पर… अब कवि ही क्या जिसकी बात सीधी और सरल हो!
वैसे हर अच्छी बात की तरह डेटा अनालिसिस के नाम पर भी लोग कुछ भी करने लगे हैं। तीन लोगों से पूछ कर लोग डेटा अनलिसिस कर उसमें पैटर्न भी निकाल देते हैं! जैसे 'गीता में लिखा है' कह कर लोग कुछ भी अंट-शंट कह देते हैं वैसे ही आजकल डेटा अनलिसिस के नाम पर भी लोग कुछ भी कर देते हैं! इसमें एक समझदारी वाला काम इजराइल ने किया है कि विश्वविद्यालयों में स्नातक स्तर में किसी का विषय कुछ भी हो अब एक विषय सांख्यिकी का जरूर पढ़ाते हैं।
वैसे जो दिन भर प्रॉपगैंडा फैलाते हैं ये कहते हुए कि हम तो निष्पक्ष हैं उन पर तो कोई भी मॉडल लगा दिया जाय तो उनकी सच्चाई के उजाले का अलकतरा निकल जाएगा। कितनी बातें बिना देखने की कोशिश किए भी दिख जाती है – कई बार कहने वाले कहने को तो सच ही कह रहे होते हैं (महीन चोर) पर …जैसे किस घटना के लिए कैसे एक व्यक्ति विशेष स्पष्ट रूप से ज़िम्मेवार होता है और वैसी ही किसी दूसरी घटना इसलिए हो जाती है क्योंकि पूरा समाज ही घटिया है। कौन सी बात में आपको कड़वी सच्चाई दिखती है और कौन सी बात ‘फनी’ लगती है! किस बात पर आश्चर्य चकित फील करना होता है किस पर ‘फकित’ (तुक बंदी नहीं किए हैं वो क्या है कि बिना इन सब शब्दों के ना तो कूल लगता है ना ही बुद्धिजीवी जैसा)। और कैसे किसी न्यूज़ पोर्टल के आलेख पर लिख दिया जाता है कि ये लेखक के निजी विचार हैं पर ये भी दिखता है कि पोर्टल को केवल एक ही प्रकार के निजी विचार वाले मिलते हैं। इनके पोर्टल की मानें तो भिन्न-भिन्न खोपड़ी में एक प्रकार की ही मति होती है। कम बुद्धि के लोग मुण्डे मुण्डे मतिर्भिन्ना का ग़लत संधि विच्छेद कर देने से भिन्न का अर्थ अभिन्न मान ही सकते हैं।
और वो लोग जो दुःख, दर्द और हताशा पर लिखते हैं – कट्टर नमाज़ी के पांच वक्त की नमाज़ से भी ज़्यादा नियमित। उनकी लाइनें क्या गजब होती हैं! जैसे – जिस वक्त में हम जी रहे हैं।… ये जो आजकल का दौर है।… एक नाउम्मीद, और हताश पीढ़ी है…। ये जो वर्तमान की सच्चाई है!... एक समाज के रूप में हमें शर्मिंदा होना चाहिए। …वगैरह, वगैरह। लगता है बुद्धिजीवी वर्ग ऐसी ही लाइनों पर जीवित है। दुनिया बदलने से ये नहीं बदलने जा रहा। मज़े की बात ये है कि ऐसे बुद्धिजीवी अक्सर जीवन में कभी स्वयं दुःख देखे ही नहीं होते। ये अक्सर बड़े घरानों के निकम्मे होते हैं जिनका कैरियर व्हिस्की पर बकर काटते हुए अंततः इसी फ़ील्ड में बनता है। खुद दुःख देखे होते तो उन्हें पता होता कि दुनिया किस प्रकार से बदल रही है। ये लोग जीवन भर दुःख को धंधे के रूप में सुनते-पढ़ते हैं और उसे उसी के लिए देखना-बेचना भी सीखते हैं। दुःख लिखने का धंधा – जिससे उनकी रोजी चलती है। अकादमिक गलियारों में गरीबी पर चर्चा करने वालों को बदलती दुनिया कैसे दिखे? जिनके धंधे का रॉ मटीरीयल प्रदूषण हो उसे ग्रीन एनर्जी से क्या मिलेगा?
(राजनीतिक बात नहीं है) यदि प्रश्न कर दिया जाए कि दुर्घटना, स्वास्थ्य इत्यादि व्यक्ति विशेष कारणों को छोड़ दें तो किस पैमाने पर तुम्हारे किसी भी जानने वाले का जीवन स्तर पिछले बीस सालों में खराब हुआ है? तो उनके पास उत्तर नहीं होगा।
हमारे यहाँ फैक्टफुलनेस और एन्लाइटन्मन्ट नाउ जैसी पुस्तकें लिखी-पढ़ी नहीं जाती। उन पुस्तकों को पढ़िए यदि आपको दुनिया के परिवर्तन का यथार्थ समझना है तो।
पिछले दिनों डार्टमाउथ के एक प्रोफेसर ने इस बात की अनालिसिस की कि कोविड से जुड़े समाचार मीडिया वाले कैसे दिखाते हैं। मशीन लर्निंग लगाकर अनालिसिस की। निष्कर्ष - सभी वास्तविकता से कई गुना अधिक बुरा दिखाते हैं। जब कोविड बढ़ा तब उस पर फोकस। जब घटा तो उन जगहों पर फोकस जहाँ बढ़ रहा हो, जहाँ लोग मर रहे हों। जब वैक्सीन नहीं थे तो विफलता थी, जब दिए जाने लगे तो उसकी महत्ता ही कम! इसी प्रकार एक डेटा साइंटिस्ट ने १९४५ से २००५ तक साठ वर्षों के न्यू यॉर्क टाइम्स के न्यूज का अनालिसिस किया। और उसी मॉडल से १९७९ से २०१० के बीच दुनिया के १३० देशों के न्यूज का। मशीन लर्निंग है तो कौन सा बैठ कर एक-कर न्यूज पढ़ना है – तो कर दिए। यहाँ भी नतीजे वही! न्यूज और सम्पादकीय की माने तो – दुनिया निरंतर रसातल को जा रही है। मीडिया ने इसे हर साल पहले से ज़्यादा बढ़ा चढ़ाकर पेश किया है। साल दर साल न्यूज के हिसाब से दुनिया पहले से अधिक बुरी होती गयी है। और मज़े की बात ये कि उनमें से किसी भी पैमाने पर (जिनके लिए मीडिया वाले और बुद्धिजीवी निरंतर लिखते हैं की वो चीजें बुरी होती जा रही है), इन वर्षों में दुनिया की हालत बुरी तो छोड़िए, उन हर एक पैमाने पर दुनिया के हर देश के व्यक्तियों के जीवन स्तर और स्वतंत्रता में अप्रत्याशित सुधार हुआ है। पर ऐसा होने के बावजूद मीडिया उसका विपरीत लिखता गया है। इस निष्कर्ष को देखने की एक दृष्टि ये भी है कि जब भुखमरी थी, जीडीपी पर कैपिटा ५०० डॉलर से भी कम था तब निराशावादी लेखन के साथ आशावादी लेखन भी था। पर निराशावादी लेखन महान था, यथार्थ था। समय बदला। दुर्भिक्ष समाप्त हो गया। जीडीपी पर कैपिटा २००० डॉलर से अधिक हो गया। पर निराशावादी लेखन काम होने की जगह कई गुना बढ़ गया। धीरे-धीरे ये हो गया कि बुद्धिजीवी आशवादी कैसे लिख सकता है! कोई लिख दे तो बुद्धिजीवी गलियों में उसे सीआईए एजेंट, जो उन गलियों की सबसे बुरी गाली होती है, कह दिया जाएगा! यथार्थ भले बदलता गया हो पर यथार्थवादी लेखन का अर्थ ही हो गया - निराशावाद। अगर परिवर्तन का यथार्थ देखें तो कई बार ऐसा लेखन वैसे ही हास्यास्पद नज़र आता है जैसे चेचक के उन्मूलन के बाद भी उसे दुनिया के लिए सबसे बड़ा ख़तरा बताते रहना!
परिवर्तन कैसे होता है ये देखना कठिन नहीं है – मीडिया और बुद्धिजीवी वर्ग के लेंस से दृष्टि हटा कर देखें तो। जिस गाँव में एक पक्का मकान नहीं होता था वहाँ अब एक भी कच्चा नहीं बचा। लोग क्या पहनते थे और अब क्या पहनते हैं। हमने देखा तो नहीं पर सुना है जब शादी तक लोग माँगे हुए कपड़ों में करते थे। झोले और टूटे चप्पलों की जगह बैग और हाथ में मोबाइल। जिस पूरे गाँव में एक फोन नहीं होता था अब हर-घर में कई मोबाइल होते हैं। गाँव के अस्पताल में व्यवस्था नहीं है का आलेख लिखने वाले ये नहीं देखते कि पिछले दस-बीस वर्षों में जहाँ एक टूटा कमरा हुआ करता था वहाँ एक विशाल भवन और एम्बुलेंस खड़ी रहती है। और ये लगभग हर जगह की ही कहानी है। आपके गाँव में दूसरे से साइकिल माँग कर चलने वालों के पास अब मोटर साइकिल अगर आपको नहीं दिखती तब तो आपको ये कोई मशीन लर्निंग नहीं दिखा सकता। एक जमाना था जब प्रौढ़ शिक्षा के नाम पर पैसे फूंके जाते थे उससे कुछ ना हो पाया और वही लोग बुढ़ापे में फोन चलाने के लिए पढ़ना लिखना सीख गए! जिस उमर के आधे लड़के अनपढ़, गाय-भैंस चराते घूमते थे अब कितने रुपए में कितना जीबी डेटा मिलता है और कौन सी फ़िल्म कहाँ देखनी है सब एक साँस में नाप देते हैं। कौन सी परीक्षा में किस कटेगरी में कितना कट -ऑफ गया है। किस देश में कोरोना कितना फैला है आपसे कम नहीं जानते हैं। आप भले आज भी वही घिसी-पिटी कहानी गढ़ते रहो कि एक सब्जी बेचने वाले ने आपसे ऐसा कहा – वैसा कहा! बुद्धिजीवी लोगों का चूँकि पेट बिना मेहनत भरने लगता है तो उन्हें लगता है कि उनका दिमाग भी आम आदमी से ज्यादा हो गया है! वो कैसे मान लेंगे कि एक गाँव-देहात का आदमी, एक ऑटो-टैक्सी चलाने वाला, सब्ज़ी बेचने वाला भी स्मार्ट हो सकता है? उसे तो दुखियारा, बेसहारा, और हताश होना चाहिए। वो कैसे सुखी हो सकता है? वो कहे भी तो हम बता रहे हैं कि वो हमारे पैमाने पर दुखी है!
(पिछले दिनों मैं गाँव गया था और) एक दिन सुबह दूध लाने गया तो देखा कि एक बच्चा फोन पर वही कार्टून/राइम देख रहा है जो दुनिया के सबसे बड़ी कम्पनियों के सीईओ के बच्चे भी देखते हैं – वही यूट्यूब। असमानता, समाजवाद, और दुःख पर भारी भरकम लिखने (रोने) वाले दुःख का धंधा करते रह जाएँगे और दुनिया उनकी परवाह किए बिना बदलती रहेगी। सब हरा-हरा नहीं है, दुनिया वैसे हो जाने के लिए बनी ही नहीं है। लेकिन पिछले कई वर्षों से हरियाली बढ़ती ही गयी है। अद्भुत रूप से। लिखते हुए लग रहा है एक डायलोग लिख दिया जाय - ‘निराशा का दौर है’ का धंधा करने वालों से बिगाड़ के डर से आँकड़े की बात नहीं करोगे?! 😊
हिंदी किताब लिखने के बाद कुछ अकादमिक हिंदी के लोगों से बात हुई तो ये भी पता चला कि विश्वविद्यालयों में हिंदी के पठन-पाठन में भी ऐसा है कि एक ही प्रकार के शिक्षकों-विद्यार्थियों का गुट है! जो एक ही विचारधारा को बढ़ावा देते हैं, उन्हें ही शैक्षणिक नौकरीयाँ मिलती है। इस प्रकार एक लेंस से ही दुनिया को देखने को जो विद्वता कहा जाता है उसका क्रम चलता रहता है। वो आज भी दुनिया वैसे ही देखते हैं जैसे सौ साल पहले कुछ लोग देख गए थे। अरे भई, शोध कर रहे हो तो “फलानेवाद के परिपेक्ष्य” की जगह कभी वैसे भी दुनिया देख लिया करो जैसी वास्तव में है!
पोस्ट अपनी लम्बाई को प्राप्त हो रही है। इससे लम्बा लोग पढ़ेंगे नहीं। आप ये पढ़िए, ज़ोरदार बात है, याद रहेगी। कई किताबों में उद्धृत हो चुकी है:
A few years ago, The New York Times did a story on the working conditions of Foxconn, the massive Taiwanese electronics manufacturer. The conditions are often atrocious. Readers were rightfully upset. But a fascinating response to the story came from the nephew of a Chinese worker, who wrote in the comments section:
My aunt worked several years in what Americans call “sweat shops”. It was hard work. Long hours, small wage, poor working conditions. Do you know what my aunt did before she worked in one of these factories? She was a prostitute.
जो रोना रोते हैं कि दुनिया बड़ी खराब होती जा रही है। उन्हें पन्ने काले करने दीजिए - उनका धंधा है। आप अपना काम मन से कीजिए। सरल कर के दुनिया को देखिए। खुश रहिए।
नया वर्ष मंगलमय हो।
~Abhishek Ojha~