ओढ़निया ब्लॉगिंग – बहुत दिनों बाद मजा सा आया इस पोस्ट को पढ़कर। सतीशजी के ब्लॉग पर मैं बहुत कम टिपियाता हूँ बस फीड में पढ़ लेता हूँ लेकिन इस पोस्ट पर दो टिप्पणी लूटा आया। याद आया कानपुर में जब फिल्म देखने जाते तो आइटम टाइप के गाने पर कुछ लोग कहते - फेंक 10 रुपए इस गाने पर !
विवादों के हिसाब मेरे सिलेबस में नहीं आते तो हम उनसे दूर ही रहते हैं। कभी-कभी बदबू दिखी भी तो अपने ऊपर ही परफ्यूम छिड़ककर आगे बढ़ लेते हैं। गंदगी से उलझने में कुछ फायदा नहीं दिखता। बचपन में ही सीखा दिया गया था कि कुछ प्राणी ऐसे होते हैं जिन्हें ‘ना ढेला मारना चाहिए ना प्रणाम ही करना चाहिए’। वैसे तो ये कहावत किसी अशुभ (और शायद शुभ भी) मानी जाने वाली चिड़िया* को लेकर कही जाती है लेकिन ये इन्सानों पर भी बखूबी लागू है। दोस्ती-दुश्मनी दोनों से समान दूरी में ही भलाई ! (वैसे किसी को पता है क्या उस चिड़िया को क्या कहते हैं? सफ़ेद काले रंग की गौरैया के साइज़ की होती है।)
मुझे कभी-कभी विवादों में समझ में नहीं आता कि क्या सही है. कौन पक्ष गलत है और कौन सही. और कभी-कभी प्रत्यक्ष ही एक पक्ष गलत दिखता है. लेकिन हमें क्या पड़ी है ! एक आम भारतीय नागरिक हूँ जो हर बात पर आँख मुँदना जानता है।
कई बार सीधे-सीधे गलत दिखाई देने पर भी जब हमें जो दिखाई देता है कारण हमेशा वही नहीं होता जो हमारे पूर्वाग्रह कहते हैं... थोड़ा तो सोचना चाहिए क्या गलत है क्या सही ! क्या हम किसी बात का बस इसलिए समर्थन कर देंगे कि हम किसी ‘फलानेवाद’ के समर्थक - फलानेवादी हैं?
मोजा फटा होने का मतलब आप हम क्या समझते हैं? यही न कि मोजा पुराना होगा। हम ये सोचते हैं कभी कि पहनने वाले के नाखून बढ़े हुए भी हो सकते हैं ! लेकिन हमें जो देखना है वही देखते है। उसी तरह कई बार जहां जरूरत नहीं वहाँ भी दिमाग लगा लेते हैं। और दिमाग लगाकर भी वही देख लेते हैं जो हमें देखना होता है। मोजा पुराना है या नाखून बढ़ा ये तो उसे पहनने वाला ही जानता है लेकिन देखने वाले को उससे क्या मतलब तो अपने हिसाब से ही लगा लेता है ! फटे मोजे से आगे बढ़ते हैं अच्छा उदाहरण नहीं लग रहा एक भोजपुरी में कहावत है अक्षरशः याद तो नहीं लेकिन मतलब होता है - "कोई भूखा भी लड़खड़ा रहा हो और लोग कहते हैं कि दारू पीए हुए है"।
चाइल्ड लेबर गलत है उन्हें बंद करवा दो. हम भी सपोर्ट करते हैं. मैं एक रिपोर्ट पढता हूँ एक देश में सरकार चाइल्ड लेबर बंद कराने की उपलब्धियां गिनाती है और अगले कुछ ही दिनों में चाइल्ड-प्रोस्टीच्युशन बढ़ जाता है. पटना में एसी बसों की नयी फ्लीट आती है और रिक्शे–ऑटो वाले धीरे-धीरे ही सही परेशान दिखते हैं. अनजाने में एसी कारों की बंद खिड़कीयाँ भिखारियों की आमदनी कम कर देती है – और उन्हें समझ में नहीं आता कि ऐसा क्यों हो क्या रहा है। ‘लोग बदल गए – पहले अच्छे थे !’ उन्हें एसी खिड़की के बारे में मालूम हो भी तो कैसे ?! अंधाधुंध डेवेलपमेंट का सपोर्टर और चाइल्ड लेबर का विरोधी दोनों ही मैं हूँ। लेकिन इसका मतलब ये तो नहीं कि बिन सोचे...
समहाउ मूड ऑफ था कल – विकट विचार दिमाग में आये. ...मूड को ऑन करने के लिए बाहर निकाल 15 मिनट टहल कर आया। एक चाय पीया और कुछ लोगों की बात सुना। मूड ठीक सा हो गया। कुछ उसी तरह जैसे बदबू हुई तो परफ्यूम छिडकर दिया वो भी ब्रांडेड टाइप – अजारो !
फ्रेंड ऑफ फ्रेंड सर्कल में हर तरह का अपराध करने वालों को आपमें से कौन नहीं जानता?! मैं तो जानता हूँ। लेकिन हम आँखें बंद लेते हैं. नहीं है साहस सच सुनने का. पोलिटिकली करेक्ट बने रहना है. मुझे नहीं याद मेरा किसी से झगड़ा हुआ हो। कुछ भी देख-सुन कर ‘नहीं सभी ऐसे नहीं होते हैं, अब ऐसे लोगों का क्या किया जा सकता है, आप उधर ध्यान ही क्यों देते हैं’ जैसी क्लासिक टैग लाइन से मैं बड़े से बड़े सच को इग्नोर करता रहता हूँ. मैं नहीं कहने जाता कि ये गलत हो रहा है. पुलिस वाला रिक्शे वाले से पाँच-पाँच रुपये वसूलता है. मैं पुलिस वाले से कुछ नहीं कहता। मैं कह सकता हूँ – लेकिन मुझे क्या पड़ी है ?! मैं कभी-कभी रिक्शे वाले को पाँच रुपये अधिक दे देता हूँ - गंदगी पर परफ्यूम छिड़कने की आदत हो चली है !
मेरे जैसे लोग इसी बात से खुश हैं कि भगवान ने मुझे ऐसी जगह नहीं भेजा जहां उन्हें भ्रष्ट होना पड़ता। समाज देख अपने आप पर भी भरोसा नहीं रहा। मेरी माँ ‘संस्कृति के चार अध्याय’ पढ़ रहीं हैं मुझसे अधिक तेजी से और अच्छे से विवेचन कर पढ़ती हैं. अगर मेरे जैसा पढ़ने का मौका उन्हें मिला होता तो... खैर... उनके प्रश्न मेरे कुछ सिद्धांतों को हिला कर रख देते हैं. मैं उन्हें कुछ समझा नहीं पाता। बाहर जाकर फिर 15 मिनट टहल आता हूँ !
कोई किसी तरह दलदल में फंस जाय तो मैं उसे सब कुछ भूल आगे बढ्ने की सलाह दे देता हूँ। भले ही उसे घसीट ले जाया गया हो - मैं पूछ लेता हूँ ‘आप उधर गए ही क्यों?’। गंदगी पड़ी रहने दीजिये परयुम छिड़कना सीखिये - अपने ऊपर, गाड़ी में, घर में, ऑफिस में...
हमें कहीं भी विवाद दिखता है – तो हम अक्सर निकल लेते हैं। कभी सही-गलत मन में सोच लेते हैं – लेकिन किसी एक का साथ देने में ड़र लगता है। कहीं उलझ ना जाएँ। हमारी बहुत इज्जत है – हम सिविलाइजड लोग हैं। या फिर शायद ये मेरा भ्रम है। लेकिन मैं तो अक्सर गंदगी पर परफ्यूम छिड़क आँख बंद कर निकल लेता हूँ।
ये तो एक तरह के लोग हुए। इसके अलावा हर मामले में कुछ लोग इस तरफ हो जाते हैं कुछ उस तरफ। लेकिन कुछ कहीं नहीं होते और हर जगह भी होते हैं। कुछ को खुद नहीं मालूम होता कि मैं इस तरफ क्यों हूँ... और भी कई क्लास है लोगों के। बिन देखे सुने कुछ लोगों की हुआं-हुआं करने की आदत होती है। वैसे लोगों पर परसाई जी याद आ रहे हैं:
“हर भेड़िये के आसपास दो – चार सियार रहते ही हैं। जब भेड़िया अपना शिकार खा लेता है, तब ये सियार हड्डियों में लगे माँस को कुतरकर खाते हैं, और हड्डियाँ चूसते रहते हैं। ये भेड़िये के आसपास दुम हिलाते चलते हैं, उसकी सेवा करते हैं और मौके-बेमौके “हुआं-हुआं ” चिल्लाकर उसकी जय बोलते हैं।” – परसाई जी के मामले में तो हड्डी इन्सेंटिव हुआ करता था। मुझे तो ऐसे लोग भी दिखते हैं जो बिन हड्डी के भी हुआं-हुआं करते हैं। पता नहीं किस चीज की आस होती है। परसाई जी आगे लिखते है:
“पीले सियार को हुआं-हुआं के सिवा कुछ और तो आता नहीं था। हुआं-हुआं चिल्ला दिया। शेष सियार भी `हुआं-हुआं’ बोल पड़े। बूढ़े सियार ने आँख के इशारे से शेष सियारों को मना कर दिया और चतुराई से बात को यों कहकर सँभाला, “भई कवि जी तो कोरस में गीत गाते हैं। पर कुछ समझे आप लोग? कैसे समझ सकते हैं? अरे, कवि की बात सबकी समझ में आ जाए तो वह कवि काहे का? उनकी कविता में से शाश्वत के स्वर फूट रहे हैं।”
बिन हड्डी के हुआं-हुआं करने और हुआं-हुआं को शाश्वत स्वर समझने वाले कितने हैं आपके आस-पास? आस-पास नहीं तो टिप्पणी बक्से में तो आते होंगे?
जो भी हो एक बात है इस मार्केट की उठा-पटक में किसी भी इनवेस्टमेंट पर गारंटीड़ रिटर्न और कहीं मिले न मिले हिन्दी ब्लॉगिंग में जरूर है ! हुआं-हुआं फॉर्मेट ही सही।
मेरे कहने से कुछ बदल नहीं जाएगा। मैंने पहले भी एक बार कहा था कि एक ब्लोगर के विचार बस टिप्पणी बटोर सकते हैं हाँ मेरा गुस्सा थोड़ा जरूर कम हो जाएगा और मैं फिर चुपचाप आँख बंदकर निकल लूँगा। ब्लॉग पर गुस्सा लिख देना भी परफ्यूम छिड़क लेने जैसा ही नहीं है?
कुछ फलानेवादी टाइप के लोग होते हैं जो हर बात का एक ही कारण बताते हैं। वैसे ही जैसे आजकल ग्लोबल वार्मिंग का भी बहुत फैशन है। इस वाद के लोग गर्मी हुई तो ग्लोबल वार्मिंग, बारिश हुई तो भी और ठंड हो गयी तब भी - सबका मालिक एक टाइप सबका कारण ग्लोबल वार्मिंग । कल पटना में मुझे एक ऑटो वाले ने बताया ‘अच्छा हुआ बारिश हो गयी अब भूकंप नहीं आएगा’। मैंने पूछा वो कैसे? तो बताया: ‘अरे आपको नहीं पता? ये सब गर्मी से होता है।’ झील सुख गयी तो, भर गयी तो भी। वो तो फिर भी ठीक है शायद किसी तरह जुड़े हुए भी हों ग्लोबल वार्मिंग से। अब हम भूगोल के विद्यार्थी तो थे नहीं इसलिए इस पर कमेन्ट नहीं करना चाहिए लेकिन कल एक लड़का-लड़की साथ भाग गए और कोई कह रहा था “क्या जमाना आ गया है ! ग्लोबल वार्मिंग से ये सब थोड़ा ज्यादा ही बढ़ गया है पहले कम होता था”। अब ये कैसे रिलेटेड है मेरी समझ के बाहर था !
हर बात का ना तो कारण ही एक होता है ना समाधान ही एक ! अगर हर समस्या का कारण ग्लोबल वार्मिंग और समाधान अनुलोम-विलोम हो जाये तो दुनिया बड़ी आसान हो जाती। नहीं? किसी ने मुझे बताया था कि अनुलोम-विलोम करने से उसे गर्लफ्रेंड मिल गयी ! होता भी होगा – न भी हो तो अनुलोमविलोमवादी तो कहेंगे ही।
मैं खुश हूँ कि मैं गिने हुए दर्जन भर ब्लॉग पढ़ता हूँ। और उन दर्जन में से कइयों को ये पता भी नहीं है कि मैं उन्हें पढ़ता हूँ। मैं *$%^वादी ब्लोगरी से दूर हूँ (*$%^ की जगह आपको जो मर्जी आए भर लें !)। अगर दिखे भी तो आँख बंद करने की आदत जो है। गंदगी सफाई अभियान वाले लगे रहे – फैलाने वाले भी लगे रहें।
सतीशजी के ओढ़निया पर कहीं हुई चर्चा को देख मन भटका तो मन को कीबोर्ड से जोड़ दिया। पटनहिया पोस्ट इस ब्रेक के बाद जारी रहेगी
आज सुबह ऑटो में इतनी सुंदरियाँ बगल में बैठी थी। मैं फोटो खींचने लगा तो ऑटो वाले ने कहा - ‘मोबैल में रखके का माजा आएगा। उ भी फोटो से फोटो खेञ्च रहे हैं - त बर्हिया नहीं नू आएगा। कहिए तो दिला दें बरा वाला पोस्टर। लगा लीजियेगा देवाल प’।
~Abhishek Ojha~
*पोस्टोपरांत अपडेट: अभी पता चला कि ये चिड़िया खड़िच या खड़िलीच के नाम से जानी जाती है।
मस्त पोस्ट! पटनहिया खिस्सा से जरा भी कम नहीं.
ReplyDeleteपढ़कर जेतना आनंद आया है, ऊ शब्दों में बता पाना असान नहीं है एही लागी बता नहीं रहे हैं हम.
ओढ़नियाँ ब्लागिंग से भी दुनियाँ अबाद है.
'ओढ़निया ब्लॉगिंग' के टेंट में एक और गीत की फरमाइस की जा रही है जिसे 'पेस' ( पेश नहीं) करते हुए कहिनाम है -
ReplyDeleteबीस रूपिया झुल्लन टेलर, रहरिया सराय वाले से, दस रूपइया चौरसिया पान भण्डार, मुहल्ला मौकापुर से और तीस रूपईया बब्बन मेडिकल अस्टोर, निपोरगंज से।
आप सब को सुकिरिया अदा करते हूए कहनाम है कि....कि...कि
आरेssss.....
पिया गये हाबड़ा बाजार sss
झुलनी लाये छोट जी :-)
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जियो रे.....करेजा काट....हुर्ररररर :-)
अनुराग शर्मा अच्छे इन्सान है .....सतीश पंचम भी .......उन दोनों को किसी सनद की जरुरत नहीं...!
ReplyDeleteपर हिंदी ब्लॉग्गिंग में अब भी उम्रदराज बच्चे मौजूद है .....उब होती है !
और जो किसी के पास परफ्यूम ना हो तो क्या करे कोई....:)
ReplyDeleteअच्छा लगा,पढ़कर...अपनी स्टाइल से हटकर लिखा है...
अच्छा चिपका दिया है जनाब.
ReplyDeleteदीवार पर पोष्टर लगाया कि नहीं ?
ReplyDeleteवैसे क्या आपके मोज़े में छेद है ? मेरे दोनों मोजो में है जिसमे से मै अपने पैर डालता हूँ!
मोजे में छेद सड़क के कारण भी हो सकती है। अन्य कारण भी हो सकते हैं। ई सब ब्लगवा पर हो का गया है…
ReplyDeleteअभी मैनें ‘मेरे बारे में’(दाहिने तरफ़) पढ़ा---अच्छा लिखा है --एक सीधा सादा इंसान ...
ReplyDeleteजो भी हो एक बात है इस मार्केट की उठा-पटक में किसी भी इनवेस्टमेंट पर गारंटीड़ रिटर्न और कहीं मिले न मिले हिन्दी ब्लॉगिंग में जरूर है ! हुआं-हुआं फॉर्मेट ही सही।
ReplyDeleteकल की हालत देखकर तो सोने चांदी से भी सुरक्षित इन्वेस्टमैण्ट लग रहा है यह.:)
रामराम.
चिड़िया वाली बात आप जानें, हमने तो ’काटे चाटे श्वान के दोऊ भाँति विपरीत’ वाली बात सुन रखी थी। खैर, ज्ञान तो बढ़ा ही है। ऐसी पोस्ट मैं भी लिखना चाह रहा था, नहीं लिखी तो इसलिये कि हमेशा ज्यादा देर तक अपने से शराफ़त वाली भाषा बोली-लिखी नहीं जाती। ये भी मालूम है कि लिखता अनुराग जी के हक में लेकिन दुख भी उन्हें ही होता।
ReplyDeleteहर घटना कुछ सबक देकर जाती है, पुराने लोगों की नई पहचान पता चली। भाषा के बदलते स्वरूप के बारे में पता चला कि असभ्य भाषा क्या है और सभ्य भाषा क्या है। और भी बहुत कुछ है, वह सब फ़िर कभी। मौके आते रहेंगे क्योंकि कुछ चीजें कभी नहीं बदलतीं।
जबाबी कव्वाली जारी आहे। आनन्द बरस रहा है।
ReplyDeleteई पोस्ट में अटक-अटक के मजा आता है। सरपट नहीं भाग रही है आटो वाली की तरह!
ReplyDeleteई पोस्ट में अटक-अटक के मजा आता है। कहीं-कहीं रुक के दिमाग भी लगाना पड़ता है। सरपट नहीं भाग रही है आटो वाली की तरह!
ReplyDeleteagila post parveen baboo likhihen. Tani doosariyo log jawabi kauwali ke maza le #) - baan banarasi
ReplyDeletebaanbanarasi.blogspot.com
vaise parveen baboo bilag jagat me sabse kam invest kar ke sabse adhika riturn lelen.
ReplyDeleteBaanbanarasi.blogspot.com
इन दिनों आपके पटना हिलेला पोस्टों की बड़ी चर्चा है ..कायदे से पहले उन सारी पोस्टों को पढ़ना था ..मगर बात ई है कि फरमाईश जो न करादे ...मुझसे फरमाईश हई कि ओझा जी की इस पोस्ट को बांच लिया जाय ...
ReplyDeleteसब कुछ अपने ऊपर लेके सबके ऊपर ओढ़ाय दिए ओढनी.....हम सब समझत बानी :)
और ई पक्षी का नाम खंजन(wagtail) भी है! ......और कुल प्रवासी पक्षी सायिबेरिये से ही नहीं आते हे अभिषेक बाबू !
“ सैंया बिलमि रह्यो पटना मा देखेउ कहाँ ओढ़निया हो?” ~ नौटंकी की आवाज :)
ReplyDeleteअबै तौ आप बूढ़-गदेला हैं, तब पकी जवानी तौ गजबै होइहै!!
परवीन उपद्धा जी केरी निगाह बड़ी पैनी अहै, बड़ी माइनूड चीजैं पकरत हैं!
ई उसी कड़ी में ही है,
ReplyDeleteचौचक पोस्ट.
पहिले ता बुझैबे नहीं किया कि बात का है....ओढनिया देखने जाना पड़ा...नचनिया वाला जो सीन खींचे हैं न सतीश जी...ओह जबरदस्त...एकदम आँखों के आगे सीन साकार हो गया मानो...
ReplyDeleteआपका उदहारण भी सुभाने अल्ला है.. बहुत सही कहे...गन्दगी से बचके परफ्यूम छींट आगे बढ़ जाने में जादे ही बिस्वास करते हैं लोग..लेकिन यह प्रवृति अंततः एक दिन ऐसे गड्ढे में ले जाकर पहुंचा देती है,जहाँ परफूम का डराम भी बेकार बेअसर हो जाता है...
का कहेंगे भैया, अपना अपना सोच और समझ है और सबका ही अपना अपना एजेंडा है अच्छा बुरा सही गलत कौन कहे...
जबरदस्त!!
ReplyDeleteसच!!
दोनों को यहाँ पर्यायवाची जैसा इस्तेमाल कर सकते हैं।
@अक्सर गंदगी पर परफ्यूम छिड़क आँख बंद कर निकल लेता हूँ।....बहुत कुछ कह गई यह लाइन!
ReplyDeleteब्लोगिंग मे कनपुरिया,बनारसी और पटनिहा शैली ख़ूब निखर रही है.
पंद्रह मिनट का टैम हमहुक देव,टहल के आके टिपियाते हैं !
hamra paas ta shabde nahi hai kuch kahe la
ReplyDeleteपरफ़्यूम अच्छा है! ब्रांडेड!
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