गाँधी मैदान !... गाँधी मैदान !... गाँधी मैदान !
‘गाँधी मैदान हैं ?’ एक ऑटो वाले ने बिल्कुल सामने ऑटो खड़ा करते हुए पूछा.
स्टेसन !... स्टेसन !... स्टेसन !
‘जक्सन हैं?’ एक दूसरे ऑटो वाले ने मेरे और पहले से खड़े ऑटो के बीच में बची जगह में अपना ऑटो फिट करते हुए पूछा.
मुझे एक पुराने शिक्षक याद आये. जब वो अटेंडेंस लेते और कुछ बच्चे उन्हें ‘यस सर’ की जगह ‘यस मैडम’ कह देते तो वो अटेंडेंस लेना बीच में ही रोककर मुस्कुराते हुए बड़े प्यार से पूछते ‘ए जी, आपको हमारी मूंछ नहीं दिखती है?’. मेरा अक्सर वैसे ही ऑटो वालों से पूछने का मन होता है… एक अच्छा ख़ासा इंसान जंक्शन और (या) मैदान कैसे हो सकता है !
इतना घुसकर पूछने की क्या जरुरत? जिसे जाना हो वो खुद ही आएगा. लेकिन बात ऐसी है नहीं. इस मामले में पटना में कुछ लोग गजब हैं - ऑटो वाले पूछते रहते हैं और लोग चुप ! बिल्कुल उदासीन ! निशब्द ! चेहरे पर कोई भाव नहीं. हाथों से भी कोई संकेत नहीं. कुछ उसी उदासीन भाव में इधर उधर ताकते हुए बिना कोई संकेत दिए आहिस्ते से आकर बैठ भी जाते हैं. ऑटो वाले चिल्लाने और पूछने के अलावा करें भी तो क्या करें. बड़ा कठिन है ये अनुमान लगा पाना कि किसे जाना है किसे नहीं. बेचारे शेयरधारक और भारतीय क्रिकेट फैन्स की तरह आस लगाये रहते हैं शायद इनमें से कोई चल जाए. और ठीक उसी तरह कभी-कभी कोई चल देता है. कभी सभी चल जाते हैं तो कभी कोई नहीं. वो भी चल जाते हैं जिनसे कोई आस ही नहीं होती.
‘नींद में रहता है’ – मुझे ऑटो वाले ने बताया.
‘सब तरह का पब्लिक है. कुछ तो कभी नहीं बोलेगा. आप केतनोहू पूछ लीजिए उ बोलबे नहीं करेगा, जाना होगा तपर भी नहीं. आ कुछ अईसा पब्लिक भी है जो अभी गलिये में रहता है त हाथ हीला देगा कि नहीं जाना है… उसीमें से कुछ किनारे पर बईठ गया त अंदरे नहीं जाएगा. उसको हवा खाते हुए ही जाना है. सवारी आयेगा त पैर टेढा कर लेगा लेकिन उ भीतर नहीं जाएगा. …सब तरह का पब्लिक है. अब लेडिस सवारी आये तो कुछ लोग आगे नहीं आता है…. उ पीछे ही बैठेगा आगे ऐबे नहीं करेगा. …कई बार त हमलोग को सवारी छोड़ना पड़ता है. लेकिन अब वईसा आदमी भी हए जो लेडिस देखके खुदे उतर जाता है. मान लीजिए कि आपके घर में भी बहन हैं त आप चाहियेगा कि उसको आगे बैठना पड़े… आ ई पुलिसवन सब त ताकते रहता है कि कौन टेम्पू में आगे पसेंजर नहीं बईठा है. आके बइठ जाएगा. ना टरेन में पईसा देता है ना टेम्पो में… बसवा वलन सब तो ले लेता है. स्टाफ हैं तो का भारा नहीं देगा?’
‘आपलोगों को भी मांग लेना चाहिए’ – मैंने कहा.
‘अरे नहीं सर, हम लोग को तो अईसा परेसान कर देता है कि पूछीये मत. बोल देगा कि यहाँ काहे खरा किया है. परमिट, लायसेंस, ई लाओ, उ लाओ... हेन-तेन… पचास ठो नाटक है.’
‘गांधी मैदान?… बैठिये… अरे आइये ना महाराज. केतना तो जगह है. आगे-पीछे हो जाइए थोडा-थोडा.’ एक सवारी बैठाने के बात वार्ता आगे बढ़ी:
‘अब आपसे बात हो रहा है तो बता रहे हैं. एक ठो अऊर बात है. पहिले लईका सब रंगबाजी करता था तब तक ठीक था. … मान लीजिए हम भी कम से कम दु बात बोलते तो थे. लेकिन दू साल से जो ई लैकियन सब रंगबाजी कर रही है तो कुछो नहीं कर पाते हैं… एक बार उसको बस बोलना है कि कईसा बतमीज है रे टेम्पू वाला… इतना बोला कि उसके लिए १० ठो लफुआ तैयार खड़ा है. …अभी पाँच ठो लड़की गया मेरा टेम्पो में… आगे-पीछे करके बैठ गयी सब… मोरया लोक उतर के बोलता है कि तीन सीट है त उसी का न भारा देंगे. हम बोले कि टरेन में जाइयेगा आपलोग खरा होके तो कए सीट का भारा दीजियेगा?... एतने में मोटरसाइकिल होएँ होएँ करते चार ठो आ गया. ‘क्या हुआ - क्या हुआ?’ …हम उहो पन्द्रह रूपया लौटा दिए. बोले कि लो तुमसे वसूलने वाला ले लेगा’.
‘उन्होंने पन्द्रह रुपये वापस ले लिए?’ – मैंने बीच में ही पूछा.
‘हाँ नहीं त. पर ई तो कुच्छो नहीं है. पहिले तो पूजा में हजार दो हजार चंदा ले लेता था लड़का सब. दस जगह रंगदारी तो हम भरते थे. पान खा लेगा आ लाल गमछा… बोलेगा ‘ऐ रोकअ तनी, पूल के ठेका हुआ है अपना’. अब दीजिए उसको दस-बीस. आ उसी में बोल दीजिए कि नहीं देंगे त… ‘ए खोल ले रे चाका’. उसमें ऐसा है कि प्रसासन का भी त हिस्सा होता था’ उसने आवाज धीरे करते हुए कहा.
‘उ देख रहे हैं न वहीँ पर सुलभ सौचालय के पीछे बैठ के पूलिसवन सब दारु पीता था. अब प्रसासन थोडा टाईट हुआ है… नितीस कुमार के बाद ई सब तो खतम हो गया… बस ई एसी बसवन के आने से थोडा मार्केट डाउन हुआ है. लेकिन उसमें कहीं से कहीं जाइए पन्द्रहे रूपया भारा है. तो छोटा रूट पर हम लोग का ठीक रहेगा’
‘पूरे दिन कोई चलते रहा तो भी?’ – एक दूसरे यात्री ने पूछा.
‘अरे नहीं महाराज तब त खटीये ठाड़ा हो जाएगा. जब उतारियेगा तब टिकटवा लेके फार देता है. वइसे दो हजार बारह से हमलोग का अच्छा कमाई होगा. भारा दोबरी हो रहा है’
‘दोबरी?’
‘हाँ. लेकिन खाली तीने ठो सवारी बैठेगा’
तब तक मैं गाँधी मैदान पहुँच चूका था. जैसे ही उतर कर आगे बढ़ा एक ऑटो वाले ने पूछा ‘आइये, जक्सन हैं?’ मैंने कहा ‘नहीं भैया अब कहीं नहीं जाना है’ और आगे बढ़ गया...
…हर तरह का पब्लिक है !
~Abhishek Ojha~
आपकी प्रतिक्रिया का इंतज़ार है...
ReplyDeleteआपके सुझाव, आपकी निंदा और प्रशंसा सभी लिखने को प्रेरित करते हैं
:)
Jai ho ! bahut sundar aur jeewant !
@सागर: :)
ReplyDeleteये कहाँ मिला? :)
बाह भाई। लेकिन ईहो बात है कि पटना में आ हाजीपुर में ध ध के बइठाता है सब। आ प्रसासन टाइट नहीं है ना त पटना जाने वाला आदमी जरूर जानता ई बात। पटना पर बन्हिआ लिख रहे हैं आप।
ReplyDeleteआपकी मार्फ़त तो पटना को एक नई नज़र से देखने का मौका मिल रहा है...
ReplyDeleteखूबे बढ़िया लिख रहे हैं आप..जारी रहा जाए.
आप हमारा याद ताजा कर दिये।
ReplyDeleteअब पटना से वापस भी आ जाइये.
ReplyDeleteसटीक चित्रण,आभार.
मुला यी पटना सहरवा में कर का रहे हैं आप इतने दिनों से
ReplyDeleteगजबे लिखे हैं...एकदम्मे फोटुए खींच दिए की...हम तो घूमियो आये जंक्सन...
ReplyDeleteआप तो मैदान मार आये लेकिन :)
ई पटना पुराण त बहुते रोचक चल रहा है अऊर मजा भी आ रहा है पर हमरा भी यही जिज्ञासा है कि आप उंहा कर क्या रहे हैं? आखिर आजकल डेरा कहां हैं?
ReplyDeleteरामराम
पटना गाथा चालू रहे के चाही.. रौंवा, बडा नीक रहिया पकडले बिया:-)
ReplyDeleteछा गए सर जी!!
ReplyDeleteगज़ब!!
पटना एक बार ही गया हूँ, और ऐसे ही बस २० मिनट ऑटो में ही।
वाह!
पता ही नहीं चला कब खत्म हो गया सफर. आपने आम आदमी की वह आवाज दर्ज की है, जिसे कान के कच्चे अपने ढंग से सुनते हैं या मार्केट सर्वे, एक्जिट पोल के परिणाम के रूप में.
ReplyDeleteक्या लेखन है. जितना वाह-वाह करें कम ही होगा.
ReplyDeleteये और पिछली तीन पोस्ट पढ़कर लगा कि पटना को जी ले रहे हो. पटना भी धन्य हो गया होगा तुम्हीं पाकर.
@मनोजजी, अरविन्दजी, ताऊ: इन दिनों मैं अपनी कंपनी के कॉर्पोरेट रिस्पोन्सिबिलिटी प्रोग्राम के सिलसिले में पटना आया हुआ हूँ. २० अक्टूबर तक पटना में रहना है.
ReplyDeleteमाने अबहीं एक महीना ले ई सब कथा बाँचते रहिएगा? बाँचिए। हम तो रोजे देखते हैं। अउर लोग देख लेगा आपके आँख से।
ReplyDeleteलोकल ट्रांसपोर्ट आपरेटर शहर और शहरियों के मूड़ और मिजाज जानने के बहुत विश्वसनीय माध्यम हैं।
ReplyDeleteमस्त वार्ता रही।
तो दीवाली पटना में नहीं मनानी?
रोचक यात्रा वार्ता!
ReplyDeleteखतरनाक लिखें है सर जी :P
ReplyDeleteआबाद रहे पाटलिपुत्र!
ReplyDeleteएकदम पूरा सीन उतार दिए....
ReplyDeleteसही कहे...इन बेचारन का दुःख देखने वला बहुत कमे log है...
पटना यात्रा बहुत सरस लगी । आप के ऑटो वालों की तरह दिल्ली के बस कंडक्टर हैं या थे कहूँ तो ठीक रहेगा । मै तब जनक पुरी जाया करती ती बस में उससे पहले पडता था लाजवंती चौक । कंडक्टर अक्सर चिल्ला के पूछता था अरे है कोई लाजवंती, और लोग कोई नही भाई आगे चलो, कह के हंस देते थे .
ReplyDeleteबेहतरीन कमेंट्री। हम लोग भी हवा खाने वाली पब्लिक में शामिल थे :)
ReplyDeleteईहौ पढ़ लिए भाई. बड़ा मजेदार ई लगा " बेचारे शेयरधारक और भारतीय क्रिकेट फैन्स की तरह आस लगाये रहते हैं शायद इनमें से कोई चल जाए"
ReplyDeleteबहुत बढ़िया हैं आपके शहर के लोग.
ReplyDeleteऔर ऑटोवाले खासकर. कोई टी. वी. सीरियल के एपिसोड की तरह दिख गया. बढ़ा ही रोचक.
इसी पर हमे अपने करियर के शुरुवात की मुलती-पेस्सेंजेर ऑटो यात्रा याद आ गयी.
ऑफिस के रास्ते में एक जगह पड़ती थी - 'लेबर चोक', वहां लोग सुबह डेली-वजेस के लेबर लेने आते थे, कुछ बोली जैसी भी लगती थी शायद.
वहीँ से ऑटो गुज़रा तो कुछ लोग सामने आकर अचानक खड़े हो गए, ऑटोवाले ने सर घुमा के पूछा - 'कहीं जाना है?'. उनमे से एक बोला- 'हाँ. चार लेबर हैं'. ऑटो वाला हमारी तरफ मुड़ के बोला - 'शमशान तक भी ये लेबर ही रहेंगे'.
यदि आपको हसी ना भी आये तो कोई नहीं, हमें अब तक आती है.
लम्बी टिपण्णी के लिए क्षमा, और मजेदार पोस्ट के लिए बहुत बहुत धन्यवाद!