'सर चलिये न... आज आपको एसी बस से ले चलते हैं' राजेशजी मुझे नयी चमचमाती बस में ले गए। शायद बस का सड़क पर पहला ही दिन था। पुजा के बाद बनाए गए स्वास्तिक का सिंदूर अभी भी बस के शीशे पर मौजूद था और शंकर भगवान की प्रतिमा पर चढ़ाये गए चमेली के फूलों की माला के साथ-साथ गेंदे की बनी लड़ियों के फूल अभी भी ताजे ही थे। लोगों के आने-जाने से बने पैरों के निशान के अलावा बाकी बचा चमचमाता फर्श भी इसी बात की गवाही दे रहा था. लेकिन पर्दा और पंखा लगी बस में एसी जैसी कोई चीज नहीं थी।
'एसी तो है नहीं इसमें?' मैंने पूछा।
'... अरे सर उ का है न कि बसवा का नामे है मिलन एसी कोच। हे हे हे' - राजेशजी ने अपनी मुस्कराहट को हंसी में परिवर्तित करते हुए बताया।
'‘है गाँधी मैदान ! हर एक माल 10 रुपया' खलासी गेट पर खड़ा चिल्ला रहा था।
'अबे हर एक माऽल काहे बोल रहा है रे... तनी इस्टाइल से बोल - दस रुपया मूरी हाथ गोर फीरी' - गेट के समीप पहली सीट पर बैठे एक व्यक्ति ने उसे समझाया। शायद वो भी बस का स्टाफ था.
'दस रुपया मूरी, हाथ गोर फीरी। का समझे?' राजेशजी ने मुझसे सवाल किया। राजेशजी हमेशा सामने वाले को सोचने-समझने का भरपूर मौका देते हैं।
'किराया दस रुपया है?' मैंने बताया।
'हाँ, यही तो खासियत है एसी बसवन का...कहीं से कहीं जाइए दसे रुपया। टेम्पू वाला को क्भी बोलते सुने है नीचे बीस ऊपर दस.’
‘नहीं कभी सुना तो नहीं. लेकिन टेम्पू वाले कैसे ऊपर बैठाएंगे ?’
‘अरे दूर जाने वाला विक्रमवन सब एक सवारी त ऊपर बैठाईये लेता है माने जब जादे पसेंजर रहता है तभी. हाजीपुर साइड में जाइयेगा त दिखेगा. ऊपर बैठ के एसी आ व्यू दोनों का का मजा दसे रूपया में. हा हा हा ! ’. बगल से एक टाटा स्टारबस गुजरी जिसके पीछे नीले रंग से बड़े-बड़े अक्षरों में वॉल्वो लिखा हुआ था। उसके नीचे काले अक्षरों में लिखा हुआ था ‘बुरी नजर वाले तेरा बेटा भी जीए, तू भी पीये तेरा बेटा भी पीये’ राजेशजी ने मुझे दिखाया। और बोले:
'देखिये ई दूर जाने वाला एसी बस है। उसमें दो तरह का बस होता है अभी भोलभो नया-नया चला है इसके पहिले जादे करके भीडियो कोच ही चलता था।… आ इ लिखने वाला तो जो कलाकार होता है न… लेकिन एक बात है मिटाने वाला उससे भी बड़ा होता है. जानते हैं… एक बार बुरी नजर वाले तेरा मुंह काला में से मुंहे मिटा दिया. अब बुरी नजर वाले तेरा मुंह काला पढके हमको ऐसा चीज याद आ गया कि… आपको का बताएं… हंसीये नहीं रुका था दू घंटा तक….'
'लेकिन ये तो टाटा की बस है, वोल्वो कैसे हुई?' - मैंने उनकी बात पर मुस्कुराते हुए पूछा।
'अरे त भोलभो माने एसीये बस न हुआ, बढ़िया वाला एसी बस को भोल्भो कहते हैं - बस तो सब टटे का ना आएगा' राजेशजी ने समझाया।
'अच्छा… वैसे वीडियो कोच में वीडियो दिखाते हैं?' - मुझे शंका हुई।
'हाँ हाँ... जादे करके एक्सन फिलिम दिखाता है. माड-धाड़ वाला. लेकिन कवनों-कवनों में बस एक ठो खाली जगह बना दिया है टीवी रखने का। अब देखिये… बस तो ई भी बना है एसी चलाने के लिए। ऐसा है कि जब बस का बाडी बनता है तबे नाम रखा जाता है... किसी का एसी कोच, किसी का भोलभो आ किसी का ?' राजेश जी प्रश्नवाचक दृष्टि से मेरी ओर देखने लगे।
‘वीडियो’ - मैंने राजेशजी के अधूरे वाक्य को पूरा किया। 'आपके कहने का मतलब ये है कि इन बसों के नाम ही हैं एसी कोच, विडियो कोच और वॉल्वो ?'
'हाँ नामे न रखता है सब ! लगता है आप समझे नहीं... बस का बाड़ी भी ओइसने है लेकिन अब मालिक नहीं लगवाएगा एसी आ विडियो त कहाँ से चलेगा ? अब जहाँ ड्राइवर बैठा है उहाँ पायलट लिख देता है त थोड़े न पायलट आएगा बस चलाने… हा हा हा' - राजेशजी ने मुझे समझाया। मैंने वॉल्वो के बारे में और ना पूछना ही बेहतर समझा। मुझे याद आया जब मैं पटना नया-नया आया था तब एक पान की दुकान वाले ने मुझे पानी बोतल देते हुए कहा था - 'ई भी बीजलेरिए है लेकिन दूसरा कंपनी का है' उसी प्रकार मैंने मान लिया कि है तो भोल्भो ही लेकिन टाटा कंपनी का !
'भारा बढा दीजियेगा’ - कंडक्टर ने मुझसे कहा।
'तू आते ही पैसा माँग लिया कर... सवारी सब खिसियाएगा कि नहीं? थोरा देर बईठ लेने देगा तब न मांगना चाहिए... और जो गांधी मैदान दस रुपया बोल रहा है त कोई आएगा बइठे? इहाँ से कौन देगा दस रुपया? उधर से आते समय चिड़िया घरवा के बाद से खाली गांधीये मैदान बोल। दूर का कोई भी दस रूपया दे देगा लेकिन नजदीक का कौन देगा !' - राजेशजी ने कंडक्टर को फ्री की कंसल्टेंसी दी।
'उ पांडे को जानते हैं सर ?' - कंडक्टर को समझाने के बाद उन्होने मेरी तरफ अति उत्सुकता से देखते हुए कहा। राजेशजी को बड़े अद्भुत विचार आते हैं और यूं तेजी से कह देना चाहते हैं मानो तुरत भूल जाएँगे और कहीं अगर ऐसा हो गया तो सृष्टि में कहीं कुछ उथल-पुथल न हो जाए। ऐसा ही कुछ उनके दिमाग में फिलहाल चल रहा था जिसे वो बक देना चाहते थे.
'हाँ - वो जो कल पांडेजी आए थे वही न' - मैंने कहा.
'हाँ वही... सब समय-समय का बात है सर... उ पड़इया अब पांडेजी हो गया है !' बड़े निराश से दिखे राजेशजी। इस तरह निराश वो कम ही दिखते हैं। उनकी सारी उत्सुकता जैसे फुर्र हो गयी.
‘जूनियर इम्प्लोयी से बड़े बुरे तरीके से बात करते हैं वो. प्यार से बात करने से सब काम हो जाता है लेकिन….’ - कल की कोई बात याद करते हुए मैंने कहा.
‘अरे नहीं सर ऊ त ठीके है. बिना उसके इहाँ काम चले वाला है? इहाँ नहीं चलेगा आपका परेम-मोहबत. आप नहीं समझेंगे यहाँ का मनेजमेंट… यहाँ परेम देखाइयेगा त जूनियर एम्प्लाई आपका बेटीओ लेके भाग जाएगा’ - उन्होंने मुझे एक बार फिर समझाया.
'जानते हैं सर... हमलोग एक्के गाँव के हैं... बरी धूर्त आदमी है इ पड़इया... लंदर-फंदर वाला आदमी है। उ आपके साथ रहा न त... ओइसही करेगा जईसे सल्य करन को कर देता था। अब आपे बताइये करन किसी मामले में अरजुन से कम था?' उन्होने कुछ यूं आत्मविश्वास के साथ कहा जैसे कर्ण और अर्जुन दोनों के साथ उनका रोज का उठना-बैठना था। राजेशजी में एक अद्भुत गुण है वो कुछ बोलकर इस तरह प्रश्नवाचक दृष्टि से आपकी तरफ देखते हैं कि आप उनसे असहमत हो ही नहीं सकते !
'हमको वही नहीं बढ़ने देता है. नहीं तो जइसा एक्सपीरिएंस है कहाँ से कहाँ गए होते. हमारे मोटरसाइकल पर ही घूमा है साला जिनगी भर। ओही ज़माना से जब हमारे बाबूजी येजदी खरीद दिये थे...
उस जमाना में दू गो त मोटरसाइकिले था येजदी आ जावा। आ तीन रुपया किलो पेटरौल... उस समय गाडीये कहाँ होता था… जब हमलोग छोटा थे त गाँव में या त भोट के परचार वाला गाड़ी आता था नहीं त बालू ढोने वाला टेकटर... आ उस पर दौड़ के किसी तरह जो है सो… हमलोग चर्ह जाते थे...' बात पड़इया से चलकर उस जमाने में पंहुच गयी.
'चर्ह त जाते थे लेकिन अब उ थोरे ना रोकेगा आपके लिए। त अब उसी में अपना किसी तरह… जो है सो… कूदना पड़ता था' ये बोलते समय उनके चेहरे पर चमक देखने लायक थी। 'जो है सो कूदना पड़ता था' बोलते सामय उन्होंने अपना सर गोलाई में घूमा कर यूं धप से गर्दन नीचे किया जैसे सर ही गाड़ी से गिर गया हो। अपने चेहरे पर फूटे नाक-आँख की अजीबोगारीब आकृति बनाते हुए उन्होने आगे बताया 'उसके बाद नाक-हाथ जो टूटे लेकिन अगले चार दिन तक जो खुशी होती थी कि गारी पर चढ़े हैं उ मत पूछिए - उ सब भी एगो समये था' पानी पीकर एक ठंडी आह भरी उन्होने। वो अपना गिलास साथ लेकर चलते हैं। स्टील के गिलास की तरफ दार्शनिक की तरह देखते हुए उन्होने आगे बताया:
‘ई जब नया आया था न सर… त नेपाल से स्मगलिंग होके आता था - आ जिसके घर में आ गया समझिए कि... स्टील का बरतन !... बाप रे...आ उसके पहले जस्ता जब आया था तब त लोग समझते थे कि चानिए का बर्तन है। जानते हैं? स्टील का त एगो चाय का कप आता था कि आधा पहिले से ही भरल... कई लोग त बोलते थे… आरे एतना चाय नहीं कम कराइए... नहीं मालूम होता था सबको कि बस देखने ही में बड़ा है’ हँसते हुए उन्होने बताया।
‘आ असली मजा त उसके भी पहिले आता था जब चाय दू-चार घर में ही बनता था... माने जो थोड़ा सम्पन्न टाइप के लोग थे... ई पड़इया के बाप-दादा जैसे लोग आइडिया लगाते फिरते थे कि केतना बजे कहाँ चाय बनेगा... आ आके डेरा डाल देते थे।
अब कप तो घर में होता नहीं था... हुआ भी त किसी का हंडिल टूटा त किसी का मुंहे नहीं... अब उसी में चाय दिया जाता था। आ जिसको फूल के गिलास में मिल गया उसका त समझ जाइए कि… गमझा से दूनों हाथ में गिलास पकड़े-पकड़े...’ दोनों हाथ से गिलास पकड़ने का अभिनय करते हुए राजेशजी लोट-पोट हो गए।
'चाय ठंडा जाये लेकिन उ साला गिलास कभी नहीं ठंढाएगा'
धन्य हो राजेशजी का ज्ञान वरना लोगों ने तो मुझे भी सजेस्ट किया था कि ‘भोलभो से बिहार घूम आइये’. उस जमाने की बात के चक्कर में पड़इया से पांडेजी हुए व्यक्ति की बात अधूरी ही रह गयी !
~Abhishek Ojha~
पटना प्रवास के आखिरी सप्ताह का दूसरा दिन !
पटना सीरीज
ई सब पटना प्रवास में ही संभव है--
ReplyDelete@@... अरे सर उ का है न कि बसवा का नामे है मिलन एसी कोच। हे हे हे'
...जानदार पोस्ट,आभार.
आप नहीं समझते हैं लेकिन राजेश जी तो समझते हैं सब बात। अब देखिए। जइसे पेप्सोडेंट है, झूठ-मूठ का लाल, उजला, हरा अलग-अलग नाम से बेचा जाता है, लेकिन है सब एके माल। चाहे पेप्सी, थम्स-अप, लिम्का आदि नाम से तनी-मनी रंग-स्वाद बदल के एके चीज एके कम्पनी अलग-अलग नाम से बेचकर ठगती है। ई सब बाजा का परम ज्ञान राजेश जी से ले लीजिए, आगे काम आएगा। आ ई मजाक मत उड़ाइएगा उनके सही उच्चारन का। काहे से कि V को भी कहना परम्परा है सैकड़ों साल पुरानी…चाय वाला कहानी सुन के बताइएगा, पड़इया वाला…
ReplyDeleteआपकी पटनाही पोस्ट पढ़कर हँसने के सिवा और कुछ सूझता नहीं. टिप्पणी तो मात्र औपचारिकता होती है कि भई हमने ये पोस्ट पढ़ ली. हाँ, स्टील वाले चाय के कप से कहीं पढ़ा एक संस्मरण याद आ गया, किसी ने सोचा बढ़ी ढेर सारी चाय मिली है और जब चाय जल्दी खत्म हो गयी तो कप में झांककर बोले "अरे जामे तो छत्त डरी है" :)
ReplyDeleteतीसरी कसम में हीरामन को 'चाह' पीते देखे हैं कि नहीं ?
ReplyDeleteफारबिसगंज की सड़क पर हीरामंन एक चायवाले से एक लोटा 'चाह' मांगते हैं और साथ ही हीराबाई से कहते भी हैं - जवान आदमी को चाह नहीं पीना चाहिये :)
मस्त राप्चिक पोस्ट है जी, एकदमै राप्चिक।
पुणे में हमने भी एक वडा पाँव का ठेला देखा था, बोर्ड लगा था "इंडियन बर्गर किंग"!
ReplyDeleteमस्त राप्चिक पोस्ट है जी, एकदमै राप्चिक।
तत्वज्ञानी हैं राजेश जी और बढि़या सत्संग लाभ मिल रहा है आपको.
ReplyDeleteआपके पटना प्रवास के बाद...आपकी पोस्ट में सब राजेस जी को बहुत मिस करने वाले हैं..:)
ReplyDeleteविदेश का सूखापन अब जाकर मिटा है, पटना में।
ReplyDeleteभैरी भैरी भिज़्डमफ़ुल हैं राजेस जी, हम उनके फ़ोलोभर बनना चाहते हैं।
ReplyDeleteराजेस जी तो खतरनाक भयंकर हैं। :)
ReplyDeleteजबरदस्त सीरीज है।
बॉडी पहले बनाते हैं और एसी बाद में लगाते हैं - बहूत नाइंसाफ़ी है! एक डॉलर पर किलो पैटरोल तो हम भी देख रहे हैं!
ReplyDeleteफ़ूल का ग्लास :)
लगे रहो भाई। ये पटना क्रोनिकल्स कभी न कभी एमए हिन्दी में पढाये अवश्य जायेंगे। उस दिन के लिये "क्रोनिकल्स" की सर्वश्रेष्ठ हिन्दी अभी से ढूंढकर रख लो, न मिले तो राजेस जी की डूटी लगा दो.
पटना का इज़त बढ़ा दिए हो. आजके पटना पर लेख का चरचा होगा ता तुम्हारा ई लिखवा सब इनक्लूड किये बिना कहानी पूरा नहीं होगा.
ReplyDeleteई ससुर भोलभो बस तो नयका चीज़ हवै ,एकदम सन्नाट पोस्ट !
ReplyDeleteअब तो कई किसिम की भोल्भो आ गयीं हैं मगर भोल्भो का बिल्ला ऐसा कि सब पर चिपक गया है !
ReplyDeleteइत्ता बढ़िया ब्रांडिंग तो कोइयो किलास में नहीं पढाया गया है जी...
ReplyDeleteटाटा की भोल्भो तो एकदम टनाटन है.
एसी और भोलभो बस के जात्रा में मजा आ गइलबा।
ReplyDelete------
तत्सम शब्दावली में खदबदाता विमर्श...
...एड्स फायदे की बीमारी है।
भारत एडजस्टमेंट ओर जुगाड़ का देश है ......यानि इनोवेटिव प्रतिभायाओ की कमी नहीं है ....हमारे यहाँ !!
ReplyDeleteपिछली कडियों को भी पढती हूं .. फिर समझ में अच्छी तरह आएगी बात !!
ReplyDeleteअच्छा, विक्रम में भी डबल डेकर चलता है। यह बहुआयामी इनोवेशन तो शुद्ध पूर्वांचल-बिहार में ही सम्भव है!
ReplyDeleteऔर पोस्ट तो जबरदस्त लाजवाब है! :)
रोचक पोस्ट, पढ़ कर मज़ा आया, आपके लिखने का अंदाज़ भी बढ़िया लगा। कदाचित् यहाँ पहली बार आया हूँ तो इसलिए विचरने का पिरोगराम है कि और क्या पढ़ने के लिए मसाला है। :)
ReplyDeleteदीपावली केशुभअवसर पर मेरी ओर से भी , कृपया , शुभकामनायें स्वीकार करें
ReplyDeletetanatan lekh ba ho abhishekh babu...
ReplyDeletet a p c h i k
य़े है बिहार का कमाल है । टाटा कंम्पनी का भोल्भो । एसी कोच विड्यो कोच सब नाम के काम के नही ।
ReplyDeleteवैसे पटना सीरीज़ सही जा रही है ।
य़े है बिहार का कमाल है । टाटा कंम्पनी का भोल्भो । एसी कोच विड्यो कोच सब नाम के काम के नही ।
ReplyDeleteवैसे पटना सीरीज़ सही जा रही है ।
पोस्ट अच्चा लगा । मेरे पोस्ट पर आपका स्वागत है ।
ReplyDeleteदीपावली की शुभकामनाएं ।
ई पोस्टिया तो हम पढ़े थे। कमेंट काहे नाहीं किये..!
ReplyDeleteढेर मस्तिया गये होंगे एसी में बईठ के।
bhut khoob..........ise padkar to hume b patna darsan ki iccha hoyi rhi h........
ReplyDeleteगजनट है पोस्ट! :)
ReplyDeleteVery beautiful post....
ReplyDeleteपटना के सारे भाग बहुत ही रोचक और सम्मोहित करने
वाले हैं 👀