‘सर, लेबंटी चाह पीएंगे ?’ एक दिन सुबह सुबह फील्ड ट्रिप पर मुझसे किसीने पूछा.
‘वो क्या होता है?’ मैंने दिमाग पर जोर डालने के बाद पूछा.
‘सर लाल चाह - लेम्बू डाल के !’ उसने स्पष्ट किया.
‘अरे सर ऊ लेमन टी बोल रहा है. ब्लैक टी बिथ लेमन' – राजेशजी ने मुझे समझाया.
‘हाँ हाँ ले आइये… ये अंग्रेजी भी न’ - मैंने राजेशजी की तरफ देखते हुए कहा.
राजेशजी से मेरे पहली मुलाकात थी. गाडी में बजने वाले गाने पर वो अपनी अंगुलियों को कभी अपने जांघों पर और कभी सीट पर फिरा रहे थे. इस तरह संगीत में डूबे हुए मैंने किसी को पहले देखा हो ऐसा याद नहीं… आँखे बंद, सिर मंद-मंद एक छोटी गोलाई में घूमता हुआ और दाहिने हाथ की अंगुलियाँ संगीत के हर सुर का साथ देती हुई. गाना रुका तो उनकी तंद्रा भंग जरूर हुई पर फिर उसी मुद्रा में जाकर ‘पंछी बिछड गए मिलने से पहले’ गुनगुनाते हुए कहीं खो गए. इस गाने को गाते हुए असीम दर्द सा झलक रहा था उनके चेहरे पर. उनकी तन्मयता के कारण उनसे ज्यादा बात नहीं हो पा रही थी। सुषुप्तावस्था से कब वो संगीतप्रेमी वाली मुद्रा में आते और कब वापस सुषुप्त हो जाते ये समझ पाना थोडा कठिन हो रहा था. बीच में जब-जब इनोवा झटके लेती तब तब उनकी अंगुलियों और सिर में गति आ जाती।
‘लिया जाय’ - उनकी आवाज और लेबंटी चाह सामने देख मैंने प्लास्टिक के कप की तरफ हाथ बढ़ाया.
‘बैगवा को सुता दीजिए न’ - उन्हें चाह लेने में थोड़ी परेशानी हुई तो उन्होंने मेरी गोद में 'खड़े' बैग की तरफ इशारा किया.
'जानते हैं?' - ये शब्द सुनकर मुझे आनंद की सी अनुभूति हुई। ऐसा लगा जैसे इनकी मुझे वर्षो से तलाश थी। स्कूल के दिनों में रेणु की एक कहानी में ठीक यही सवाल पढ़ा था जिसमें उन्होने अगली लाइन लिखी थी 'मैं कुछ भी नहीं समझ सका कि मैं क्या जानता हूँ और क्या नहीं !' ऊँ डीनो की पढ़ी वो लाइन अब भी याद है पहली बार अनुभूति हुई।
मैंने कहा 'नहीं बताइये'
'आप जब लेबंटी सुन के कन्फ़्यूजिया गए त हमको याद आया। अङ्ग्रेज़ी में बहुत बर्ड का मीनिंग हम लोग उलट दिये हैं। अब देखिये खाना खाने वाले जगह को हमलोग क्या बोलते हैं?'
'रेस्टोरेन्ट?'
'यहीं मार खा गया न इंडिया ! होटल कहते हैं। का समझे ?'
'होटल'
'हाँ। होट माने गरम, त गरमागरम खाना जहां मिलेगा उसको होटले ना कहेंगे? और जहां दु-चार दिन ठहरना हो उसे क्या कहते हैं?'
'आप ही बताइये !' मैंने कहा।
'रेस्टूरेंट ! अच्छा आपे बताइये रेस्ट माने का होता है ?'
'आराम करना?' - मुझे ये बताते हुए भी थोड़ा ड़र तो था ही पता नहीं वो इसका मतलब क्या बता देते !
'तो रेंट देके जहां आराम करना हो उसको कहेंगे?....' और वो मेरे बोलने का इंतज़ार करने लगे।
'रेस्टोरेन्ट' मैंने उनकी बात पूरी की।
'हाँ ! ये भासा का असली ज्ञान जो है न बहुत कम लोगों के पास होता है। जादेतर सब्द जो है सब आइसही न बना है... आछे एक ठो और... आपको मालूम है कि बिर्हनी किसको कहते हैं?'
'...'
'अरे एक ठो पीला रंग के कीरा होता है... काट लेता है तो बरी फनफनता है। मधुमक्खीये समझिए बस उ सब मधु जमा नहीं करता है। अब बिर्हनी से हो गया बीहनी आ बीहनी से बी आ हनी अलगा करके अङ्ग्रेज़ी में हो गया मधु आ ?...का समझे?....'
'मक्खी' मैंने उन्हें एक बार फिर पूरा किया।
'हाँ - यही सब है भासा के ज्ञान' - उन्होने सगर्व बताया।
ड्राइवर ने किसी चौराहे पर गाड़ी रोकी और फिर आगे का रास्ता पूछने के लिए हमने खिड़की का काँच नीचे किया । 'भैया, शकुंतला एन्क्लेव किधर होगा?' मैंने पूछा तो जवाब देने के लिए चार-पाँच लोग उत्सुकता से आगे आ गए।
'सकुन्तला एंक्लेभ...' एक ने सोचते हुए दुहराया। 'अरे सकुन्तला एंक्लाभ जानता है किधर है?' उसने सवाल आगे बढ़ाया।
'सकुन्तला का ? हूँऊँऊँ... उ जज के मेहरारू हैं का?' एक ने सोचते हुए पूछा।
'आरे जज-कलक्टर आ मेहरारू नहीं रे बुरबक ! आपाटमेंट है सकुन्तला एनकलेभ' - राजेशजी ने मामला संभाला।
'आपाटमेंट? त इधर कहाँ होगा... आप गलत आ गए आपको त किदवई नगर जाना परेगा। आपाटमेंट सब त उधरे है ' - एक ने बताया।
'रुकिए ना जी ई धोबिया के पाता होगा। अरे सुंदरवा... सुन इधर। सकुन्तला इंकलैब अपार्टमेंट जानता है कहाँ है?'
'सकुन्ताला इंकलाब? अइसा त नहीं है इधर' -सुंदरवा ने बताया।
इंक्लेभ, इंकलाभ, इंकलैब, इंकलाब इत्यादि होता देख राजेशजी थोड़े जोश में आ गए। 'साला गलत पता बताया है, देख लेंगे *&^% को...'
'अरे कोई गलत पता क्यों देगा?' मैंने पूछा।
'अरे आप को का बुझाएगा... जब-जब कुछ गरबर करता है तब तब ई मा*#^#* सब गलत रास्ता आ पता बताता है। रुकिए साले को फोन करते हैं।'
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'देखे ! नहीं उठा रहा $%&$% का ! किसी के केरेक्टर का कीजिएगा साला अब उ आज गायबे रहेगा' पटना में पहली बार पूरे फ्लो में गाली सुनने को मिल रही थी ।
'अजीब हाल है !' - मैं कह भी क्या सकता था।
'अरे सर आप निश्चिंत रहिए, हम यही तो करते हैं... अभी देखिये न आधा घंटा में कईसे सब ठीक होता है। हमारा यही सब काम है... आप लोग से ई सब नहीं न हो पाएगा। हम तो अइसा-अइसा प्रोडक्ट पर काम किए हैं इस एरिया में कि आपको क्या बताएं। आ एक-से-एक %$#$^ सब को ठीक किए हैं... जब $%^& (एक मोबाइल सर्विस) आया था त उसका नाम कुत्तो-बिलाई भी नहीं जानता था। सब हमहीं देखे। फील्ड का बहुते एक्सपीरिएन्स है हमको।
...आता है सब कोट पहिर के होटल में टरेनिंग देने आ दिन भर इस्ट्रेटजी समझाता है। अइसा अक-बक बोलता है कि माथा पगला जाता है। अब इसमें लगाए ससुर कौंची का इस्ट्रेटजी लगाएगा? उ त हमलोग हैं कि अपने हिसाब से काम कर लेते हैं। आपको एक ठो बात बाताते हैं जो भी लेपटोप लेके अङ्ग्रेज़ी में भाषणबाजी किया... बुझ जाइए कि उ एक्को काम का बात नहीं बोल रहा ! हमको तो जाना पड़ता है, महाराजा होटलवा में टरेनिंग होता है। खाना-पीना भी होता है त हम तो उसके लिए ही चले जाते हैं। हमारे टरेनिंग में कभी आइये एकदम काम का बात बताते हैं हम... ' - भरपूर जोश और गर्व में राजेशजी ने बताया।
शकुंतला ढूँढने में मदद करने वाली भीड़ तब तक चली गयी थी। और राजेशजी अपने सूत्रों और तरीकों से काम पर लग गए। मुझे खुशी हुई कि साथ में मेरा लैपटॉप नहीं था... और इसी बात पर एक लेबंटी चाह पीने का मन हो आया।
सोच रहा हूँ किसी दिन राजेशजी का ट्रेनिंग सेसन अटेण्ड कर लूँ !
~Abhishek Ojha~
*तस्वीर: रेल और सड़क मार्ग का बंटवारा करती दीवार पर गोइंठा आर्ट !
अद्भुत! अभिषेक जी, पटना पर जेतना लिखे ऊ सब में लाजवाब है यह। अब बताइए कि शब्दों का सफ़र में अजित जी का लिखेंगे? अब शब्दों का यह हाल-चाल-ढाल-काल-बदहाल-बेहाल हो गया कि अब हम सबको भासाबिग्यान का शिक्छा रजेश जी से ही लेना परेगा। जानते हैं? एगो आउर बात।
ReplyDelete'आता है सब कोट पहिर के होटल में टरेनिंग देने आ दिन भर इस्ट्रेटजी समझाता है। अइसा अक-बक बोलता है कि माथा पगला जाता है। '
आउर 'जो भी लेपटोप लेके अङ्ग्रेज़ी में भाषणबाजी किया... बुझ जाइए कि उ एक्को काम का बात नहीं बोल रहा ! '--- एकदम साँच है ई सब। आप त बच गए। धनबाद(शन्यवाद) आपको(राँची के नजदीके है का, ई धनबाद?)
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ReplyDeleteरजेस जी को हमारा परनाम-सलाम कह दीजिएगा।
ReplyDeleteaaj hamara system kharab hai.. udhar ke computer se comment de rahe hain.. aur keh rahe hain ki tumko salaam karte hain
ReplyDeleteगाडी में बजने वाले गाने पर वो अपनी अंगुलियों को कभी अपने जांघों पर और कभी सीट पर फिरा रहे थे. इस तरह संगीत में डूबे हुए मैंने किसी को पहले देखा हो ऐसा याद नहीं… आँखे बंद, सिर मंद-मंद एक छोटी गोलाई में घूमता हुआ और दाहिने हाथ की अंगुलियाँ संगीत के हर सुर का साथ देती हुई. गाना रुका तो उनकी तंद्रा भंग जरूर हुई पर फिर उसी मुद्रा में जाकर ‘पंछी बिछड गए मिलने से पहले’ गुनगुनाते हुए कहीं खो गए. इस गाने को गाते हुए असीम दर्द सा झलक रहा था उनके चेहरे पर. उनकी तन्मयता के कारण उनसे ज्यादा बात नहीं हो पा रही थी। सुषुप्तावस्था से कब वो संगीतप्रेमी वाली मुद्रा में आते और कब वापस सुषुप्त हो जाते ये समझ पाना थोडा कठिन हो रहा था. बीच में जब-जब इनोवा झटके लेती तब तब उनकी अंगुलियों और सिर में गति आ जाती।
‘लिया जाय’
bahut gehri nazar.. lang. ko to ditto utaar diye ho... ham bhi shayad agar kabhi likhte to aisa hi likhte... mujhe koi shikayat nahi, tumne kami puri kar di dost..
bahut shaandar... pura post quote karne layak hai... lekin ek origional Bihari... bahut gehri, baareek nazar...!
अभी उधरै से लौटे हैं -जाना पहचाना माहौल लग रहा है :)
ReplyDeleteभैया ये राजेश जी की होटल और रेस्टोरंट की परिभाषा ने तो गुदगुदा दिया, पूरी पोस्ट ही मुस्किया मुस्किया कर पढे हैं. अब एक बार अऊर पढ ही लेते हैं....
ReplyDeleteरामराम.
वाह भाई, एकदम रेणु जी वाली पंचलैट मार्का पोस्ट.
ReplyDeleteओझा जी, ऊ का हे ने की एकदंम से मिज़ाज हरियरा गया. ऐइसा भासा का जानकार लोग दुनिया में कहियों ना मिलेगा, गारंटी है...काहें से क़ि ओने का लोग बड़ा नॉलेजगर होता है...
ReplyDeleteएकदम चौचक...मस्त... लगे रहिए ओझा जी....
ऊ का है कि ई भाषा तs हम बहुते सुने हैं बड़ी मिठास है एहमा..लेकिन ऊ का है कि पढ़ते-पढ़ते ऐसा नहीं न लगा कि पढ़ रहे हैं..लगा कि हमहूँ बैठे हैं उहे गाड़ी मा। सुन रहे हैं होटल, रेस्टूरेंट, बिर्हनी.. सकुंतला अपाटमेंट ढूंढ रहे हैं।
ReplyDeleteलेबंटी चाह नहीं मिला बस यही खल रहा है।
जियो बबुआ जियो...
ReplyDeleteएकदम से मिजाज चकचका दिए हो...
जब से हिन्दी पढ़ लिख रहे हैं, पहिला बार बिर्हनी लिखित में पढ़े...
लेबंटी का खटका मिठका सुवाद मुंह में हियें बैठे घुल गेया...
ई सब सब्द संजोग के रखने जुगुत है ...जब परदेश में माटी के लिए टीस उठेगा, उठाके इसको गरदनिया लगा लेंगे आ बस्स....मन हरियर...
शीर्षक देखते ही जो मुस्कराहट आई ..उसकी लम्बाई पोस्ट के साथ बढती ही गयी..
ReplyDeleteएक शब्द हमने भी सुना था...सडर बटर
नहीं समझे ना...
सोडा वाटर :)
आहा! सचमुच गज़ब! इसके अलावा कहते बन भी नहीं रहा!
ReplyDeleteक्या भाषा, क्या कथ्य!!
रंजना जी के शब्द हूबहू उधार ले रहे हैं हम भी। :)
आज अलग से धन्यवाद आपकी कंपनी का जिसने आपको पटना भेजा।
गजब पोस्ट है जी,एकदम डम्पलाट :)
ReplyDelete:)
ReplyDeleteसही गज़ब ढा रहे हो भाई। निष्कर्ष यह निकला कि यदि गणितज्ञ व्यंग्यकार बन जाये तो बुझा जाइये कि उसका पोस्टिंगवा पटना में करभा दिया गया है ...
हम तो पटना में ट्रेनिंग सेशन ले लिये हैं, स्पेयर में रखा है अभी।
ReplyDelete:) आपका अंदाज वाकई गजब है ............चाह की चाह पढ़ते ही जाग उठी ..:)
ReplyDeleteरंजना जी की इश्टाइल में कहें तो ऐकदम्मै चकचका दिए हो बबुआ...
ReplyDeleteबहुत आनंद आया। लेखनी की धार ऐसी जोर मार रही है कि एकदम वर्टिकल में पढ़ते चले गए।
चंदनमिसिर का धनबाद जिन्होंने ई पोस्ट पढ़वा ली।
@लेबंटी चाह..
ReplyDeleteनया शब्द ज्ञान,आपका आभार.
लेबंटी तक तो अंदाजा लगा लिया था लेकिन बिर्हनी, होटल अउर रेस्टोरेंट तो कब्भी नहीं भूलेंगे अब हम। राजेश जी को धन्यवाद पहुँचाईयेगा और हो सके तो एक ब्लॉग भी बनवाईये उनका, हम भैलकम करने को तैयार हैं।
ReplyDeletewow !! excellent !!! :)
ReplyDeleteकान से कान तक मुस्कराहट है आपकी पोस्ट पढ़ कर :)
अभिषेक बाबू....खतरनाक लिखे हैं हो...गर्दा टाईप!!!
ReplyDeleteरजेश जी से ट्युशन लेनी पढेगी!
ReplyDeleteलेबंटी चाह का ज़ायका सच कमाल का रहा...ज़बान अभी भी आपके सपाट शब्दों की चाशनी से लबरेज़ है..ओझा जी पहली दफा पढ़ा आपको...मज़ा आ गया...बेहतरीन.....
ReplyDeleteकई ठो नयका सब्दन ते भ्यांट कराय हौ,बड़ा मजा आवा !
ReplyDeleteपटना के पर्चे नही चर्चे बहुत ही जोरदार जा रहे हैं । सच कहूं तो मै भी होटल ही कहती थी अभी अबी तक खाना खाने वाली जगह को भी । भारत में तो यही कहते हैं ना ।
ReplyDeleteट्रेनिंग तो आपकी शुरु हो ही गई है बस जारी रखिये ।
BAHUTAY ACHCCHALIKHA RAHA
ReplyDeletehotal aur restorent ki gazab paribhasa gad di rajesh ji ne........mazza aa gaya.....
ReplyDeleteचकाचक बाबू! चकाचक है!
ReplyDeleteएकदम आपका पोस्टवा पढते पढते लगा की हम भी इ कहनियाँ में हैं और चुपचाप आपलोग का बतवा सुन रहें हैं |
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