मार्च का महिना कटाई-मड़ाई का सीजन होता है तो हम भी खेती-बाड़ी का हाल देखे आये. वैसे तो ट्रैक्टर से अनाज निकलने का काम कई सालों से हो रहा है पर नजदीक से देखने का मेरा पहला अनुभव था. इससे पहले थ्रेसर ही देखा था. पता चला पहले जो काम रातभर में भी नहीं हो पाता था अब वो घंटे-दो घंटे में हो जाता है. पहले लोग पछुआ हवा का इंतज़ार करते थे, करते तो अभी भी हैं पर अब वो कोई बहुत बड़ा फैक्टर नहीं रहा. मतलब ये कि कोई भी हवा चल रही हो उसमें मौजूद नमी का कुछ ख़ास असर अनाज निकलने की प्रक्रिया पर नहीं होता. सुना है अब हार्वेस्टर से यह काम और आसान हो गया है. खड़ी फसल से ही अनाज निकाल लिया जाता है. (पर फिलहाल शायद केवल गेंहू के लिए ही ये मशीन इस्तेमाल हो रही है कम ऊंचाई वाली फसल के लिए नहीं) बस भूसे का नुकसान होता है. पर कई लाभ हैं इसके... कटाई और फिर मड़ाई में दो स्तरों पर अनाज के रूप में दी जाने वाली फीस से काफी कम लागत पर काम हो जाता है (काटने वाले से लेकर मजदूर और ट्रैक्टर मालिक सभी अनाज में से एक हिस्सा लेते हैं). समय की बचत होती है वो अलग.
सुना है पहले यह काम बैलों से होता था एक महीने से ज्यादा समय लगता था. थ्रेसर से कुछ सप्ताह और अब दिनों से बात घंटो पर आ रही है. पर कई ऐसे किसान हैं जो अभी भी थ्रेसर पर अडे हुए हैं. और अभी भी थ्रेसरों की विक्री जारी है. पुराने थ्रेसर के खरीदार भी हैं मार्केट में. इसका सबसे बड़ा कारण है किसानों का दिन प्रतिदिन छोटा होना. जनसँख्या बढती जा रही है और बंटवारा होता जा रहा है. छोटे किसानों के पास २० साल पहले जीतनी जमीन होती थी उसकी तुलना में चौथाई से भी कम जमीन है. कैसी बिडम्बना है... तब बैल अब हार्वेस्टर !
मज़बूरी में कई किसान एक साथ मिलकर हार्वेस्टर बुलाते हैं. पर कैश पेमेंट करना अभी भी सबके बस की बात नहीं ! लिहाजा उन्हें पुराने तरकीब से ही काम करना पड़ता है. पूर्वी उत्तर प्रदेश के बदतर हो रहे हालात ने मजदूरों को बाहर जाने पर मजबूर किया है और खेती में काम करने वाले मजदूरों की भारी कमी है. मेरे बड़े पिताजी सेवानिवृत शिक्षक हैं और हमारे घर तो पूरी तरह मजदूर आश्रित रामभरोसे ही खेती होती है. खेती से जुडी उनकी भावनाएं अगर ना होती तो कब के खेत बटाई या फिर लगान पर दे दिए गए होते.
ट्रैक्टर से हो रही दंवरी (मड़ाई) देखकर कई सुधार दिमाग में घूम रहे थे लेकिन फोटो खीचते समय दिमाग में आया कि किसको सुझाया जाय. वैसे भी साधारणता एक ब्लॉगर के विचार टिपण्णी कमाने के अलावा और किसी काम के नहीं होते ! अब फोटो तो ब्लॉग पर डालने के लिए ही खीच रहा था. तो एक ब्लॉगर की हैसियत से चुप ही रहा.
क्या आप बता सकते हैं ऊपर कि तस्वीर में कौन सा अनाज है? अगर इसे पहेली माना जाय तो अशोक जी को छोड़कर बाकी लोगों के लिए ही :-)
~Abhishek Ojha~
हार्वेस्टर में सबसे बड़ी दिक्कत भूसे के नुक्सान ही की है ........जोकि कई किसानो के लिए बड़ा जरूरी होता है !!
ReplyDeleteआखिर यह उनके जानवरों के खिलाने के लिए साल भर का जरिया होता है !!
प्राइमरी का मास्टर फतेहपुर
साधारणता एक ब्लॉगर के विचार टिपण्णी कमाने के अलावा और किसी काम के नहीं होते !
ReplyDelete-यह सुन कर अजीब सा लगा..कोई भी विचार यूँ ही जाया नहीं होता..आज नहीं तो कल...कहीं न कहीं उपयोगी सिद्ध होगा ही. अगर सब यही सोच लें तो लेखन क्रांति का तो अंत हुआ ही समझो. कलम की ताकत जैसी बातें तो इतिहास हो लेंगी भाई.
उडनतश्तरी की टिप्पणी महत्वपूर्ण है। और यह गेहूँ ही है।
ReplyDeleteगरीब मजदूर भागेगा नहीं तो क्या करेगा।
ReplyDeleteये मशीनें हाथ से कामकरके पेट भरने वालों को सता रही हैं।
मशीनों ने मजदूर को बेकार और निकम्मा बना दिया। कुछ के लिए अच्छी है मशीनी क्रांति, पर कुछ के लिए आत्मह्त्या का कारण है।
बिजली और प्रदूषण अलग।
हमारे बचपन में फसल कटाई के समय मजदूर ढूंढे से नहीं मिलते थे।
@उड़न तश्तरी: इसीलिए तो मैंने 'साधारणता' शब्द लगाया था. वैसे आपकी बात बिलकुल सच है. जल्दीबाजी के पोस्ट में ऐसा ही होता है. मैंने तो ये सोच के लिखा था की 'अब फोटो तो ब्लॉग पर डालने के लिए ही खीच रहा था.' अर्थात एक ब्लॉग पोस्ट से ज्यादा की क्रियेटिविटी नहीं थी उस समय :-)
ReplyDeleteभाई इस मशीनी युग मे आदमी भी धीरे धीरे काम करना भूल रहा है. आज गांव के बच्चे भी खेती किसानी के कामों के बारे मे नही जानते जबकि हमारे हाथ आज भी कडक हैं.
ReplyDeleteरामराम.
विचार टिप्पणी कमाने के आलावा बहुत कुछ नयी जानकारी भी दे देते हैं:) बहुत वक़्त पहले गांव में यह सब बहुत उत्सुकता से देखते रहते थे .अब तो सिर्फ चित्र रह गए हैं ..गेहूं ही है यह ..
ReplyDeleteबहुत जबरदस्त पोस्ट.
ReplyDeleteमैंने थ्रेसर तक देखा है. उसके पहले बैलों को लगाकर कांटेदार मशीन चलाई जाती थी. मशीन पर बच्चे चढ़कर मज़ा लेते थे. उससे भी पहले केवल बैल फेरी लगाते थे.
ऊपर रखा अनाज मुझे सरसों लग रहा है. वैसे अशोक जी का इंतजार है. वे बताएं तो पता चले.
आपकी पोस्ट पढ कर हमें भी अपने बचपन के दिन याद आ गये, जब कभी कभी हम भी शौकिया मडाई में हिस्सा लेते थे।
ReplyDelete-----------
SBAI TSALIIM
gramin jeevan ko kareeb se dekhne ka mauqa nahin mila hai. Aapki is post se katai ke tareekon mein aaj ho rahe badlav ki jankari mili. dhanyawaad.
ReplyDeleteUdan Tashtri ji aur Tau Rampuriya ji ki baat bilkul sahi hai...
ReplyDeleteachhi post...
वैसे भी साधारणता एक ब्लॉगर के विचार टिपण्णी कमाने के अलावा और किसी काम के नहीं होते!----------
ReplyDeleteथ्रैशिंग अपार्ट, यह पंक्तियां ज्यादा बढ़िया थ्रैशिंग कर रही हैं। :)
और मुझे कहने की जरूरत नहीं कि मैं सहमत हूं!
हम भी पिछले दो सालों से अपना गेहूं हार्वेस्टर से ही कटवा रहे हैं। मजदूर कम मिलते हैं और हमारे यहां बिजली की भी घोर किल्लत रहती है। जितने दिन गेहूं की फसल खेत में खड़ी रहती है किसान की जान सांसत में रहती है कि कब ओले पड़ जाएं या आग में सबकुछ स्वाहा हो जाए। ऐसी स्थिति में भूसा के नुकसान का घाटा देखते हुए भी थ्रेसर की तुलना में हार्वेस्टर से कटाई में लाभ ही लाभ दिखता है।
ReplyDeleteआप ट्रैक्टर से दवरी की जो बात कह रहे हैं, उसमें भी थ्रेसर की जरूरत पड़ती है जो आपके फोटो में भी दिख रहा है। यह बिजली से चलनेवाले थ्रेसर से कई गुना अधिक क्षमता वाला होता है और हमारे यहां इसे बोलचाल की भाषा में हाबा-डाबा कहते हैं। और आप बिल्कुल सही कह रहे हैं, यह किसानों के लिए बहुत महंगा पड़ता है। इसीलिए इसे मजबूरी में ही लोग अपनाते हैं।
हमारे यहां छोटे-छोटे जोतों को देखते हुए इस तरह के छोटे हार्वेस्टर की सख्त जरूरत है जो भूसा भी तैयार कर दे। लेकिन हमारे यहां कृषि अनुसंधान की जो हालत है, अब उसका क्या कहा जाए।
हार्वेस्टर से धान भी कट जाता है। लेकिन यह उन्हीं खेतों में संभव हो पाता है, जिनकी मिट्टी में नमी पूरी तरह समाप्त हो चुकी हो। अन्यथा वजनी होने के चलते इसके पहिए मिट्टी में धंसने लगते हैं।
आपने अपनी छुट्टी का कुछ समय धरती मां के आंचल में भी बिताया, बहुत अच्छा लगा। धन्यवाद।
अब तक कुछौ बचा रह गया है क्या कहने से !
ReplyDeleteआपकी इस पोस्ट पे वारा जा रहा था आखिर की कुछ लाइने गड़बड़ कर गयी .समीर भाई ने मेरे दिल की बात कही......
ReplyDeleteसही है समीर जी की टिप्पडी .वैसे देश हमारा कृषि प्रधान ऐसे ही नहीं है .देश का किसान अभी भी केवल इसी चिंता में है की कैसे फसलों को सुरछित घर के अंदर ले जाये .जरा सी चूक होने पर उसके बाल -बच्चे क्या खायेंगे साल भर और हम लोग भी .
ReplyDeleteमेरे बगीचे के बाद एक कच्चे रास्ते के बाद खेत ही दिखते हैं। जब वहाँ अनाज निकाला जाता है तो दिन रात लगातार यह काम होता रहता है। मैं देखती रहती हूँ। कटाई के दिनों में प्राय: एक गाड़ी निकलने वाली सड़क पर हार्वेस्टर चल रहे होते हैं और गाड़ी निकालने के लिए काफ़ी प्रयास करना पड़ता है।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
मगर आपका कोई भी लेख मैंने ऐसा नहीं देखा जो टिप्पणी कमाने के उद्देश्य से लिखा गया हो आप तो ज्यादार नई नई जानकारियां ही देते हैं
ReplyDeleteथ्रेशर से गांव में बीता बचपन याद आ गया...
ReplyDeleteऔर चित्र में शायद गेंहूं ही है...
शेष उस कथित विवादस्पद पंक्ति से मैं तो पूरी तरह सहमत हूँ
अलग विषय पर अच्छा लिखा है।
ReplyDeleteसत्य वचन
ReplyDeleteसाधारणता एक ब्लॉगर के विचार टिपण्णी कमाने के अलावा और किसी काम के नहीं होते !...aisa to nahi hai..kam se kam aap apni baat logo se share kar sakte hai...
ReplyDeleteटिपण्णी boht kuchh hai sab kuchh nahi....nice post....
सटीक एवं सार्थक पोस्ट
ReplyDeleteग्राम्य जीवन
ReplyDeleteमुझे, एक स्वप्न सा ही
लगता है -
आप नसीबवाले हैँ
जो घर की खेती से जुडी क्रियाएँ देख रहे हैँ
-अब बता भी दीजिये अभिषेक भाई, ये कौन सा अन्न है ?
- लावण्या