tag:blogger.com,1999:blog-88130751903268849262024-02-21T10:27:36.212-05:00ओझा उवाचOnce upon a time I tried to write ...Abhishek Ojhahttp://www.blogger.com/profile/12513762898738044716noreply@blogger.comBlogger191125tag:blogger.com,1999:blog-8813075190326884926.post-82611787130931924852021-12-31T23:13:00.001-05:002022-01-04T09:29:05.022-05:00सरल करें!<p>बचपन में किसी बात पर किसी को कहते सुना था – “अभी ये तुम्हारी समझ में नहीं आएगा। ये बात तब समझोगे जब एक बार खुद पीठिका पर बैठ जाओगे।” यादों का ऐसा है कि किस बात पर ये बात कही गयी थी वो अब याद नहीं, पीठिका शब्द किस संदर्भ में आया था वो भी याद नहीं। पर ये बात अब भी याद है। </p><p><br /></p><p>ऐसी कई बातें होती हैं जिनकी वास्तविक समझ बिना अनुभव नहीं हो पाती। ऐसी ही एक बात है परीक्षा में किसी को चोरी करते हुए देखना। जब तक आप विद्यार्थी होते हैं ऐसा लगता है कि कोई थोड़ी सी चोरी कर ही ले तो कौन सी दुनिया इधर की उधर हो जाएगी। पता नहीं क्यों इस बात पर प्रोफेसर हलकान होते हैं? या ये भी कि कोई थोड़ा सा इधर-उधर देख ही ले तो कौन सा किसी को पता चल रहा होगा। पर ये एक ऐसी चीज है जिसका पता लगाने के लिए कुछ करना ही नहीं होता। चोर की दाढ़ी में तिनका की तरह जो विद्यार्थी ताक-झाँक कर रहे होते हैं वो अक्सर ऐसी मुद्रा बनाते हैं जैसे किसी बहुत गम्भीर विषय पर सोच रहे हों। अपने बगल वाले की उत्तर पुस्तिका में झाँकते हुए कोई दिख जाए तो तुरंत सोचने की मुद्रा में आकर छत की तरफ देखने लगता है। कुछ तो हवा में हाथ से ऐसी-ऐसी मुद्राएँ बनाने लगते हैं जैसे हायर ड़ाइमेशन की किसी वस्तु को देखने की कोशिश कर रहे हों। जिन्हें लगता है कि वो आसानी से चोरी कर लेते हैं उन्हें कहाँ पता होता है कि वो इसलिए कर लेते हैं क्योंकि जिसे पकड़ना है वो करने देता है, इसलिए नहीं कि वो स्मार्ट चोर हैं।</p><p>एक शिक्षक के लिए इसे नजरंदाज करना बहुत कठिन होता है। असली दिक्कत ये होती है कि एक ईमानदार विद्यार्थी से अधिक अंक यदि चोरी वाले का आ जाए ऐसा होते तो नहीं देखा जा सकता। जब ग्रेडिंग रिलेटिव हो तब तो ये और कठिन हो जाता है। और अगर कुछ विद्यार्थी सामूहिक रूप से कोई प्रश्न हल कर दे तब तो ईमानदार सामान्य विद्यार्थियों की बैंड ही बज जानी है। </p><p>एक बार हमारे एक क्लास में भी ऐसा ही हुआ। एक असाइनमेंट का हल कई विद्यार्थियों का एक जैसा ही निकला! अब सबको अंक मिल जाए इस बात से तो मुझे कोई दिक्कत नहीं थी पर उस समाजवाद में जिन्होंने मेहनत कर ईमानदारी से हल करने की कोशिश की थी उन्हें ही कम नम्बर मिल जाते। ग्रेडिंग करते हुए पंच परमेश्वर कहानी की तरह लगा… ग्रेड का फैसला तो बिना भेदभाव वाला और न्यायप्रिय ही होना चाहिए। </p><p>हमने एक दो विद्यार्थियों से बात की तो वो साफ मुकर गए! एक ने तो ये भी कहा कि आपने ही तो कहा था कि पढ़ाई में एक दूसरे की मदद करो। तो एक दूसरे की थोड़ी मदद कर दी है। जमाना ही ऐसा है। मुझे ऐसे लगा जैसे किसी व्यक्ति को डॉक्टर सलाह दे कि स्वास्थ्य के लिए थोड़ा वजन कम करो और वो उसी पर चढ़ बैठे*: “मेरे बारे में ऐसे कैसे बोल दिया आपने? हम तो body positivity प्रैक्टिस कर रहे थे! बड़ी मेहनत से अपने शरीर को प्यार करना सीख रहे हैं।…” वगैरह. (*बीरेंदर ने <a href="https://www.amazon.in/-/hi/Abhishek-Ojha/dp/9389373565/" target="_blank">लेबंटी चाह </a>में बताया है कि चढ़ बैठने का अर्थ ये नहीं होता है कि कहीं चढ़ के कोई बैठ जाएगा। माने मुहावरा है।)</p><p>ऐसे में जब चीजों को क्वांटिफाई कर दिया जाए तो अक्सर (लगभग) दूध का दूध पानी का पानी हो जाता है। यदि समस्या को गणितीय रूप दे कर कह दिया जाए – “सरल करें” तो गणित का आदमी कर ही देगा। (जिन्होंने बचपन में गणित हिंदी माध्यम से पढ़ा हो वो ‘सरल करें’ का अर्थ समझ गए होंगे। हमारे एक गणित के शिक्षक कहा करते – सरल करने को कहा गया था तुम लोग सड़-ल कर दिए हो।) हम पढ़ाते भी मशीन लर्निंग हैं तो हमने सोचा मशीन लर्निंग से ही पता लगाया जाय कि किसके असाइनमेंट में कितना प्रतिशत किसके असाइनमेंट से चोरी है। </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEiuUtAStYlKqIo78f9M8zSASWaq6ruK7FbshDfuER5BOmubmX-m99OmBG18zuRet4JiAXjrpC8aHWCPiRyEt4ep4EL0gJlbkuYcEmiSoKmP8HMgE5zJwqc8st2zobIs5QbatLv_cl_Nb7T8_WDBvJLTUfJmBXfbarGXv3ePWZYP_XTJOCxzU6WVa4J5Vg=s1280" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="727" data-original-width="1280" height="182" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEiuUtAStYlKqIo78f9M8zSASWaq6ruK7FbshDfuER5BOmubmX-m99OmBG18zuRet4JiAXjrpC8aHWCPiRyEt4ep4EL0gJlbkuYcEmiSoKmP8HMgE5zJwqc8st2zobIs5QbatLv_cl_Nb7T8_WDBvJLTUfJmBXfbarGXv3ePWZYP_XTJOCxzU6WVa4J5Vg=s320" width="320" /></a></div><br /><p></p><p>जब ये पता लग गया तो मैंने क्लास में नम्बर देने का फ़ॉर्म्युला बता दिया। कोड दे दिया और कहा कि किसी को फ़ॉर्म्युले से आपत्ति हो तो सुधार करे। परिणाम लगभग सटीक था। उम्मीद से बेहतर। पूरी क्लास ने कहा कि ये तो शत प्रतिशत सच निकल आया! अब किसी को आपत्ति भी नहीं रही। इस तस्वीर में ४० विद्यार्थी हैं। १०० मतलब पूरा ही नकल, शून्य अर्थात् कुछ भी एक जैसा नहीं। जो लाल क्षेत्र में आए थे वो सन्नाटे का छंद हो गए। जो पीले में थे उनमें से कइयों ने बताया कि उन्होंने हल तो खुद से ही किया पर कुछ हिस्से में उन्होंने दूसरों से भी लिए। हरे वाले प्रसन्न!</p><p>वैसे अक्सर दो तरह के विद्यार्थियों पर ही पढ़ाने वालों का समय जाता है – एक जो पीछे पड़कर सीखते हैं। दूसरे वो जिनके पीछे पड़ना पड़ता है कि वो किसी तरह पास हो जाएँ। इस चार्ट के बाद भी यही हुआ।</p><p>ऐसा होना चाहिए ...जिससे हवा में उड़ने वालों को आइना दिखे! आजकल सोशल मीडिया पर जब रोज कुछ चीजें दिखती हैं तो अक्सर लगता है दुनिया कुछ तो सरल हो जाएगी जब चीजों को ऐसे हल किया जा सकेगा। जब लोगों को उनका पाखंड (हिपाक्रसी) स्पष्ट दिखने लगे। किसी के ट्वीट्स पर मॉडल लगा दो और वो बता दे कि ये आदमी ९० प्रतिशत पाखंडी है! 😊</p><p>जैसे एक तो मीडिया/बुद्धिजीवियों की <i>दुनिया रसातल को जा रही है </i>वाली बात। अभी पिछले दिनों ट्वीटर पर एक कविता दिखी। खूब पसंद की गयी। अर्थ कुछ ऐसा था जैसे …बचपन में इतना तो साफ पानी होता था। आने वाली पीढ़ियों को यकीन नहीं होगा कि संसार में कभी पीने को साफ पानी ऐसे मिलता था इत्यादि। वैसे कवियों के पास बिम्ब के नाम पर कुछ भी कहने का पेटेंट है तो हो सकता है कोई कह दे कविता में पानी का अर्थ पानी नहीं यूरेनियम हो। पर पानी को पानी ही माने तो आँकड़े ढूँढने पर पता चला बीते साल दुनिया में सबसे अधिक लोगों को स्वच्छ पीने लायक पानी मिला। पिछले कई वर्षों से हर वर्ष ही इस मामले में ऐसे रहे हैं – हर बीते साल से बेहतर। पानी से होने वाली बीमारियों का लगभग उन्मूलन हो चला धरती से। पर… अब कवि ही क्या जिसकी बात सीधी और सरल हो! </p><p>वैसे हर अच्छी बात की तरह डेटा अनालिसिस के नाम पर भी लोग कुछ भी करने लगे हैं। तीन लोगों से पूछ कर लोग डेटा अनलिसिस कर उसमें पैटर्न भी निकाल देते हैं! जैसे 'गीता में लिखा है' कह कर लोग कुछ भी अंट-शंट कह देते हैं वैसे ही आजकल डेटा अनलिसिस के नाम पर भी लोग कुछ भी कर देते हैं! इसमें एक समझदारी वाला काम इजराइल ने किया है कि विश्वविद्यालयों में स्नातक स्तर में किसी का विषय कुछ भी हो अब एक विषय सांख्यिकी का जरूर पढ़ाते हैं। </p><p><br /></p><p>वैसे जो दिन भर प्रॉपगैंडा फैलाते हैं ये कहते हुए कि हम तो निष्पक्ष हैं उन पर तो कोई भी मॉडल लगा दिया जाय तो उनकी सच्चाई के उजाले का अलकतरा निकल जाएगा। कितनी बातें बिना देखने की कोशिश किए भी दिख जाती है – कई बार कहने वाले कहने को तो सच ही कह रहे होते हैं (महीन चोर) पर …जैसे किस घटना के लिए कैसे एक व्यक्ति विशेष स्पष्ट रूप से ज़िम्मेवार होता है और वैसी ही किसी दूसरी घटना इसलिए हो जाती है क्योंकि पूरा समाज ही घटिया है। कौन सी बात में आपको कड़वी सच्चाई दिखती है और कौन सी बात ‘फनी’ लगती है! किस बात पर आश्चर्य चकित फील करना होता है किस पर ‘फकित’ (तुक बंदी नहीं किए हैं वो क्या है कि बिना इन सब शब्दों के ना तो कूल लगता है ना ही बुद्धिजीवी जैसा)। और कैसे किसी न्यूज़ पोर्टल के आलेख पर लिख दिया जाता है कि ये लेखक के निजी विचार हैं पर ये भी दिखता है कि पोर्टल को केवल एक ही प्रकार के निजी विचार वाले मिलते हैं। इनके पोर्टल की मानें तो भिन्न-भिन्न खोपड़ी में एक प्रकार की ही मति होती है। कम बुद्धि के लोग मुण्डे मुण्डे मतिर्भिन्ना का ग़लत संधि विच्छेद कर देने से भिन्न का अर्थ अभिन्न मान ही सकते हैं। </p><p><br /></p><p>और वो लोग जो दुःख, दर्द और हताशा पर लिखते हैं – कट्टर नमाज़ी के पांच वक्त की नमाज़ से भी ज़्यादा नियमित। उनकी लाइनें क्या गजब होती हैं! जैसे – जिस वक्त में हम जी रहे हैं।… ये जो आजकल का दौर है।… एक नाउम्मीद, और हताश पीढ़ी है…। ये जो वर्तमान की सच्चाई है!... एक समाज के रूप में हमें शर्मिंदा होना चाहिए। …वगैरह, वगैरह। लगता है बुद्धिजीवी वर्ग ऐसी ही लाइनों पर जीवित है। दुनिया बदलने से ये नहीं बदलने जा रहा। मज़े की बात ये है कि ऐसे बुद्धिजीवी अक्सर जीवन में कभी स्वयं दुःख देखे ही नहीं होते। ये अक्सर बड़े घरानों के निकम्मे होते हैं जिनका कैरियर व्हिस्की पर बकर काटते हुए अंततः इसी फ़ील्ड में बनता है। खुद दुःख देखे होते तो उन्हें पता होता कि दुनिया किस प्रकार से बदल रही है। ये लोग जीवन भर दुःख को धंधे के रूप में सुनते-पढ़ते हैं और उसे उसी के लिए देखना-बेचना भी सीखते हैं। दुःख लिखने का धंधा – जिससे उनकी रोजी चलती है। अकादमिक गलियारों में गरीबी पर चर्चा करने वालों को बदलती दुनिया कैसे दिखे? जिनके धंधे का रॉ मटीरीयल प्रदूषण हो उसे ग्रीन एनर्जी से क्या मिलेगा? </p><p>(राजनीतिक बात नहीं है) यदि प्रश्न कर दिया जाए कि दुर्घटना, स्वास्थ्य इत्यादि व्यक्ति विशेष कारणों को छोड़ दें तो किस पैमाने पर तुम्हारे किसी भी जानने वाले का जीवन स्तर पिछले बीस सालों में खराब हुआ है? तो उनके पास उत्तर नहीं होगा। </p><p>हमारे यहाँ फैक्टफुलनेस और एन्लाइटन्मन्ट नाउ जैसी पुस्तकें लिखी-पढ़ी नहीं जाती। उन पुस्तकों को पढ़िए यदि आपको दुनिया के परिवर्तन का यथार्थ समझना है तो।</p><p>पिछले दिनों डार्टमाउथ के एक प्रोफेसर ने इस बात की अनालिसिस की कि कोविड से जुड़े समाचार मीडिया वाले कैसे दिखाते हैं। मशीन लर्निंग लगाकर अनालिसिस की। निष्कर्ष - सभी वास्तविकता से कई गुना अधिक बुरा दिखाते हैं। जब कोविड बढ़ा तब उस पर फोकस। जब घटा तो उन जगहों पर फोकस जहाँ बढ़ रहा हो, जहाँ लोग मर रहे हों। जब वैक्सीन नहीं थे तो विफलता थी, जब दिए जाने लगे तो उसकी महत्ता ही कम! इसी प्रकार एक डेटा साइंटिस्ट ने १९४५ से २००५ तक साठ वर्षों के न्यू यॉर्क टाइम्स के न्यूज का अनालिसिस किया। और उसी मॉडल से १९७९ से २०१० के बीच दुनिया के १३० देशों के न्यूज का। मशीन लर्निंग है तो कौन सा बैठ कर एक-कर न्यूज पढ़ना है – तो कर दिए। यहाँ भी नतीजे वही! न्यूज और सम्पादकीय की माने तो – दुनिया निरंतर रसातल को जा रही है। मीडिया ने इसे हर साल पहले से ज़्यादा बढ़ा चढ़ाकर पेश किया है। साल दर साल न्यूज के हिसाब से दुनिया पहले से अधिक बुरी होती गयी है। और मज़े की बात ये कि उनमें से किसी भी पैमाने पर (जिनके लिए मीडिया वाले और बुद्धिजीवी निरंतर लिखते हैं की वो चीजें बुरी होती जा रही है), इन वर्षों में दुनिया की हालत बुरी तो छोड़िए, उन हर एक पैमाने पर दुनिया के हर देश के व्यक्तियों के जीवन स्तर और स्वतंत्रता में अप्रत्याशित सुधार हुआ है। पर ऐसा होने के बावजूद मीडिया उसका विपरीत लिखता गया है। इस निष्कर्ष को देखने की एक दृष्टि ये भी है कि जब भुखमरी थी, जीडीपी पर कैपिटा ५०० डॉलर से भी कम था तब निराशावादी लेखन के साथ आशावादी लेखन भी था। पर निराशावादी लेखन महान था, यथार्थ था। समय बदला। दुर्भिक्ष समाप्त हो गया। जीडीपी पर कैपिटा २००० डॉलर से अधिक हो गया। पर निराशावादी लेखन काम होने की जगह कई गुना बढ़ गया। धीरे-धीरे ये हो गया कि बुद्धिजीवी आशवादी कैसे लिख सकता है! कोई लिख दे तो बुद्धिजीवी गलियों में उसे सीआईए एजेंट, जो उन गलियों की सबसे बुरी गाली होती है, कह दिया जाएगा! यथार्थ भले बदलता गया हो पर यथार्थवादी लेखन का अर्थ ही हो गया - निराशावाद। अगर परिवर्तन का यथार्थ देखें तो कई बार ऐसा लेखन वैसे ही हास्यास्पद नज़र आता है जैसे चेचक के उन्मूलन के बाद भी उसे दुनिया के लिए सबसे बड़ा ख़तरा बताते रहना! </p><p><br /></p><p>परिवर्तन कैसे होता है ये देखना कठिन नहीं है – मीडिया और बुद्धिजीवी वर्ग के लेंस से दृष्टि हटा कर देखें तो। जिस गाँव में एक पक्का मकान नहीं होता था वहाँ अब एक भी कच्चा नहीं बचा। लोग क्या पहनते थे और अब क्या पहनते हैं। हमने देखा तो नहीं पर सुना है जब शादी तक लोग माँगे हुए कपड़ों में करते थे। झोले और टूटे चप्पलों की जगह बैग और हाथ में मोबाइल। जिस पूरे गाँव में एक फोन नहीं होता था अब हर-घर में कई मोबाइल होते हैं। गाँव के अस्पताल में व्यवस्था नहीं है का आलेख लिखने वाले ये नहीं देखते कि पिछले दस-बीस वर्षों में जहाँ एक टूटा कमरा हुआ करता था वहाँ एक विशाल भवन और एम्बुलेंस खड़ी रहती है। और ये लगभग हर जगह की ही कहानी है। आपके गाँव में दूसरे से साइकिल माँग कर चलने वालों के पास अब मोटर साइकिल अगर आपको नहीं दिखती तब तो आपको ये कोई मशीन लर्निंग नहीं दिखा सकता। एक जमाना था जब प्रौढ़ शिक्षा के नाम पर पैसे फूंके जाते थे उससे कुछ ना हो पाया और वही लोग बुढ़ापे में फोन चलाने के लिए पढ़ना लिखना सीख गए! जिस उमर के आधे लड़के अनपढ़, गाय-भैंस चराते घूमते थे अब कितने रुपए में कितना जीबी डेटा मिलता है और कौन सी फ़िल्म कहाँ देखनी है सब एक साँस में नाप देते हैं। कौन सी परीक्षा में किस कटेगरी में कितना कट -ऑफ गया है। किस देश में कोरोना कितना फैला है आपसे कम नहीं जानते हैं। आप भले आज भी वही घिसी-पिटी कहानी गढ़ते रहो कि एक सब्जी बेचने वाले ने आपसे ऐसा कहा – वैसा कहा! बुद्धिजीवी लोगों का चूँकि पेट बिना मेहनत भरने लगता है तो उन्हें लगता है कि उनका दिमाग भी आम आदमी से ज्यादा हो गया है! वो कैसे मान लेंगे कि एक गाँव-देहात का आदमी, एक ऑटो-टैक्सी चलाने वाला, सब्ज़ी बेचने वाला भी स्मार्ट हो सकता है? उसे तो दुखियारा, बेसहारा, और हताश होना चाहिए। वो कैसे सुखी हो सकता है? वो कहे भी तो हम बता रहे हैं कि वो हमारे पैमाने पर दुखी है!</p><p>(पिछले दिनों मैं गाँव गया था और) एक दिन सुबह दूध लाने गया तो देखा कि एक बच्चा फोन पर वही कार्टून/राइम देख रहा है जो दुनिया के सबसे बड़ी कम्पनियों के सीईओ के बच्चे भी देखते हैं – वही यूट्यूब। असमानता, समाजवाद, और दुःख पर भारी भरकम लिखने (रोने) वाले दुःख का धंधा करते रह जाएँगे और दुनिया उनकी परवाह किए बिना बदलती रहेगी। सब हरा-हरा नहीं है, दुनिया वैसे हो जाने के लिए बनी ही नहीं है। लेकिन पिछले कई वर्षों से हरियाली बढ़ती ही गयी है। अद्भुत रूप से। लिखते हुए लग रहा है एक डायलोग लिख दिया जाय - ‘निराशा का दौर है’ का धंधा करने वालों से बिगाड़ के डर से आँकड़े की बात नहीं करोगे?! 😊</p><p><br /></p><p>हिंदी किताब लिखने के बाद कुछ अकादमिक हिंदी के लोगों से बात हुई तो ये भी पता चला कि विश्वविद्यालयों में हिंदी के पठन-पाठन में भी ऐसा है कि एक ही प्रकार के शिक्षकों-विद्यार्थियों का गुट है! जो एक ही विचारधारा को बढ़ावा देते हैं, उन्हें ही शैक्षणिक नौकरीयाँ मिलती है। इस प्रकार एक लेंस से ही दुनिया को देखने को जो विद्वता कहा जाता है उसका क्रम चलता रहता है। वो आज भी दुनिया वैसे ही देखते हैं जैसे सौ साल पहले कुछ लोग देख गए थे। अरे भई, शोध कर रहे हो तो “फलानेवाद के परिपेक्ष्य” की जगह कभी वैसे भी दुनिया देख लिया करो जैसी वास्तव में है! </p><p>पोस्ट अपनी लम्बाई को प्राप्त हो रही है। इससे लम्बा लोग पढ़ेंगे नहीं। आप ये पढ़िए, ज़ोरदार बात है, याद रहेगी। कई किताबों में उद्धृत हो चुकी है: </p><p>A few years ago, The New York Times did a story on the working conditions of Foxconn, the massive Taiwanese electronics manufacturer. The conditions are often atrocious. Readers were rightfully upset. But a fascinating response to the story came from the nephew of a Chinese worker, who wrote in the comments section:</p><p>My aunt worked several years in what Americans call “sweat shops”. It was hard work. Long hours, small wage, poor working conditions. Do you know what my aunt did before she worked in one of these factories? She was a prostitute.</p><p>जो रोना रोते हैं कि दुनिया बड़ी खराब होती जा रही है। उन्हें पन्ने काले करने दीजिए - उनका धंधा है। आप अपना काम मन से कीजिए। सरल कर के दुनिया को देखिए। खुश रहिए। </p><p>नया वर्ष मंगलमय हो।</p><p>~Abhishek Ojha~</p><div class="blogger-post-footer"><a href="http://www.aojha.in">Abhishek Ojha</a></div>Abhishek Ojhahttp://www.blogger.com/profile/12513762898738044716noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-8813075190326884926.post-53728495471873117902021-07-27T22:24:00.009-04:002021-07-28T09:34:42.978-04:00रिटायरमेण्ट@45<div>[आदरणीय ज्ञानदत्त जी की पोस्ट <a href="https://gyandutt.com/2021/07/07/retirement-at-45/" target="_blank">रिटायरमेण्ट@45</a> पोस्ट पढ़ने के बाद लगा कि दो-चार बातें कहनी चाहिए। तो उन बातों को … पढ़ा जाय।] </div><div><br /></div><div><br /></div><div>१ पिछले कुछ वर्षों से मैं न्यू यॉर्क के दो विश्वविद्यालयों में ‘मशीन लर्निंग फ़ॉर फ़ाइनैन्स’ नाम का कोर्स पढ़ाता रहा हूँ। मास्टर्स के विद्यार्थियों को। सप्ताह में एक दिन। अक्सर शाम ६ से ८ या ७ से ९। बड़ा मजेदार अनुभव होता है। </div><div><br /></div><div>वर्ष २०१९ की बात है। नए कोर्स की पहली ही क्लास थी। क्लास में लगभग ७० की अवस्था के एक वृद्ध भी दिखे। सामने से आकर उन्होंने अपना परिचय दिया - एक अवकाश प्राप्त (अमेरिटस) प्रोफेसर। अपना कार्ड दिया और बताया कि यदि मुझे आपत्ति नहीं हो तो वो ये कोर्स करना चाहेंगे। उन्होंने ये भी बताया कि उनका घर शहर से दूर है और रात को ट्रेनें देर-देर से जाती हैं इसलिए क्लास समाप्त होने के थोड़े पहले ही वो निकल जाया करेंगे। पहली बात मैंने उनसे ये कही कि मुझे भला क्या आपत्ति होगी। ये तो सम्मान की बात है… पर उन जैसे अनुभवी व्यक्ति जब क्लास में होंगे तो शायद मैं थोड़ा असहज हो जाऊँगा। उन्होंने भरोसा दिलाया कि ऐसा नहीं होगा और पूरे सेमेस्टर वो मुझे प्रोत्साहित करते रहे। उन्होंने ना केवल कोर्स किया पर सारे असाइनमेंट और प्रोजेक्ट भी समय पर किया। प्रश्न पूछते, ईमेल करते …सब कुछ किसी भी अन्य विद्यार्थी से कहीं अधिक तन्मयता से। उनसे मैंने बहुत कुछ सीखा। ना उन्हें किसी परीक्षा के लिए पढ़ना था, ना किसी नौकरी के लिए साक्षात्कार देना था। आधी दर्जन किताबों और सौ से अधिक शोधपत्र उनके नाम से छप चुके हैं। भला वो किसी <i>रैट रेस</i> में हैं ना ही उन्हें रिटायरमेंट लेने के लिए पैसों की कमी है। </div><div><br /></div><div>२ एक कहानी (*content has been modified for modern audience) – प्राचीन काल की बात है। चिचिलाती धूप में राजमहल के बाहर न्याय पाने वालों की लम्बी लाइन लगी थी। (कोर्ट में हमेशा से ऐसे ही पेंडिंग मुकदमे रहते रहे होंगे। पर मुद्दा वो नहीं है।) लाइन में एक साधु बाबा भी थे। गर्मी का दिन था और सूरज आग उगल रहा था। अचानक साधु बाबा ने अपनी लंगोट खोल दी। नंगे हो गए। लंगोट जमीन पर फेंक नाचने लगे। जैसे कन्हैया कालिया नाग के फन पर नाच रहे हों। शरीर पर और कोई वस्त्र था नहीं, ये दृश्य देख लोगों को वही लगा जो लगना चाहिए था - बाबा सटक गए! पर भले लोग थे, एक नीम के पेंड के नीचे बाबा को ले गए। कोई पानी ले आया तो कोई पंखा। भीड़ भी उत्सुक होकर उधर ही चली गयी! </div><div><br /></div><div>इसी बीच किसी सस्ते पत्रकार टाइप के खुरपेंची आदमी ने पूछा – “बाबा, अब कैसा फील हो रहा है? ऐ लंगोट ला के दो कोई बाबा का।”</div><div><br /></div><div>बाबा बोले – “देखो बच्चा, अब हम एकदम मस्त हैं! तुम लोग जाओ अपना काम करो। अब हमें कोई टेंशन नहीं है। और हाँ, लंगोट रहने दो क्योंकि वही तो सारे समस्या की जड़ थी।” </div><div><br /></div><div>मामला रोचक हुआ। किसी ने पूछा – “वो कैसे?”</div><div><br /></div><div>बाबा बोले – “हम <i>एर्ली रिटायरमेंट</i> लेकर साधु हो गए थे। सोचे थे अब आराम से जप-तप करेंगे। <i>सोलो ट्रिप</i> करेंगे। लद्दाख जाएँगे। अब हम राजा जनक तो हैं नहीं कि सब झमेले के साथ भी विदेह हो जाते। मन का कुछ कर नहीं पाते थे। नौकरी में घिस रहे थे। ख़ैर… साधु बनने के बाद बस एक लंगोट का ही झंझट बचा था सो <i>रिटायरमेंट फंड </i>से ढेर सारा सिला लिए थे। बाकी व्यवस्था रोज के रोज पर मजे में चल रही थी।...एक दिन चूहों ने हमारी झोपड़ी में टंगी लंगोट कुतर दी। लंगोट तो आवश्यक था। तो अब चूहे को भगाने के लिए एक बिल्ली पोस लिए। बिल्ली के पोषण के लिए दूध कहाँ से आता? तो गाय पोस लिए।”</div><div><br /></div><div>खुरपेंची ने पूछा – “बाबा, बिल्ली चूहा नहीं खा लेती?”</div><div><br /></div><div>बाबा बोले – “यार पहले इसको चुप कराओ कोई। चूहे के सप्लाई का ठेका लेते हम? साधु आदमी हैं।” इस तरह बात आगे बढ़ी।</div><div><br /></div><div>“अब गाय लोगों के खेत चरने लगी! तो लोग गरियाने लगे। एक <i>आन्ट्रप्रनर टाइप</i> के आदमी ने सलाह से दी कि आजकल फडिंग, लोन इत्यादि मिलना बड़ा आसान है राजाजी से जमीन ले लो। गाय उसी में चर लेगी। सो हम लिखा-पढ़ी करा के जमीन ले लिए। वो लोग जहाँ-जहाँ बोले थे हम साइन कर दिए – <i>टर्म्ज़ एंड कंडीशनस </i>पढ़े नहीं। (समय से आगे चल रहे थे वैसे ही साइन कर दिए थे जैसे आजकल लोग क्रेडिट कार्ड के फ़ॉर्म पर करते हैं)। दिन मजे में कटते रहे। पर कुछ दिनों पहले एक नोटिस आ गया कि जमीन पर टैक्स नहीं भरे हैं! राज दरबार में आइए। तो हम इधर आ गए। साधु आदमी का कोई क्या बिगाड़-उखाड़ लेगा! लेकिन आज जब धूप लगी और जब खड़े-खड़े हम तिरमिरा गए तो सोचे कि ...हम लिए थे रिटायरमेंट आराम के लिए और यहाँ धूप में कर क्या रहे हैं? कहाँ सोचे थे कि सोलो ट्रिप मारेंगे और यहाँ लगा खड़े-खड़े ही घुटने बोल जाएँगे! लंगोट का झमेला तो अपनी जगह लेकिन तब ये भी तो नहीं सोचे थे कि घुटनों में दर्द हो जाएगा? जब जामवंत जैसे वीर बुढ़ापे के कारण समुद्र नहीं लाँघ पाए और हम देखो सोचे बैठे थे कि इस उम्र में मौज करेंगे! लेकिन ये तो स्पष्ट ही था कि अभी के लिए तो सारे समस्या की जड़ लंगोट है। ना लंगोट होता, ना ये सब झमेला होता। <i>एक लंगोट हो या संसार का बाकी अन्य कोई भी काम झमेला उतना ही हो जाना है।</i> सच पूछो तो इतना परेशान तो हम अपनी नौकरी में भी नहीं होते थे जितना इस लंगोट… और अब हाल ये है कि <i>एर्ली रिटायरमेंट</i> के नाम पर यहाँ नंगे बैठे हैं।”</div><div><br /></div><div>खुरपेंची आदमी फिर पूछा – “बाबा, अब करेंगे क्या आप?”</div><div><br /></div><div>बाबा एक ठंडी आ लेकर बोले – “ये तो कह नहीं सकते कि एर्ली रिटायरमेंट बकवास है... तो अब यहीं चबूतरा मिल ही गया है बैठ कर <i>अर्ली रिटायरमेंट प्लानिंग </i>पर ज्ञान देंगे। हमें तो अनुभव भी है। बताएँगे कैसे बिना कुछ किए मस्त ज़िंदगी चल रही है। बहुत स्कोप है इस प्लानिंग वाले फिल्ड में आजकल”।</div><div><br /></div><div>३ हमारे पुराने ग्रूप में एक सज्जन काम करते थे। लिजेंड। हाई स्कूल के बाद दस साल एमआईटी में बीताकर पीएचडी करके ही निकले थे। उन्हीं दिनों में लिखी उनकी किताब इंजीनियरिंग के एक विषय विशेष में अथोरिटी मानी जाती है। फिर कुछ साल वॉलस्ट्रीट में काम किए। वॉलस्ट्रीट में उन जैसे सफल लोगो के लिए पाँच-सात साल रिटायर होने के लिए पर्याप्त होते हैं। उनकी जरूरतें भी कुछ ज़्यादा नहीं थी। तो छोड़ कर कुछ दिन दुनिया घूमे। फिर एक हाई स्कूल में गणित पढ़ाने चले गए। उन्हें कोई भी विश्वविद्यालय रख लेता पर – शौक! चार-पाँच सालों के बाद उन्हें उनके पुराने बॉस ढूँढकर वापस ले आए। लगभग दस सालों तक उन्होंने फिर उन्हीं लोगों के साथ काम किया। </div><div><br /></div><div>मैंने उनसे एक बार पूछा कि वो वापस क्यों चले आए – तो उन्होंने कहा “बच्चों को अच्छा जीवन देना था, लगा मास्टरी से नहीं हो पाएगा। और ये काम भी मैं मिस करने लगा था – चैलेंज नहीं रह गया था”। मज़े की बात ये कि लगभग दस सालों के बाद जब उनका ग्रूप बंद हो गया तो जहाँ बाकी लोग दूसरी कम्पनियों में बड़े पदों पर आराम की नौकरियों में चले गए उन्होंने अपने एक मित्र के साथ मिलकर फिर से नया उद्यम शुरू किया। शून्य से। जिन कामों के लिए कभी उनके नीचे दर्जन भर लोग होते थे वो काम भी वो स्वयं करने लगे। उनके जो दूसरे सहयोगी हैं उन्होंने तो कुछ मिलियन डॉलर अमेरिका के एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय को दान में दिए हैं। स्पष्ट है ये लोग पैसे के लिए तो नहीं ही कर रहे कुछ।</div><div><br /></div><div><br /></div><div>४ एक अन्य पुराने सहकर्मी कुछ सालों का ब्रेक लेकर लौटे। मैंने उनसे भी पूछा था तो बोले – “मैराथन दौड़ना था, बच्चों को ग्रेजुएट होते देखना था। अब बच्चे नौकरी करने लगे तो वापस आ गया”। वो नयी नौकरी करने के साथ-साथ एक ऐसे विषय में मास्टर्स भी कर रहे हैं जो पिछले कुछ वर्षों में ही बना है। उम्र साठ से कम नहीं है। यदि धन रिटायरमेंट ले लेने का पैमाना हो तो …वो क्या उनकी अगली पीढ़ी को भी रिटायर हो जाना चाहिए। वो लगभग पाँच साल का रिटायरमेंट तो उस उम्र में ही ले चुके जब आवश्यकता भी थी और उम्र भी। </div><div><br /></div><div>५ हमारी बिल्डिंग में एक ऑफिस-स्पेस जैसी जगह है। वर्क फ्रोम होम होने से वहाँ एक सज्जन अक्सर मिल जाते हैं। धीरे-धीरे परिचय हुआ। अकेले रहते हैं। दो बेटियाँ हैं जो अब दूसरे शहरों में नौकरी करती हैं। लड़का कॉलेज में। पत्नी से तलाक़ हो गया। अब एक बिल्ली है जो साथ रहती है और एक गर्ल फ़्रेंड जो कभी-कभी आती है। एक दिन बोले – “अभी कुछ वर्ष अपने कैरियर पर फोकस करना है मुझे। जो करना चाहता था उसके लिए पहले समय नहीं मिल पाता था।” वो मुझे पैंसठ साल के नौजवान लगते हैं। इस उमर के आदमी को कैरियर पर फोकस करना है? पाठक इस बात की व्याख्या स्वयं करें।</div><div><br /></div><div>६ एक भारतीय प्रोफेसर ने एक दिन मुझसे कहा – “हमारे स्टूडेंट तुम्हारी बड़ी तारीफ करते हैं।… मुझे लगता है तुम बड़ा मन से पढ़ाते हो। मेरे क्लास में एक दिन गेस्ट लेक्चर देने आ जाओ।” यहाँ से शुरू हुई बात आगे चली तो एक दो मोड़ से कहीं और ही निकल गयी। उन्होंने बताया कि जब वो आईआईटी से निकले थे तब सरकारी नौकरी के अलावा भारत में ज़्यादा कुछ था नहीं। कुछ वर्ष उन्होंने एक केमिकल फैक्ट्री में काम किया। मन नहीं लगा। आईआईएम गए। वहाँ से निकल फिर वही मन नहीं लगने वाली बात हुई। अमेरिका आ गए पीएचडी करने। प्रोफेसर बने तो लगा वो इसी के लिए बने थे। लेकिन इतने वर्षों बाद अब उन्हें लगता है कि अब जोश नहीं रहा। ना पढ़ाने का, ना शोध करने का। अब हर साल लगभग वही पढ़ा देते हैं। “तुम शौक़ से पढ़ाते हो, मेरा अब ये काम हो गया है!” </div><div><br /></div><div>मैंने कहा अब कुछ और कर लीजिए तो बोले – “अब जो करना था कर लिए। अब बस।”</div><div><br /></div><div>७ कम उम्र में रिटायरमेंट लेने का सोचने के दो ही कारण हो सकते हैं – पहला तो ये कि जो कर रहे हैं वो काम घटिया लगता है। मजबूरी में करते हैं। दूसरा ये कि यदि पैसों कि चिंता नहीं होती तो आप कुछ और करते या कुछ भी नहीं करते। दोनों में मजबूरी ही प्रमुख है।</div><div><br /></div><div>मेरे पास अनेकों किस्से-कहानियाँ हैं। वो ज़्यादातर एक जैसे लोगों की हैं। मुझे ऐसे लोगों की जीवन यात्रा अच्छी लगती है। जिन्हें जब लगा कि ये काम मेरे लायक नहीं है वो छोड़कर दूसरे काम में लग गए। जो किया मन से किया। किसी लक्ष्य को पाने के लिए नहीं क्योंकि लक्ष्य को पा लेने पर अक्सर उससे मोहभंग हो जाता है। दुनिया की हर चीज मिल जाने के कुछ समय बाद <i>ओवररेटेड</i> लगने लगती है।</div><div><br /></div><div>ख़ैर …यदि २०२१ में आप मजबूरी में नौकरी कर रहे हैं तो गलती आपकी भी है। वो काम अभी कीजिए जिसमें मन लगता है। मेरी किताब (लेबंटी चाह) में बीरेंदर पहले आईटी की नौकरी छोड़ देते हैं। अधिक पैसा मिलने पर भी। ये कहते हुए कि जीवन भर ये तो नहीं किया जा सकता। और उसके बाद सरकारी नौकरी भी छोड़ देते हैं ये कहते हुए कि पैसे का क्या है मन का काम करेंगे तो वो तो बाई प्रोडक्ट है, आ ही जाता है। </div><div><br /></div><div>यदि आपको लगता है कि आप पैंतालीस की उम्र में दुनिया की सैर करेंगे तो …ज़िंदगी में एक दम से फ़्री नहीं होने जा रही है। ना आप इतने फिट ही रहने वाले हैं। जो पहाड़ आप अभी चढ़ सकते हैं वो तब नहीं चढ़ पाएँगे। आप जिन जगहों पर जिस प्रकार से बीस की उम्र में जा सकते हैं उस प्रकार से पैंतालीस की उम्र में नहीं। अब पचास की उमर में भी हनीमून के लिए प्रसिद्ध जगहों पर क्यों नहीं जा सकते? कोई मना थोड़े करेगा। पर इस बात का अर्थ आप समझ ही रहे हैं। अमेरिका में हर वैकेशन वाली जगह, क्रूज जहाजों और कैसिनों में रिटायरमेंट के पैसे फूंकते वृद्ध लोग दिखते हैं। बहुतायत में। वो बुरा नहीं है लेकिन अभी साँस रोक कर जमा करना कि उस उम्र में… मौज करेंगे… आप समझ ही रहे हैं। </div><div><br /></div><div>और यदि यात्रा करना है या कोई और ही काम तो साल में लगभग महीने भर की छुट्टी तो हर नौकरी में होती है। </div><div><i>[जो व्यक्ति पैंतालीस की उम्र में रिटायरमेंट की सोच रहा हो उसके लिए मैं ये मान कर चल रहा हूँ कि उसकी आय इतनी तो होगी कि उसे जो करना हो अभी उसके लिए अभी पैसे कम नहीं होंगे। जो फटेहाल होगा वो कमाने का सोचेगा रिटायरमेंट का नहीं।</i>]</div><div><br /></div><div>पिछले दस सालों में २०२० को छोड़कर एक भी साल ऐसा नहीं रहा जब मैं साल में एक या एक से अधिक देश नहीं गया। काम के लिए नहीं, घूमने के लिए। और मुझे पता है अब वैसी यात्राएँ नहीं हो सकती। दुनिया सामान्य हो जाए तब भी। वही बात कि जो आप बीस के उम्र में कर सकते हैं वो बीस के लिए ही बनी होती है - पैंतालीस के लिए नहीं। और यदि आप सोचते हैं कि जब ग्रह नक्षत्र एक होंगे और फ़ुरसत के दिन रात होंगे तो - वो दिन निकल गया। वो कल था। और आज है, जैसा भी है। आने वाला कल वो दिन नहीं है। </div><div><br /></div><div>मुझसे जब मेरे करीबी दोस्त कहते हैं (करीबी इसलिए क्योंकि बाकी कोई कुछ भी कहें क्या फर्क पड़ता है!) कि हम भी जाएँगे एक दिन। तो मैं कहता हूँ “बुरा मत मानना, पर जा चुके तुम। क्योंकि तुम यदि अभी नहीं जा सकते कि व्यस्त हो तो… वो दिन आने से रहा जब तुम्हारे पास करने को कुछ नहीं होगा।” </div><div><br /></div><div>और कोरोना के प्रकोप के बाद भी यदि आप को लगता है कि रिटायरमेंट और उसके बाद की योजना वर्तमान के कीमत पर करनी चाहिए तो वो भी ठीक ही है। युधिष्ठिर ने ‘किं आश्चर्यम’ ऐसे ही थोड़े ना कहा था। </div><div><br /></div><div>आने वाले कल को ना तो रिस्क टेकिंग ज़्यादा होगी ना जिम्मेदारियां कम होंगी, ना मन तथा शरीर ही ऐसा रहेगा। जैसे कुछ लोगों के दुःख का कारण बदलता है, दुःख नहीं - वैसे ही व्यस्तता यदि अभी है तो कल को समाप्त नहीं होने जा रही। व्यस्तता का कारण भले बदल जाएगा। मैं इस बात की गारंटी लेने को तैयार हूँ। जो मजे में होते हैं वो अपने हर काम के साथ मजे में होते हैं! मुझे ऐसा लगता है कि अभी जमा कर रखना कि जल्दी रिटायरमेंट लेकर आनंद करेंगे सोचने पर आप ना अपने काम के साथ न्याय कर पाएँगे ना अपने व्यक्तिगत जीवन के साथ। </div><div><br /></div><div>पढ़ाई इसलिए की कि नौकरी लग जाए, नौकरी इसलिए कि पैसा हो जाएँ, और तब अंत में रिटायर होकर कुछ मन का करेंगे? ये है रैट रेस में पड़े रहना। अभी ही करने लगो मन का। हर काम के साथ। फुलटाईम नहीं तो थोड़ा ही सही। क्योंकि अभी हर काम आने वाले कल के सारे कामों से कम ही है। (अनलेस, ओफ कोर्स, लंगोट उतार कर नाचना हो।) काम में पिस रहे हों तो वो छोड़ कर भी मन का करें। मुझे सरकारी नौकरी वालों का समझ में आता है। वो नहीं छूटती है। पर समय के साथ वो भी धीरे-धीरे बीते जमाने की बात हो रही है। मेरे कई आईएएस मित्र हैं जिनका करोड़ में सैलरी सुनकर मन लपलपाता रहता है। उनके लायक काम भी प्राइवेट सेक्टर में होने लगा है।</div><div><br /></div><div>वॉरन बफ़ेट का नाम तो सुना ही होगा आपने? नब्बे साल के हैं - पैंतालीस गुना दो होता है वो। पिछले दिनों उन्होंने कहा कि उनकी कोई मंशा नहीं है रिटायर होने की। अब ये तो नहीं ही बताना पड़ेगा कि ना वो किसी रैट रेस में हैं, ना उन्हें रिटायर होने के लिए पैसे जमा करने हैं। यदि आप सोच रहे हैं कि वैसे तो शताब्दियों में एक होते हैं तो अब उदाहरण वैसे ही लोगों का तो दिया जाता है? (इस मुद्दे पर मंगलदास उर्फ़ लँगड़ परसाद का उदाहरण तो नहीं दिया जाएगा ना।)</div><div><br /></div><div>मुझे ये भी लगता है कि जो इस इंतज़ार में हों कि शीर्ष पर पहुँच कर काम छोड़ देंगे वो शायद ही शीर्ष पर पहुँचते हैं। शीर्ष पर वो पहुँचते हैं जिन्हें शीर्ष पर पहुँचने से घंटा फर्क नहीं पड़ता। उन्होंने पहले से नहीं सोच रखा होता है कि शीर्ष क्या है। वो आज से बीस साल पहले सोच भी कैसे पाते कि एक दिन दुनिया ऐसी होगी? सोचें तो बीते दिनों का शीर्ष आज का साधारण है!</div><div><br /></div><div>इसी से जुड़ी एक और बात मुझे दिखती है वो है संतोष की गलत अवधारणा। उसके गलत अर्थ ने अपने समाज का बड़ा अनर्थ किया है। अपने समाज में निष्काम कर्मयोगी होने और निकम्मा होने में बस एक इंटरप्रिटेशन भर का फर्क होता है। (जब ना हो पाए तो कह देना कि अरे क्या करना है एक दिन तो सबको मरना ही है जैसी बातें! कुछ करना हमेशा विलासिता के लिए ही नहीं होता। मैं मानता हूँ कि उपभोक्तावाद भुखमरीयतवाद से बेहतर है। और सर्वश्रेष्ठ है वो जो राजा होकर भी निराला है – विदेह। राजा जनक।) फिर ये भी एक कारण है कि एक उम्र के बाद कई लोग (काम से हों ना हों) मन से रिटायर हो जाते हैं। - “अब हो गया जो होना था। अब अपना क्या है बाल-बच्चे कुछ कर जाएँ। हम तो हो गए जो होना था” - मन से रिटायर।</div><div><br /></div><div>मैं मिला एक व्यक्ति से जो भारत में अस्सी के दशक में इंजीनियरिंग पढ़े, आज आईबीएम के शीर्ष एक्जेक्यूटिव हैं। वो उन चीज़ों के सेल्स में हैं जो पिछले पाँच-दस वर्षों की उपज हैं। उनके बारे में सोचता हूँ तो एक ही बात कि दिमाग में आती है कि उस आदमी ने कितना अपडेट रखा है अपने को! इसी प्रकार मेरे एक पुराने कलिग ने एक दिन फोन किया। एक प्रस्ताव के साथ कि ये वाली पढ़ाई करते हैं। मैं सोचता रह गया कि बाल-बच्चे वाला यह आदमी तो एक तरह से शीर्ष देख चुका है और मुझसे पूछ रहा है कि पढ़ाई कर लूँ? उन्हें चिंता है कि अभी जो <i>लेटेस्ट</i> हो रहा है, ऐसा तो नहीं कि उन्हें नहीं पता? कल को वो अप्रासंगिक तो नहीं हो जाएँगे? </div><div><br /></div><div>मैंने पूछा - क्यों करना है अब आपको पढ़ाई? </div><div>तो बोले – “दस साल बाद कौन सी चीजें नयी होंगी और हम उसके लिए कितने तैयार होंगे? और फिर जो करने में मज़ा भी आए वो क्यों नहीं करें? इसीलिए तो तुमसे पूछ रहा हूँ। मुझे पता है हमें वो पढ़ने में बड़ा मज़ा आएगा”। मुझे उनकी बातें किसी एंगल से रैट रेस नहीं लगी। </div><div><br /></div><div>और आपको लगता है कि आपसे बस वही होगा जो आप करते आए हैं तो मैं जानता हूँ एक व्यक्ति को जो दर्शन शास्त्र की पढ़ाई पढ़े और अब एक बड़े संस्थान के आईटी प्रमुख हैं। दुनिया के सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों से कम्प्यूटर साइंस पढ़े पचासों लोग उनके लिए काम करते हैं। मैंने उनसे पूछा कि कैसे किया उन्होंने? दर्शन शास्त्र से कोडिंग? उन्होंने बड़ी सरलता से कहा कि कॉल सेंटर जैसी नौकरी से शुरू किया था …और बस सीखते चले गए। </div><div><br /></div><div>एक ये भी एंगल है कि यदि अभी आपके पास वारेन बफ़ेट की तरह ढेर सारा पैसा होता तो आप कुछ नहीं करते? उस हिसाब से वारेन बफ़ेट को कब रिटायरमेंट ले लेना चाहिए था? और वारेन बफ़ेट ही क्यों अभी जितने सफल लोग हैं – सीईओ, वैज्ञानिक, डॉक्टर सब को कुछ सालों पहले ही रिटायरमेंट ले लेना चाहिए था, यदि वही श्रेष्ठ है। मुझे ऐसा लगता है कि वर्तमान, बचे हुए जीवन के लिए पर्याप्त पैसा कमाने और उस दिन की प्रतीक्षा करने के लिए नहीं है जब पर्याप्त पैसे हो जाएँगे। यदि इस उधेड़बुन में बर्न आउट है कि कल सुकून होगा तो फिर ये पूरा कॉन्सेप्ट ही एक भ्रम है। इसे मरीचिका कहते हैं।</div><div><br /></div><div>मुझे लगता है कि सोचना ही है तो स्वस्थ रहने का सोचिए। आपदा स्थिति का सोचिए। और वो काम करने का सोचिए जो मजे-मजे में आप आज ही कर सकते हो, जिसके लिए रिटायरमेंट के दिन की प्रतीक्षा ना करनी पड़े। </div><div><br /></div><div>ख़ैर बातें बहुत सी हैं। अंत में इतना कि मुझसे मेरी एक मित्र ने कभी कहा था कि <i>क्या कहानी सुनाओगे बुढ़ापे में कि क्या कर रहे थे </i><i>अपने </i><i>टवेंटिज में? </i>मुझे बड़ी खुशी होती है कि मैंने उसकी बात को गम्भीरता से लिया। ये तो नहीं ही कहूँगा कि रिटायरमेंट के लिए पैसे जमा कर रहा था। </div><div><br /></div><div>चलते-चलते… (ज्यादा लम्बी पोस्ट हो गयी, अभी फुटकर विचार हैं इसे रिटायरमेंट के बाद अच्छे से लिखा जाएगा 😂) व्यस्तता का तो ऐसा है कि परसाई जी कह गए हैं – “<i>व्यस्त आदमी को अपना काम करने में जितनी अक्ल की जरूरत पड़ती है, उससे ज्यादा अक्ल निठल्ले आदमी को समय काटने में।</i>” :) </div><div><br /></div><div> </div><div><br /></div><div><br />---</div><div>~Abhishek Ojha~</div><div class="blogger-post-footer"><a href="http://www.aojha.in">Abhishek Ojha</a></div>Abhishek Ojhahttp://www.blogger.com/profile/12513762898738044716noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-8813075190326884926.post-45732574567376511522021-06-19T23:08:00.023-04:002021-11-02T19:41:43.173-04:00मौसम नहीं, मन चाहिए![ट्विट्टर पर एक वायरल फोटो देख “<a href="https://twitter.com/aojha/status/1405509769025265667?s=20" target="_blank">where I need to study</a>” मन में एक प्रश्न उठा कि ये सब भी लगता है पढ़ाई में? हमें तो लगता था पढ़ाई के लिए किताब चाहिए और मन चाहिए। पर मजा भी आया क्योंकि कई बातें याद आ गयी…]<div><br /><br /> बात उन दिनों की है जब ...हमारे अपार्टमेंट में इतने लोग आते-जाते रहते कि मेरे एक दोस्त कहते – “बाबा, इसे अब धर्मशाला घोषित कर दो”। <div><br /></div><div>किसी को न्यूयॉर्क घूमने आना होता तो, कोई अपने ऑफ़िस के काम से आता तो, कुछ कम्पनियाँ अपने कर्मचारियों को बिज़नेस ट्रिप पर रहने के घर/होटल की जगह पैसे ही दे देती कुछ वैसे लोग भी रह कर जाते। हम <i>गाइड</i> बन कर शहर भी घुमा देते। ये शिकायत की बात नहीं है। हमें बड़ा अच्छा लगता। मजे-मजे के दिन थे। </div><div><br /></div><div>वीकेंड पर तो अक्सर पाँच-छः लोग हो जाते। कोई आए ना आए एक मित्र जो उन दिनों एमबीए कर रहे थे वो हर वीकेंड ज़रूर आते। हम लोग शहर घूमते, खेलते, सिनेमा देखते। वो ईमानदारी से कहते - देखो यार मैं स्टूडेंट हूँ। तीन-चार और लड़कों के साथ एक <i>बेसमेंट</i> में रहता हूँ। यहाँ तुम लोग के साथ वीकेंड अच्छा बीत जाता है। वो उनके संघर्ष वाले दिन थे। अब तो कहाँ से कहाँ पहुँच गए। मैंने उन दिनों ये भी सीखा कि किसी को ये नहीं कहना चाहिए कि तुमने संघर्ष देखा ही क्या है। क्योंकि "भूखे पेट ही सो जाते हैं" ही नहीं “अक्सर पिज़्ज़ा खाकर ही सो जाते हैं” भी ग़रीबी होती है। भले साल का चालीस-पचास लाख (उन दिनों) का पढ़ाई में खर्चा हो फिर भी व्यक्ति अभाव में रह सकता है। महसूस तो कर ही सकता है। Poverty is just a state of mind जैसी कालजयी बात पहले ही कोई महान व्यक्ति कह गया है नहीं तो अभी इसी बात पर लिख देते। ख़ैर… </div><div><br /></div><div>उन दिनों हम लोग कभी-कभार खाना भी बना लेते। अक्सर बाहर खाते। अतिथियों में से कुछ खाना बनाने के विशेषज्ञ भी थे तो धीरे-धीरे रेड्डी की चटनी, शर्मा की कढ़ी जैसे व्यंजन आविष्कृत हो चुके थे। इससे हुआ ये कि कुछ-कुछ बर्तन और खाना बनाने के अन्य समान जमा होते गए। तो धीरे-धीरे हम भी बनाने लग गए। हमारे एमबीए कर रहे मित्र भी कभी कभार बनाते। हम मज़ाक़ में कहते - "भाई, तू पैसे बचाने के चक्कर में कुछ भी मत खिला दिया कर।" उनका राजमा हमने जगत प्रसिद्ध कर दिया था। जिसके बारे में कहा जाता कि उबला तो पूरा नहीं था ...पर पेट में जाकर जठराग्नि से भी तो कुछ पकना चाहिए। दो दिन तक उबलता रहा था पेट के अंदर। </div><div><br /></div><div>एक रविवार के दिन उन्होंने घोषणा की – “आज मैं दाल-चावल बनाऊँगा।” </div><div><br /></div><div>इससे बड़ी ख़ुशी की बात क्या होती! पर किचन में जिस गति से गए थे उससे भी तेज गति से लौट आए। </div><div><br /></div><div>हमने पूछा – “क्या हुआ? मुआयना कर आए अब राहत पैकेज घोषित करोगे क्या?” </div><div><br /></div><div>“टमाटर नहीं है।” गम्भीरता से बोले। </div><div>“तो?” </div><div>“तो क्या? टमाटर नहीं है तो दाल कैसे बनेगी?”</div><div>“क्यों? दाल ने मना कर दिया क्या बनने से?”</div><div>“अबे कैसी बात कर रहे हो? टमाटर नहीं है तो दाल बनेगी कैसे?”</div><div>“वही तो पूछ रहा हूँ? क्यों नहीं बनेगी?” </div><div>“अबे दाल बनती नहीं है बिना टमाटर के।” </div><div>“यार तुम बनाओ, दाल मना करेगी तो देख लेंगे। अगर दाल कह दे कि बिना टमाटर मैं नहीं बन रही। कर लो जो करना है! तो मुझे बताना, उसे मनाएँगे! <i>केमिकलि इमपोसिबल</i> तो है नहीं टमाटर के बिना दाल गलना?” </div><div><br /></div><div>हमारे बाकी दोस्त हँस रहे थे। हमने उन्हें उनकी भाषा में कहा – “जैसे तुम्हें आता है वैसे ही बनाओ। टमाटर डालने वाला <i>स्टेप स्किप</i> कर देना।” </div><div><br /></div><div>कुढ़ कर उन्होंने दाल बनायी। खाते समय बोले – “यार अच्छी बन गयी है। मुझे नहीं पता था बिना टमाटर के भी दाल बनती है।” </div><div><br /></div><div>ये झूठ बात नहीं है। ये बात पहले भी हमने बहुत लोगों को सुनाई है। </div><div><br /></div><div>वैसे ही एक हमारे बड़े अच्छे मित्र। एक दिन उन्हें <i>फ़िटनेस</i> का भूत सवार हुआ। पहले खूब रिसर्च किए (माने पीएचडी में एडमिशन नहीं ले लिए, रात भर बैठ कर यूटूब देखे)। उनका काम ऐसा था कि पूरे आमेरिका की यात्रा होती रहती, तो पहले तो इस बात पर रिसर्च किए कि जिम ऐसा होना चाहिए जिससे यात्रा करें तो भी समस्या नहीं आए। अब जिम लेकर यात्रा तो कर नहीं सकते! लेकिन ऐसे ही सोचने वालों की समस्याओं का हल करने से अमेरिकी (पूरी नहीं तो आधी तो पक्का) अर्थव्यवस्था चलती है। उन्होंने एक जिम ढूँढ निकाला जो पैसे ले लेता है इस बात की गारंटी के साथ कि अमेरिका में लगभग हर जगह उनकी शाखाएँ हैं। जिम वाले को हम से बेहतर पता है कि कितने दिन आएँगे ऐसे लोग! (जिम वालों को तो ऐसा करना चाहिए कि दिसम्बर-जनवरी में डिस्काउंट देकर न्यू ईयर रिज़ोल्यूशन वालों को मेंबरशिप बेच देनी चाहिए। उसके बाद बाकी साल के लिए उसी जगह में बीयर बार खोल देना चाहिए।) <br /><br /></div><div><br /></div><div>फ़िलहाल वो पहला काम ये किए कि साल भर का <i>प्रीमियम मेंबरशिप</i> ले लिए। जैसे कलाकार के लिए सरस्वती वंदना होती है, इनके ऐसे काम भुगतान से ही शुरू होते। उसके बाद गए अपने पैर का <i>टेस्ट</i> कराने ...कि दौड़ने के लिए उनके पैर की संरचना के हिसाब से अच्छा जूता कौन सा होगा। (धावक लोग इस बात को बड़ी गंभीरता से लेते हैं कि पैर के आकार के हिसाब से सही जूता होना अत्यंत आवश्यक है।) फिर धावक वाला ड्रेस ख़रीदे। गैजेट। गैजेट बांधने के लिए पट्टी। दौड़ते हुए गाना सुनने के लिए नया हेड फोन। चूसनी लगी पानी की नयी बोतल। दर्द होने पर मालिश के लिए बिजली से चलने वाली थुरनी (पता नहीं क्या कहते हैं उसे!)। सब ज़रूरी ही था। सामान बढ़ता गया। सब कुछ हमारे पते पर ही आता था। एक दिन सब खोले। सजा कर रखे। योजना बताए। हम हँसे तो पूछे कि क्या हुआ। मैंने कहा कुछ नहीं। मुझे लगा वो समझेंगे नहीं। </div><div><br /></div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg81SMwIjFLqXSc9TFDKO8r7dOVwArSGS_B6ybL2BGmfzuSMa9exult5FxZrRZmfWHmc1x6l7NLUUmeqc6BS9eKW__SOfSqGcxK3Oko5UpG1kSQp3WWI4Pn3eOF3GMhG9DEqbfu0a8qS7jL/" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img alt="" data-original-height="840" data-original-width="727" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg81SMwIjFLqXSc9TFDKO8r7dOVwArSGS_B6ybL2BGmfzuSMa9exult5FxZrRZmfWHmc1x6l7NLUUmeqc6BS9eKW__SOfSqGcxK3Oko5UpG1kSQp3WWI4Pn3eOF3GMhG9DEqbfu0a8qS7jL/" width="208" /></a></div><br />मन तो हुआ था कि कहूँ - "कहानी पढ़े हो फ़ेडिप्पिडिस की? नंगे पैर ही दौड़ गया था। और आजतक उसके नाम पर मैराथन होता है।" (इस बिम्ब को गम्भीरता से ना लिया जाय क्योंकि हम देखने तो नहीं गए थे... लेकिन उस जमाने के ग्रीक लोग हर पेंटिंग और ३०० सिनेमा इत्यादि में लगभग नंगे और ख़ाली पैर ही तो दिखते हैं।) </div><div><br /></div><div>मेरे दिमाग़ में चल रहा था कि हमारे गाँव की कोई दादी के उमर की औरत होती तो वार्तालाप कैसा होता! स्वाभाविक प्रश्न होता कि दौड़ने के लिए इन सब की क्या ज़रूरत? (<i>दउरे के बा त ई कुल्ही का होयी रे?)</i> </div><div><br /></div><div>पर शायद वो सोच रहे हों कि - इन सबके बिना दौड़ूँगा कैसे? लोग भूल ही गए हैं कि दौड़ना पैर से होता है। किसी को दौड़ना हो तो समान की सूची देखता है। अपने पैर की ओर नहीं देखता। इच्छा शक्ति तो दूर की बात है।</div><div><br /></div><div>मैंने सोचा कहूँ– “यार पैर मना कर देते क्या? थोड़े कम सामान भी होते तो दौड़ लेते। जैसा दाल बिना टमाटर के बनने से मना नहीं कर देती वैसे ही।” </div><div><br /></div><div>कहना नहीं होगा वो दो दिन से अधिक नहीं दौड़े। </div><div><br /></div><div>इसी प्रकार से फ़ोटोग्राफ़ी का शौक़ चढ़ा तो कैमरा ख़रीदे। किताब ले आए। फ़ोटोग्राफ़ी की पत्रिका और फ़ोटोशॉप का <i>सब्सक्रीप्शन</i> लिए। ऑनलाइन कोर्स। खुद कहते कि कॉलेज के बाद कभी कोई किताब नहीं पढ़े फिर भी अब ज़रूरी हो गया था – ध्यान रहे पढ़ना नहीं ख़रीदना। ट्राइपॉड, उसे लेवल करने के लिए उपकरण। फ़िल्टर (इन्स्टग्रैम वाला नहीं असली वाला)। अलग-अलग तरह के लेंस। </div><div><br /></div><div>न्यू यॉर्क में फोटो-विडीओ-टेलीस्कोप इत्यादि की एक बड़ी प्यारी दुकान है, वहाँ मैं अक्सर जाता – देखने कि क्या-क्या उपकरण होते हैं। वो गए तो उन्हें लगा पूरी दुकान ही ख़रीद लेनी चाहिए। मैंने ही उन्हें पहले सस्ते कैमरे से शुरू करने को कहा था कि पहले सीख तो लो। पर कुछ ही दिनों में उन्हें लग गया कि बिना महँगा कैमरा ख़रीदे <i>पैशन</i> नहीं जगेगा। पहला कैमरा औने-पौने दाम में बेचकर दुनिया का लगभग सबसे महँगा कैमरा ले आए। झूठ नहीं बोलूँगा, दौड़े तो दो-चार दिन भी नहीं थे पर दर्जन भर फोटो खींचे थे। ज़्यादातर न्यू यॉर्क ऑटो शो में कार के टायरों के। मैंने कहा - "भाई गाड़ी की भी खींच ले। इतनी अच्छी गाड़ियाँ हैं। केवल टायर की ही खींचोगे? हमारी भी खींच दो।"</div><div><br /></div><div>तो बोले- “नहीं बे आर्टिस्टिक एंगल से खींचना होता है। कोर्स में बताया था, पहली क्लास में।” </div><div><br /></div><div>मुझे पता था आगे की क्लास वो किए भी नहीं होंगे। इस झाम ने लम्बे समय तक उनका पीछा नहीं छोड़ा। भारत गए तो इतना महँगा कैमरा देख <i>कस्टम</i> वाले ने लपेट लिया। पैंतीस हज़ार बिना रसीद “कैश” लेकर जाने दिया! <i>पैशन</i> ऐसा कि इन सबके बाद भी भी ससुर सोया ही रहा। </div><div><br /></div><div>उन्हें ऐसे दौरे पड़ते रहे। कुछ लोग हमें भी दोष दिए कि तुम्हारी संगति में लूटा जा रहा है लड़का। तुम्हीं ले जाते हो ऐसी जगहों पर। इसी प्रकार कुछ दिनों हम गोल्फ़ खेलने गए। हम वहीं किराए पर उपकरण वग़ैरह लेते, खेलने जैसा कुछ हरकत करते और उपकरण लौटा कर आ जाते। हमारे साथ वो भी चले गए एक दिन। बस फिर क्या था उन्हें लगा असली चीज तो ये है! उनका <i>पैशन</i> कुलाँचे भरने लगा। घर आते-आते पूरा <i>गोल्फ़ किट</i> ऑर्डर कर दिए। रेटिंग देखकर कि सबसे अच्छा लोग यही बता रहे हैं तो यही अच्छा होगा! और अब तो अक्सर खेलने जाना ही होगा तो किराए पर क्यों उपकरण लेना? </div><div><br /></div><div>कालांतर में वो किट भी उसी गति को प्राप्त हुआ जिस गति को पहले की चीजें हुई थी - धूल खाने की गति। </div><div><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjyewTY2LxcOdIs-yBGBokP6rdQ1I3zqKXd4vMKwSUI8GBQoyRDwm5vq_mhyphenhyphenpeI2KNK2BNKmJ8yTyGQaHNr77VZHaCTUqCVzTd6zTwQn0tzzR7yypGXG-D6H6tFJNOECv1m4w7LrqKEP4DZ/s2048/20120602_185935.jpg" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img alt="उन दिनों" border="0" data-original-height="2048" data-original-width="1224" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjyewTY2LxcOdIs-yBGBokP6rdQ1I3zqKXd4vMKwSUI8GBQoyRDwm5vq_mhyphenhyphenpeI2KNK2BNKmJ8yTyGQaHNr77VZHaCTUqCVzTd6zTwQn0tzzR7yypGXG-D6H6tFJNOECv1m4w7LrqKEP4DZ/w191-h320/20120602_185935.jpg" title="उन दिनों" width="191" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">उन दिनों</td></tr></tbody></table><br /></div><div>ऐसे लोग मिलते रहते हैं। और तो और <i>डायटिंग</i> करनी है तो लोग खाना ऑर्डर करने बैठ जाते हैं! <i>हेल्दी</i> खाना - <i>सैलड, सुगर फ़्री, किनुआ, चिया, हेम्प, ग्रीन टी।</i> अरे डायटिंग करनी है तो होना तो ये चाहिए कि <i>किनुआ-बेचुआ</i> खाने के पहले भकोसना बंद करो। कम खाओ, उपवास कर लो। उसके लिए और अधिक खाना ख़रीदने की क्या ज़रूरत? विरोधाभास नहीं हो गया? चलना है तो पहले चलो फिर ख़रीद लेना <i>फ़िटनेस वॉच</i> भी किसी दिन। ऐसा थोड़े है कि बिना फ़िटनेस वॉच पहने एक दिन चल लोगे तो घाटा हो जाएगा! पर हैं लोग जो एक दिन ऐसी घड़ी नहीं पहनें तो सच में उन्हें दुःख हो जाता है!</div><div><br /></div><div>“क्या हुआ?” </div><div>“अबे यार। मत पूछो। आज बेकार में ही चल लिए, <i>फ़िटनेस वॉच </i>घर पर ही रह गयी। अब क्या ही फ़ायदा आज चलने का।” </div><div><br /></div><div>बात आप समझ ही गए होंगे। वैसे ये सब लिख-पढ़ कर कुछ बदलना तो है नहीं पर रमानाथ अवस्थी की कविता की एक सुंदर पंक्ति है - </div><div><br /></div><div><b><i>"कुछ कर गुज़रने के लिये मौसम नहीं, मन चाहिए!"</i></b></div><div><br /></div><div>--</div><div><br /></div><div>~Abhishek Ojha~</div></div><div class="blogger-post-footer"><a href="http://www.aojha.in">Abhishek Ojha</a></div>Abhishek Ojhahttp://www.blogger.com/profile/12513762898738044716noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-8813075190326884926.post-45228247442618569982021-05-27T20:40:00.024-04:002021-05-28T09:03:46.668-04:00... गिरिजेश राव 🙏<a href="https://girijeshrao.blogspot.com/" target="_blank">गिरिजेश राव </a>का जाना असहनीय है। उनकी कमी रहेगी। आजीवन। <br /><br />क्या समझें, क्या समझाएँ और क्या लिखें! <br /><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjuEYrQ47YcHYx5v2irhns63TpM6zwMyiX55RlJFtItZh3l3dsojD9jvD-pkISehKCYsewMNza19lLPNC2IuGQErEzsVIYhMnSXNGKpGtojppgQfPSe0gKky00OWe0ljw-L_xz9z5CLy8aC/" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img alt="" data-original-height="1321" data-original-width="1080" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjuEYrQ47YcHYx5v2irhns63TpM6zwMyiX55RlJFtItZh3l3dsojD9jvD-pkISehKCYsewMNza19lLPNC2IuGQErEzsVIYhMnSXNGKpGtojppgQfPSe0gKky00OWe0ljw-L_xz9z5CLy8aC/" width="196" /></a></div><br />वो ऐसे थे कि उनके नाम के आगे आचार्य स्वतः लग जाता है। उनको पढ़ने के साथ-साथ उन्हें व्यक्तिगत रूप से जानना भी हुआ। आत्मीय। अद्भुत। अद्वितीय। विलक्षण। उनसे नियमित बात होती रही। मिलना भी हुआ। अभी मई २१ को उनको भेजा मेरा आख़िरी संदेश अनुत्तरित ही रह गया। ११ मई को उनसे आख़िरी बार बात हुई थी, १६ मई को उनका आख़िरी संदेश आया था। अस्पताल जाने के बाद। उसके बाद उत्तर नहीं आया …सोच ही रहा था कि किससे हाल पूछूँ… और ये पता चला!<br /><br />इससे पहले मैंने अभी तक के अपने जीवन में ऐसे किसी आत्मीय को हमेशा के लिए ऐसे चले जाते नहीं देखा। जब से सुना… शब्द नहीं है क्या लिखूँ।<br /><br />मनु-ऊर्मि लिखते गिरिजेश राव को पढ़ आश्चर्य होता था कि कोई ऐसा भी लिख सकता है! फिर बाऊ। उनकी कविताएँ। बातें हुई तो - खगोल। काल गणना। गणित। दर्शन। वेद। पुराण। लंठ। कई बातें जो मेरे सिर के ऊपर से निकल जाती। मनु-ऊर्मि पढ़ते हुए इतना जीवंत लिखते कि एक बार मैंने कहा था - “पता नहीं क्यों लग रहा है कि मनु अगले अंक में उलझ जाएगा।” बहुत हंसे। बोले बिल्कुल ऐसा ही होगा, पता कैसे चल गया? उनके साथ की गयी अनेकों बातें चैट लॉग में हैं २००८-०९ से। मैंने एक बार कहा था कि मैं किसी से बात ही नहीं करता पर जिनसे करता हूँ तो चुप भी नहीं होता। दो अलग लोग देखें तो समझ नहीं पाएँगे कि यही आदमी है। इस पर भी खूब हंसे बोले डिट्टो ऐसा ही हूँ मैं भी।<br /><br />ऐसी कितनी बातें होती। जो बातें किसी और से नहीं हो सकती। हंसी-मजाक की भी अनेकों बातें। उनके कॉलेज की बातें। लंठो की बातें।<br /><br />लेखन के परे अद्भुत व्यक्तित्व। अद्वितीय। ऐसा भी कोई कॉम्बिनेशन होता है?<br /><br />पढ़ाई और पेशे से अभियंता, आईआईटियन, और वेदपाठी। वेद, पुराण, उपनिषद, खंडहरों और मूर्तियों पर लिखते तो लिखते ही चले जाते। लोक गीतों, जीउतिया और नाग पंचमी जैसे पर्वों के अस्तित्व और उद्भव पर कैसी-कैसी अद्भुत बातें बतायी उन्होंने। कैसी अद्भुत दृष्टि। साथ में ये भी - एक बार उनके ऑफ़िस में दो जर्मन उपकरणों की ख़रीद का टेंडर आया था जिनकी तुलना करते हुए ल्यूमिनस को समझने के एक सवाल पर कैंडेला पर स्कवायर और लक्स में उलझे तो मैंने भी उनके साथ माथा-पच्ची की। अंततः बात यहाँ तक गयी कि …उससे जुड़ा सवाल मैंने जगत प्रसिद्ध एच सी वर्मा से पूछा! जिन्होंने एक किताब बतायी जिसमें इसका वर्णन था। आप जानते हैं किसी सरकारी अफ़सर को जो अपनी नौकरी में इतनी गम्भीरता से काम करता हो?!<br /><br />अद्भुत विचार थे उनके पास। और जुझारू भी वैसे ही। मात्र कोरे विचार नहीं। उन पर काम भी करते। एक बार एक विज्ञान के पाठ्यक्रम को लेकर कई दिनों तक चर्चा हुई। उन्हें कुछ भेजने में डर भी लगता क्योंकि कह देते - "चलिए हम भी ऐसा करते हैं!" अच्छा लगने भर से वाह-वाह कर रुकना नहीं होता था उन्हें। किसी किताब में महाभारत के समय के नक्षत्रों की स्थिति का वर्णन मिला तो स्वयं भी गणना करने बैठ जाते। एक बार उन्होंने कहा था “चार लोगों को लेकर कुछ छोटा सा भी निःस्वार्थ करने का प्रयास कर लीजिए। बस एक बार। उसके बाद आप बैठे-बैठे कभी किसी ऐसे को गाली नहीं देंगे जो कुछ भी करने का प्रयास कर रहा हो।”<br /><br />उनकी सुझायी कितनी किताबें पढ़ा होगा। ऐसे-ऐसे नाम जो मैंने सुने नहीं थे। एक बार बोले - मोतीलाल बनारसीदास चलेंगे कभी साथ वहाँ मिलेगी रुचि की किताबें। उनसे पूछा तिरुकुरल पढ़ने का मन है कौन सा अनुवाद पढ़ूँ? तो बोले - “असली पढ़िए। तमिल सीख लीजिए इतना कठिन नहीं है।” कहाँ हो पाएगा! पर हाँ वो व्यक्ति ऐसे थे जो करवा देते।<br /><br />एक बार एक ग्राफ़ भेजा तो उन्होंने कहा ऐसे ही जगन्नाथ को बनाइए ना। जगन्नाथ के चित्र में तो बस रेखा चित्र ही है! ज्यामिति है - मैंने कभी देखा नहीं था उस दृष्टि से। ऐसे ही बातों-बातों में एक चर्चा चली तो बोले यही लिखिए मघा के लिए... और वो ९० लेख हो गए। समयाभाव में कहाँ से समय निकला वो मेरे लिए चमत्कार है। पटना में था तो हर कुछ दिन पर फोन कर पूछते कि पटना डायरी की अगली कड़ी कब आ रही है। -“अरे बाहर जाइए ये बैठ कर नहीं लिखाएगा।” और वो एक किताब बन गयी।<br /><br />उनके आख़िरी संदेशों में से एक -<br /><br />“एक के पश्चात एक समस्याएँ। सोचा था कि विस्तृत लिखूँगा आपकी पुस्तक पर किंतु माताजी के देहावसान के पश्चात सप्ताहों तक मन:स्थिति नहीं बन पाई। व्यर्थ के फेसबुकिया हीही फीफी भी व्यर्थ ही सिद्ध हुए… इतने निकट से अच्छी भली को जाते देखना बड़ा त्रासद रहा। आपकी पुस्तक लेकर घूमना प्रारम्भ किया पटना पहुँचने से आगे नहीं बढ़ पाया। माता की शुश्रूषा के लिए लखनऊ स्थानान्तरण माँगा था, मिला तो कोई अर्थ ही नहीं रहा। ज्वाईन करने पहुँचा ७ मई को और उसी दिन से भयानक त्वचा संक्रमण से जूझ रहा हूँ! कुछ बातें मन को कचोटती रहती हैं, उनमें से एक यह भी कि लेबंटी चाह पर कुछ लिख नहीं सका अब तक। चाहे जितना समय लगे, लिखना तो है ही।”<br /><br />उनकी माताजी को गए अभी कुछ सप्ताह ही हुए थे। मैंने कहा था कि अभी संकोच में पुस्तक पढ़ने को प्रथमिकता नहीं देना है बहुत काम है आपके पास। तो उन्होंने जवाब दिया - <div><br /></div><div>“सब हो जाएगा। इसी में सब चल ही रहा है। जीवन रुकता थोड़े है! टाइमिंग का लफड़ा रहेगा केवल।”<br /><br />मेरी आँखें नम नहीं होती आसानी से। पर ये देख रो पड़ा। हर बार। जीवन को ऐसे नहीं रुक जाना था।<br /><br />लिंक और रोचक बातें भेजते रहते और मैं हर बार आश्चर्य में पड़ता जाता कि कितने जिज्ञासु व्यक्ति हैं। कितना कुछ आता है उन्हें। कई बार सवाल के साथ भेजते, विशेष कर गणित हो तो। मुझे जो थोड़ा-बहुत आता है शायद उन्हें लगता कि मुझे उससे कई गुना ज़्यादा आता है। मैं नहीं दे पाता था उनके कई प्रश्नों के उत्तर। कभी महीने में एकाध बार फ़ोन या वो कर लेते या मैं तो हम बहुत बातें करते। कितनी योजनाएँ थी - कोणार्क जाने की, कहीं बैठ कर चर्चा करने की। मघा प्रकाशन से पहली किताब आने की। मघा पर आने वाली लेखमालाओं की - “इसके बाद लिखिए दर्शन को आधुनिक रूप में! मिल कर लिखते हैं। उपनिषद के महा वाक्यों पर।”<br /><br />मघा के एक लेख के बाद उनका संदेश आया - “अब सम्पादित करना शुरू कीजिए इसे, ये मघा प्रकाशन की पहली किताब बनेगी।” मैंने वो लेख बार-बार पढ़ा कि ऐसा क्या है जो उन्हें इतना अच्छा लग गया। मैंने लिखा नहीं उन्होंने लिखवा लिया।<br /><br />वो दोस्त थे, बड़े भाई थे, आचार्य थे, ऋषि थे। २००८-०९ से शायद ही मैंने कुछ ऐसा लिखा हो जिसमें उनका किसी ना किसी रूप में योगदान नहीं था। उन्होंने कह-कह कर लिखवाया। मघा के हर लेख को सम्पादित किया। “वर्तनी का अपराध अक्षम्य है आर्य” कहने वाले पता नहीं कैसे मेरे लिखे को झेल जाते और सुधार कर देते। बिना कुछ कहे। विश्वास था कि लेबंटी चाह की कोई तो समीक्षा करेगा जो भाषा की त्रुटियों को उधेड़ कर रख देगा।<br /><br />पता नहीं कैसे कुछ लोगों का उनसे वैचारिक मतभेद हो गया। विशेष रूप से २०१४ के बाद। जब लोग कहते हैं तो मुझे आश्चर्य होता है। हमने कभी ऐसे किसी मुद्दे पर चर्चा ही नहीं की! मुझे हमेशा इतने सुलझे और सहज लगे कि करते तो भी मतभेद नहीं होता पर वैसे ही सदा इतना कुछ होता था बात करने को!<br /><br />कितना कुछ अधूरा रह गया - मनु-ऊर्मि, बाऊ, मघा के अनगिनत लेख, मघा प्रकाशन, कोणार्क, आपका उपन्यास जिसे आपने कहा था कि आप कभी लिखेंगे जो मैनहैट्टन में चलता, जिसकी नायिका का नाम ग्रेटा होता और नायक बलिया में जन्मा।<div><br />इतनी भी क्या जल्दी थी? आप तो अपनी अनंतता लिए अनंत में विलीन हो गए… पर ऐसे अचानक!<br /><br />अभी दो महीने भी नहीं हुए आपने अपने माताजी के देहावसान के बाद ...<br /><br /><span style="color: #b45f06;">न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्र्या अह्न आसीत्प्रकेतः।<br />अनीद वातं स्वधया तदेकं तस्मादधान्यन्न पर किं च नास ॥<br /><br />तम आसीत्तमसा गूढमग्रेऽप्रकेतं सलिलं सर्वमा इदं।<br />तुच्छ्येनाभ्वपिहितं यदासीत्तपसस्तन्महिना जायतैकं॥<br /><br />को आद्धा वेद क इह प्र वोचत्कुत आजाता कुत इयं विसृष्टिः।<br />अर्वाग्देवा अस्य विसर्जनेनाथा को वेद यत आबभूव ॥<br /><br />इयं विसृष्टिर्यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न।<br />यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन्त्सो अंग वेद यदि वा न वेद ॥</span><div><span style="color: #b45f06;"><br /></span><div><span style="color: #b45f06;">🙏 सनातन कालयात्री। </span></div><div><span style="color: #b45f06;"><br /></span></div><div><span style="color: #b45f06;"><br /></span></div><div><span style="color: #b45f06;">~Abhishek Ojha~</span></div></div></div></div><div class="blogger-post-footer"><a href="http://www.aojha.in">Abhishek Ojha</a></div>Abhishek Ojhahttp://www.blogger.com/profile/12513762898738044716noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-8813075190326884926.post-89239257395218145952021-03-30T12:06:00.044-04:002021-03-31T11:50:30.859-04:00हिन्दी<br /><a href="https://www.amazon.in/-/hi/Abhishek-Ojha/dp/9389373565/" target="_blank">‘लेबंटी चाह’</a> के एक प्रोग्राम में एक प्रश्न उठा: <i>मैंने ‘लेबंटी चाह’ हिन्दी में क्यों लिखा? अंग्रेज़ी क्यों नहीं? काम करते हो न्यू यॉर्क में, पढ़ाते हो मशीन लर्निंग और किताब हिन्दी में!</i><br /><br />पौन घंटे के प्रोग्राम में मैं विस्तार से बता नहीं पाया। मन नहीं भरा अपने उत्तर से। कई बातें हैं और सारी बातें इसी बात पर ‘<i>कंवर्ज</i>’ होती हैं कि लिखना हिन्दी में ही हो पाएगा। जैसे एक और सवाल था कि क्या मैं अपनी किताब का अंग्रेज़ी में अनुवाद करवाना चाहूँगा? जिसका उत्तर मैंने दिया - नहीं। क्योंकि किताब की भाषा भी कथानक जितनी ही महत्त्वपूर्ण है और मुझे लगता है कि उसका ठीक-ठीक अनुवाद हो नहीं सकता।<br /><br />...असली कारण तो वही है जो अनूप जी ने दैनिक जागरण में तब लिखा था जब मैंने पटना डायरी लिखना शुरू ही किया था। उन्होंने एक लाइन लिखी थी कि… “<i>अभिषेक जस का तस लिख देते हैं। अभिषेक को पढ़ते हुए हजारीप्रसाद की बात याद आई - ‘यदि मैं बाणभट्ट की आत्मकथा भोजपुरी में लिखता तो यह उपन्यास अधिक प्रभावी होता!</i>” लेबंटी चाह लिखते हुए मुझे हमेशा वैसा ही लगा। मेरा लिखा प्रभावी हो ना हो लेकिन यदि हुआ तो वो हिन्दी में लिखा ही हो सकता है। (इसका अर्थ ये मत निकाल लीजिएगा - एक किताब क्या लिख लिए अपने को हजारीप्रसाद ही समझने लगे। आजकल लोग कुछ भी अर्थ निकाल लेते हैं तो बताना पड़ता है। इसका अर्थ ये है कि जब आचार्य हजारीप्रसाद जैसे विद्वान अपनी मातृभाषा के लिए ऐसा कहें तो हम भला किस खेत की मूली हैं।) <br /><br />लेकिन हिन्दी में रुचि कब और कैसे हुई, लिखने का कब सोचा इसका उत्तर इतना स्पष्ट है नहीं।<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://www.amazon.in/Lebanti-Chah-Abhishek-Ojha/dp/9389373565/" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;" target="_blank"><img border="0" data-original-height="499" data-original-width="324" height="320" src="https://images-na.ssl-images-amazon.com/images/I/51Fw-OWMuRL._SX322_BO1,204,203,200_.jpg" width="208" /></a></div><br />मुझे लगता है किसी भी विषय में रुचि बचपन और शिक्षकों पर बहुत निर्भर करती है। वो शिक्षक जिन्होंने गणित-विज्ञान को हिन्दी-संस्कृत पर कभी हावी नहीं होने दिया उनका इसमें बड़ा योगदान है। विशेषकर संस्कृत और गणित के शिक्षक। मुझे बहुत मानते। इतना कि मुझे लगता कुछ ग़लत कर दूँगा तो वो निराश हो जाएँगे। एक बार ऐसा हुआ कि संस्कृत के एक क्विज़ में स्त्री प्रत्यय के एक सवाल में ङीप्,- ङीष् में गलती हो गयी। मैं अगले दिन किताब लेकर गया कि यहाँ से पढ़ा था। गलती मेरी नहीं है। उस किताब के ष का पेट काटने वाला मिट कर प जैसा हो गया था। संस्कृत के शिक्षक की एक बात याद है जो पता नहीं उन्होंने कितनी गम्भीरता से कहा था (या ऐसे ही कह दिया था जैसे ब्लॉग पर आयी अधिकतर टिप्पणियाँ होती थी लेकिन मैंने गम्भीरता से लिया)। दसवीं के परिणामों के बाद उन्होंने कहा था - ‘बहुत अच्छे नम्बर ले आए तुम अभिषेक। लेकिन मुझे तो लगा था कि तुम्हारे संस्कृत में भी गणित जितने नम्बर आ सकते थे।’ (उस जमाने में हर विषय में सौ में निन्यानबे-सौ नहीं आते थे!)<br /><br />वैसे ही गणित के शिक्षक। जैसा मैंने पिछली पोस्ट में भी कहा था कि मुझे कभी किताब लिखने का बहुत ज़्यादा मन नहीं था और लिखने के बाद भी संशय बहुत रहा कि पता नहीं लोगों को किताब कैसी लगे। पर कुछ पल आए जब लगा लिखना सफल रहा। उनमें से एक था जब स्कूल के गणित के शिक्षक का बड़ा प्यारा मैसेज आया। उसी लहजे में जैसे वो बोला करते - डायलॉग की तरह। शिक्षक गणित के लेकिन स्कूल में नाटक -भाषण वग़ैरह लिखने-लिखवाने में बड़ी रुचि लेते।<br /><br />फिर हिन्दी उस उम्र से पढ़ा है जब का कुछ याद भी नहीं। खूब किताबें पढ़ी। अंग्रेज़ी में कथा-कहानी-संस्मरण लिखने का सोच भी कैसे सकते हैं! अंग्रेज़ी हमेशा लगी कि बस पढ़ने का एक विषय है। हिन्दी मैंने पढ़ना शुरू किया था घर की किताबें चाट जाने से। स्कूल की लाइब्रेरी से भी खूब पढ़ा। इन किताबों में सम्पूर्ण प्रेमचंद, शरतचंद्र, आचार्य चतुरसेन की सोमनाथ, कन्हैयालाल मुंशी की भगवान परशुराम, मनोहर श्याम जोशी की कुरु कुरु स्वाहा जैसी किताबें थी। स्कूल की लाइब्रेरी से गुलिवर की यात्राएं, 80 दिन में दुनिया की सैर, क़ैदी की करामात जैसे अनुवाद की हुई किताबें खूब पढ़ा। सैकड़ों नहीं भी तो पचास से अधिक तो आराम से। फिर बचपन में घर का माहौल ऐसा था कि रामचरितमानस जैसी किताब की चौपाइयाँ, कबीर-रहीम-घाघ, भूषण वग़ैरह बिना पढ़े ही पता होते। गीता प्रेस की किताबें, पुराण, और कल्याण बचपन से ही इस सिलेबस का हिस्सा रहे। रादूगो प्रकाशन वग़ैरह की रूसी किताबें राँची में खूब मिलती। राँची में एक बाज़ार में एक बूढ़े व्यक्ति पुरानी किताबें बेचते। ज़मीन पर बिछाकर। अनपढ़ थे। किताब की बाइंडिंग और वजन देख क़ीमत लगाते - क्या गणित, क्या विज्ञान और क्या साहित्य! उनसे कौड़ी के भाव ख़रीदी गयी उत्कृष्ट किताबें भी पढ़ी गयी।<br /><br />और काम करने का ऐसा है कि आज भी जोड़-घटाव तो मैं तो ऐसे ही करता हूँ - पाँच-सात-बारह, बारह नवा इठोल से। पाँच दूनी दस, पाँच एकम पाँच। - <i>आइ थिंक ईंट विल बी एराउंड ट्वेंटी वन, ट्वेंटी वन पोईँट सिक्स। </i>सोचने की भाषा थोड़े न बदलती है कभी! जो कहते हैं कि बचपन की बोली भूल गए… वो ही जाने। ख़ैर…<br /><br />ग्यारहवीं-बारहवीं के साल <i>इरोडोव, रेस्निक</i>, <i>लोनी</i>, पुली, और लकड़ी के वेज पर बॉल लुढ़केगी तो किधर कितना फ़ोर्स लगेगा जैसी बातों में निकल गए। हिन्दी सिलेबस में थी पर साल के शुरू में ही किताबें पढ़ कर रख दिया था। ये सोचकर कि जितनी हिन्दी पढ़ा है उतनी पर्याप्त होनी चाहिए। सम्मान भर के अंक के साथ पास होने के लिए। सिलेबस में जो भी गद्य-पद्य था आधा पहले से पढ़ा हुआ लगा। ग्यारहवीं-बारहवीं में हिन्दी की क्लास भी बहुत बड़ी होती। आर्ट्स-कॉमर्स-साइंस सभी के लिए हिन्दी <i>कॉमन</i> थी। सेंट ज़ेवियर्स राँची में ग्यारहवीं-बारहवीं में भी हिन्दी ‘प्रोफ़ेसर’ पढ़ाते। जो बीए के विद्यार्थियों को भी पढ़ाते। कुछ राँची विश्वविद्यालय के एमए के विद्यार्थियों को भी पढ़ाते। <a href="https://www.sxcran.org/FacultyHindi#" target="_blank">शिक्षक वहाँ अब भी वही हैं</a>। सारे पीएचडी। कक्षाएँ अच्छी होती। पर जहां स्कूल के शिक्षक हर क्लास में चर्चा करते, यहाँ शिक्षक-विद्यार्थी में एकतरफ़ा संवाद था। मेरा नाता बस हाज़िरी लगाने और व्याख्यान सुनने तक ही था। पर अच्छा लगता। परीक्षा हुई तो पढ़ा तो था नहीं इसलिए अपने हिसाब से लिखा। पता नहीं कैसे प्रोफ़ेसर लोगों को पसंद आया। शायद पहली परीक्षा के बाद अंक भी सबसे अधिक दिए थे डॉक्टर भाटिया ने। दो सालों में एक परीक्षा के बाद शायद पहला और आख़िरी मौक़ा था जब मुझसे किसी हिन्दी के अध्यापक ने बात की थी। मुझे बुला कर कहा कि तुम्हारी उत्तर पुस्तिका सबसे अलग थी। <div><br /><div>मैंने कहा - ‘सर बिना पढ़े लिखा था। अपने मन से। शायद इसलिए।’ </div><div><br /></div><div>हिन्दी का अध्यापक अक्सर दुनिया देखा, दाल-रोटी का भाव समझने वाला व्यक्ति होता है। उन्होंने कहा था कि विज्ञान के विद्यार्थी हो। ऐसे ही बिना पढ़े हिन्दी की परीक्षा लिख देना अभी जहां ज़रूरत है वहाँ परिश्रम कर लो। हिन्दी के लेखक जो फ़्री में कुछ नहीं करेंगे और रॉयल्टी से ज़िंदगी चला लेंगे सोचते हैं ...उन्हें ऐसे शिक्षक नहीं मिले?<br /><br />आईआईटी में हिन्दी से नाता रहा ट्रेन में पढ़ी जाने वाली किताबों से। वो भी तीसरे साल के बाद शुरू हुआ। कानपुर सेंट्रल प्लेटफ़ॉर्म नम्बर एक पर घुसते ही दाहिनी तरफ़ के व्हीलर्स से ख़रीदी गयी किताबें। चित्रलेखा, गुनाहों का देवता, वैशाली की नगरवधू इत्यादि - <i>यूज़ूअल ससपेक्ट्स</i>। अंतिम साल में आईआईटी के बुक क्लब से भी कुछ हिन्दी किताबें लाया पर वहाँ ढंग की हिन्दी किताबें होती नहीं थी (लाइब्रेरी में अच्छी किताबें थी पर वो हमेशा ही कोई कर्मचारी ले गया रहा होता )। ‘वैशाली की नगरवधू’ अकेली हिंदी की किताब थी जिसे हॉस्टल में मेरे अतिरिक्त मेरी विंग में कुछ और लोगों ने भी पढ़ा। पर छुट्टियों में हिन्दी में साहित्य के अतिरिक्त भी हिन्दी की किताबें पढ़ा - घर पर पड़ी बीए, एमए की कई किताबें हिंदी में थी। इतिहास, राजनीतिशास्त्र - यूरोप का इतिहास, मध्यकालीन भारत का इतिहास, बीए अंग्रेज़ी की किताबें भी पढ़ी।</div><div><br />ब्लॉगिंग आईआईटी से निकलते-निकलते शुरू हुई। जिससे कई लोगों से सम्पर्क और दोस्ती हुई। कुछ ने अख़बारों में भी लिखवाया। ब्लॉगिंग तो ख़ैर सबसे बड़ा कारण बना हिन्दी में लिखने का। ओझा-उवाच लेबंटी चाह की माँ है - इधर से ही लेबंटी चाह का जन्म हुआ। तो उसकी बात क्या करना।<br /><br />पर हिन्दी किताबें पढ़ने से भी एक के बाद एक कई रोचक बातें हुई। अंग्रेज़ी की किताबें मैंने हिन्दी से अधिक पढ़ा पर उन्हें पढ़ते हुए ऐसी बातें कभी नहीं हुई। (बस एक बार बलिया जाते हुए किसी ने ट्रेन में कहा था कि हल्ला मत करो लड़का अंग्रेज़ी पढ़ रहा है परीक्षा देने जा रहा होगा। और मैंने कहा था कि नहीं परीक्षा देने नहीं जा रहा ऐसे ही पढ़ रहा हूँ।)<br /><br />पहली तो पुणे में। पुणे में एबीसी चौक है - अप्पा बलवंत चौक। वहाँ किताबों की दुकानें ही दुकानें हैं। २००८-०९ में अमेजन ऐसा था नहीं। किसी ने बताया था कि हिन्दी की किताबें वहीं मिलेंगी। वैसे हिन्दी की किताबें पुणे में मुश्किल से ही मिलती है। एक दो दुकानदारों ने तो साफ़ मना कर दिया। फिर …एक दुकान वाले ने मेरी किताबों की लिस्ट देख कुर्सी पर बैठाया। बड़े सम्मान से। पूछा चाय-ठंडा मँगा दूँ? मुझे ज़िंदगी में इसके अलावा कभी किसी दुकान वाले ने चाय-ठंडा ऑफ़र नहीं किया। ज्वेलर्स इत्यादि जैसे दुकान वाले, जो ये सब ऑफ़र करते हैं, वहाँ मैं कभी गया नहीं। बचपन में किराने की दुकान वाले ने कभी किसमिस-इलायची दिया हो और मैंने नहीं लिया हो के अलावा ऐसा पहली बार हुआ था। <br /><br />पूछा - ‘पुणे यूनिवर्सिटी में एमए-पीएचडी कर रहे हो क्या? ऐसी किताबें ख़रीदने कभी कभार बस वही लोग आते हैं। कभी-कभी कोई ऐसा आता है ऐसी किताबें पढ़ने वाला।’</div><div><br />बड़ी इज्जत दी उन्होंने। जो किताबें उनके पास नहीं थी आस-पास से मँगा कर दी। अपना नम्बर दिया कि कोई भी किताब मँगा देंगे। पहली बार लगा हिन्दी पढ़ने और अच्छा पढ़ने पर विशेष भाव मिलता है! उन्होंने लिस्ट देख ययाति-मृत्युंजय पढ़ने की भी सलाह दी। दोनों मराठी की अनुवाद। <br /><br />दुकान वाले का कहा मैंने सोचा एमए कर ही लें क्या! मज़ाक़-मज़ाक़ में नहीं गम्भीरता से। उन दिनों साथ के लोग एमबीए वग़ैरह पर ज़ोर मार रहे थे। एमबीए नहीं करने का मेरा निश्चय बहुत पहले से था। पीएचडी करने का मोहभंग पूरी तरह से तो कभी नहीं हुआ पर नौकरी में मन लगने से इतना तो हो चुका था कि (महेंद्र कपूर की आवाज़ में पढ़े) - उसे इक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा। पीएचडी के परे पढ़ने का विचार ऐसा बनने लगा था जैसे बेवड़ो की एक श्रेणी होती है - फ़्री का मिला तो पी लेंगे। अर्थात् ये कि जो भी पढ़ने के पैसे कम्पनी दे देगी वो पढ़ते रहेंगे। और जो सीखने का मन हुआ उसे पढ़ा लेंगे। इन सबके साथ हिन्दी की किताबें पढ़ना फिर से शुरू हो गया था - दिनकर, अज्ञेय, अमृत लाल नागर, भगवती चरण वर्मा, धर्मवीर भारती, राजकमल चौधरी, विनोदकुमार शुक्ल वग़ैरह वग़ैरह। <br /><br />पुणे में ही एक दिन मैं इग्नू एमए हिन्दी में एक दिन एडमिशन लेने चला गया। उन्होंने बोला था हिन्दी में एडमिशन के लिए किसी भी विषय में डिग्री की फोटो कॉपी लगेगी। हिन्दी में एडमिशन के लिए कुछ विशेष आवश्यकता थी नहीं। पर डिग्री देखकर सकते में आ गए - ये आपकी डिग्री है? आपको हिन्दी में क्यों एडमिशन लेना है? भारत में कहीं भी लोग अपने काम से अधिक काम रखते हैं। ख़ैर उनको उत्सुकता बहुत ज़्यादा थी पर कुछ सवाल-जवाब के बाद उन्होंने एडमिशन दे दिया। मैंने एक साथ दोनों साल की किताबें माँग ली। किताबें उनके स्टोर में बस पहले साल की ही थी। स्टोर ही था। बड़ी बेरहमी से प्लास्टिक की रस्सी में बाँध कर सीलन वाले कमरे में पीली पड़ती किताबें रखी थी। किताबों का मानवाधिकार की तरह किताबाधिकार तो होता नहीं। उन्होंने कहा कि एक सप्ताह में फ़ोन कर आ जाऊँ दूसरे साल की किताबें भी मिल जाएँगी। एक दो बार फ़ोन करने तक दूसरे साल की किताबें नहीं आ पायी और तीसरे चौथे फ़ोन के पहले मैं अमेरिका आ गया। एमए पहले साल वाली किताबें सात समंदर पार मेरे पीछे-पीछे आ गयी। अब भी साथ हैं।</div><div><br />किताबों (ज़्यादातर हिन्दी) के अमेरिका आने का ऐसा था कि कम्पनी कुछ भी समान ले आने का पैसा दे रही थी। तब हमारे पास सामान के नाम पर बस किताबें ही थी। कुछ और ख़रीद कर, कुछ दिल्ली से मँगा कर भी <i>शिप</i> कर दी गयी। बाद में जब ढाई महीनों के लिए पटना जाना हुआ तो उन्हीं दिनों एक किताब हाथ लग जाने से संस्कृत पढ़ना भी शुरू किया। चौखंबा की किताबें।<br /><br />हिन्दी किताबों के मुझ तक पहुँचने के किस्से भी कम रोचक नहीं रहे। एक दो साल बाद एक और मित्र अपनी कम्पनी के पैसे पर भारत से आ रहे थे। उन्होंने पूछा कि कुछ चाहिए? (जैसे अमेरिका से कोई दोस्त भारत आए तो एक आईफ़ोन मंगाना होता है उसका उल्टा भी होता है!) तो हमने उन्हें भी एक लिस्ट थमा दी। उन्होंने वो लिस्ट अपने भ्राताश्री को बनारस भेज दिया। ये कहते हुए कि हमारे बहुत प्रिय मित्र ने मंगायी है, किताबें अमेरिका जानी हैं। उन्होंने मामले को इतनी गम्भीरता से लिया कि कुछ किताबें जो प्रिंट में नहीं थी वो भी ढूँढ कर आ गयी। भले लोग! मैं खुद इतनी मेहनत कभी नहीं करता। फिर बनारसी आदमी गम्भीरता से ले ले तो हिन्दी की किताबें भला कौन सी बड़ी बात है! धीरे-धीरे ये बात भी थोड़ी बहुत फैल गयी कि हिन्दी पढ़ता है। तो लोग पूछ लेते - पुस्तक मेला है कोई किताब लानी है तुम्हारे लिए? सोचूँ तो ऐसे लोगों की लिस्ट भी छोटी नहीं है जिन्होंने मुझे हिन्दी की किताबें दी। कई दोस्त-दोस्तनियों ने किताबें दी। निर्मल वर्मा, स्वदेश दीपक, सुरेन्द्र वर्मा की किताबों से ना केवल परिचय कराया पर किताबें भी न्यूयॉर्क तक पहुँचायी। अंग्रेज़ी की किताब पढ़ने से ये सब होता? पढ़ते तो रहे ऐसा कुछ नहीं हुआ।<br /><br />और फिर इन किताबों के पढ़ते हुए भी कुछ कम रोचक किस्से नहीं हुए। अनगिनत।<br /><br />उन दिनों मैं कुरुक्षेत्र पढ़ रहा था। हार्ड बाउंड। सुंदर किताब। मुंबई से अमेरिका आ रहा था। कम्पनी के पैसे पर बिज़नेस क्लास से। एक सज्जन पूरी फ़्लाइट हमें उत्सुकता से देखते रहे। बाद में मिलने आए। आप कहीं किसी सम्मेलन में भाग लेने जा रहे हैं? लगता है आपको कहीं देखा है। मराठी किताब है? तीनों का उत्तर नहीं था। पर मुझे ऐसा कोई नहीं मिला जिसे हिन्दी पढ़ना ‘कूल’ या ‘स्पेशल’ नहीं लगा हो। कॉलेज के जिस भी मित्र को पता चला सबने ऐसा ही कहा भले खुद ना पढ़ें।</div><div><br />एक बार एक आंटी मिल गयी <i>न्यूयॉर्क सबवे</i> में। उन दिनों मेरे सर पर ‘झोंटा’ था - घुंघराले लम्बे बाल। और मैं पढ़ रहा था चौखंबा सीरिज़ की भर्तृहरि। वो मेरे स्टेशन पर ही उतर गयीं। बहुत देर तक बात की। जब उन्हें भरोसा हो गया कि मैं ‘हिप्पी’ नहीं हूँ, ना ही ‘योगा स्टूडीओ’ वाला - खूब-खूब आशीर्वाद देकर गयी। केवल किताब पढ़ने से।<br /><br />कारनेगी मेलन विश्वविद्यालय के <i>क्वांट फ़ाइनांस</i> की कक्षाएँ न्यूयॉर्क में भी होती हैं। मुझे एक बार वहाँ जाने का मौक़ा मिला। इस विषय पर बात करने कि नौकरी वग़ैरह के लिए छात्रगण क्या करें। वहाँ हुई लम्बी बात चीत का मुझे कुछ याद नहीं। याद है तो एक दूसरी पीढ़ी के भारतीय मूल का लड़का। मुझसे पूछने आया कि मेरे हाथ में किताब कौन सी है! थे कालिदास। उसने कहा - “पर संस्कृत तो ‘डेड लेंगवेज’ है। मुझे तो लगता है कि पचास लोग भी नहीं पढ़ते होंगे संस्कृत।” मैंने बताया कि मैं अनुवाद के साथ पढ़ रहा हूँ पर पचास से अधिक तो अमेरिका में ही पढ़ने वाले होंगे। यहाँ के विश्वविद्यालयों में भी विभाग हैं।<br /><br />फिर भी उसने पूछा - “एक फोटो खींच लूँ? माँ को दिखाऊँगा कि कोई संस्कृत भी पढ़ता है।” कौन सी अंग्रेज़ी की किताब इतनी कूल होती कि पाठक के साथ कोई सेल्फ़ी ले? <br /><br />और फिर हिंदी लिखने में अजूबा जैसा क्या है? हिन्दी नहीं लिखेंगे तो क्या लिखेंगे? और हाँ ये हिन्दी की सेवा करने और झंडा लेकर चलने जैसी कोई बात नहीं है। नेचुरल है। कभी अपने काम या पढ़ाई वाले विषयों पर लिखना हुआ तो अंग्रेज़ी ही दिमाग़ में आएगी। पर ‘लेबंटी चाह’ जैसा कुछ लिखना हुआ तो हिन्दी छोड़ कभी दूसरी भाषा दिमाग़ में आ ही नहीं सकती। स्वाभाविक है। स्वयंसिद्ध टाइप।<br /><br />एक और बात… मैं लाइव म्यूज़िक की जगहों पर खूब गया हूँ जहां अधिकतर अंग्रेज़ी गाने बजते हैं। जैज़-वैज़ जैसी जगहें। एक बार अपने कॉलेज के दोस्तों के साथ “जैज़ बाई द बे” गया था। अंग्रेज़ी गाने बजते रहे। सब लोग सुनते रहे। कोई कभी किसी गाने पर गुनगुना भी देता। चेहरे पर ग़म ख़ुशी जैसा कुछ ख़ास नहीं आता। पर अंत में जब वहाँ किशोर कुमार के गाने बजे। जिसे उन्होंने अपने तरीक़े से बजाया - रीमिक्स जैसा। तब पहली बार ऐसा हुआ कि सब गुनगुनाने लगे। टेबल बजाने लगे। वैसा किसी भी अंग्रेज़ी गाने के साथ नहीं हुआ। ऐसा नहीं था कि मेरे साथ के लोग अंग्रेज़ी गाने नहीं सुनते थे या उन्हें समझ नहीं आते। पर किसी अंग्रेज़ी गाने पर टेबल बजाने लगें हो ऐसा भी नहीं हुआ। किशोर कुमार सुनते ही सब अपने रंग में आ गए। हिन्दी लिखने का वैसा ही है। <i>रीमिक्स</i> भी हो तो अपने लिए किसी भी दिन अंग्रेज़ी से ज़्यादा प्रभावी होगी।<br /><br />इस पर अनगिनत बातें लिखी जा सकती है - सब <i>कंवर्ज</i> होंगी हिन्दी पर ही! अब जैसे यही एक बात है कि इतनी बड़ी पोस्ट हो गयी - अंग्रेज़ी में लिखने पर घंटे भर में इतने <i>फ़्लो</i> में तो नहीं ही हो पाता! :) </div></div><div><br /></div><div>---</div><div>~Abhishek Ojha~</div><div class="blogger-post-footer"><a href="http://www.aojha.in">Abhishek Ojha</a></div>Abhishek Ojhahttp://www.blogger.com/profile/12513762898738044716noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-8813075190326884926.post-63615303382362287752020-12-31T20:11:00.008-05:002021-03-30T12:06:49.563-04:00छपना ‘लेबंटी चाह’ का
मेरे ब्लॉग की सबसे चर्चित पोस्टें हैं - <a href="https://uwaach.aojha.in/search/label/Patna" target="_blank">पटना वाली</a>। लोकप्रिय भी*। इन्हीं में से एक पोस्ट <a href="https://uwaach.aojha.in/2011/09/blog-post_30.html " target="_blank"><b><i>लेबंटी चाह</i></b> </a>भी है। लेमन-टी से बना लेबंटी और चाय से बना चाह। इसी नाम से अब उपन्यास छप कर आ रहा है। <div><br /></div><div><span> </span>पटना डायरी से उपन्यास बनने तक की प्रक्रिया ‘<i>इवोल्यूशनरी’</i> रही – क्रमिक विकास। ब्लॉग पर लिखना शुरू किया था तो हर तरह के पोस्ट लिखा, पर पटना डायरी के मामले में पोस्ट दर पोस्ट ‘सरवाइवल ओफ़ फिटेस्ट’ की तरह लिखने की एक शैली बनती गयी। इस दौरान निरंतर अच्छी प्रतिक्रियाएँ भी आती रही। ब्लॉग पर आयी टिप्पणियों के परे भी। ईमेल, फ़ोन इत्यादि से भी कई लोगों ने सम्पर्क किया। ऐसे लोग भी जो ना तो ब्लॉग लिखते-पढ़ते हैं ना सोशल मीडिया पर ही हैं। किसी अख़बार में कहीं कुछ छप गए से ढूँढते पहुँच गए तो किसी के बताए पढ़ लिए। </div><div><br /></div><div><span> </span>ब्लॉगिंग के अन्य कई मित्रों की तरह मैं भी कभी साहित्य का विद्यार्थी नहीं रहा। इससे एक अच्छी बात ये हुई कि किसी विधा की परवाह किए बिना मुक्त रूप से लिखा। लिखने की शैली (यदि कोई होती है तो) अपनी खुद की ही रही/बनी। </div><div><br /></div><div><span> </span>मेरे ब्लॉग से परिचित लोग बातचीत होने पर पटना डायरी का ज़िक्र करना नहीं भूलते। पहली पोस्ट से ही। मुझे याद है ढाई महीने के पटना प्रवास के दिनों में गिरिजेश राव फ़ोन कर पूछते कि अगली पोस्ट कब आ रही है? पटना के लोग भी बड़ी आत्मीयता से टिप्पणी करते। धीरे-धीरे प्रतिक्रियाओं और सुझावों में एक बात नियमित रूप लेती गयी कि इसे छपना चाहिए। पुरानी पोस्टें अभी भी लोग पढ़ते रहते हैं, याद दिलाते रहते हैं। कहने वालों ने ये भी कहा कि वो पोस्ट का प्रिंट आउट निकाल कर पढ़ते-पढ़ाते हैं। कितना सच है वो नहीं पता पर जिन लोगों ने कहा वो झूठ बोलने वाले लोग नहीं हैं। शिव कुमार मिश्र, ज्ञानदत्त पांडेय, पूजा उपाध्याय, रवि रतलामी, अनुराग शर्मा, गिरिजेश राव, अनूप शुक्ल, रंजना सिंह… दर्जनों श्रद्धेय एवं भले लोगों की कुछेक टिप्पणियाँ/बातें तो याद रह गयी। सागर ने उन दिनों बड़ी प्रेरित करने वाली टिप्पणियाँ की थी। </div><div><br /></div><div><span> </span>एक बार देव झा मिले तो बोले - “वाह! पटना सीरीज क कितबिया कब बन रही है!” मुझे लगा कि ये तो पहले भी सुनी हुई बात लग रही है। तो उन्होंने बताया कि अरे ज्ञानदत्तजी ने टिप्पणी की थी आपके पोस्ट पर वही याद दिला रहा हूँ। लिख दीजिए।</div><div><br /></div><div><span> </span>पूजा उपाध्याय तो नियमित रूप से पहले कहती रही कि लिखो फिर पूछती रही कि कितना लिखा? मैंने एक बार कह दिया था कि सरस्वती पूजा तक लिख दूँगा। साल बताया नहीं था तो उसके बाद कितने भी साल निकल गए हो वादा टूटा हुआ नहीं कहेंगे। रविजी ने भी एक से अधिक बार कहा कि इसे संकलित कर भेजिए किसी को छापने के लिए। मैंने शंका दिखायी की छापेगा कौन तो लोगों ने ये भी कहा कि तुम लिख दो हम छपवा देंगे। </div><div><br /></div><div>पर बात आयी-गयी होती रही। </div><div><br /></div><div><span> </span>अनूप जी पिछले साल न्यूयॉर्क आए तो मिले। उन्होंने फ़ोन पर किसी को परिचय दिया - “अभिषेक ओझा के साथ हूँ, वही जो फ़ंक्शन फाड़ देते हैं। जो पटना लिखते थे।” फिर उन्होंने कहा - “बड़ा मज़ेदार लिखते थे तुम, छपवाओ उसे।” मैंने कहा समय का बहुत अभाव है। कभी छुट्टी लेकर लिखूँगा। तो उन्होंने कहा कि ऐसे नहीं होता। छुट्टी लेकर तो नहीं हो पाएगा लिखना। उसी में लिख दो। पर समय का अभाव ऐसा था कि दिनचर्या में ऐसा कोई काम ही नहीं था जिसमें कटौती कर समय निकाला जाय। ऐसा भी कोई काम नहीं था जिससे ज़्यादा ज़रूरी काम किताब लिखना लगे। </div><div><br /></div><div><span> </span>इसका एक कारण ये भी था कि सुनता हूँ लिखने वाले पढ़ने वाले से अधिक हो गए हैं। और बहुत कुछ अपठनीय भी लिखा गया है। सुनी सुनाई इसलिए बात कह रहा हूँ क्योंकि मैंने हिंदी के नए लेखकों का कुछ पढ़ा नहीं - ना अच्छा ना बुरा। मैं महीने में औसतन डेढ़ से दो किताबें पढ़ता हूँ। लेकिन हिंदी में ब्लॉग के अतिरिक्त पिछले २०-२५ वर्षों में छपी किताबें मैंने लगभग नहीं पढ़ी। ब्लॉगिंग के दोस्त-मित्रों की दो-चार किताबों को छोड़ दें तो। अपठनीय के विपरीत हिंदी में मैंने जो पढ़ा वो इतना अच्छा पढ़ा है कि पढ़ते हुए हमेशा लगा कि इतना अच्छा नहीं लिख सकते तो लिखने का कोई मतलब नहीं। और इसलिए भी हम छपने के लिए नहीं लिखते रहे। बचपन में लेखकों के बारे में जानना बड़ा अच्छा लगता। अख़बार में छपने वालों से लेकर पाठ्यक्रम की पुस्तकों के लखकों तक। हर पुस्तक की भूमिका और लेखक के बारे में भी ज़रूर पढ़ता कि ये कौन लोग होते हैं जो किताबें लिखते हैं। अक्सर बड़ा ख़तरनाक टाइप का परिचय भी होता लेखकों का -“कट्टा थे, तमंचा थे, सम्प्रति तोप हैं”। सम्प्रति शब्द का मतलब ही लेखक परिचयों से पता चला था। पर छपने वालों के प्रति जो बचपन से सम्मान था वो भी धीरे-धीरे कम होता गया। बहुत दिनों से मैंने अपना एक <a href="https://twitter.com/aojha/status/1034805385348218880" target="_blank">ट्वीट पिन</a> किया हुआ है - <i>“पढ़े लिखे, अखबार में छपने वाले, किताब लिखने वाले, टीवी पर दिखने वाले... बुद्धिजीवी, एक्टिविस्ट वगैरह वगैरह बचपन में सही में लगता था तोपची लोग होते होंगे ! धन्य हो ट्वीटर की बारिश सारे रंगे सियार हुआँ-हुआँ करते दिखने लगे !”</i> </div><div><br /></div><div><span> </span>एक बात ये भी थी कि किताब से अधिक ब्लॉग की अहमियत लगती। ये वो जान सकता है जिसने उस समय से ब्लॉग लिखना शुरू किया हो जब सोशल मीडिया ऐसा नहीं था। पढ़ना इतना त्वरित नहीं था। हिंदी के ब्लॉग लोग बड़ी आत्मीयता से पढ़ते और टिप्पणी करते। (स्माइली के साथ नाइस और अप्रतिम लेखन के लिए साधुवाद जैसी टिप्पणियाँ भी थी!)। अपने तरह के लोग मिले। बड़ी अच्छी दोस्तियाँ हुई। वैसे लोग किसी और तरीक़े से कहाँ ही मिले होते! गर्व सा होता है कि हम ऐसे लोगों को जानते हैं। कुछ लिखने के बाद यदि उसकी कुछ जमा पूँजी है तो तो वो है उस पर आने वाली प्रतिक्रियाएँ। ये जानना कि लोगों को वो अच्छा लगा। ये जानना कि पढ़ते हुए लोगों को लगा कि वो साथ चल रहे हैं। उनकी अपनी बात लिख दी हो जैसे किसी ने या कोई और भी ऐसे सोचता है। पढ़ कर किसी को किसी उलझन का हल मिल जाए। पात्रों के संवाद में अपनी बात झलक जाए। और ये सब पटना डायरी से भरपूर मिला। कई लोग हैं जिनसे बात कर मुझे आश्चर्य हुआ कि लोगों ने इतने अच्छे से पढ़ा है जितने अच्छे से मैंने लिखा नहीं! </div><br class="Apple-interchange-newline" /> पर स्वाभाविक है मुझे पटना डायरी पर आने वाली प्रतिक्रियाएँ हमेशा अच्छी लगी तो लिखना टलता तो रहा पर ये भी था कि कभी तो लिखना होगा ही। और ये भी स्पष्ट हो गया था कि पहली किताब होगी तो पटना डायरी की शैली में ही। और अभी भी लोगों को लगता है कि किताब का अपना ही जलवा है। इंटरनेट-ब्लॉग अपनी जगह है। तो लोग कहते रहे कि किताब छपवाओ।<div><br /></div><div><span> चार साल पहले एक सम्पादक से मिलना भी हुआ</span> पर उसके बाद भी आलस में बात वहीं की वहीं रह गयी। संपदाकजी की सुझाई एक बात याद रह गयी उन्होंने कहा था कि तुमने लिखा बहुत अच्छा है पर ब्लॉग तो लोगों ने पढ़ लिया है। ऐसा ही उपन्यास के रूप में लिखो, डायरी के रूप में नहीं। विचार अच्छा था पर समय के अभाव और आलस में गुम सा हो गया। </div><div><br /></div><div><span> </span> ऐसे कामों के लिए मुझ जैसे व्यक्ति को धक्का (nudge) चाहिए होता है। एक बार नहीं निरंतर। इसका एक उदाहरण तो यही है कि जिन समाचार पत्रों ने लिखने के पैसे भी दिए, जिन्हें पढ़ते भी बहुत लोग हैं पर कह कर भूल गए कि हर सप्ताह लिख कर भेज दीजिए वहाँ दो-चार लेखों से आगे नहीं लिख पाया। पर जिन्होंने निरंतर कहा कि अगला आलेख भेजिए। "इस बार अभी तक नहीं भेजा" कह याद दिलाते रहे वहाँ लिखता रहा। कोई करवा ले तो हो जाता है। वो धक्का (nudge) मिलता भी रहा (भगवान ऐसे दोस्त सबको दें!) तो बस पिछले साल (२०२० नहीं १९ में ही) लिख दी गयी, अनूप जी के जाने के कुछ दिनों बाद। लिखना कठिन नहीं था क्योंकि बहुत दिनों से एक कहानी मन में चलने लगी थी। किरदार बन गए थे। तो किताब पूरी हो गयी। प्रकाशक को भेजते ही उम्मीद से जल्दी उसी रूप में स्वीकार भी हो गयी। पर किताब का कवर, डिज़ाइन, सम्पादन और इन सबके साथ कोरोना। लिखी लिखाई किताब का काम धीमी गति का समाचार हो गया। हमें लगा था किताब लिखना ही सबसे धीमा काम होता है पर छपना उससे कम धीमा नहीं निकला। ख़ैर हम अपना काम कर दिए थे और जब काम किसी और के पास अटका हो तो मज़ा ही होता है। दफ़्तरों में जैसे ही लोगों को पता चलता है कि किसी और टीम के पास काम अटका है तो वो एक दम से चौड़े हो जाते हैं! - हम कर ही क्या सकते हैं फलाने टीम के पास जाइए! डीपेड़ेंसी है उनके काम पर। तो हम भी लिखने के बाद मज़े में हो गए। </div><div><br /></div><div>पर अब किताब आ जाएगी। जनवरी अंत तक निर्धारित है। तो एकाध सप्ताह इधर तो नहीं पर शायद उधर हो जाए।</div><div><br /></div><div><span> </span><span> जब आ जाए</span> तो पढ़ा जाए। पढ़ाया जाय। और अच्छी लगे तो लोगों को बाताया जाय। गिफ़्टित किया जाय। कोई कहे कि बहुत दिनों से हिंदी में कुछ अच्छा नहीं पढ़ा हो तो जवाब के रूप में भी बताया जाय। और हमें ज़रूर बताया जाय कि कैसी लगी। छपने के पहले सम्पादक मंडली के अतिरिक्त पाँच लोगों ने किताब का ड्राफ़्ट पढ़ा। उन्होंने तो कुछ ज़्यादा ही अच्छा-अच्छा कह दिया। पर उस पर नहीं जाना चाहिए। हाँ एक बात तो है कि पढ़ने वालों की पृष्ठभूमि बड़ी अलग-अलग थी। हिंदी पढ़ने वालों से लेकर ऐसे जिन्होंने एक दशक या उससे भी बाद हिंदी पढ़ी। और सभी पढ़ने वालों की ‘मुझे सबसे ज़्यादा अच्छी बात ये लगी’ वाली बातें अलग-अलग थी। पात्र, संवाद और अध्याय भी सबको अलग-अलग पसंद आए। मुझे बहुत सी अच्छी-अच्छी बातें बतायी गयी पर उन्हें बताने पर लगेगा कि किताब बेचने के लिए कह रहा हूँ। पर …मुश्किल है कि पढ़ते हुए किसी को ऐसा ना लगे कि वो किरदारों के साथ नहीं चल रहे हैं। या कहीं ना कहीं उन्हें पढ़ते हुए खुद की बात ना मिल जाए। है तो उपन्यास ही पर पढ़ने वालों को पढ़ते हुए व्यंग, रोमांटिक, नोस्टालज़िया, भाषा, समाज से लेकर गम्भीर बातें तक भी मिली। </div><div><br /></div><div><span> </span>ख़ैर कैसी किताब होगी ये तो आप पढ़ने वाले बताएँगे वो बताना या सोचना मेरा काम नहीं है। मेरा काम था लिखना। बेचने के लिए मेहनत करना तो मुझसे होने से रहा। तो पढ़ कर बताया जाय। ईमानदार प्रतिक्रिया/आलोचना/समीक्षा ज़रूरी है। क्योंकि एक लिखने के बाद अब और लिखने का प्रस्ताव और विचार दोनों है। </div><div><br /></div><div><span> </span>जिन टिप्पणियों/बातों ने लिखने को प्रेरित किया उन्हें भी यहाँ संकलित करना ऐसे हो जाएगा जैसे किताब बेचने के लिए लिख रहे हैं। पर हैं कम से कम दो दर्जन टिप्पणियाँ और ईमेल हैं जो इस वारदात के लिए क़सूरवार ठहरायी जा सकती हैं। उन्हें किताब के लिए जल्दी ही वेबपेज बनेगा तो वहाँ संकलित किया जाएगा।
</div><div><br /></div><div>किताब राजपाल एंड संस से आएगी। </div><div><br /></div><div><span> </span>बाकी कवर, किताब ख़रीदने के पते-ठिकाने, लिंक वग़ैरह की जानकारी जैसे ही आएगी दी जाएगी। किताब आने के पहले सोशल मीडिया वग़ैरह पर जानकारी तो दिखेगी ही। मेरे पेज पर भी और अन्यत्र भी। तो उसे अनदेखा नहीं करना है। किसी और कि बात होती तो चल जाता यहाँ तो मामला अपने घर जैसा है। बात आप समझ ही रहे हैं :)</div><div><br /></div><div><span> </span>नव वर्ष की शुभकामनाएँ। मंगलमय हो। </div><div><br /></div><div> *चलते-चलते:<i>वैसे एक प्रेमपत्र और एक कविता वाली (दोनों ही मैं लिखता नहीं गलती से कभी लिख दिया था) पोस्ट एकाकी रूप में सबसे अधिक पढ़ी गयी पोस्ट हैं। पर अपवादों के लिए कब नियम रुकें हैं।</i></div><div><i><br /></i></div><div><i>--</i></div><div><i>~Abhishek Ojha~</i></div><div class="blogger-post-footer"><a href="http://www.aojha.in">Abhishek Ojha</a></div>Abhishek Ojhahttp://www.blogger.com/profile/12513762898738044716noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-8813075190326884926.post-41604295373919561302020-12-14T21:40:00.008-05:002021-03-26T09:29:42.403-04:00झाल कूटना
‘झाल’ अर्थात् झाँझ (झाल मुरी वाला झाल नहीं)। काँसे का बना हुआ ताल देने का वाद्य यंत्र जिसे मंजीरा भी कहते हैं। <div><br /></div><div>अब झाल वाद्य यंत्र है तो इसके साथ क्रिया होनी चाहिए बजाना अर्थात् ऐसे - <i>झाल बजाना</i>। वो होती भी है लेकिन झाल के लिए कूटना भी एक क्रिया होती है। हमने इसे कैसे जाना वो बता देते हैं। आशा है अर्थ भी स्पष्ट हो जाएगा। </div><div><br /></div><div>हमारे पड़ोस में एक सज्जन (ऐसा ही कहा जाने का चलन है तो इसे उनका <i>कैरेक्टेर सर्टिफ़िकेट </i>ना समझा जाय) रहते थे। वो ‘झाल-कूटने’ का वाक्य में बड़ा अद्भुत प्रयोग करते। एक उम्र तक हमें लगता रहा ये कोई मुहावरा होता है, हो सकता है होता भी हो हमें</div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhNlX544ds7sr8U_cDu1332aaYw17vW8rDAKr69ILvPmoGiCR4Uffwcz_-Jw1No9DFAOPainofZqDBHCYh0gUMgAk2MD0ex1oq9dcvYAmm6-xNzkiFkH2VTcwOBpb_LX6veMbSouq9Rsa3J/s2048/jhaal.jpg" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="1510" data-original-width="2048" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhNlX544ds7sr8U_cDu1332aaYw17vW8rDAKr69ILvPmoGiCR4Uffwcz_-Jw1No9DFAOPainofZqDBHCYh0gUMgAk2MD0ex1oq9dcvYAmm6-xNzkiFkH2VTcwOBpb_LX6veMbSouq9Rsa3J/s320/jhaal.jpg" width="320" /></a></div>ठीक-ठीक नहीं पता। उनके बच्चे नहीं पढ़ते या लड़ाई-झगड़ा करके आते तो वो कहते – “नालायक कहीं के, यही सब करो फिर झाल कूटना”। </div><div><br /></div><div>गुस्साते तो कहते – “जाओ झाल कूटो”। </div><div><br /></div><div> इस वैधानिक चेतावनी का मतलब हम वही समझते रहे जो आप समझे। उनके बच्चों पर भी इसका वैधानिक चेतावनी सा ही असर होता। उन्हें घंटा फ़र्क़ नहीं पड़ता था। मतलब एक घंटे तक भी उन पर इस बात का कोई असर नहीं होता। पर झाल कूटने का अर्थ इतना भी सरल नहीं। एक दिन उन्होंने किसी व्यक्ति के झाल कूटने का वर्णन किया तो लगा कि इसका अर्थ इतना हल्के में भी नहीं लिया जा सकता। वो बोले – “फलाना आदमी क्या झाल कूटता है! ग़ज़ब। दिल से। बाकी लोग झाल बजाते हैं वो कूट देता है। समझिए कि जब धुन में होता है तो दुरमुस देता है। जब लय जमती है तो वो तो जैसे वहाँ होता ही नहीं है। अपना शरीर झँझोड़ के रख देता है। सिर, कंधे और हाथ एक्के फ़्रीक्वेंसी में झूमता है उसका। कैसे बताएँ – एकदम ग़ज़ब। आपको देखना चाहिए कभी। उस समय बग़ल में आग भी लग जाए तो वो ताल और लय छोड़ कर नहीं हिल सकता। उस समय उसे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि अग़ल-बग़ल क्या हो रहा है। जब ढोलक, मृदंग वग़ैरह का लय सुस्त होता है तब जाकर कहीं वो कूटना बंद करता है।” </div><div><br /></div><div> किसी ने कहा – “अरे चिल्लम का ज़ोर रहा होगा”। </div><div><br /></div><div> तो बुरा मान गए। बोले “चिल्लम से वो काम नहीं हो सकता भई, आप देखे नहीं हैं इसलिए ऐसा कह रहे हैं।” </div><div><br /></div><div>तब हमें ये भी लगा कि फिर झाल कूटने को ये इतना बुरा क्यों मानते हैं? बड़ी पावरफुल चीज लगती है। पर अक्सर उनकी नज़र में इसका अर्थ एक दम घास काटने वाले हिसाब जैसा ही होता। घास काटने को तो हम बचपन से ही इज्जत देते आए हैं जिसे हम <a href="https://uwaach.aojha.in/2018/02/blog-post.html" target="_blank">पहले</a> बता चुके हैं कि जबसे सुना कि घास भी काटो तो ऐसे कि गोल्फ़ कोर्स का ठीका मिले, तब से तो हमें लगा घास काटना भी नायाब काम है। फ़र्ज़ी बदनाम है। पर झाल कुटाई ठीक-ठीक समझ नहीं आ पायी। अर्थ अभी भी वही रहा – एकदम बेकार। निकम्मा। किसी काम का आदमी नहीं। (वैसे पिछले तीनों का अर्थ एक ही होता है लेकिन बात में वजन लाने के लिए लिखा।) </div><div><br /></div><div> “तबाह कर के रख दिया है, संतान है कि दुश्मन! जाओ झाल कूटो तुम लोग।” कूटना हमेशा बजाने से बहुत ऊपर की चीज लगती। हमने स्वयं भी देखा एक दो बार किसी मंदिर में, तो किसी मंडली में झाल बजाने में रमें लोगों को पर उससे भी अर्थ पूरी तरह समझ नहीं आया। क्लीयर भी नहीं हुआ कि ये बजाना है या कूटना।</div><div><br /></div><div> जब उनके बच्चे बड़े हुए तो एक ने बड़ी मेहनत की। उन्होंने भी मेहनत की कि बेटा गुमटी लगा देते हैं, टेम्पो चला लो। बेटा लेकिन बाप की बात का गाँठ बांध लिया था। कहता कि बाबूजी हम झाल नहीं कूटेंगे। अब जो भी मतलब होता हो। हमने पारिवारिक मुहावरा समझ लिया था। हमारे लिए सुनी-सुनाई बात थी। किसी व्याकरण की किताब में तो पढ़े नहीं थे। बस वाक्य में प्रयोग किया ही सुनते आए थे अर्थ पता नहीं था। उनके लड़के की सरकारी नौकरी की उमर निकलने लगी तो दसवीं की परीक्षा फिर से देकर उसने उमर का नया सर्टिफ़िकेट रोप दिया। उसे झाल जो नहीं कूटना था। नए उमर का पौधा भी कहाँ एक दिन में बड़ा होता – कम उमर करवा के फिर से दसवीं दिया। बारहवीं दिया। इस सबके बाद अंततः लड़के ने सरकारी परीक्षा निकाल ली। नए काग़ज़ों में उमर अभी भी लड़के की ही थी तो लड़का ही कहेंगे वैसे उसके बाल बच्चे भी अब स्कूल जाने लगे थे। ख़ैर मूल बात ये कि सरकारी नौकरी मिल गयी। </div><div><br /></div><div> स्वाभाविक है बेटे की नौकरी से वो बड़े प्रसन्न हुए। साक्षात भगवान के दर्शन जैसी बात थी। मुहल्ले के चौराहे पर खड़े होकर (दरअसल तिराहा था पर आपको कौन सा उसका दाखिल-ख़ारिज कराना है।) दोनों हाथ ऊपर कर आशीर्वाद देते हुए बोले – “जाओ बेटा अब तो सरकारी नौकरी हो गयी। तुम बहुत मेहनत किए। तार दिए हमको। अब क्या? मन करे काम करो, नहीं मन करे तो झाल कूटो।” </div><div><br /></div><div> मामला और अटक गया। अब तक का समझा सब गोल हो गया! हमारा दिमाग़ चकरा गया। ये क्या माजरा है! लगा ये तो बड़ा व्यापक मुहावरा है। आशीर्वाद भी झाल कूटो, गाली भी झाल कूटो! जब यही था तो ज़िंदगी भर बच्चों को गलियाते किस बात का रहे? बात समझ नहीं आयी। समय अपनी गति से चलता रहा (वो थोड़े ना झाल कूटेगा!)। हमें ज़िंदगी कहीं का कहीं ले गयी। लेकिन संयोग से कुछ सालों बाद एक बार उनसे सामना हुआ। हमने अच्छा मौक़ा देख विनम्रता से पूछ ही लिया - “चाचा आप झाल कूटने का बड़ा सुंदर उपयोग करते हैं। ज़रा उस पर प्रकाश डालिए। हम दर्जन भर देश गए लेकिन ऐसी व्यापक बात किसी से नहीं सुनी।”</div><div><br /></div><div>बहुत खुश हुए। बहुत ही। तीसरी बार भी लिख दे रहा हूँ उन्हें इतनी ख़ुशी हुई कि उन्हें थोड़ी देर तक समझ नहीं आया कि इतनी ख़ुशी फूट के आ रही है कि उसका करें क्या। जैसी किसी कवि की कविता कोई सुनने को तैयार ना हो और कोई आकर ऐसा कहे कि कवि से बेहतर वो समझ गया हो।
आराम से चौड़े होकर बताए। लेकिन उमर हो गयी थी उनकी। उतनी की उस उमर में इंसान बातें अक्सर मिश्रित कर देता है। बोले- “देखो बेटा हम ज़िंदगी भर सरकारी नौकरी किए। उदाहरण तो बहुत है हमारी ही ज़िंदगी में। लेकिन हम बता दें तुमको कि हम रात के शिफ़्ट में फ़ैक्ट्री कम्बल लेकर जाते थे। क्योंकि दिन भर घर का काम करते।” </div><div><br /></div><div> हमें कर्मठता और कम्बल का सम्बन्ध समझ नहीं आया, इसमें झाल कुटाई का ज़िक्र भी कहीं नहीं था। पर हमारे पूछने के पहले ही वो बोले -
“हम शिफ़्ट में आठ घंटा कम्बल तान के सोते थे। फ़ाउंड्री से लेकर हेभी मशीन सब विभाग था वहाँ। बग़ल में भट्ठी भी थी तो हर कुछ दिन पर मशीन का एक आध नट खोल के उसीमें स्वाहा कर देते। मशीन बंद रहती तो हम कैसे काम करते? मशीन को भी आराम हम को भी आराम। निर्भेद सोते। और उसी से हम ये भी सीखे कि नींद का शोर से कोई लेना देना नहीं। जो आदमी नहीं सो पाता है शोर उसके दिमाग़ में होता है। बाहर का शोर होता तो हम कभी फ़ैक्ट्री में सो पाते? अरे जैसे चलती ट्रेन में हड़-हड़-गड़-गड़ में आदमी सो ही जाता है। है कि नहीं? वही घर में बोलता है कि शोर से नींद नहीं आयी।” </div><div><br /></div><div>“कभी कोई दिक़्क़त”</div><div><br /></div><div>“दिक़्क़त? सरकारी नौकरी थी। कोई झाल थोड़े कूट रहे थे? प्रमोशन भी टाईम से हुआ। एक बार हमसे हमारे बॉस, बड़े साहब, बोले कि आपको फलाने विभाग में डाल रहे हैं वहाँ काम ठप पड़ा है। आपको जाकर चालू करना है।” </div><div><br /></div><div>हम बोले – “ठप पड़ा है? तो हमको क्यों भेज रहे हैं सर? आपको नहीं पता कि हमारा स्पेसलाइज़ेशन ठप कराने में हैं। चालू कराना है तो किसी और को भेजिए? और देखो बेटा, नहीं हुआ हमारा तबादला। कोई क्या उखाड़ लेगा। सरकारी नौकरी के लिए आदमी ऐसे ही थोड़े ना जान देता है। और अब समझे तुम ? हम क्यों बोले अपने लड़के को कि काम करने का मन हो तब तो भाई कोई क्या कर सकता है, नहीं तो झाल कूटो! काम ही करना होता तो बताओ बेटा उससे अधिक पैसा किस नौकरी में नहीं मिलता है? जितना साल मेरा बेटा गँवा दिया उतने में कहाँ पहुँचा होता। मेहनत करके आदमी कहाँ से कहाँ जाता है। उतनी ही योग्यता और कर्मठता पर भला कौन आदमी सरकारी नौकरी में उतना सफल होगा जितना मेहनत करके किसी और क्षेत्र में? लेकिन सरकारी नौकरी का इतना चार्म क्यों है? हम ऊपर-नीचे की आमदनी की बात नहीं कर रहे हैं। वो छोड़ के तुम्हीं बताओ कहाँ जीवन भर का ऐसा गारंटी मिलेगा झाल कूटने वाले आदमी के लिए।” </div><div> </div><div>“पर ज़माना बदल रहा है अब वही बात नहीं रही। और मेहनत तो सरकारी नौकरी में भी लोग करते हैं।” </div><div> </div><div>“तुम लोग ख़ुशक़िस्मत हो बेटा, जिसे कभी सरकारी दफ़्तर में किसी काम से जाना नहीं पड़ा। तुम लोग इधर-उधर निकल गए। तुम्हारी बात से पता चलता है कि तुम्हें इस विषय में कुछ नहीं पता। बस विज्ञापन और फ़ेसबुक-ओसबूक देख के तुम्हें लगता है कुछ बदल गया है। देखो बेटा, आग लग के भस्म हो जाए और तुम सरकारी ऑफ़िस में एक आदमी को नहीं ढूँढ पाओगे कि पानी डालना किसकी ज़िम्मेवारी थी। किसी की नहीं होती। आजतक एक इंसान की ग़ैर-ज़िम्मेदार होने के लिए या परफ़ोर्मेंस ख़राब होने लिए सरकारी नौकरी नहीं गयी। गयी भी तो कोर्ट से जीत के वापस ले लेगा। बस एक बार मिल जाए। जर-जोरू-ज़मीन किसी का ऐसा गारंटी नहीं जैसा सरकारी नौकरी का।”</div><div><br /></div><div>“फिर चल कैसे रहा है? ऐसा थोड़े होता है कि कोई काम ही नहीं करता।”</div><div><br /></div><div>“चल कैसे रहा है मतलब? भगवान को मानते हो? दुनिया कैसे चल रही है? वैसे ही।”</div><div><br /></div><div>“अरे लेकिन…”</div><div><br /></div><div>“लेकिन क्या? एक साथ कई निकम्मे बैठा दो तो एक सिस्टम बन जाता है और लगता है काम हो रहा है और… समझोगे नहीं पर काम होता भी है। और एकाध अपवाद तो हर जगह मिल ही जाएँगे। तुम्हें क्या लगता है प्राइवेट में झाल कूटने वाले लोग नहीं होते? कहीं कम कहीं ज़्यादा हर जगह होते हैं।”</div><div><br /></div><div>“लेकिन झाल कूटने का मतलब?”</div><div><br /></div><div>“अरे हम क्या बता रहे थे कि एक बार हम कम्बल ओढ़ के सो रहे थे…” </div><div><br /></div><div>थोड़ी देर में बात ऐसी घूम गयी कि हमें लगा जैसे एफ़ेम के पहले के जमाने के रेडियो ने शॉर्ट वेव में किसी और फ़्रेकवेंसी का स्टेशन पकड़ लिया हो और रसियन में कुछ बजने लगा हो। सच कहूँ तो मुझे अभी भी पूरी तरह झाल कूटने का मतलब समझ आया नहीं। पर कई बार कुछ देख मेरे मन में ज़रूर आया कि शायद यही मतलब रहा होगा उनका। </div><div><br /></div><div> मेरे एक मित्र हैं ग्रीस के। उनकी बातें सुन लगता है ग्रीस यूरोप का बिहार है। अरे बिहार से मेरा मतलब वो नहीं है कि इधर मगध-पाटलिपुत्र-चाणक्य-बुद्ध और उधर सुकरात-प्लेटो-अरस्तु-एथेंस वग़ैरह वग़ैरह इधर भी स्वर्णिम उधर भी स्वर्णिम। मेरा मतलब वही था जो आपको पहली बार पढ़ते ही लगा। वो बताते हैं कि उनके पिता बचपन में उन्हें धमकाते कि पढ़ो नहीं तो कंस्ट्रक्शन में काम करना। उन्होंने बताया कि पिता ये भी बताए होते कि किस देश के कंस्ट्रक्शन में काम करना पड़ेगा तो थोड़ा अच्छा होता। अमेरिका में करना होता तो अच्छा ही होता। वो ये बता रहे थे तो मेरे कान में बजा – "पढ़ो नहीं तो झाल कूटना। ये वाला ज़्यादा व्यापक है।"</div><div><br /></div><div> वो बताते हैं ग्रीस में सरकारी नौकरी का पागलपन। बाकी यूरोप में ऐसा नहीं है। उनसे बात कर मुझे पहली बार लगा कि जिस देश में सरकारी नौकरी का <i>चार्म </i>जितना अधिक हो वहाँ झाल कुटाई उतनी अधिक है – निकम्मापन भी उसी हिसाब से है। किसी देश में भ्रष्टाचार, विकास, <i>एफ़िसीएंसी</i>-फ़लाना-ढिमाका ...किसी भी इंडेक्स से अच्छा माप ये होगा कि किस देश में लोग सरकारी नौकरी के लिए कितने पागल हैं। किसी देश में बच्चे सपना देखते हैं कि बड़े होकर कम्पनी खोलेंगे, फ़िज़िक्स में नोबेल जीतेंगे और किसी देश में ये कि बड़े होकर किसी सरकारी दफ़्तर में लाल बत्ती लगा क्लर्क का काम करेंगे। </div><div><br /></div><div>...और तब मुझे लगा झाल कूटना कहने से उनका मतलब क्या होता रहा होगा। </div><div><br /></div><div>मुहावरा हो ना हो उसकी व्यापकता मन में बढ़ती गयी।
और जब मैं सुनता हूँ किसी योग्य सरकारी कर्मचारी को ये कहते कि उन्हें अन्य क्षेत्र में काम कर रहे उनके दोस्तों की तुलना में बहुत कम पैसा मिलता है, तो दिमाग़ में प्रश्न उठता है कि फिर क्या मजबूरी है? पहले नहीं पता था क्या मिलेगा? अभी ही छोड़कर कुछ और कर लें। लेकिन आनंद फ़िल्म के ईसा भाई सूरतवाला की तरह वास्तविकता तो ये हैं कि जब राजेश खन्ना आनंद के किरदार में कहते हैं - मैंने तो छोड़ दी!तो ईसा भई कहते हैं - "छुटती कहाँ है ये काफ़िर मुँह से लगी हुई।" तो समझ में आता है कि झाल कूटना से उनका शायद ऐसा कुछ मतलब रहा होगा। </div><div><br /></div><div> एक बार एयर इंडिया से मैंने यात्रा की थी। कुछ साल पहले। मुंबई में रात को समय से बैठ गए। जहाज़ को आधी रात के लगभग उड़ना था। फ़ोन बंद करवा दिया गया। कुर्सी की पेटी भी बँधवा दी गयी। घोषणा के अनुसार जहाज़ उड़ान के लिए तैयार थी। जब लगा कि कुछ ज़्यादा ही देर से उड़ान के लिए तैयार है, हिल-डुल तो रही नहीं। फिर तैयार किसलिए करवा दिए बिना बात मेकअप ख़राब हो रहा होगा? तो बताया कि रनवे ख़ाली नहीं है। लोग बैठे रहे, हम भी बैठे रहे। लोग मान लेते हैं कि कह रहे हैं तो सही ही कह रहे होंगे, अब कोई कुर्ता (जींस-टी-शर्ट वग़ैरह भी सोच लजिए नहीं तो डिसक्रिमिनेशन का केस बन सकता है) फाड़ के थोड़े ना चिल्लाने लगता है ऐसी बात पर? सुबह पाँच बजे के लगभग बोले कि इस विमान में तकनीकी ख़राबी है। किसी ने पूछा नहीं कि रनवे बिजी होना और तकनीकी ख़राबी एक ही परिवार से हैं या आज संयोग से एक साथ मिल गए? अब जिस चीज़ का कोई उत्तर नहीं हो उसे तकनीकी कहा जाता है ऐसा तो चलन है ही - तकनीकी ख़राबी भी व्यापक है। बताया गया कि आपलोग दूसरे विमान से जाएँगे। सब लोग दूसरे में चले गए। सब लोग में हम भी थे। इसी सब में सुबह आठ बज गए और हम रनवे तक नहीं पहुँच पाए। हमने हमें एयर पोर्ट लेने आने वाले को फ़ोन किया कि अभी तक मुंबई में ही हैं - इधर कार्यक्रमात थोड़ा राडा हो गेला आहे। बताइए मुंबई की सुबह और हम कुर्सी की पेटी बांधकर बैठे थे! ना वड़ा पाव, ना पोहा, ना कटिंग। मुंबई में इसके अलावा ऐसी मनहूस सुबह हमने नहीं बितायी। (साला जतरा ख़राब था ये हम सोचे नहीं थे अब ध्यान आ रहा है! जतरा समझते हैं ना आप लोग?)</div><div><br /></div><div> पौ फटने के बाद ही जहाज़ उड़ पायी। घोषणा हुई कि सारा खाना इस जहाज़ में लोड नहीं हो पाया तो एक बार ही भोजन मिलेगा। हमारी भोजन की आवश्यकता बहुत नहीं होती तो हमने इसके लिए भी कुछ नहीं किया। कुछ लोगों की काँय-कूँय ज़रूर सुनाई दी पर कोई क्रांति नहीं हुई। </div><div><br /></div><div>असली मज़ा तब आया जब लगभग निर्धारित समय के दस घंटे बाद हम अपने समान के लिए खड़े थे। एक आदमी एक लिस्ट लेकर आया और बोला कि लगभग आधे लोगों का समान नहीं आया है। उसने कहा कि इस लिस्ट में अपना नाम देख लीजिए। बिना माइक पर घोषणा हुए भी बात जंगल के आग की तरह फैल गयी। उन्होंने कहा कि अगर आपका नाम इसमें है तो वहाँ जाकर फ़ॉर्म भर दीजिए आपका सामान नहीं आया है। अब हमारा नाम ऐसे किसी लिस्ट में कैसे नहीं रहेगा? जहां योग्यता से नहीं रहे वहाँ भी <i>अलफाबेटिकल </i>से टॉप पोजिशन कौन छीन सकता है (फ़ैशन के दौर में ये गारंटी भी नहीं रही, डबल ए से नाम लिखने वाले खेल ख़राब कर दे रहे हैं)।
पर हमने सबसे पहले गोरों की शक्ल देखी, अपना क्या हम तो फिर भी समझते हैं! एक गोरे ने सू-सू करने की धमकी दी (दो बार गलती से लिखा गया एक बार ही पढ़ा जाय)। उसे विश्वास नहीं हुआ कि जब लिस्ट है, पहले से पता था तो इतनी लम्बी फ़्लाइट में बताए क्यों नहीं? सात समंदर पार करने में एक बार इन्हें ये बताने का नहीं सूझा?! उसे भी किसी ने बताया कि वहाँ काउंटर पर फ़ॉर्म भरना है। मुझे पता था वहाँ भी लाइन लगेगी तो मैं पहले से ही वहाँ था। मेरे लाइन में मेरे पीछे खड़े होकर उसने मन भर गालियाँ दी। (एक मन में चालीस किलो होता है अगर कोई शंका हो तो)। मुझे नहीं एयर इंडिया को।</div><div><br /></div><div> मैंने फ़ॉर्म भरते हुए काउंटर पर बैठी लड़की से पूछा कि ऐसे कैसे हो जाता है? और मेरा सामान कब तक आएगा। उसने बोला सर आप इस नम्बर पर फ़ोन करके पूछ लीजिएगा हमें कोई जानकारी नहीं है।</div><div><br /></div><div> हमने अपने पीछे के लोगों का मूड देखकर छोड़ दिया। मन में तपोबल जैसा जो भी होता हो उसे पूरा बटोर कर शाप देते हुए कि तुम्हारी खड़ूसियत का बदला मेरे बाद आने वाले तुमसे ज़रूर लें। भला आदमी इसके अलावा और कर भी क्या सकता है। </div><div><br /></div><div> कई दिन तक मैं फ़ोन करता रहा। उस नम्बर पर नहीं। इंटर्नेट से ढूँढे नम्बर पर। क्योंकि उस नम्बर पर कभी किसी ने फ़ोन नहीं उठाया। कॉल सेंटर पर ये दबाएँ, वो दबाएँ होने के बाद कभी-कभार बात हो जाती तो मुझे इतना समझ आ गया कि उधर बैठा प्राणी उसी वेबसाइट को देखकर मुझे स्टेटस बता रहा है जहां मैं भी देख लेता हूँ।
मैंने एक दिन सुकून से पूछा कि भई तुम्हें हिंदी आती है? वो बोला हाँ।
मैंने कहा फ़ोन मत रखना और कट जाए तो मुझे फ़ोन करना। बड़ी ज़रूरी बात है। अपनी भाषा में आराम से की जाएगी बात। अंग्रेज़ी में गाली भी दो तो वजन नहीं आता। </div><div><br /></div><div>मैंने आराम से सारी कहानी सुनाई और पूछा कि ये बताओ किससे बात करूँ? कौन ज़िम्मेवार है? कौन है जो कुछ कर सकता है उसी से बात की जाएगी?
वो बोला सर मैं समझ गया। आप क्लेम कर दीजिए। आपके समान का पैसा भी मिल जाएगा। देरी के लिए भी आपको पैसे मिलेंगे। मैंने कहा भई वो मेरे क्रेडिट कार्ड वाले ने भी कहा कि वो पैसे दे देंगे पर उन्होंने कहा कि एक फ़ॉर्म पर एयर इंडिया से किसी का साइन चाहिए तो मैंने कह दिया कि फिर रहने दो नहीं चाहिए पैसे। तुम इतना सुनने के बाद भी मुझे बता रहे हो कि पैसे मिल जाएँगे? समान ही भिजवा दो पैसे रहने दो। </div><div><br /></div><div> इसके बाद उस भले आदमी ने मेरी आँखें खोल दी। बोला सर आपकी परेशानी मैं समझ रहा हूँ पर मेरा काम यहाँ लिखे लिखाए उत्तर पढ़ के सुनाना है। और ये बताना है कि एयर इंडिया आपकी सेवा में है। आपका सामान सुरक्षित आप तक पहुँचना हमारा काम है - ये बताना मेरा काम है पहुँचाना नहीं। आप समझ ही गए मैं किस वेबसाइट से देखकर बताता हूँ। इससे अधिक मेरे हाथ में कुछ है नहीं। आप फिर फ़ोन करेंगे मैं फिर वही पढ़कर सुना दूँगा। और ज़िम्मेवारी तो सर किसी की नहीं है। मैं आपको किसका नम्बर दूँ? एक आदमी होता तो मैं नम्बर नहीं भी देता तो बता देता कि किसकी गलती है। कोई ज़िम्मेवार है ही नहीं तो मैं किससे बात करने को कहूँ। और कोई कुछ नहीं कर सकता। रोज होता है ये। और एयर इंडिया की मुंबई नूअर्क फ़्लाइट में तो हर दूसरे दिन क्योंकि उसमें इतना समान आता ही नहीं। वो एयर क्राफ़्ट ही नहीं है इतनी दूरी तक उड़ाए जाने वाला। अक्सर आधा समान इधर ही रह जाता है। बाद में कार्गो से जाता है। आप न्यूज़ सर्च कर लीजिए मिल जाएगा। अब आप ही बताइए कौन ज़िम्मेवार है? और कौन करा सकता है आपका काम? हम तो बस पढ़ के बता देते हैं आपको। न्यूज़ पढ़ने वाले की तरह कई बार ये भी नहीं पता होता कि हम क्या पढ़ रहे हैं। मैंने कहा - "यार चलो कोई बात नहीं तुम झाल कूटो। एयर इंडिया चुनने के लिए आपका धन्यवाद वाली लाइन आज मत बोलना।"</div><div><br /></div><div>(पोस्ट लम्बा ना हो जाए पर घटना इतनी छोटी नहीं थी। मैंने ये उदाहरण यूनिवर्सिटी के मास्टर्स की क्लास के स्टूडेंट्स को सुनाया था जब किसी ने पूछा था कि आन्साम्बल लर्निंग में कई वीक लर्नर को मिला देने से स्ट्रॉंग लर्नर कैसे बन सकता है! मैंने सोचा उदाहरण सटीक है वो भूलेंगे नहीं। ख़ैर बात कहीं और निकल जाएगी।)</div><div><br /></div><div>अंततः मेरा सामान आया दस दिन बाद।
और तब मुझे थोड़ा और समझ आया कि सरकारी काम में झाल कूटना क्या होता है।
मैं सोशल मीडिया पर देखता हूँ तुरत जवाब आता है कि हम आपकी समस्या देख रहे हैं। हमसे भी एयर इंडिया ने पीएनआर और टैग नम्बर माँगा था ट्विट्टर पर। जैसे सामान लेकर घर के बाहर ही खड़े हैं। हमें डीएम कीजिए, कभी ये भी कह देते हैं कि आपकी समस्या हल हो गयी है - हमें जानकारी भी नहीं होती। उनका बस इतना काम होता है कि ट्विट्टर पर तुरत जवाब दे देना है। और उसके बाद कम्बल तान के सो जाते हैं। मशीन का नट खोलकर भट्ठी में डालकर। तो थोड़ा समझ आता है कि वो झाल कूटना शायद इसे कहते थे। </div><div><br /></div><div> मुझे सरकारी दफ़्तरों से अधिक पाला नहीं पड़ा। गिने चुने बार। पासपोर्ट, पैन, ड्राइविंग लायसेंस जैसे काम के अलावा कभी चक्कर नहीं लगाया मैंने किसी सरकारी दफ़्तर का। एक सुख का पैमाना ये भी हो सकता है कि जितना कम इस चक्कर में पड़ना पड़े। लेकिन जब भी कभी थोड़ा बहुत काम पड़ा – थोड़ा सा समझ आया कि चाचा क्या कहते थे जब कहते थे कि झाल कूटो। वैसे ये तो नहीं कह सकता कि पूरा समझ आया। आपको समझ आया हो तो बताइएगा। अब वो रहे नहीं कि उनसे और क्लीयर किया जाय।* </div><div><br /></div><div>* और लिखा तो झाल कूटने वाले मिल के मुझे कूट देंगे :)</div><div><br /></div><div>--</div><div><br /></div><div>~Abhishek Ojha~</div><div class="blogger-post-footer"><a href="http://www.aojha.in">Abhishek Ojha</a></div>Abhishek Ojhahttp://www.blogger.com/profile/12513762898738044716noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-8813075190326884926.post-18157966727915860722020-04-13T12:19:00.002-04:002020-04-14T09:41:15.791-04:00सुर्रियल पटना (पटना २३)<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="MsoNormal" style="font-family: Calibri, sans-serif; margin: 0in 0in 0.0001pt;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="font-family: Calibri, sans-serif; margin: 0in 0in 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">कल बीरेंदर को फ़ोन किए।</span><span style="font-family: "helveticaneue";"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-family: Calibri, sans-serif; margin: 0in 0in 0.0001pt;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="font-family: Calibri, sans-serif; margin: 0in 0in 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">फ़ोन उठाते ही बोला – ‘बीरेंदर स्पीकिंग।’</span><span style="font-family: "helveticaneue";"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-family: Calibri, sans-serif; margin: 0in 0in 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-family: Calibri, sans-serif; margin: 0in 0in 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">मैंने पूछा कि ‘हैं? ये अंग्रेज़ी कब से बोलने लगे तुम? सब ठीक?’</span><span style="font-family: "helveticaneue";"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-family: Calibri, sans-serif; margin: 0in 0in 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-family: Calibri, sans-serif; margin: 0in 0in 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">‘आरे नहीं भैया। सोचे कि थोड़ा स्टाइल मारे। चलिए इसी बहाने कुछ और बात करेंगे। जो फ़ोन करता है आजकल एक्के बात पूछता है। उ ऐसा है कि हमलोग के साथ का एक ठो लड़का पढ़ता था। हमसे एक साल आगे था।</span><span lang="HI" style="font-family: "helveticaneue";"> </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">हमलोग अभी पर्हिए रहे थे तब तक उसका बैंगलोर में नौकरी लग गया था। उसको एक दिन फ़ोन किए त ऐसही बोला अंग्रेज़ी में। त हम बोले – साला! ई का हो गया है रे तुमको? छौ महीना हुआ नहीं आ तुम स्पीकिंग सीख लिया? ज़िंदगी भर रैपीडेक्स का किताब पढ़ के पार्डन बोलना नहीं सीख पाया था। हमहीं पर प्रैक्टिस कर रहा है का रे? कि सही में भुला गया भासा-ओसा?’ </span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-family: Calibri, sans-serif; margin: 0in 0in 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-family: Calibri, sans-serif; margin: 0in 0in 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">...उसके बाद से उसका जो ना हमलोग हाल किए थे आजतक हमलोग से अंग्रेज़ी नहीं बोल सकता है उ कभी। उसका नामे हमलोग रख दिए पार्डन प्रसाद। त वही करके देखे की आपको कैसा लगता है।</span><span style="font-family: "mangal" , serif;">’</span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-family: Calibri, sans-serif; margin: 0in 0in 0.0001pt;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="font-family: Calibri, sans-serif; margin: 0in 0in 0.0001pt;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="font-family: Calibri, sans-serif; margin: 0in 0in 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">लेकिन जैसा कि आजकल हाल चाल पूछना औपचारिकता वग़ैरह कोरोना के बारे में पूछना ही हो गया है। ऐसा हो गया है कि कोई भी कोरोना की बात किए </span><span style="font-family: "mangal" , serif;">बिना </span><span style="font-family: "mangal" , serif;">दो मिनट भी बात नहीं कर सकता, तो हम भी कुछ और बात कितनी देर करते?</span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-family: Calibri, sans-serif; margin: 0in 0in 0.0001pt;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="font-family: Calibri, sans-serif; margin: 0in 0in 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">मैंने भी पूछ लिया कि ‘और क्या हाल हैं? सुना है कि लोग एक दम बोर हो गए हैं लॉकडाउन में? संभल के रहना।’</span><span style="font-family: "helveticaneue";"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-family: Calibri, sans-serif; margin: 0in 0in 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-family: Calibri, sans-serif; margin: 0in 0in 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">‘तबियत ठीक है भैया। आ बोर होने का हमसे मत पूछिए। जो हो रहा है वो रहे। बोर होना भी कोई समस्या है? माने हद है। यहाँ इतनी बड़ी समस्या है और लोगों को बोरियत की पड़ी है। बड़ा बोरियान पीढ़ी है हमलोग का। काम ना धाना त बैठ के बोर होईबे करेगा आदमी। बड़ा पृभिलेज्ड़ हो गया है सब।</span><span style="font-family: "mangal" , serif;">’</span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-family: Calibri, sans-serif; margin: 0in 0in 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-family: Calibri, sans-serif; margin: 0in 0in 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-family: Calibri, sans-serif; margin: 0in 0in 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">‘अरे लेकिन लोगों को घर में रहना पड़ रहा है, घर बर्तन का काम भी करना पड़ रहा है।’</span><span style="font-family: "helveticaneue";"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-family: Calibri, sans-serif; margin: 0in 0in 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-family: Calibri, sans-serif; margin: 0in 0in 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">‘तो कोई एहसान कर रहा है किसी पर? बताइए आदमी को एतना ना रजेसी हो गया है कि अपना काम करने पर भी रोना रो रहा है। माने कैसा आदमी है महाराज कि अपना काम भी नहीं हो पा रहा है सब से? हिहाँ आदमी दूसरे का काम कर दे रहा है और कैसा है सब जो अपना काम भी नहीं कर पा रहा है? आ बोर हो रहा है तो रामायण-महाभारत सब का व्यवस्था होईए गया है। आ लॉकडाउन माने ऐसा थोड़े है कि हाथ गोर तोड़ के बैठ जाना है। जो काम है करे तो कैसे बोर होगा महाराज? हमसे पूछे दस ठो काम बता दें करने को। माने एक ठो कथा में सुने थे कि एक आदमी ऐसा ना आराम किया था बचपन से कि उसके पैर का तलवा में रोंवा उग गया था वैसहि आदमी हो गया है अब। अरे यदि आपके पास काम है, नौकरी नहीं गया है और स्वस्थ ठीक है तब तो रोने वाले को थपड़िया देना चाहिए। उसके लिए तो बढ़िया टाइम हुआ न? स्वास्थ्य भी ठीक है और घर पर भी रहना है। जिसका काम का नुक़सान हो रहा है उसका तो समझ आता है लेकिन फ़ालतू बोर होने वाला का तो हसीन दुःख है।‘</span><span style="font-family: "helveticaneue";"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-family: Calibri, sans-serif; margin: 0in 0in 0.0001pt;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="font-family: Calibri, sans-serif; margin: 0in 0in 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">‘बात तो तुम्हारी ठीक है लेकिन बहुत लोग ऊब जा रहे हैं घर में रहते रहते। आदत नहीं है।‘</span><span style="font-family: "helveticaneue";"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-family: Calibri, sans-serif; margin: 0in 0in 0.0001pt;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="font-family: Calibri, sans-serif; margin: 0in 0in 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">‘अरे तो जिसको बुद्धि नहीं है उसका क्या कीजिएगा। जो व्यस्त रहता है उसके लिए आपे बताइए ज़िंदगी में ऐसा समय फिर आएगा अपना परिवार के साथ बीताने के लिए? उहे तो एक ठो अच्छा बात है इस लॉकडाउन का। लेकिन अजीबे लोग हैं। भाग दौड़ था तो उससे दिक्कत था कुछ दिन के लिए ठप है तो भी दिक्कत है। लोग पूछ रहे हैं कि लॉकडाउन ख़त्म होने के बाद क्या करोगे? लिस्ट बना रहे हैं कि क्या करेंगे! हम बोले कि जो करते हैं वही करेंगे। अभी भी जो करना है वो कर रहे है। माने लोगों का ऐसा है कि देखिए जब लॉकडाउन नहीं था तब जो करना था नहीं किए, अब बैठ के सोच रहे हैं कि जब ख़त्म होगा तब क्या करेंगे, जब ख़त्म हो जाएगा तब ये सोचेंगे कि लॉकडाउन में इतना समय था तो बहुत कुछ कर सकते थे लेकिन कुछो नहीं किए। हम ना पहले सोच-बटोर के काम रखते थे ना अब रख रहे हैं। जो है कर रहे हैं। जैसे देखिए एतना ना रईस दुःख हो गया है लोगों का कि यहाँ लोग मर रहे हैं। लोगों का नौकरी जा रहा है। आ लोग कह रहे हैं कि भकेसन पर नहीं जा पाए। माने ऐसा ना लग रहा है कि जैसे लोगों का जे है से कि एक गोड़ हमेशा भेकेसने में रहता था आ जब से लॉकडाउन हो गया है एके गोड़ पर खड़ा हैं। भकेसन ना हुआ साँस लेना हो गया। जो आदमी सिवान से आगे नहीं गया ज़िंदगी में उ भी कह रहा है कि प्लान था यूरोप का। अबे रूक जाओ कुछ दिन फिर देखेंगे कि तुम रोने का कौन सा नया बहाना लाओगे। ये तो ख़त्म होगा ही।’</span><span style="font-family: "helveticaneue";"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-family: Calibri, sans-serif; margin: 0in 0in 0.0001pt;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="font-family: Calibri, sans-serif; margin: 0in 0in 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">‘और बताओ पटना के क्या हाल हैं?’</span><span style="font-family: "helveticaneue";"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-family: Calibri, sans-serif; margin: 0in 0in 0.0001pt;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="font-family: Calibri, sans-serif; margin: 0in 0in 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">‘अरे एकदम ठप हो गया है समझिए कि खटर-पटर-हो-हल्ला सब बंद हो गया है। एतना ना शांत कि सुड़ियल जैसा फ़ील आ जाता है बाहर निकलने पर।’</span><span style="font-family: "helveticaneue";"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-family: Calibri, sans-serif; margin: 0in 0in 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-family: Calibri, sans-serif; margin: 0in 0in 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">‘सड़ियल?’</span><span style="font-family: "helveticaneue";"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-family: Calibri, sans-serif; margin: 0in 0in 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-family: Calibri, sans-serif; margin: 0in 0in 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">‘आरे भैया, अपना र और ड़ का हिसाब थोड़ा टाइट है। माने अंग्रेज़ी वाला। क्या तो बोलते हैं उसको सरीयल कि सुरियल, सुर्रियल जो भी बोलते हैं वैसा हो गया है। उ मतलब था हमारा। सड़ेगा काहे। घबराने का कोई बात नहीं है। दु चार गो पगलेट तो हिहाँ रहबे करेगा। उतना जाहिलियत के अलावा सब ठीक है। फ़ोन वोन आ रहा है ख़ूब लोगों का आजकल। माने वट्सऐप होने से लोग फ़ोन पर बात करना थोड़ा कम कर दिए थे। अब बैठे बैठे दिमाग़ खौरा रहा है त फ़ोन घुमा दे रहे हैं लोग। आ ऐसा समय में तो आदमी बहुत कुछ सीख सकता है लेकिन आदमी सीखता थोड़े हैं। देखिए अब इसी में खैनी-बीड़ी वाला छटपटाइल रहता है। एक दु दिन बिना उसके काम चल जाएगा तो ई नहीं की उसी का आदत डाल लें। घर का कामे कर रहा है तो उसी में मन लगा के थोड़ा सीख ले। काम थोड़े कोई बुरा होता है। हम तो हर काम करते हैं। जब एतना दिन में सादगी से रहने सीख सकता है। प्रेम से रहने सीख सकता है। खान-पान-रहन-सहन</span><span style="font-family: "helveticaneue";">…</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;"> लेकिन कोई सीखेगा थोड़े कुछ। बस ज्ञान ठेलवा लीजिए सब से। जैसे हम भी ठेलिए रहे हैं।’</span><span style="font-family: "helveticaneue";"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-family: Calibri, sans-serif; margin: 0in 0in 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-family: Calibri, sans-serif; margin: 0in 0in 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">‘हाँ वो तो है। पर देखो ठीक हो जाए तो अच्छा है। लोग तो क्या ही सीखेंगे।’</span><span style="font-family: "helveticaneue";"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-family: Calibri, sans-serif; margin: 0in 0in 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-family: Calibri, sans-serif; margin: 0in 0in 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">‘अरे ठीक तो होईबे करेगा भैया, उ का है कि हम लोग का पीढ़ी कुछ देखबे नहीं किया है। पहिले कैसा कैसा न महामारी होता था। अब आदमी को सालों से लगने लगा था कि जीत लिए हैं सब बेमारी-हेमारी सब के भी त इसलिए तनी ढेर लग भी रहा है। पहिले महामारी में गाँव का गाँव साफ़ हो जाता था। हम लोग का पीढ़ी देखा ही नहीं है कुछ। घबराने का बात नहीं है ओतना। लोगों में संयम भी नहीं है। बोल दीजिए की हाथ गोर तोर के बैठ दिन भर त आदमी पगला जाएगा। सबके पिछवाड़े में चक्र</span><span lang="HI" style="font-family: "helveticaneue";"> </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">हो गया है, कोई स्थिर नहीं बैठ सकता है। आ उहे दिन भर काम करने को दे दीजिए त बैठने का बहाना खोजने लगेगा। टिकटोक में दिन भर निकाल देगा लेकिन फ़ायदे के लिए बैठने को कहिए त भकुआ जा रहा है पाँचे मिनट में।<o:p></o:p></span><span style="font-family: "mangal" , serif;">’</span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-family: Calibri, sans-serif; margin: 0in 0in 0.0001pt;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="font-family: Calibri, sans-serif; margin: 0in 0in 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">‘चलो बढ़िया है स्वस्थ रहो और व्यस्त रहो तो ये तो सबसे अच्छा है’</span><span style="font-family: "helveticaneue";"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-family: Calibri, sans-serif; margin: 0in 0in 0.0001pt;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="font-family: Calibri, sans-serif; margin: 0in 0in 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">‘अरे भैया, यहाँ तो व्यस्त रहिए जाएँगे। मनोरंजन का कमी नहीं है। बंदी में भी मुरी फूटौव्वल हो गया है कल।</span><span style="font-family: "mangal" , serif;">’</span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-family: Calibri, sans-serif; margin: 0in 0in 0.0001pt;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="font-family: Calibri, sans-serif; margin: 0in 0in 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">‘मुरी फूटौव्वल कहाँ हो गया? पुलिस से?’</span><span style="font-family: "helveticaneue";"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-family: Calibri, sans-serif; margin: 0in 0in 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-family: Calibri, sans-serif; margin: 0in 0in 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">‘पुलिसवन सब तो बड़ा मज़ेदार कहानी सुनाता है आजकल लेकिन है बगले में एक ठो परिवार। कल लाठा-लाठी, फैटा-फैटी हुआ है जम के। गण सब जमा हो गया है। भाग-भाग के आ गया है सब कलकत्ता-बम्बई-सूरत से। उ का है कि दूर रहने से प्रेम बना रहता है अब सब एक साथ जमा हो गया है तो लड़बे करेगा। भायरस से मरे ना मरे ऐसे ही दु-चार ठो मर जाएगा। वैसे ठीक है मनसायन रहता है थोड़ा। छत पर खड़ा होके देखे बड़ी देर तक। अब झगड़ा छोड़ाने कौन जाए इसमें।</span><span style="font-family: "mangal" , serif;">’</span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-family: Calibri, sans-serif; margin: 0in 0in 0.0001pt;">
<span style="font-family: "mangal" , serif;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-family: Calibri, sans-serif; margin: 0in 0in 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">‘अरे ऐसे में तो ख़तरा हो जाएगा?’</span><span style="font-family: "helveticaneue";"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-family: Calibri, sans-serif; margin: 0in 0in 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-family: Calibri, sans-serif; margin: 0in 0in 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">‘नहीं भैया ख़तरा नहीं होगा। अमेरिका थोड़े है कि ड़ाईभोर्स रेट बढ़ जाएगा। अरे चार ठो बर्तन रहेगा त आवाज़ ऐबे करेगा। सब दूर दूर रहने लग गया है तो थोड़ा कम हो गया है नहीं तो ई सब तो सोभा है समाज का।</span><span style="font-family: "mangal" , serif;">’</span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-family: Calibri, sans-serif; margin: 0in 0in 0.0001pt;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="font-family: Calibri, sans-serif; margin: 0in 0in 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">‘तुम भी क्या कह रहे हो। मार पीट कैसे शोभा हो सकती है?’</span><span style="font-family: "helveticaneue";"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-family: Calibri, sans-serif; margin: 0in 0in 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-family: Calibri, sans-serif; margin: 0in 0in 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">‘अरे भैया आप देखेंगे ओहिमें कपार फट जाता है आ उहे भाई लेके हॉस्पिटलो जाता है। आ तनी पैसा हो जाए तो दू-चार गो केसो नहीं होगा परिवार में? कोर्ट कचहरी तो शोभा है धन का। और आजकल पड़ोस में गण सब जमा हुआ है तो थोड़ा लड़ उड़ लेता है त उ लोग का मन भी हल्का रहता है। हमलोग का मनोरंजन। बरी मार-मारा है एक दूसरे को कल।’</span><span style="font-family: "helveticaneue";"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-family: Calibri, sans-serif; margin: 0in 0in 0.0001pt;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="font-family: Calibri, sans-serif; margin: 0in 0in 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">‘अबे यार, इसमें कैसे मज़ा आ जाता है तुमको। और बाक़ी लोग सब ठीक हैं?’</span><span style="font-family: "helveticaneue";"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-family: Calibri, sans-serif; margin: 0in 0in 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-family: Calibri, sans-serif; margin: 0in 0in 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">‘हाँ ठीके है। सबका धीरे-धीरे सेट हो रहा है। सदालाल सिंगवा आया था कल। बरी रोया कि मन ऊबिया गया है घर में बैठे बैठे। हम उसको बोले कि तुम तो साला बरी शायरी करता था कि वक़्त ठहर जाए। लम्हा जम जाए। त अब करो रोमांस! ठहर तो गया है? अब काहे बिलबिला रहे हो? त पिनक के भाग गया। जो जेतना शायरी ठेलता है आ इंस्टा पर लभ ओफ़ लाइफ़ में लभलभा रहा है उसका भीतर से ओतने मुरी फूट्टअव्वल है।</span><span style="font-family: "mangal" , serif;">’</span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-family: Calibri, sans-serif; margin: 0in 0in 0.0001pt;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="font-family: Calibri, sans-serif; margin: 0in 0in 0.0001pt;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="font-family: Calibri, sans-serif; margin: 0in 0in 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">‘सदालाल सिंह को तुम कभी छोड़ते नहीं हो।’</span><span style="font-family: "helveticaneue";"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-family: Calibri, sans-serif; margin: 0in 0in 0.0001pt;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="font-family: Calibri, sans-serif; margin: 0in 0in 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">‘आ नहीं भैया, उ का है कि जिसको काम है उसको हमेशा काम रहता है। जिसको नहीं रहता है उसको कभी नहीं रहता है। जिसको रोना है उ बहाना ढूँढ लेता है रोने का। आ जिनको काम नहीं है बैठ के तेरह-बाइस, लंदर-फंदर बतियाना है उसका त पेट फूलबे करेगा लॉकडाउन में। आ लोगों को अभी भी नहीं समझ आ रहा है कि दंगा के लिए कर्फ़्यू नहीं लगा है दूर-दूर रहने के लिए लगा है। मौक़ा मिलते ही गले मिलने के लिए नहीं। त खुदे भगाते उसको नहीं भागता तो।</span><span style="font-family: "mangal" , serif;">’</span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-family: Calibri, sans-serif; margin: 0in 0in 0.0001pt;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="font-family: Calibri, sans-serif; margin: 0in 0in 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">‘और पटना में वन्य प्राणी नहीं दिख रहे? तुम्हारे घर से अब तो हनुमान मंदिर दिख जाता होगा।’</span><span style="font-family: "helveticaneue";"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-family: Calibri, sans-serif; margin: 0in 0in 0.0001pt;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal" style="margin: 0in 0in 0.0001pt;">
<div style="font-family: calibri, sans-serif;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">‘अरे भैया उ सब थोड़ा ढेर देखने लगे हैं लोग। माने कहने वाला कल को ये भी कह देगा कि पटना में जिराफ़ दिख गया। हम नहीं कहेंगे। माने पहिले भी जानवर सब दिखता था। अब भी दिखता है। पहिले दिखता था त कोई पूछता नहीं था अब दिखता है त विडीओ बनाता है। बंदी से </span><span style="font-family: "mangal" , serif;">थोड़ा</span><span style="font-family: "mangal" , serif;"> </span><span style="font-family: "mangal" , serif;">प्रदूषण तो कम हुआ ही है लेकिन लोग भी तनी ढेर देख रहे हैं। और बाक़ी तो सब बढ़िया है। आपलोग भायरस को का कह रहे हैं? यहाँ तो लोग कह रहे हैं कि जैसे औरत सब भतार का नाम नहीं लेती है उसी तरह भायरसो का नाम नहीं लेना है। ये नहीं कहना है कि उ कहाँ से आया है। त हम कहे ठीक है कह दो कि झूमरी तिलैया से फ़रमाइस में आ गया है। नाराज़ हो जाएगा भायरस तो ...ऐजी तनिए सुनिए उ जो नया वाला भायरसजी आए हैं उन्हीं का बात कर रहे हैं, कहो। ख़ैर, ग़लत-सलत सूचना देने वाला भी बढ़ गया है अब पता नहीं ऐसा करने में लोगों को क्या मज़ा आता है। इलाज तो हर आदमी लेकर घूम रहा है। आँकड़ा, ग्राफ़, रीसर्च सब लोग के उँगलिए पर है। माने सबके हाथ में फ़ोन है आ दुनिया जहान का फ़ालतू टाइम। त का करेगा आदमी? वही कर रहा है। अब बताइए कल एक ठो मैसेज भेजा कि कपार छिलवा के कोका-कोला से नहा लेने पर भायरस मर जाता है। असली भायरस तो इसे सब है। इन सबको भी थूरने का व्यवस्था हो जाए तो ठीक रहता।’</span></div>
<div style="font-family: calibri, sans-serif;">
<span style="font-family: "mangal" , serif;"><br /></span></div>
<span style="font-family: "mangal" , serif;"><a href="https://uwaach.aojha.in/search/label/Patna" target="_blank">पटना सीरीज </a></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-family: Calibri, sans-serif; margin: 0in 0in 0.0001pt;">
<span style="font-family: "mangal" , serif;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-family: Calibri, sans-serif; margin: 0in 0in 0.0001pt;">
<span style="font-family: "mangal" , serif;">~Abhishek Ojha~</span></div>
</div>
<div class="blogger-post-footer"><a href="http://www.aojha.in">Abhishek Ojha</a></div>Abhishek Ojhahttp://www.blogger.com/profile/12513762898738044716noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-8813075190326884926.post-14376136611802073562019-06-02T21:52:00.000-04:002019-06-02T22:05:37.282-04:00कॉन्सेप्चुअल फ्रेमवर्क <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<br />
सामाजिक विज्ञान को विज्ञान की उपाधि जरूर किसी ऐसे व्यक्ति ने दी होगी जिसे लगा होगा कि विज्ञान को विज्ञान कहना <i>डिस्क्रिमिनेशन</i> हो चला है। विज्ञान और तार्किकता बूर्जुआ बन गए हैं। अतार्किकता को क्रांति कर देनी चाहिए! क्योंकि भाव तो अतार्किकता को भी मिलना चाहिए और फिर किसी ने लेख लिखा होगा - <i>इंटेरसेक्सनालिटी ऑफ़ मार्क्सिस्ट सोशल एंड पॉलिटिकल डिस्क्रिमिनेशन के कॉन्सेप्चुअल फ्रेमवर्क</i> के अंतर्गत ऐसे कहा जा सकता है कि अतर्किकता भी विज्ञान है।<br />
<br />
इसका मतलब मत पूछियेगा क्योंकि मैं ठहरा गणित का आदमी जहाँ १+ १ दो और केवल दो होते हैं। १+१ की बात आ ही गयी है तो पहले एक <i>जोक</i> बाकी बाद बात में करेंगे। [बात प्रवचन जैसी लगने लगे तो बीच में <i>जोक</i> ठेलने की बड़ी महिमा बतायी गयी है.]<br />
<br />
--<br />
एक साक्षात्कार में तीन लोग गए। पहला गणितज्ञ। उससे पूछा गया १+१ क्या होता है?<br />
बोला २.<br />
२? कुछ और नहीं हो सकता?<br />
और कुछ? पगलेट हो क्या?<br />
<br />
दूसरा आया. उससे भी वही सवाल।<br />
उसने बोला १.९० से २.१० के बीच कुछ भी हो सकता है। आंकड़े में गड़बड़ी हुई हो तो १०% त्रुटि की संभावना लगती है।<br />
सांख्यिकी पढ़ी थी उसने और इसका रौब झाड़ना जरूरी लगा उसे।<br />
<br />
तीसरा. सामाजिक विज्ञानी. बुद्धिजीवी. उससे भी वही सवाल। गणित-तर्क १, २, जोड़-घटाव का उसे कुछ नहीं पता था।<br />
उसने पहले उठ कर दरवाजा बंद किया. इधर उधर देखा. और धीरे से बोला - आपको कितना चाहिए? एक <i>कॉन्सेप्चुअल फ्रेमवर्क</i> बना के<a href="https://twitter.com/aojha/status/1063449388968787973" target="_blank"> उतना साबित कर देंगे</a>।<br />
<br />
<i>जोक</i> समाप्त.<br />
--<br />
<br />
आजकल आंकड़ों के नाम पर कई बार अपनी बात कहने के लिए जो लोग करते हैं उसे विज्ञान में <a href="https://twitter.com/aojha/status/1063449388968787973" target="_blank">फर्जीवाड़ा </a>कहा जाता है.<br />
<br />
बात करनी थी <i>कॉन्सेप्चुअल फ्रेमवर्क</i> की। एक वर्ग है जो बिना (बहुधा अतार्किक) <i>फ्रेमवर्क</i> के नहीं सोच सकता। और अतार्किक <i>फ्रेमवर्क</i> की व्याकपता अनंत होती है। तार्किकता व्यक्ति में एक प्रकार से लाज-शर्म की उपज भी करता है। तार्किक व्यक्ति को अतार्किक बात करते हुए शर्म आती है। एक बार गलत हो जाने पर अगली बार उसे बोलने से पहले और अधिक सोचना पड़ता है। अतार्किक के साथ इसका उल्टा होता है। जितनी बार गलत हुए अगली बार उतने ही अधिक विश्वास से गलत बोलते हैं। जैसे हर चुनाव में उनका विशेषज्ञ अनुमान और असली परिणाम एक दूसरे को अपना वही दिखाते हैं जो ३६ में ३ और ६। लेकिन वो ठहरे विशेषज्ञ फिर झाड़ेंगे ही अपनी बात। उन्हें ये नहीं समझ आता कि फिर उठ खड़े हो चल पड़ने का ज्ञान पुनः पुनः वही पगलेटी करते रहने के लिए नहीं होता है :)<br />
<br />
मैंने जीवन में कुल मिलाकर कुछ घंटे टीवी समाचार देखा होगा। उसमें भी आजकल सोशल मीडिया पर दिख जाने वाले क्लिप्स मिलाकर। आखिरी बार किसी चुनाव का <i>लाइव</i> परिणाम टीवी पर देखा था वो बिहार के चुनाव थे। और वो पहली और आखिरी बार था। जो अपने आप को और एक दूसरे को सबसे बड़े चुनावी विशेषज्ञ कहते हैं उन्हें <i>लाइव</i> देख रहा था। यादव-गुप्ता-रॉय - एनडीटीवी पर। हुआ यूँ था कि उनके रुझानों की <i>फीड</i> गलत थी। विशेषज्ञ बोल रहे थे ..but you should realize that only industry Nitish developed in Bihar was brick kilns. He can not win elections again and again with that. थोड़ी देर में उन्हें पता लगा कि असल में नितीश कुमार चुनाव जीत रहे हैं तो... बिना शर्म, पलक तक ना झपकी बोलने लगे -Nitish is the man who built Bihar brick by brick. He is true people's leader. The results are a reflection of that. ऐसी मोती चमड़ी ! ये है विशेषज्ञों की असली विशेषज्ञता। वो जो भी बोल रहे हों, हो जो भी रहा हो - अपने ईंट भट्ठे के <i>कॉन्सेप्चुअल फ्रेमवर्क</i> में झोंक देते हैं। और आप अपनी सोच यदि इन विशेषज्ञों के कहे से बनाते हैं ! तो ... ये वही लोग हैं जो अंतिम समय तक <a href="https://twitter.com/aojha/status/1129903515285909504" target="_blank">नहीं जानते </a>थे कि मंत्रिमंडल में किसे क्या मिलेगा। और पता चलने के पांच मिनट में लेख लिख देते हैं कि क्यों किसे कौन सा मंत्रालय मिला !<br />
<br />
<br />
औद्योगिक संसार में आजकल बहुत कुछ <i>आउटसोर्स</i> किया जाता है इनमें से एक प्रमुख है - <i>प्रेज़ेंटेशन</i> या <i>पिच बुक की डिजाइन</i>। जिन्हें आउटसोर्स किया जाता है वो कंपनी कुछ <i>रेडीमेड</i> <i>टेम्पलेट रखती</i> हैं। एक पसंद नहीं आया तो दूसरा भेज देते हैं। कुछ सालों बाद जब लोग ऊब कर नया डिज़ाइन चाहते हैं और वापस नया डिज़ाइन मांगते हैं तो वो फिर से पिछला वाला भेज देते हैं। ये नहीं तो वो पसंद तो आयेगा ही। वैसे ही ये विशेषज्ञ <i>टेम्पलेट</i> रखते हैं। ये फिट बैठा तो ठीक नहीं तो दूसरा वाला। नया कुछ है नहीं इनके पास। युग बदल गया - चुनाव देखने का तरीका वही। <i>फॉर्मूले</i> वही। वोटर के लिए जाति-धर्म ख़त्म हो जाए पर इनके दिमाग में उसके अलावा कुछ है ही नहीं तो उसके बाहर कैसे सोच सकते हैं ! <i>टेम्पलेट</i> ही वही है दूकान भी एक ही <i>टेम्पलेट</i> बेच कर चलाना है।<br />
<br />
बचपन में एक जान पहचान के थे जिनके किराने की दुकान थी। किराने की दूकान यानी जिसमें जरुरत का सब कुछ मिल जाए। वो एक ही प्रकार का चावल रखते - कोई यदि कहता कि थोड़ा महीन दीजिये तो अंदर जाकर वही चावल दोनों मुट्ठी में लाकर दे देते। कोई कहता थोड़ा साफ़ दीजिये तो भी वही करते। कोई कहता पुराना दिखाइए तो भी वही। और लोग दोनों मुट्ठियों के चावल देख एक वाले को चुनकर कहते हाँ ये वाला बढ़िया है। वो दो रुपया अधिक लगाकर वही चावल तौल देते। वैसे ही ये विशेषज्ञ हैं - चावल इनके पास एक ही है। आपको यदि ये समझ आ गया हो तो समय है दुकान बदलने का। या जमाना <i>पी२पी </i>का है तो दुकानदार को दलाली ही क्यों देना। अपनी सोच इन्हें <i>आउटसोर्स</i> करने की जगह खुद सोच लीजिये ! जिसे ये विशेषज्ञ <i>थिंकिंग, एनालिसिस</i> वगैरह का नाम देते हैं उसे उन्होंने खुद <i>आउटसोर्स</i> कर रखा है अपने पूर्वाग्रहों को, उस <i>कॉन्सेप्चुअल फ्रेमवर्क</i> को जिसे वो संसार की धुरी समझते हैं। ऐसे लोग संसार में हर जगह बहुतायत में पाए जाते हैं। हो सकता है उन्हें स्वयं नहीं पता वो ऐसे होते हैं। संभवतः वो अपने को समझते तो कलिकाल सर्वज्ञ हैं ठीक वैसे ही जैसे भर्तृहरि परिभाषित मुर्ख ! </div>
<br />
- अर्थात एक अधूरे ज्ञान से भरा व्यक्ति जिसे ब्रम्हा भी नहीं समझा सकते। जो तर्क के प्रति अँधा है.पर जिसे घमंड भी है कि उससे बुद्धिमान कोई नहीं. आप चाहे तो मगरमच्छ के दांतों में फँसा मोती निकाल सकते हैं, समुद्र को भी पार कर सकते हैं, गुस्सैल सर्प को भी फूलों की माला तरह अपने गले में पहन सकते हैं... लेकिन इनको को प्रत्यक्ष सही बात समझाना असम्भव। संभव है रेत से भी तेल निकल जाये या मृग मरीचिका से भी जल मिल जाए। खरगोशों के सींग उग आये; गुलाब की पंखुड़ी से हीरा काटना हलवा हो जाए लेकिन एक पूर्वाग्रही मुर्ख को सही बात का बोध? भ्रम और घमंड का कम्बाइंड इक्वेशन<i> <a href="https://en.wikipedia.org/wiki/Navier%E2%80%93Stokes_equations" target="_blank">नॉविएर स्टोक्स</a></i> से भी खतरनाक <i>इक्वेशन</i> होता है। उनकी बातें सुन <i>आयरनी</i> (irony) कपार खुजलाने लगती है कि... अब कोई नया शब्द ढूंढ लो बे तुमलोग हमसे न हो पायेगा। मैं झूठ नहीं बोल रहा आप अंग्रेजी डिक्शनरी खोल कर रख दीजिये और इनके विचार दो घंटे बजाइये. irony शब्द मिट जाएगा डिक्शनरी से।<br />
<br />
एक सत्य कथा बताता हूँ - मनोहर कहानियों से थोड़ी कम रोचक होगी पर उतनी ही सत्य।<br />
--<br />
...एक विश्वविद्यालय है दिल्ली में. वहां एक विद्यार्थी को कहा गया शोध करके आओ कि किसी अमुक योजना से जीवन स्तर में कितना सुधार हुआ. साधारण प्रश्न है. एक विद्यार्थी विभिन्न प्रकार के आंकड़े लेकर कुछ महीनों में आया. सुन्दर अध्ययन.<br />
<br />
प्रोफ़ेसर साब लाल हो गए. कहा ये गलत है तुमने तो कुछ किया ही नहीं?<br />
क्यों?<br />
इसमें <i>कॉन्सेप्चुअल फ्रेमवर्क </i>कहाँ हैं? तुमने इस बात का अध्ययन तो किया ही नहीं कि सरकार किसकी थी ! न इसमें <i>कास्ट फैक्टर</i> है. ना रिलिजन.<br />
सर, उसकी क्या जरुरत है? आर्थिक स्थिति तो है.<br />
तुम्हे यही नहीं पता ! प्रोफ़ेसर साब ने असाइनमेंट फाड़ दिया।धमकी दी की फेल हो जाओगे।<br />
<br />
फिर विद्यार्थी ने दो घंटे में फ़टाफ़ट लिखा कि <i>इंटेरसेक्सनालिटी ऑफ़ मार्क्सिस्ट सोशल एंड पॉलिटिकल डिस्क्रिमिनेशन इन कॉन्टेक्स्ट ऑफ़ कास्ट सिस्टम के कॉन्सेप्चुअल फ्रेमवर्क </i>के हिसाब से इसका फायदा किसी को नहीं होगा। एक बार फायदा हो भी गया तो उसके बाद क्या? <i>स्टैंडिंग ओबेशन </i>! तालियां बजायी प्रोफ़ेसर ने और कहा कि इसमें <i>फेमिनिज्म और सोशिऑलोजिकल थ्योरी ऑफ़ पॉवर्टी</i> भी लगाओ. <i>सोशल स्ट्रैटिफिकेशन</i> लगाओ। तुम्हे गोल्ड मैडल दिलाया जाएगा।<br />
<br />
गाँव-गाँव घूमकर आंकडे इकठ्ठा कर किया गया अध्ययन फाड़ कर फेंक दिया गया। पर दो घंटे का तथाकथित अध्ययन <i>फ्रेमवर्क</i> वाले विश्वविद्यालय में वो वैसे ही फिट हो गया जैसे <i>बोल्ट</i> और <i>नट</i> एक दूसरे में फिट हो जाते हैं । कालांतर में वो बालक तथाकथित सामाजिक वैज्ञानिक बना। हर मुद्दे पर राय देने वाला। और उसका होली-दिवाली होते चुनाव। उन दिनों उसकी व्यस्तता ऐसी होती कि एक टांग एक स्टूडियो में तो दूसरी दूसरे स्टूडियो में। हर बार उसकी बातें गलत होती पर उसे अपने लाल गुरु की बातें गाँठ बाँध ली थी। सबसे पहले मेरे घर का अंडे जैसा था आकार की तरह रट लिया था <i>इंटेरसेक्सनालिटी ऑफ़ मार्क्सिस्ट सोशल एंड पॉलिटिकल डिस्क्रिमिनेशन ऐंड सोशियोलॉजिकल थ्योरी ऑफ़ पॉवर्टी इन कॉन्टेक्स्ट ऑफ़ कास्ट सिस्टम एंड...</i> इसके आगे पीछे कुछ हो कैसे सकता है। एक अटके हुए रिकॉर्ड की तरह यही बात दोहराते रहता। अंडे जैसा है संसार पर ही रुका रहा कभी बहार निकला ही नहीं। दुनिया बदल गयी पर उसे कुछ नहीं दीखता था। उसके अनुसार प्रत्यक्ष को प्रमाण नहीं चाहिए होता है। यदि कुछ चाहिए होता है तो वो है - <i>कॉन्सेप्चुअल फ्रेमवर्क ।</i><br />
<br />
धीरे धीरे उसे लगने लगा था संसार ही चलता है उसके कॉन्सेप्चुअल फ्रेमवर्क से। उसके बिना उसके कुछ नहीं चल सकता - सूरज, चाँद किसी की औकात नहीं। कौन सा गुरुत्वाकर्षण बे ? संसार चलता है <i>इंटेरसेक्सनालिटी ऑफ़ मार्क्सिस्ट सोशल एंड पॉलिटिकल डिस्क्रिमिनेशन ऐंड सोशियोलॉजिकल थ्योरी ऑफ़ पॉवर्टी एंड... </i>बंगके बंगाली फिरंग के फिरंगावाली दिल्ली के दिलवाली सब <i>फ्रेमवर्क</i> से चलत हैं.*<br />
<br />
दुनिया अपनी गति और नियमों से चलती रही। वो अपने हिसाब से समाज की संरचना और भविष्य बताता रहा । हर बार वो गलत होता लेकिन बन गया था विशेषज्ञ तो वो कैसे गलत हो सकता था? उसकी बात गलत होती तो पहले उसे सही करने के लिए <i>प्रोपेगंडा</i> करने लगा। फिर बौखलाहट में दूसरों की बातों में गलती ढूंढता। यदि फ्रेमवर्क सही नहीं है तो उसे सही कराने के लिए किसी हद तक जायेंगे ! ऐसा हो कैसे सकता ही कि वो गलत हो। सबको उसमें फिट होना पड़ेगा।<br />
<br />
--<br />
चुनावों में उसके कही पार्टी की हार हुई तो बोला -<br />
<br />
ईवीएम हैक कर लिए?<br />
किसी ने पुछा - हैकिंग क्या होती है? मालूम है?<br />
<br />
बोला - हाँ, जब आप गलत हो और गलती नहीं माननी हो तो उसे हैकिंग कहते हैं। अरे मान लो ऑनलाइन गाली-वाली दे दिया किसी को और बाद में माफ़ी मांगने की नौबत आ जाए तो कहना होता है कि अकाउंट हैक हो गया। तो वैसे ही अब ईवीएम ही हैक हुआ होगा। वोट गलत थे।<br />
<br />
अच्छा।<br />
<br />
उसके बाद वो लग गया अपने फ्रेमवर्क को सही करने के लिए <i>प्रोपैगैंडा</i> में... पर वो फिर फेल हो गया तो बोला - साला सब अम्बानी अडानी का पैसा से चुनाव जीत गया सब। इसलिए मेरा <i>फार्मूला</i> नहीं चला. <i>ब्लडी कैपिटलिज्म</i>.<br />
<br />
एक हारने वाली पार्टी वाला बोला - अबे हममें ऐसा क्या नहीं है जो अम्बानी अडानी को उसमें दीखता है? हमने तो और खुला हाथ दिया था हम तो हारे ही नहीं होते कभी !<br />
<br />
विशेषज्ञ बोला - अबे चुप करो। विशेषज्ञ तुम हो या मैं? तुम साले गंवार। जीत तो पाए नहीं मेरे <i>फॉर्मूले</i> से भी। तुम्हे तो मर जाना चाहिए। हमारी बात गलत नहीं है। मीडिया ने जीताया है.<br />
<br />
लेकिन उस हिसाब से तो तुम्हे जीतना चाहिए. वो वाली कोशिश तो तुमने की थी?<br />
<br />
ये सुनते हुए उसके दिमाग में बत्ती जली - "अबे साला तो मामला ये है. जनता ही *तिया है।"<br />
<br />
उसने घोषित कर दिया जनता को समझ ही नहीं है. ये प्रणाली ही खराब है. यशवंत सिन्हा की <i>पेटेंटेड</i> लाइन थी - कोई भी *तिया मुख्यमंत्री बन जाता है. उसी को उसने चोरी कर कहा - कोई भी *तिया वोट डाल देता है। तो क्या होगा। किसी को समझ ही नहीं है।<br />
<br />
पर तुम्हारे हिसाब से तो सभी <i>इक्वल</i> हैं?<br />
<br />
हैं नहीं। होंगे। हम करेंगे। सब <i>इक्वल</i> हो कैसे सकते हैं बिना क्रांति के? <i>इंटेरसेक्सनालिटी ऑफ़ मार्क्सिस्ट सोशल एंड पॉलिटिकल डिस्क्रिमिनेशन ऐंड सोशियोलॉजिकल थ्योरी ऑफ़ पॉवर्टी एंड...</i><br />
<br />
तो अभी क्या है?<br />
<br />
अभी हम ज्यादे इक्वल हैं !<br />
<br />
ये तो फिर चोरी की तुमने ये तो <i>जॉर्ज ऑरवेल</i> ने तुम्हारी जमात के लिए कहा था। पर ठीक है जो तुमने खुद ही कहा।<br />
<br />
वो बड़बड़ाते रहा - हम गलत कैसे हो सकते हैं. हम जानते हैं कि किसको किसे वोट देना चाहिए। यदि किसी ने नहीं दिया तो *तिया वो हुआ या मैं? <a href="https://twitter.com/aojha/status/1132652866412470273" target="_blank">समझ ही नहीं </a>किसी को। उन सालों की तो गर्दन पकड़ के मैं... सारे संसार को कॉन्सेप्चुअल फ्रेमवर्क में फिट होना है. पगलेट फिट ही नहीं हो रहे ! <i>इंटेरसेक्सनालिटी ऑफ़ मार्क्सिस्ट सोशल एंड पॉलिटिकल डिस्क्रिमिनेशन ऐंड सोशियोलॉजिकल थ्योरी ऑफ़ पॉवर्टी एंड...</i><br />
<br />
दुनिया अपने हिसाब से चलती रही।<br />
<div>
<br /></div>
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<br /></div>
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* गुरु गोविंद सिंह जी महाराज का लिखा भजन दिल्ली में गुरुद्वारा बंगला साहिब में सुना था - <i>बंगके बंगाली फिरंग के फिरंगावाली दिल्ली के दिलवाली तेरी आज्ञा में चलत हैं.</i></div>
---<br />
<br />
~Abhishek Ojha~<br />
<br />
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<div class="blogger-post-footer"><a href="http://www.aojha.in">Abhishek Ojha</a></div>Abhishek Ojhahttp://www.blogger.com/profile/12513762898738044716noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-8813075190326884926.post-13406481071568188942019-05-27T00:04:00.002-04:002019-05-27T10:20:40.963-04:00कंठस्थ <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
पिछले दिनों उड़ीसा में तूफ़ान आने के बाद हिंदी की ख़बरों में भी <i>'मिलियन'</i> शब्द कई बार दिखा। आजकल सोशल मीडिया में <i>फ़ालोअर, व्यू</i> इत्यादि की गणना भी <i>मिलियन</i> में ही होती हैं। ये एक छोटा उदहारण है कि पिछले कुछ सालों में भाषा कैसे बदली है।[वैसे ये भी हो सकता है कि हिंदी मीडिया वालों को <i>मिलियन</i> से लाख में बदलना ही नहीं आया हो और कौन<i> रिक्स</i> ले सोच कर वैसे ही <i>टीप </i>दिया हो अंग्रेजी खबरों से] मुझे कॉलेज के दिनों में <a href="https://twitter.com/aojha/status/1125161213116211201" target="_blank">मिलियन, बिलियन</a> असहज लगता। सुनते ही दिमाग़ में गणना चलती - कितने लाख? कितने शून्य? दिन भर मिलियन, बिलियन करने वाले व्यवसाय में आने के बाद भी धीरे-धीरे ही तीन अंकों के बाद अल्पविराम लगाने वाली ये पद्धति सहज लगने लगी।<br />
<br />
हमने गिनती-पहाड़ा पढ़ा था एक साँस में -<br />
<br />
<i>एक इकाई, दो इकाई, तीन इकाई, चार इकाई, पाँच इकाई, छः इकाई, सात इकाई, आठ इकाई, नौ इकाई, दहाई में दस ! </i><br />
<i><br /></i>
<i>इकाई-दहाई-सैकड़ा-हजार-दस हजार-लाख-दस लाख-करोड़-दस करोड़-अरब-दस अरब-खरब-दस खरब-नील-दस नील-पद्म-दस पद्म-शंख-दस शंख-महाशंख! </i>कंठस्थ.<br />
<br />
अब सोचना भी उसी प्रणाली में होगा! सोचना भला कभी दूसरी भाषा में हो सकता है? मैं ऐसे लोगों को हमेशा शक की दृष्टि से देखता हूँ जो कहते हैं कि वो अपने बचपन में बोली गयी भाषा भूल गए। थोड़ी-थोड़ी याद है। कैसे भूल सकता है कोई ?! पर हैं ऐसे लोग जो कहते हैं। ख़ैर ! जोड़ घटाव हम आज भी गिनती-पहाड़ा से ही करते हैं। उंगुलियों के इस्तेमाल से। पहाड़े की बात हो तो पंद्रह का पहाड़ा कंठस्थ होने की कतार में सबसे पहले आता है। <i>दो एकम दो, दुदुनी के चार</i> से भी पहले - <i>पंद्रह दूनी तीस तियाँ पैंतालीस चौका साठ पाँचे पचहत्तर छक्का नब्बे सात पिचोत्तर आठे बीसा नौ पैंतीसा. झमक झमक्का डेढ़ सौ।</i><br />
<i><br /></i>
फिर अंकों के लिखने का अभ्यास ऐसे होता था <i>- 'लिखो तो!पांच अरब बीस करोड़ पैतीस हजार दो सौ एकासी.' रैंडम</i> बड़े बड़े अंक लिखते। स्लेट भर जाने भर के अंक और शाबाशी पाते.<i> एकासी</i> से याद आया नौ के पहाड़े में रटते-रटते -<i> नानावा एकासी, नाना गइले फाँसी। छोडाव ऐ नाती ! </i><br />
<br />
ये लय में कंठस्थ करने के दिन थे। कंठस्थ यानि विशुद्ध रट्टा - मतलब पता हो ना हो एक साँस और लय में <i>फिट</i>। बिना सोचे समझे। आजीवन। एक बार रटा गया तो देर सवेर समझ में आ ही जाएगा।<br />
<br />
गिनती का पहला <i>प्रैक्टिकल एप्पलिकेशन</i> था अनाज तौलने वालों को देखना। <i>फ़्लो में</i>। सुंदर।
वो बोरे का बोरा तौलते - <i>रामह जी रामह, दुई जी दुई। या रामह जी रामह, दुई राम दुई </i>- रामनाम का संपुट ज़रूर होता।<br />
<br />
ऐसी कितनी बातें याद है। बिन पढ़े। केवल सुनकर। जो कभी पढ़नी नहीं पड़ी वो भी। पाठ्यक्रम के बाहर के श्लोक। चौपाई। दोहा। कहावतें। मानस की अनेकों चौपाइयां जो किसी पाठ्यक्रम में नहीं थी। और दैनिक पूजा में सुने श्लोक -<br />
<i><br /></i>
<i>जटा कटा हसंभ्रम भ्रमन्निलिम्प निर्झरी विलो लवी चिवल्लरी विराजमान मूर्धनि धगद् धगद् धगज्ज्वलल् ललाट पट्ट पावके किशोर चन्द्र शेखरे</i>।<i> </i><br />
<i>---</i><br />
<i>चलत्कुण्डलं भ्रूसुनेत्रं विशालं प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालम् मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं प्रियं शङ्करं सर्वनाथं भजामि। </i><br />
---<br />
<i>कंदर्प अगणित अमित छबि, नव नील नीरज सुन्दरम्। पटपीत मानहुं तड़ित रूचि-शुची, नौमि जनक सुतावरम्</i>।<br />
---<br />
<br />
मजेदार ये है कि कंठस्थ हो गया बिना शब्दों का पता हुए. वैसे ही याद हुआ जैसे सुना. उसी धुन में. गलत उच्चारण सुना तो गलत ही याद रहा. कुछ ज्यादा अच्छे लगते वो जल्दी याद होते। शायद वो जिनके उच्चारण में ज्यादा उतार चढ़ाव होता - कारण सिर्फ उच्चारण ही था। अर्थ तो क्या ये भी नहीं पता होता कि ये है क्या ! बहुत कुछ ऐसा भी है जिसका अभी भी पूरी तरह नहीं पता - <i>नाचै गोविन्द फनिंद के ऊपर तत्थक-तत्थक-न्हैया। </i>पता नहीं पूरी कविता क्या थी या किसने लिखा.<br />
<br />
कितनी कविताएं जो पाठ्यक्रम में नहीं थी... या पुस्तक देखने के पहले से ही याद होता। अंताक्षरी के लिए। किताब में देखकर लगता ... अरे ये तो मुझे याद है !<br />
<br />
<i>रण बीच चौकड़ी भर-भर कर, चेतक बन गया निराला था। </i><br />
<i>राणा प्रताप के घोड़े से, पड़ गया हवा का पाला था। </i><br />
<i>गिरता न कभी चेतक तन पर, राणा प्रताप का कोड़ा था। </i><br />
<i>वह दौड़ रहा अरि-मस्तक पर, या आसमान पर घोड़ा था। </i><br />
<i>जो तनिक हवा से बाग हिली, लेकर सवार उड़ जाता था।</i><br />
<br />
और ये सब पूछने वाले बड़े-बूढ़े लोग भी मजेदार होते - प्रेडिक्टेबल - <i>"कई नवा एक सौ बासठ?"</i><br />
<div>
<br /></div>
<i>"अब एक बुझौव्व्ल बताओ। अजा सहेली ता रिपु ता जननी भरतार ताके सुत के मीत को बारम्बार प्रणाम".</i><br />
<br />
पहली बार नहीं आया ये हो सकता था, उसके बाद ऐसा कैसे होता कि पता न हो। <i>तेज होने</i> के यही <i>टेस्ट</i> होते थे तो गहराई में जाकर हम उत्तर भी निकालने का प्रयास करते। कहीं चौपाई सुनी तो प्रसंग और स्रोत का पता लगाया जाता। लोग सिखाते भी अच्छी चीजें थे। लघुत्तम, महत्तम बाद में सीखना पहले <i>समहर</i> करना सिख लो. लघुत्तम, महत्तम अपने आप समझ में आ जाएगा। और ये पहली चीज थी जो ऐसे समझ आयी कि उसके बाद सीखने की जरुरत ही नहीं पड़ी। भिन्न देखते ही अंक खुलते चले जाते। गणित में मजा आने लगा। वैसे ही चक्रवाल विधि सीखा दिया था किसी ने... वर्षों बाद पता चला कि ये भास्कर के बीजगणित में वर्णित प्रसिद्द विधि है !<br />
<br />
और एक तो ये राम को आम इतना प्रिय था कि वो आम ही खाते रहता... और हमें वो अंग्रेजी में अनुवाद करके बताना होता -<br />
<br />
'राम आम खाता है'.<br />
'राम आम खा रहा है'.<br />
'राम आम खा रहा था'<br />
'राम आम खा चूका है.'<br />
'यद्यपि राम ने आम खाया फिर भी उसे भूख लगी थी' वगैरह, वगैरह.<br />
<br />
ये सब अंग्रेजी में बता दिया तो सिद्ध हो गया चलो लड़का बहुत तेज है ! शाबाश !<br />
<br />
एक दो बार के बाद समझ आ गया था कि अब अगला सवाल ये होने वाला है - 'राम के आम खाने के पहले रेल गाडी जा चुकी थी'. (इसका जवाब ये क्यों नहीं कि - <i>अब आमे खाये में नशा रही उनकर त गाड़ी छुटबे करी!</i>).<br />
<br />
वो चीजें भी सुन कर याद हुई जो हमारे बचपन में समाप्त हो गयी थी -<br />
<br />
मन-सेर-छटाक।<br />
रत्ती-माशा-तोला।<br />
रुपया-आना-पैसा-पाई।<br />
<br />
यदि किसी बड़े-बूढ़े ने भी कभी पढ़ा हो और हमने सुन लिया किसी चर्चा में तो भी याद हो गया। इन प्रणालियों के बारे में बस इतना ही सुना। एक से दूसरे में परिवर्तित करना रटा नहीं तो आज तक पता भी नहीं। श्रुति परम्परा मज़ेदार थी। <i>पिरीआडिक टेबल</i> तो मुझे लगता है सबने ही ऐसे रटा होता है - <i>हली नाक रब कस फर ! बीमज कासर बारा...</i><br />
<br />
पढ़ाने वाले लोग भी मजेदार थे। गणित के एक शिक्षक थे - ठेठ । उन्होंने जैसे कहा था - <i>बहिष्कोण सुदूर अन्तः कोणों के योग के बराबर होता है। सुदूर माने ? - सटलका से दूर ! </i><br />
<br />
अब इसके बाद जीवन भर कोई कुछ भी भूल जाए सुदूर का अर्थ कैसे भूल सकता है? - and now you can't un-listen this - <i>सुदूर माने - </i><i>सटलका से दूर !</i><br />
<br />
एक दो बातें हो तो लिखी जाएँ... ऐसी कितनी बातें हैं। त्रिकोणमिति में उन्होंने पहले क्लास में लिखा - 'पंडित भोले प्रसाद बोले हरे हरे'. इसका कभी इस्तेमाल नहीं करना पड़ा पर देखिये याद अब भी है !<br />
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संस्कृत में तो कितनी बातें याद रही. यण संधि - इकोऽयणचि - इई का य उऊ का व ऋ का र तथा लृ का ल हो जाता है। अयादि संधि - एचोऽयवायाव: ये बोलते समय मास्टर साब लटपटा जाते। लगता उनके मुंह में रसगुल्ला अटक गया और अब घुल रहा है। और याद भी वैसे ही है। संधि-विच्छेद से नाता इसलिए भी रहा कि हमारे शिक्षक हर अध्याय के शुरू में ही पहला काम यही कराते - एक एक शब्द का विच्छेद, जहाँ भी संभव हो। बोलते हर शब्द के संधि को पहचान उसका विच्छेद कर दो फिर विभक्ति। बस ८०% अर्थ समझ में आ जाएगा। बाकी जो बचा वो प्रत्यय-उपसर्ग इत्यादि से समझ आ जाएगा। संधि दीखते ही विच्छेद करा देते ! पढ़ते समय भी बोलते कि विच्छेद करके पढ़ो। हम उन्हें<i>एंटी-संधि</i> व्यक्तित्व वाले कहते और अब लगता है इससे अच्छा तरीका नहीं हो सकता था संस्कृत पढ़ाने का।<br />
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याद तो <i>शम्भू के बाप</i> भी हैं। हिंदी में एक अध्याय था 'सफर से वापसी' जिसके लेखक थे अजित कुमार। हमसे दो साल सीनियर थे - शम्भू कुमार जो अजित कुमार के पुत्र थे। लेखक अजित कुमार और शम्भू के बाप अजित कुमार दो विभिन्न लोग थे। लेकिन किसी शरारती लड़के ने स्कूल में सफर से वापसी के लेखक का नाम बता दिया - 'शम्भू के बाप'. और ये प्रसिद्द हो गया। अब भले ये भूल जाएँ की तोड़ती पत्थर के लेखक निराला थे लेकिन <i>सफर से वापसी - शम्भू के बाप </i>भला भूल सकते हैं?<br />
<br />
भूगोल के शिक्षक ग्लोब पर हाथ फिराते - स्वीडन-फिनलैंड-इंग्लैंड-आइसलैंड... संभवतः अपने जमाने के रटे क्रम में हाथ फिराते दुनिया पर। लगता <i>रैप </i>कर रहे हैं।<br />
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वैसे कंठस्थ करने और कंठस्थ रह जाने में संस्कृत ही एक नंबर रही -<br />
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शैले शैले न माणिक्यं. मौक्तिकं न गजे गजे. साधवे ना ही सर्वत्रं चन्दनं न वने वने।<br />
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अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम् | परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम्। वगैरह वगैरह.<br />
<br />
और सबसे अधिक मजा आता निबंध में ये सब ठेलते हुए. कहीं से अपने हाई स्कूल के दिनों के परीक्षा में लिखे निबंध पढ़ने को मिल जाते तो खुदा कसम मजा आ जाता. (<a href="https://uwaach.aojha.in/2017/11/blog-post.html" target="_blank">खुदा कसम वाला प्रसंग इस पोस्ट में है</a>).<br />
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संस्कृत कुछ ऐसे ही पसंद बन गयी थी । गणित-भौतिकी-संस्कृत के बाद ही कुछ था। मुझे लगता है इसका सबसे बड़ा कारण थे शिक्षक और उनका प्रोत्साहन। एक अच्छे शिक्षक पर बहुत कुछ निर्भर करता है। किसी विषय में रूचि पैदा करने में। नीरस लगने वाला विषय कोई अच्छा शिक्षक पढ़ा दे तो वही रुचिकर हो जाए। और शिक्षक ऐसे भी जो किसी विषय में कितनी भी रुचि हो तो उसे ही बेकार बना दे।<br />
<br />
तृतीया विभक्ति <i>येनांग विकार:</i> पढ़ाते हुए संस्कृत के शिक्षक एक दिव्यांग शिक्षक का उदाहरण देते। वो भी अक्सर जोर जोर से बोलकर उनको सुनाते हुए - 'स: पादेन खंज:' (स: की जगह उदाहरण में वो उन शिक्षक का नाम लिखा देते) ऐसा करना अत्यंत असंवेदनशील था। पर स्वाभाविक है उनका मजे लेकर लिखवाना वैसे के वैसे ही याद है।<br />
<br />
किसी ने कहा - 'सर ऐसे नहीं बोलना चाहिए आपको. फलाने सर को बुरा लगता होगा'<br />
<br />
तो उन्होंने कहा था - 'अरे वो मित्र हैं हमारे। बुरा क्या लगेगा.' उसके तुरत बाद ही ठहाके लगाते हुए बोले - 'वैसे हैं भी तो वो पुरे अष्टावक्र ! पादेन खंज: तो सम्मान ही हुआ।'<br />
<br />
बताइये !<br />
<br />
वे भी दिन थे. लगता है हमने मजे-मजे में पढाई कर ली ! कैसे लोग रोना रोते हैं पढाई का :)<br />
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--<br />
~Abhishek Ojha~<br />
<br /></div>
<div class="blogger-post-footer"><a href="http://www.aojha.in">Abhishek Ojha</a></div>Abhishek Ojhahttp://www.blogger.com/profile/12513762898738044716noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-8813075190326884926.post-35428816985743076872018-08-28T22:43:00.000-04:002018-08-29T12:55:56.376-04:00किस्सा-ए-बागवानी <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
[सत्य घटनाओं पर आधारित. इस पोस्ट के सभी पात्र और घटनाए <i>लगभग </i>वास्तविक हैं. यदि किसी भी व्यक्ति से इसकी समानता होती है तो ये और कुछ भी हो संयोग तो नहीं ही है. वैसे हमें कौन सा फर्क पड़ता है ! 😊]<br />
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<br />
कुछ दिनों पहले हमसे किसी ने कहा – ‘थोड़ा <i>गार्डनिंग </i>पर ज्ञान दो. तुम तो कितना कुछ लगाते हो. <i>लकी</i> हो, तुम्हारे हाथ से पौधे लग जाते हैं’.<br />
<br />
पहले तो सवाल ही गलत था <i>अपार्टमेंट</i> में रहने वाला व्यक्ति क्या जाने <i>गार्डेन</i> का हाल ! फिर भी हमने बहुत कोशिश की कि अपने को और अपने हाथ को श्रेय दे ही लूं. पर हो नहीं पाया क्योंकि... इस बात को समझने के लिए...<br />
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पहले एक कथा -<br />
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बात बहुत पहले की है. जब लोग पैदल यात्रा किया करते थे. सड़कों के किनारे छायादार और फलदार वृक्ष हुआ करते थे जिनकी छाँव में पानी पीने की व्यवस्था होती थी. एक सज्जन यात्रा पर निकले... सुदूर किसी देश में कहीं एक दिन उन्हें एक फुलवारी दिखी। फल-फूलों के भार से झुके पेंड़-पौधे जिनपर भौरें मड़रा रहे थे... वगैरह वगैरह. माने भीषण मनोरम - इतनी मनोरम की यात्री ठहर गया. फुलवारी की सुन्दरता का अनुमान आप इस बात से लगाइए कि न तो उस जमाने में <i>फेसबुक</i> था. न <i>इन्स्टाग्राम</i> .न <i>स्नैपचैट</i> (<i>ट्विट्टर </i>भी नहीं !) फिर भी यात्री ठहर गया !<br />
<br />
फुलवारी का मालिक दिखा तो यात्री ने मंत्रमुग्ध होने वाला एक्सप्रेशन देते हुए कहा – ‘भाई ! क्या अद्भुत बगिया है आपकी। मैं कितने ही नगर-राज्य-महाजनपद-देश घूम आया पर ऐसी खुबसूरत बगिया मैंने नहीं देखी !’<br />
<br />
लहलहाती फुलवारी के मालिक अति प्रसन्न हुए और गर्व से बोले – ‘भाई, आखिर क्यों नहीं होगी ! इतनी मेहनत करता हूँ. खून-पसीना एक कर रखा है. ऊपर से... देखिये उन्नत किस्म के बीज और सिंचाई और.. ये और वो... जिंदगी लगा रखी है इसमें. ऐसे ही नहीं हो गयी!’.<br />
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वो इतना बोल गए जितने में बागवानी का <i>मैनुअल</i> छप जाता. विद्वानों की इसमें एक राय है कि <i>मीडिया</i> का युग होता तो वो जरूर <i>पैनल एक्सपर्ट</i> बने होते. चुनावी <i>एक्सपर्ट</i> तो बन ही गए होते जो परिणाम आने के बाद तुरत ही उसका कारण बता देते हैं ! (पत्रकार भी हो सकते थे पर संभवतः उतने भी हांकने वाले नहीं थे... पत्रकारिता के लिए तो धान के खेत में खड़े होकर उसे गेंहू कह देना भी विशिष्ट <i>ओवरक्वालिफिकेशन</i> होता है.) खैर ... कुछ महीने या हो सकता है वर्ष बाद... (अब समय तो लगता था पैदल आने-जाने में) वही सज्जन यात्री वापस आ रहे थे (अब देखिये <i>प्रूफ</i> तो नहीं है कि सज्जन ही थे लेकिन ऐसा ही कहने का चलन है). इस बार उन्होंने देखा कि बगिया उजाड़ पड़ी है. उन्हें बड़ी निराशा हुई. अब <i>सेल्फी </i>वगैरह का युग तो था नहीं लेकिन बगिया की खूबसूरती देखकर हो सकता है यात्री के दिमाग में आया हो कि आते समय एक चित्र ही बना लूँगा ! या उस जमाने में हो सकता है लोग सच में खूबसूरती आँखों से देखते हों और आनंदित होते हों. जो भी कारण रहा हो उन्हें लगभग बंजर पड़ी जमीन और सूखे पौधे देख बड़ी निराशा हुई.
संयोग से बगिया के मालिक फिर दिख गए.<br />
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यात्री ने इस बार दुःख प्रकट करते हुए पूछा – ‘भाई, हुआ क्या? मतलब कैसे? आप तो इतनी मेहनत ?’<br />
<br />
एक जमाने में लम्बी लम्बी हांकने वाले बगिया के मालिक बोले – ‘भाई, क्या बताएं अब. सब भगवान की लीला है. जैसी प्रभु की इच्छा.’<br />
<br />
कथा समाप्त.<br />
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अरे रुकिए अभी आगे और पढना है. केवल कथा समाप्त हुई है बात नहीं.<br />
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तो ... कथा से शिक्षा वगैरह जो मिली वो तो आप समझ ही गए होंगे. उसे बताने का पांच नंबर तो मिलना नहीं जो सोदाहरण लिखा जाय और शिक्षा भी थोड़ी गहरी सी है जितना सोचेंगे उतनी खुलेगी. तो हम क्या लिखें अपनी समझ ! पर ऐसा है कि... बचपन में कहानियाँ लाखों में नहीं तो हजारों में तो सुनी ही... लेकिन उनमें से कुछ ऐसी रहीं जिनका उदाहरण जिंदगी में हर मोड़ पर मिला. ये कहानी भी वैसी ही कहानियों में से एक है. छोटी, गंभीर और सटीक.<br />
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अब <i>फ़ास्ट फॉरवर्ड</i> करके आ जाते हैं वर्तमान में. अपनी बात. लोग कहते हैं कि हमारा <i>अपार्टमेंट ‘बोटैनिकल गार्डन’ </i>लगता है. लोगों को अजूबा इसलिए लगता है कि पचास तल्ले की <i>बिल्डिंग</i> के कबूतर खाने जैसे अपार्टमेंट में - कैसे इतने पौधे ! देशी-विदेशी जो भी आते हैं वो पूछते जरूर हैं पौधों के बारे में. लेकिन अब ये कथा तो बचपन से ही <i>वायर्ड</i> हैं दिमाग में तो हम क्या बोलेंगे.. मुस्कुरा भर देते हैं. कुछ हांकने से पहले ही कथा दिमाग में कौंध जाती है.
वैसे हम करेंगे भी क्या. गमले, मिट्टी, बीज सब कुछ तो मिलता है बस हम इतना करते हैं कि लगा देते हैं. और सर्दियों में जब हिमपात का मौसम होता है. सूर्य दक्षिणायन होते हैं जब कुछ नहीं उगने का समय होता है तब मिट्टी में कोई भी बीज दबा देते हैं. कुछ दिनों में हरा-भरा निकल आता है – आलू, चना, सरसों, मुंग, उड़द. उसमें भी फूल लगता है. खुबसूरत भी दीखता है. और जब मौसम हो तब तो बीज मिलते ही हैं बाजार में.<br />
<br />
पर लोग तो लोग - एक मित्र पहले तो दुखी हुए कि उन्होंने बहुत कोशिश की पर लगता ही नहीं. - कैसे लगाते हो? हमारे तो दिमाग के <i>बैकग्राउंड</i> में कथा ! तो हम माहौल में स्माइली बना देने के सिवा क्या कहते. पर कुछ देर के बाद वो पलटी मार कर खुद ही ज्ञान देने लगे - ‘अभिषेक एक गड़बड़ है. ये दो पौधों को तो तू <i>प्रून</i> कर दे. छंटाई करने से और फनफना के बढ़ेंगे.' दो में से एक तुलसी. हम अपने पौधों के पत्तों को कभी हाथ नहीं लगाते और वो काट-पीट के धर दिए. ‘अभिषेक, तू बेकार मोह कर रहा है ऐसे ही बढ़ते हैं! देखना.’ हम तिलमिला कर रह गए लेकिन थोडा तो समझ में आ गया कि उनके पौधे क्यों नहीं लगते ! लहलहाती फुलवारी वाले जब <i>एक्सपर्टई </i>करने लगे तब ‘भगवान की लीला’ हो ही जाती है और यहाँ तो बिना कुछ लगाये भी ..एक तो <i>एक्सपर्ट</i> ऊपर से बिन मोह दया - पौधे कहाँ से लगेंगे !<br />
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हमारा पौधे लगाने का सिलसिला शुरू हुआ था तुलसी लगाने के प्रयास से. उसके पहले लगे लगाए <i>रेडीमेड</i> गमले ही लाते थे. कृष्ण-तुलसी के बीज <i>ऑनलाइन</i> मिल गए तो गमले और मिट्टी <i>सुपर मार्केट</i> में. उसके बाद तो एक से दो होते हुए दर्जन भर गमले हो गये. मन बढ़ा तो और भी पौधे लगाते गए... एक दक्षिण भारतीय मित्र से ओमवल्ली (कर्पुरावल्ली) का डंठल मिला और फिर... बैम्बू, मनी प्लांट, गेंदे के फूल, सूरजमुखी, आलू, टमाटर, पुदीना... हमारे अपार्टमेंट में फर्श से लेकर छत तक खिड़की है और वो भी दक्षिण-पूर्व दिशा में जिससे सर्दियों में दिन भर धूप रहती है. जो इस देश के लिए <i>ग्लास-हाउस</i> की तरह काम कर देती है और पौधे लहलहा उठते हैं – बाकी आगे कहने को तो बहुत मन हो रहा है लेकिन – कथा !. वैसे कभी-कभी गड़बड़ भी हो जाती है. जैसे - टमाटर ! हमने बचपन में जो देखा था वो टमाटर का पौधा छोटा ही होता है. लगाने के बाद पता चला कहने को <i>चेरी टोमेटो</i> लेकिन हो गया आठ फीट का. धागे और टेप से खिड़की के शीशे पर किसी तरह उसे सहारा मिल पाया !<br />
<br />
<br />
एक अन्य मित्र हमारे घर आ चुके थे और उन्होंने अपने एक अन्य मित्र को हमारे पौधों के बारे में बताया. और बात मित्र से मित्र तक जाते जाते थोड़ी तो बदलती है ही. ये मित्र के मित्र एक बार मिले तो कहने लगे (<i>फेक अमेरिकी एक्सेंट</i> में पढियेगा) – ‘<i>आई हर्ड</i> आप तो सब्जी<i> एंड आल</i> भी उगा लेते हैं अपने अपार्टमेंट में ! आपको तो खरीदना भी नहीं पड़ता होगा. कैसे लग जाता है यार.. मैं तो... कितने <i>प्लांट्स</i> लेकर आया. <i>दे जस्ट डाई </i>! मैं तो <i>मिनरल वाटर </i>डालता था <i>एंड यू नो प्लांट फ़ूड </i>वो भी खरीद के लाया. आप बताओ कुछ.’<br />
<br />
...हम तो सही में कुछ नहीं करते हैं तो क्या बताते. लेकिन हमें पहले तो ये लगा कि इसके तो <i>एक्सेंट</i> सुन कर ही पौधे मर जाते होंगे ! दूसरी ये कि जिसे लगता है कि गमले में उगा कर खाने लायक हो जाएगा उसको कैसे समझाया जाय. हमें समझ ये नहीं आया कि ये लड़का चार साल से अमेरिका आया है और इतना <i>एक्सेंट !</i>वो भी हाथ मुंह टेढ़ा कर कर के ! देखिये हम <i>जजमेंटल</i> तो नहीं हैं लेकिन अब ऐसा भी नहीं हैं कि राजस्थान में पला बढ़ा व्यक्ति इतने <i>एक्सेंट</i> में अंग्रेजी बोलने लगे. बहुत से राजस्थानी दोस्त हैं अपने भी. और हम ठहरे फैन उन बनारसी के जो बीस साल से रह रहे हैं अमेरिका में. उनकी बीवी रसियन. (८०% फैनता तो यहीं हो जाती है वो ठेठ बनारसी और उनकी पत्नी .. खैर !) और आज भी जब वीजा को भ पर जोर लगाकर भीजा कहते है तो लगता है दुनिया में इंसानियत अभी ख़त्म नहीं हुई. वो चार महीने की गर्मी में लौकी नेनुआ उगा लेते हैं - उगा ही लेंगे ! खैर मिलने को तो ऐसे लोगों से भी मिल चुका हूँ जो कह देते हैं कि वो भूल ही गए अपनी भाषा ! मुझे अभी तक ये बात समझ नहीं आई कि कोई अपनी भाषा कैसे भूल सकता है !<br />
<br />
खैर... इसी बात पर एक और प्रसंग –<br />
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ये उन दिनों की बात है जब खलिहान में कटी फसल पर बैलों से रौंदवाकर दवनी होती थी. एक व्यक्ति दो साल के बाद कलकत्ता से लौटकर अपने गाँव आया था. खलिहान पहुंचा तो मसूर की दवनी चल रही थी. एक तरफ अनाज ओसाकर रखा हुआ था. उसने <i>स्टाइल</i> (अर्थात उस जमाने का <i>कलकत्ता रिटर्न एक्सेंट</i>) में पूछा – ‘इत्ते इत्ते दाना क्या है?’<br />
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खलिहान में सन्नाटा पसर गया. बैल तक ठहर गए ! ऐसी विचित्र बात ही हुई थी. दो साल कलकत्ता में रह कर आया व्यक्ति मसूर भूल गया !
खलिहान में ही गाँव के एक चटकवाह (तेज तर्रार) बुजुर्ग भी बैठे थे – अनुभवी. छाया में बाल सफ़ेद किये हुए (मतलब वही कि बाल धूप में सफ़ेद नहीं किये थे). उन्हें ये वाला भूत भगाना बखूबी आता था. बैठे-बैठे दो नौजवानों को उन्होंने इशारा किया. दोनों नौजवान लठ्ठ लेकर टूट पड़े. जब दो चार लट्ठ सही से पड़ गए तब कुटाया हुआ व्यक्ति चिल्लाया – ‘अरे मसूर है मसूर. याद आ गया.’ !<br />
<br />
प्रसंग समाप्त.<br />
<br />
मन तो हमें भी वही हुआ लेकिन... हम ऐसी हिंसा के बस सैद्द्धान्तिक समर्थक है. इस विषय में मेरे पास लालू की सुपुत्री मिसा भारती वाली डिग्री है... <i>प्रैक्टिकल</i> का कोई अनुभव नहीं - फेल पास तो तब होते जब कभी कोशिश किये होते. अब हम क्या बताते इस मित्र के मित्र को, सोचें कि इसको इसीकी भाषा में समझाना ठीक रहेगा तो हमने कहा – ‘तुम्हारे <i>प्लांट्स ओबेसिटी</i> से मर रहे हैं. वो ठहरे.. जंगल में रहने वाले जीव. <i>वाइल्ड</i>.<i> यु नो</i>. उन्हें <i>मिनरल वाटर</i> और <i>प्लांट फ़ूड </i>खिलाओगे तो <i>फिट</i> कैसे रहेंगे’.<br />
<br />
उन्हें ये बात तुरत समझ आ गई. पर ‘जीव’ वो सुन नहीं पाए. पौधे जीव हैं. जीवन - पूरा जीवन चक्र होता है पौधों का. अगर कुछ दिन पानी न दीजिये तो देखिये वो कैसे जीने के लिए छटपटा कर परिवर्तत होते हैं. जीजिविषा से भरपूर ! सूर्य की तरफ झुके... और यदि टमाटर के पौधे को कुछ दिन पानी नहीं मिला तो फटाफट फल लग कर पक जाता है. धीरे धीरे होने वाली प्रक्रिया त्वरित हो जाती है क्योंकि उन्हें लगता है कि अब जीवन समाप्त होने वाला है अपने गुणसूत्र संचित करते चलें – वनस्पति शास्त्र !
यदि पौधे सूखने लगें तो थोडा तो सोचो कि क्या कारण हो सकता है. पानी ज्यादा है तो कम डालो. अगर जडें ज्यादा हो गयी हो तो बड़े गमले में <i>ट्रांसफर </i>कर दो. मत्स्यावतार की तरह बढाते जाओ गमलों का आकार.<br />
<br />
पर यदि आप ऐसे व्यक्ति है जो खुद कुछ ठीक करने के पहले <i>कस्टमर केयर</i> को फ़ोन करते हैं तो आपसे पौधे क्या ही लगेंगे. हम उस वर्ग के जो यहाँ <i>टूलबॉक्स</i> खरीद के ले आये और निराशा होती है कि इस देश में कुछ खराब होने जैसा है ही नहीं जिसे खोल खाल के थोडा कसा जाता! कहानी का असर नहीं होता तो कह देते कि बावन बीघा में पुदीना उगता है हमारे घर ये गमलों में उगाना कौन सी बड़ी बात है लेकिन हम ऐसा कभी नहीं कहेंगे. 😊<br />
<br />
<br />
पौधे जीव हैं. और जीव के प्रति ...पौधों को जीव समझिये बस लग जायेंगे. और हाँ फर्जी एक्सपर्टई से बचिए.<br />
<br />
किसी ने कह दिया ‘ये तो बात करता है अपने पौधों से.. प्यार से रखता है.’ कथा दिमाग में आई और मैंने तुरत रोका बस-बस.
यदि आपको शौक है तो लगाइए. हाथ अच्छा-बुरा नहीं होता.. पौधों में जीजिविषा होती है. वो खुद लगते हैं. (नहीं लगे तो ऊपर वाली कथा का पांच बार जाप कीजिये.)<br />
<br />
हमारे घर के पास ही एक सप्ताहांत किसी ने मुफ्त में ढेर सारी किताबें रखी थी (होते हैं भले लोग) उनमें से एक उठाकर ले आया. पूरी किताब में जीने की कला जैसी कुछ बात थी. पर हाय रे <i>फर्स्ट वर्ल्ड</i>. उसमें जो बातें लिखी थी... ऐसी थी - एक दिन गाना गाओ, एक दिन दूर तक पैदल चलो, एक दिन एकांत में जाकर चिल्लाओ, पौधे लगाओ, किसी मशीन को खोलो और उसे वापस कस दो, मिटटी खोदो और उसमें लेट जाओ, पेंटिंग बनाओ... माने कुल मिला के उसमें ये था कि आदमी इतना न सुकून की जिंदगी जीने लगा है कि जीना ही छोड़ दिया है. लेकिन पढ़ते हुए ये भी लगा कि ये सब तो वैसे ही होता है रोज जिंदगी में.. और जो ऐसा नहीं है या जिसे ये सब भी सिखाना पड़ रहा है... वो यदि ये सब करने भी लगे तो वो पगलेट जैसा ही तो दिखेगा. उसे इन बातों में जो आनंद आता है वो करने से भी न मिले शायद. किताब ‘पीड़ित रे अति सुख से !’ लोगों के लिए थी. उन्हें ये याद दिलाने के लिए कि जिंदगी ऐसी ही होती है ...जैसी होती है. बस वैसे मत बन जाइये.<br />
<br />
जीवन अपना रास्ता खोज लेता है... वही जीवन, वही जीजिविषा - जो आपमें है ! वही पौधों में भी होती है... या कोई भी काम कीजिये. मन से कीजिये. लहलहाएंगे पौधों की तरह ही. आपको आनंद आएगा हर उस काम में. लेकिन कथा जरूर ध्यान में रखियेगा नहीं तो...<br />
<br />
और अंत में कुछ तस्वीरें. ये कैसे लगे मत पूछियेगा. वैसे उत्तर तो आपको पता ही है – प्रभु की इच्छा !<br />
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हरी ॐ तत्सत ! 😊<br />
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~Abhishek Ojha~
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<div class="blogger-post-footer"><a href="http://www.aojha.in">Abhishek Ojha</a></div>Abhishek Ojhahttp://www.blogger.com/profile/12513762898738044716noreply@blogger.com11tag:blogger.com,1999:blog-8813075190326884926.post-20897927396820230802018-08-11T22:02:00.001-04:002018-08-12T14:14:11.977-04:00मेंटल (पटना २२)<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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चाय की दुकान पर आना जाना होने से धीरे-धीरे दो चार अजनबी लोग भी चेहरे से जानने लगे थे और उन्हीं में से एक सज्जन ने एक दिन हमें निमंत्रण दे दिया - 'आप भी आईयेगा'। यूँ तो मैं जानने वालों के यहाँ भी निमंत्रण पर नहीं जाता पर जिन लोगों के साथ <i>‘ज्वाइंट निमंत्रण’</i> मिला था वो खीँच कर ले गए. जॉइंट निमंत्रण जैसे स्विस जर्मन में अनजान लोग मिलें तो उन्हें ‘<i>ग्रुएत्सी</i>’ कहकर अभिवादन करते हैं और एक से ज्यादा हों तो सामूहिक <i>‘ग्रुएत्सी मितेनांत’</i> कह देते हैं. वैसे ही <i>‘निमंत्रण मितेनांत’</i> जैसा कुछ था ये. तो <i>‘मितेनांत’</i> लोगों के साथ मैं भी चला गया। अवसर था बड्डे पार्टी-कम-सत्यनारायण कथा. और आप समझ ही गए होंगे कि साथ जाने वाले चार लोगों में एक बीरेंदर उर्फ़ बैरीकूल भी था।<br />
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हम पहुंचे पौ बंद होने के समय (पौ फटने के विपरीत वाले समय) - गोधुली का समय। मेरी उम्मीद से कहीं ज्यादा लोग आए थे. महानगर का टैग होने के बाद भी है तो पटना ही. बच्चो को <i>डिस्काउंट</i> न करें तो कुल पचास से अधिक प्राणी तो होंगे ही. फूल-झालर भी लगा था. हम जहाँ खड़े थे वहां थोड़ी देर पहले ही पानी छिड़का गया था जिससे धुल की सोंधी गंध अभी भी उठ रही थी और बच्चे उछल कूद कर रहे थे. कुल मिलाकर व्यवस्था <i>टंच</i> थी. ऐसे अवसर पर मुझ जैसे लगभग असामाजिक व्यक्ति की थोड़ी देर इधर उधर मुस्कुराने के बाद 'अब क्या करें' की अवस्था हो जाती है. पर ‘<i>मितेनांत</i>’ समूह के दो चार लोग थे तो माहौल इस स्तर पर नहीं जा पाया। इसी बीच किसी को कहते सुना कि जेनेरेटर किये तो थे पर आया नहीं और लाइन का क्या भरोसा? रहा तो रहियो जाएगा और गया तो कोई भरोसा नहीं ! सिलेन्डर में गैस तो है लेकिन ‘<i>मेंटल</i>’ नहीं है। किसी को भेज कर ‘मेंटल’ मंगा लेने की बात हुई। किसी ने अपनी मोटर साइकिल ऑफर की और एक लड़का लपक के तैयार हो गया। ‘मेंटल’ माने वही पंचलाईट में लगने वाली जाली जो जल कर गोल हो जाने के बाद दुधिया रौशनी करती थी. किरोसिन वाले पंचलैट की जगह अब एलपीजी से चलने वाले गैस पर मेंटल बाँधा जाता है. किरोसीन वाला पंचलाईट जलाना एक कला थी पिन, पम्प से हवा भरना और फूंक फूंक कर रौशनी लाना (पंचलाईट रेणुजी की प्रसिद्ध कहानी है आपने नहीं पढ़ी तो ‘पिलिच’ यहीं से क्लिक-टर्न लेकर पढ़ आइये! वही जिसमें गोधन मुनरी को देखकर सलम-सलम वाला सलीमा का गीत गाता था.)<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhcxM-TqpXYn5cn7fH3BQhuiH4hnjoMWocofVH0hsvJ-prV5zkspNUZvISNrhmwHqu1ygcTB-HbWnGJYjC41c22GqqjbDqeLgG4JiQho7aalF3kBwmzg0nDQ5am0RpElS5AevL1sVowAo4E/s1600/Gas_mantle.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="900" data-original-width="1200" height="150" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhcxM-TqpXYn5cn7fH3BQhuiH4hnjoMWocofVH0hsvJ-prV5zkspNUZvISNrhmwHqu1ygcTB-HbWnGJYjC41c22GqqjbDqeLgG4JiQho7aalF3kBwmzg0nDQ5am0RpElS5AevL1sVowAo4E/s200/Gas_mantle.jpg" width="200" /></a></div>
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हड़बड़ी में जा रहे उस लड़के को बीरेंदर ने बुलाया - 'अबे, इधर आ। किधर? इतना जोश में? सिंघासन खाली करो वाला पोज में?'<br />
<br />
'अरे भईया. सब कामे अइसा कर देता है। रुकिए लेके आने दीजिये त बतियाते हैं लाइन कट गया त अंधेरा हो जाएगा। मेंटल लाने जा रहे हैं' - बाइक की चाबी हाथ में थी इसलिए ज्यादा उत्सुक था या सच में उसे चिंता थी ये समझना थोड़ा मुश्किल था। उम्र से १४-१५ साल, हाई-स्कूल का विद्यार्थी रहा होगा. पर बाइक चलाने की कोई उम्र-लायसेंस वगैरह तो होती नहीं. उसके नाटकीय भाव से ज़िम्मेदारी जरूर ऐसे टपक रही थी जैसे <i>एक्सट्रा चीज</i> – फ़ालतू। एक हाथ से कपार खुजाते और दुसरे में चाभी फंसाए... मुद्रा उसके उम्र से कहीं ज्यादा गंभीर थी। ( ‘एक्स्ट्रा चीज’ से एक और बात याद आई – बीरेंदर बोला था – ‘अरे महाराज पिज्जा के पागलपन का क्या कहियेगा. मोटा लिट्टा सेंक के उसके ऊपर पियाज छिड़क देता है – लिट्टा भी अधपका आ उसके ऊपर का पियाज भी. आ आदमी सब पांच सौ – हजार रुपया देके लूट लूट के खाता है?! आ जिसको अच्छा नहीं लगता है वो भी बोले कैसे? गंवार घोषित होने का <i>रिक्स </i>है तो सब यही बोलता है कि मजा आ गया! माने अब क्या कहियेगा रोटला के ऊपर रबड़ जैसा चीज और आधा भूंजा पियाज ! ऊपर से अच्छा नहीं लगे तब भी आदमी पैसा देकर भी अच्छा कहता है.’)<br />
<br />
'मेंटल? मेंटल तो हमरे पास ही है एक ठो। केतना चाहिए?' बीरेंदर ने पूछा। 'आ स्टाइल थोड़ा कम कर। कुल वजन मात्र एक पौवा के हिसाब से ढेर भारी लग रहा है तोर सीरियसनेस'<br />
<br />
'आप भी न भईया, दीजिये न है त... हमको कौन सा <i>सौक</i> है जाने का' लड़के ने झिझकते हुए कहा।<br />
<br />
'एक मिनट रुक बुलाते हैं, इधरे त थी अभी।'<br />
<br />
'का भैया आप भी ! ई मज़ाक का टाइम है?'<br />
<br />
'अरे मेंटले न चाहिए था तुमको? दिलाते हैं।'<br />
<br />
वो लड़का झिड़क कर निकल गया। ये 'मेंटल' तब समझ आया जब बीरेंदर ने अपनी दोस्त का परिचय कराया - 'भईया मिलिये हमारी दोस्त से - मेंटल !'<br />
<br />
“जानते हैं भैया हुआ क्या? हम भगवान से मांगे थे मानसिक शांति। आ उ का हुआ कि अङ्ग्रेज़ी-हिन्दी का चक्कर में थोड़ा गरबरा गया। हमारा उच्चारन भी तो वही है तो भगवानजी हमको ‘<i>मेंटल पीस</i>’ का जगह एक ठो '<i>मेंटल पीस</i>' दे दिये।"<br />
<br />
मेंटल बोली - 'मारेंगे न रे तुमको चोट्टा। हम केतनों त चोट्टा से ठीके है।'<br />
<br />
'चलो ठीक है लेकिन ये <i>ठेप्पी-ड्रेस</i> काहे पहनी हो तुम?’ बीरेंदर ने मेंटल से पूछा. मेंटल का ड्रेस दोनों कंधो पर गोल कटा हुआ था.<br />
<br />
‘ठेप्पी?’ मैंने और मेंटल दोनों ने एक साथ बीरेंदर को प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा.<br />
<br />
‘अरे ठेप्पी माने... नहीं समझे? कहाँ से सब अंग्रेज हो गया है मेरा दोस्त सब भी. ठेप्पी माने - सैम्पल. कभी तरबूज खरीदे हैं कि नहीं? माने ऐसे घुर रहे है जैसे लैटिन-उयटिन का कोई शब्द बोल दिए हम. तरबूज बेचने वाला सब ठेप्पी मार के एक ठो छोटा सा पीस निकाल के दिखाता है. वैसा ही लग रहा है कि दरजी यहाँ काट के ठेप्पी निकाल दिया है. माने पूरे कटा हुआ होता तो बात अलग था. पूरा होता तब भी. ये बीच में ठेप्पी मारा हुआ ही तो है. ये आईडिया हम बता रहे हैं वहीँ से आया है दरजी को.’<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiCMAUUJ_rgfc3arkJAH3VRXWMHYm2YF70b7fUuR6fRiTDq3XKQIv3mBCxC9PcT5dKJJNkjecMA-1cmNhy5If9dkPZhhBXp5PeQWr5GBX_hc8LiGcr34px6T_MW40MyyHiCC93jdHWhAQPV/s1600/%25E0%25A4%25A0%25E0%25A5%2587%25E0%25A4%25AA%25E0%25A5%258D%25E0%25A4%25AA%25E0%25A5%2580.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="1479" data-original-width="1600" height="184" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiCMAUUJ_rgfc3arkJAH3VRXWMHYm2YF70b7fUuR6fRiTDq3XKQIv3mBCxC9PcT5dKJJNkjecMA-1cmNhy5If9dkPZhhBXp5PeQWr5GBX_hc8LiGcr34px6T_MW40MyyHiCC93jdHWhAQPV/s200/%25E0%25A4%25A0%25E0%25A5%2587%25E0%25A4%25AA%25E0%25A5%258D%25E0%25A4%25AA%25E0%25A5%2580.jpg" width="200" /></a></div>
<br />
‘तुमको फैशन का समझ तो है नहीं. तो तुम चुप्पे रहो. दरजी से कौन सिलवाता है कपडा आजकल’ मेंटल ने बुरा नहीं मानते हुए कहा.<br />
<br />
‘अरे वही फैसन डिजाइनर भी दर्जिये तो हुआ. और अब हमको फैसन का समझ कहाँ से होगा... हमारे लिए तो फैसन ये था कि होली, दिवाली पर सारा भाई <i>बैंड पार्टी</i> लगते थे. एक्के थान में से काट के सबका शर्ट सिलाता था. हमको फैसन से वही याद आता है. और नया सिलाता भी था होलीये-दिवाली पर. एक्के दिन एक्के साथ सब भाई पहन एके शर्ट पहन लेते. क्या बताएं बाहर निकलने में भी सरम आता था’
बीरेंदर ने अपने बचपन के फैशन में शर्मिंदा होने की बात की और बात घुमा फिरा के पार्टी पर आ गयी.<br />
<br />
मैंने कहा – ‘बहुत लोग आये हैं बड्डे के हिसाब से.’<br />
<br />
‘हाँ तो आयेंगे ही. लड़के का जन्मदिन है. अन्तिमा नाम की बहन के बाद वाले भाई का’ बीरेंदर बोला और मेंटल थोड़ी गंभीर हुई.<br />
‘मतलब?’<br />
‘मतलब ये कि... शो स्टोपर.’<br />
‘अब तो कौन ही फर्क कर्ता है लड़का-लड़की में’<br />
‘लड़का-लड़की में फर्क नहीं करता है मत कहिये. <i>डायलोग</i> मारने में फर्क नहीं करता है कहिये. यहाँ सब <i>डैलोगे</i> मारते हैं कि हम अपनी बेटियों को बेटों की तरह ही रखे हैं लेकिन कभी बेटियों से बात कीजिये तो पता चलेगा. पर भईया उसीमें लड़ के, डूब के करने वाली जुझारू लडकियां हैं तो.. मेंटले को देखिये. हमेशा से तेज ! कोलम्बिया गयी थी अभी. हमको तो नक्सा में भी नहीं मालूम था कि कौन देस है !’<br />
<br />
‘बस-बस और कुछ बोला न रे चोट्टा तो यही मारेंगे.’ मेंटल बोली.<br />
<br />
‘देखिये भईया वो क्या है कि मेंटल दिमाग की तेज. भर-भर के इसको नंबर आता था. आ हमलोग का क्या है कि जेतना मेहनत कर सकते थे किये. जरुरत भर का आ जाता था.’<br />
<br />
‘ये गलत बात है तुम खुद का मेहनत करते थे और उसके लिए दिमाग ही तेज था. अरे उसने भी मेहनत किया होगा. और नंबर से सब कुछ थोड़े होता है’<br />
<br />
‘आप धर लिए हमको. नहीं... सही बात है. पर नंबर से कुछ नहीं होता है ये हम कहेंगे तो <i>सोभा</i> नहीं देगा काहेकी हमको उतना नंबर कभी आया नहीं. मेंटल कह सकती है काहे कि उ लायी है तो वो कहे. मेहनत तो बहुत की ही. और आजकल जो एक नया फैसन चला है कि <i>‘स्क्रू योर मार्क्स’</i>. माने सब खोज खोज के <i>एक्जाम्पल</i> देता है कि फलाने अनपढ़ थे आ<i>ड्राप आउट</i> थे और आज तीरंदाज हैं... अबे तो एक तीरंदाज हैं तो एक लाख ड्राप आउट पंचर भी तो साटता है? अरे तुमको नहीं पढना है कोई बात नहीं लेकिन पढाई को ही खराब नहीं कहना चहिये. और सब साला जेतना लफुआ सब है... उ जूस वाले मिसिर चाचा बताते हैं कि फेल होने के बाद उ सबेरे से ही दिन भर पता लगाने निकल जाते थे कि <i>और कौन कौन फेल हुआ है</i>. वही आजकल इन्टरनेट पर होने लगा है सब ड्राप आउट का फोटो ढूंढ के सब कोट लगाता है कि <i>स्क्रू योर मार्क्स</i>. अरे भाई जो मेहनत करके ला रहा है उसकी बेइज्जती तो मत करो. नंबर नहीं आया तो नंबरे को बुरा कह दो ? हम ये काम कम से कम नहीं करते हैं भईया. इ सब साला आतंकवादी जमात हो गया है आजकल नंबर नहीं आया तो पूरा दुनिए को दोष दे देगा खाली अपने को छोड़कर कि खुद पढाई नहीं किया. खैर... सही भी है आंकड़ा भी तो बनना चाहिए. ये नहीं गया अभी मेंटल लाने उ <i>आंकड़े परसाद </i>है. ५ प्रतिशत का सिलेक्शन होता है त ९०% आंकड़ा बनने के लिए भी तो कोई चाहिए न. <i>आंकड़ा परसाद</i> लोगों का भी महत्तव कम नहीं है'<br />
<br />
<br />
'तुम्हे <i>स्क्रू योर मार्क्स</i> वाले से दिक्कत है कि मेंटल का बड़ाई कर रहे हो’ मैंने पूछा.<br />
<br />
‘अरे भईया, आप भी न. हम तो <i>स्क्रू</i> शब्द का मतलब भी <i>स्क्रू-पिलास-नट-बोल्ट</i> ही समझते थे तो ये सब मन्त्र बोलते भी क्या! थप्पडिया और दिए जाते थे बात बिना बात. स्क्रू से याद आया एक बार सुने थे एक चाचा को बोलते हुए कि गुप्ताजी के लड़का अंग्रेजी मीडियम में पढता है उसके पास जो <i>जेस्चर</i> है ! क्या अंग्रेजी बोलता है गुड मार्निंग, गुड इवनिंग करता है.. हम सुने त अपने लंगोटिया यार सब का मंडली में अलगे दिन बोले कि बेट्टा कहीं से जुगाड़ लगाओ <i>जेस्चर</i> का. जब तक जेस्चर नहीं मिलेगा ऐसे ही थुराते रहेंगे हम लोग. हमको पता लगा है कि गुप्तवा के पास है जेस्चर. बहुत दिन तक फेरा में रहे कि कहीं से जेस्चर मिल जाए. किस दुकान में मिलता है पकड़ नहीं पाए ! हमको इतना त अंग्रेजी आता था. हम क्या <i>स्क्रू, फक </i>और <i>शिट</i> वाला मंतर पढ़ते. वैसे अच्छा था थप्पडियाए गए तभी त सीखे कि जो हर बात में दुसरे को ही गलत घोषित कर दे उ आदमी एक दम फर्जी उससे दुई लट्ठा का दूरी बना के चलना चाहिए !’<br />
<br />
‘अरे चलिए शंख बज रहा है चलते हैं नहीं तो सब कहेगा कि खाली खाने आये थे. परसाद बटेंगा अब. केक उक भी कटाएगा लगता है. हमलोग का तो ऐसा था कि पूड़ी-खीर और सीजन में पड़ता है जन्म दिन त आम मिलता था बड्डे पर.’<br />
<br />
‘केक के बिना बड्डे कैसे होता है?’ मेंटल ने पूछा.<br />
<br />
‘देखिये अब यहीं मार खा गया न पटना. माने केक नहीं काटेंगे तो बड्डे क्या कहेगा कि हम नहीं होंगे? कैसे होता है मतलब क्या ! हो जाता है बस. नहीं होता तो हम आज तक एक्के बरस के होते? माने गजब है अब कैसे समझायें कि कैसे हो जाएगा बड्डे बिना केक के’ बीरंदर ने कहा. ‘किसी वैज्ञानिक से पूछना पड़ेगा.’<br />
<br />
‘बस बस हो गया’ मैंने बीच बचाव किया. प्लेट में परसाद मिला और साथ में छोटे से प्लास्टिक के कप में चरणामृत.<br />
<br />
‘संतृप्त घोल बना दिया है’ बीरेंदर ने बोला.<br />
<br />
‘अब इसमें कौन सा खुराफात सुझा तुमको? जब देखो बकर-बकर. चैन नहीं रहता है तुमको नहीं? जीभ में चक्कर है तुम्हारा हम बता रहे हैं’ मेंटल ने कहा.<br />
<br />
‘अरे माने इतना न मीठा है. हमलोग हिंदी में केमेस्ट्री पढ़े थे त उसमें मिश्रण वाला अध्याय में एक ठो होता था कुछ <i>संतृप्त घोल</i>. माने पानी में इतना चीनी हो जाए कि उसके बाद और घुलने का जगह नहीं बचे. तो ये ‘चनैमृत’ वही वाला चीज है – संतृप्त घोल.’<br />
<br />
चरणामृत प्लास्टिक के कम में मिला था तो उसके लिए भी बीरेंदर बोल उठा – ‘इ बढ़िया हिसाब है हाथ नहीं धोना पड़ेगा. हम जो पूजा देखे हैं उसका तो पूरा बजटवे कप का खर्चा भर का होता है’<br />
<br />
थोड़ी देर बाद हमने निर्णय लिया कि अब शकल तो दिखा ही दी है... अब वहां से निकल लिया जाय और बिस्कोमान भवन पहुँच के डोसा दबाया जाय.<br />
<br />
जब चलने लगे तो बीरेंदर बोला – ऐ मेंटल, तुम्हारा ड्रेस तो ठेप्पी से प्रेरित था. वो देखो उ जो पहनी है उ बला ड्रेस बनाने के लिए मच्छरदानी से प्रेरित हुआ होगा फैसन डिजाइनर.’<br />
<br />
--<br />
~Abhishek Ojha~</div>
<div class="blogger-post-footer"><a href="http://www.aojha.in">Abhishek Ojha</a></div>Abhishek Ojhahttp://www.blogger.com/profile/12513762898738044716noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-8813075190326884926.post-19781160195880555432018-03-02T15:09:00.000-05:002018-03-03T08:37:19.863-05:00फगुआ <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
- <a href="https://twitter.com/aojha/status/573887569747902464?s=19" target="_blank">फगुआ</a> क्यों बोल रहे हो. कैसा तो लगता है सुनने में. चीप. होली बोलो.<br />
<br />
- चीप? 'चीप' भी कैसा तो चीप लगता है सुनने में फूहड़ बोलो. फगुआ इसलिए क्योंकि बात <a href="https://twitter.com/aojha/status/573887569747902464?s=19" target="_blank">फगुआ</a> की हो रही हो तो उसे होली कैसे कहें?<br />
- दोनों एक ही तो होता है?<br />
- एक ही कैसे होता है? माने गुझिया और पुआ एक ही होता है? अगर होता है तो फिर फगुआ और होली भी एक ही होता है. वो बात अलग है कि गुझिया ने पुआ को पीछे ठेल कब्ज़ा कर लिया है इस त्यौहार पर.<br />
- मतलब?<br />
- अरे पुआ माने पुआ. गुझिया.. नाम से ही शर्माती इठलाती. <i>सोफिस्टिकेटेड.</i><br />
- पर उससे क्या फर्क पड़ता है? दोनों ही मिठाई है जिसको जो मन बनाए.<br />
<br />
- कैसे फर्क नहीं पड़ता ! अब पहसुल और चाक़ू भी तो दोनों सब्जी ही काटते हैं. पर एक से काटने वाला दुसरे से काटे तो हाथ उतर जाए ! फगुआ पहसुल है. होली <i>शेफ'स नाइफ</i>. झुलनी (ईअर रिंग - कर्णफूल ) लगा वाला पहसुल देखी हो कभी? उस पर काटने वाले अलीबाबा की कहानी के मुस्तफा दरजी की तरह अँधेरे में भी काट के धर दे. और तुम्हे तो उन्हें काटते देख के ही गर्मी छुट जाए - <i>ओ माई गोड इट्स सो डेंजरस </i>! चाक़ू से क्यों नहीं काटते ये लोग ! (पहसुल तो पता है न ?)<br />
<br />
- लेकिन फगुआ और होली का उससे क्या लेना देना?<br />
<br />
- अरे वही जैसे सब्जी और तरकारी. सिलबट्टा और मिक्सर।<br />
- कहाँ की बात कहाँ ले जा रहे हो? सब्जी और तरकारी कहाँ से आ गयी?.<br />
- अरे.. उनमें भी वही अंतर है जो होली और फगुआ में है.<br />
<br />
- <i>व्हाट्?</i> दोनों एक ही तो होता है.<br />
<br />
- वही तो .. एक ही होता है. तरकारी माने... भरपूर. फ़ेंक-फ़ेंक के खाने जैसा. घर का. मन उब जाने तक. और सब्जी माने बाजार से ठोंगे में लाया गया. तरकारी माने घर की मुंडेर और खेत में से तौला के लाया गया बोरा नहीं तो कम से कम झोला भर - आलू टमाटर, धनिया... खेत में लगा धनिया देखा है कभी? बोझा में से तोड़ने को इफरात में मटर की छेमी. सब्जी माने प्लास्टिक के झिल्ली में लाया गया एक पौउवा आलू- एक मुट्ठी धनिया, <i>फ्री</i> का दो मिर्ची और<i> फ्रोजेन</i> मटर. एक टोकरा-बोरा में रखाता है दूसरा <i>रेफ्रिजेरेटर</i> में.<br />
<br />
- लेकिन बात तो वही है? अब बावन बीघा पुदीना जैसी बात मत करो.<br />
<br />
- बावन बीघा वाली बात में दम है. पर अब भी <i>क्लियर</i> नहीं हुआ ? <i>उस रंग को क्या जाने</i> वाला मामला हो रहा है. फगुआ और होली में वही अंतर है जो <i>चिट्टी और व्हाट्सऐप</i> में. पुरे मौसम बाल्टी भर के जामुन खाने वाले में और साल में एक बार ठोंगा का दो जामुन खा के 'इ<i>ट इज वैरी गुड टू कण्ट्रोल डायबिटीज</i>' कहने वाले में. फगुआ अभाव में भी इफरात का पर्व है. जो बाल्टी में जामुन खाता है उसको पता ही नहीं <i>डायबिटीज</i> क्या होता है ! बेपरवाह. मस्तमौला. जामुन पेंड पर होता है, खाने में अच्छा लगता है इसलिए खाता है. उसमें कितना कैलोरी है और कितने विटामिन इससे उसको क्या ! तो बस वही फर्क है - रगड़ के रंग खेलने और सिर्फ अबीर का टीका लगा लेने का फर्क जैसा. <i>इ ब्लैके पीते हैं </i>वो भी <i>डीप </i>वाला और मलाई मार के घोट के बनायी गयी चाय का फर्क. बैठ के <i>वाटरलेस</i> और रंग से <i>हार्म </i>हो जाएगा सोचने बनाम उन्मुक्त प्रवाह का फर्क है.<br />
<br />
- व्हाटेवर !<br />
<br />
- होली का <i>नेशनल एंथम रं</i>ग बरसे फ़ोन पर देखने और भांग चढ़ाए ढोल-जाँझ लेकर फाग-चैता गाने वालों में घुल जाने का अंतर है. अंतर है ... हुडदंग का और '<i>ओ माय गॉड ! हाउ कैन..' </i>का. अंतर है उन्मुक्त प्रवाह में शामिल होने का और दूर से उसमें मीन-मेख करने का.<br />
<br />
[ट्विटर पर पता चला होली को महिला विरोधी और पता नहीं क्या क्या विरोधी करार दिया गया ! फेमिनिस्ट तो खैर वैसे ही<i> एक स्तर के बाद </i>दिमाग से वैर पाल लेते हैं. फेमिनिस्ट ही नहीं किसी भी 'वाद' वाले. पिछले दिनों एक महिला मित्र ने हार्वर्ड क्लब में एक फेमिनिस्ट समूह में कह दिया कि मेरा पति तो... तो बात सुन कर ही सबका मुंह लाल हो गया. उनके गले ही नहीं उतरा कि एक तो पुरुष ऊपर से पति अच्छा हो कैसे सकता है ? ! ऐसा भी होता है क्या ! क्योंकि ये तो फेमिनिस्ट-वाद की मूल धारणा के खिलाफ ही बात हो गयी ! खैर. अपनी अपनी सोच। अपने अपने संस्कार! ये सब बात नहीं करनी चाहिए देखिये असली बात ही <i>डीरेल</i> हो गयी इनके चक्कर में]<br />
<br />
- फगुआ माने मदमस्त मादक (ये भी <i>चीप</i>?) और होली माने.. सेक्सी कह लो अगर वो चीप नहीं लग रहा तो. निराला का प्रिय-कर-कठिन-उरोज-परस कस कसक मसक पढ़ा है? वैसे ...घुमा फिरा के दोनों एक्के है.<br />
<br />
- मतलब दोनों एक ही है?.<br />
<br />
- अब जो है सो है. अब कहो कि आम पर फूल लगे हैं और कहो कि आम बौरा गये हैं तो एक ही बात तो नहीं होगी ? कुछ तो कारण है कि उसे बौराना कहते हैं ?<br />
<br />
- तुम बौरा गए हो.<br />
<br />
- अब तो बात ही ख़त्म ! हद हो ली.<br />
<br />
<br />
~Abhishek Ojha~</div>
<div class="blogger-post-footer"><a href="http://www.aojha.in">Abhishek Ojha</a></div>Abhishek Ojhahttp://www.blogger.com/profile/12513762898738044716noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-8813075190326884926.post-38390852161732927592018-02-14T18:16:00.000-05:002018-02-15T10:11:25.022-05:00तीन सामयिक बातें <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
तीन बातें का मतलब तीन ही नहीं, अब शीर्षक कुछ तो रखना पड़ेगा न ...बातें निकलेगी तो एक दुसरे से लिंकित होते दूर तलक जाए या आस-पास ही मंडराती रहे ...तीन पर तो नहीं ही रुकने वाली। पढ़ते हुए जहाँ भी लिंक मिले लपक के (क्लिक कर के) पढ़ आइयेगा क्योंकि असली बात वहीँ है. - <br />
<br />
<br />
१. जेएनयू <br />
<br />
आधी बात तो आपको जेएनयू पढ़ते ही समझ आ गयी होगी. अब ये कहने को तो यूनिवर्सिटी ही है पर न्यूज में हर बात के लिए आता है ...केवल पढाई-लिखाई से जुड़ी बातों को छोड़कर. किसी नाम को एक<i> विचारधारा विशेष </i>का पर्याय बन जाने के लिए प्रयास तो बहुत करना पडा होगा, नहीं ?<br />
<br />
मेरी आदत है वहां टांग नहीं घुसाने की जहाँ का कोई आईडिया नहीं पर यहाँ आइडिया था तो...<br />
<br />
एक व्हाट्सऐप ग्रुप पर जब जेएनयू के प्रोफ़ेसरों के लिखे कुछ (अटेंडेंस के मुद्दे पर)<i>आर्टिकल</i> आये तो हमें लगा कि <i>लोग कुछ भी लिख दे रहे हैं </i>! अखबार में छपे और टीवी पर दिखने वाले विद्वताझाड़कों (<a href="https://twitter.com/GYANDUTT/status/962667288368381953" target="_blank">शब्द सोर्स</a>) से हम प्रभावित होना बहुत पहले छोड़ चुके। उसके कई कारण है. एक कारण ये भी है कि खुद भी थोड़ा बहुत तथाकथित विशेषज्ञ की हैसियत से छप चुके हैं (अब बताइये आज से तीन साल पहले जो <a href="https://www.patrika.com/story/opinion/opinion-390609.html" target="_blank">बिटकॉइन पर लिखता था </a>उसे तो भर-भर के पैसे बना लेने चाहिए थे, नहीं? ☺) और हार्वर्ड, स्टेंफर्ड, एमआईटी जैसे भारी-भारी डिग्री और प्रोफाइल वाले लोगों के साथ उठाना बैठना कुछ यूँ है कि (बैरीकूल की भाषा में कहें तो -) घंटा हम अब उससे इम्प्रेस नहीं होते☺ ... प्रोफ़ेसरी का भी आईडिया है. और फिर ‘<i>धन्य धन्य ट्विट्टर कुमारा, तुम समान नहि कोउ उपकारा’</i>. ट्विट्टर न होता तो हम बहुत से बे सिर पैर के बात करने वाले विद्वताझाड़कों को <i>सीरियसली</i> ही लेते रह जाते. <br />
<br />
<br />
तो कुल मिला के हमें लगा कि आर्टिकल लिखने वालों की बात में टांग घुसाने भर का <i>आईडिया</i> हमें है. और ये लिखने वाले लोग कोई तोप-तमंचा नहीं है. तो हमने एक बड़ा संयमित सा जवाब लिखा. कॉलेज के दोस्तों ने कहा ‘चापे हो’ (माने अच्छा है). लेकिन ऐसा है कि विचारधारा विशेष के लोग अपनी बात कह के निकल लेते हैं. आपके तर्क सुनते हैं या नहीं ये आप सोचिये. खैर... तो वो बात यूँ थी. पढ़ा जाय - <a href="http://www.aojha.in/quotes-etc/attendance-row-in-jnu" target="_blank"><b>JNU Attendance Row</b></a> (वैसे हम <i>बोरिंग</i> बात तो नहीं करते पर पढ़ते-पढ़ते आप पर अगर बोरियत माता सवार हो जाएँ तो अगली बात पर चले जाएँ, शायद उसमें कुछ मजे की बात मिल जाए. फिर से वापस आकर पढ़ने का विकल्प कहीं गया थोड़े है). सोचा हिंदी में अनुवाद किया जाय पर अंग्रेजी में ही पढ़ आइये. <br />
<br />
<br />
२. आँख मारने वाली लड़की <br />
<br />
<br />
<div>
<i>वायरल, एपिडेमिक,</i> मारक सब हो चूका तो ऐसा तो नहीं है कि आपने <i>क्लिप</i> नहीं देखा होगा. और मौसम भी है फगुआ का तो वैसे भी भूगोल, <i>कर्व,</i> तरंग, <i>एपिडेमिक</i> सबका मतलब और <i>इक्वेशन</i> बदल जाता है. सब कुछ ऐसे पढ़ा जाता है - <br />
<br />
तन्वी श्यामा शिखरि दशना पक्व बिम्बाधरोष्ठी. मध्ये क्षामा चकित हरिणी प्रेक्षणा निम्ननाभि।<br />
श्रोणीभारादलसगमना स्तोकनम्रा स्तनाभ्यां. या तत्रा स्याद्युवतिविषये सृष्टिराद्येव धातुः।<br />
<br />
इसका अर्थ गूगल करके पढ़िए. (<a href="http://maghaa.com/tag/%E0%A4%85%E0%A4%AD%E0%A4%BF%E0%A4%B7%E0%A5%87%E0%A4%95-%E0%A4%93%E0%A4%9D%E0%A4%BE/" target="_blank">मघा</a> पर लिखने का <i>साइड इफ़ेक्ट</i> है). <br />
<br />
पर सच बताएं तो हमें इस क्लिप में कुछ अलौकिक सा नहीं नहीं लगा (अपना अपना <i>स्टैण्डर्ड</i> है भाई ☺). ये जरूर लगा कि लोग<i> फ़ोन,</i> <i>फ़िल्टर</i> और <i>स्क्रीन</i> में कुछ यूँ घुसे होते हैं कि भूलने लगे हैं <i>अदा</i> होती क्या है ! नैन नक्श, चाल-ढाल, मुस्कुराना, शर्माना ... धीरे-धीरे साधारण बातें भी अद्भुत हो ही जानी है. जैसे फसलें कौन पहचान पाता है? आलू, टमाटर, गेंहू, बैगन, चना इन्हीं को खेत में लगा दिखा दो... कितने लोग पहचान पायेंगे? और <i>एवोल्युशनरी बायोलॉजी</i> की मानें तो इन्हें पहचानना तो हमारे <i>जींस</i> (पहनने वाला नहीं गुणसूत्र वाला) में हो जाना चाहिए था अब तक. वैसे ही... फेसबुक पर फ़िल्टर के पीछे के चेहरे लाइक करते करते हम भूल ही गए हैं कि <i>‘अदा’, हाव भाव, एक्सप्रेशन </i>होता क्या है ! ज्यादा छोड़िये पिछली बार आपने किसी को सुकून से सोते हुए कब देखा था? किसी को प्यार से कब जगाया था? धुप्प अँधेरी रात में आकशगंगा कब देखा था? किसी के साथ सुकून से बैठ के बात के अलावा और कुछ भी नहीं किया हो... ऐसा कितना समय बिताया.? कभी किसी के साथ बैठकर आकाश में सप्तर्षि और ध्रुव तारा के साथ मृग-लुब्धक-व्याध देखते हुए दिशा और समय का अनुमान लगाया? (एक उम्र में मैंने घडी के साथ साथ इनसे भी देखा है कि रात को पढ़ते पढ़ते कितना समय हो गया!) कितने काम हैं जी.... जो आपने कभी नहीं किया? या अब नहीं करते? खाली पैर चले किसी के साथ? किसी की धड़कन सुने हैं क्या कभी? भारी काम नहीं है ये सब. विशेषज्ञता नहीं चाहिए. लेकिन पता नहीं क्यों मुझे चेतावनी दी जाती है कि तुम रोजमर्रा का काम लिख दो तो “रोमांटिक होने के १००१ तरीके” की किताब हो जायेगी. पर उसके बाद लड़के सब मिले के तुम्हें कूट देंगे और लडकियां तो वैसे ही पीछे पड़ी रहती हैं तुम्हारे”. <br />
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हमें नहीं पता था कि ये सब पुरातन काम भी रोमांटिक होना है – बताया गया तो लगा <i>होता होगा</i>. शायद <i>नेचुरले रोमांटिक</i> होते हैं कुछ लोग. जो कर दें वही रोमांटिक हो जाता है. वैसे <i>क्लिप</i> पर लौटें तो। ...हमको कुछ भी समझना-समझाना-पढ़ाना बहुत अच्छा लगता है और जब भी किसी लड़की को फिजिक्स और गणित का ‘तत्व’ समझाने की कोशिश किये... खुदा कसम (खुदा कसम की व्याख्या <a href="http://uwaach.aojha.in/2017/11/blog-post.html" target="_blank">सीट नंबर ६३</a> वाली पोस्ट में है) उसके बाद वो हमें जिस नजर से देखी ...उसके सामने ये क्लिप कुछ नहीं है! किसी ने दुनिया में सोचा होगा कि ये भी रोमांटिक होता है? – स्ट्रिंग थ्योरी?! खैर अब और नहीं... बहुत लोग मेरा ब्लॉग पढ़ते हैं ईमेज का बंटाधार हो जाएगा. अब श्री श्री १००८ तरीके में ही लिखा जाएगा डिटेल में. ये सब इसलिए भी कि वायरल होने में तो अदा वगैरह जो था सो तो था ही... पता चला एक फतवा भी आ गया (सही न्यूज़ है न?. नहीं भी है तो ये क्या कम है कि पढ़ के लगा जरूर ऐसा हो सकता है !). फतवा के ऊपर एक लतवा भी जारी होना चाहिए. फतवा जारी करने वाले को देखते ही लतिया देने का. ऐसा फतवा वही जारी कर सकता है जिसने कभी <i>“चकित-हरिणी-काम-कमान”</i> जैसा कुछ देखा ही नहीं. या फिर जिसे कभी किसी ने उस नजर से नहीं देखा जैसे बिल्ली कबूतर को देखती है (ये वाला मेरा अपना <i>ओरिजिनल</i> है). नैन तो बुरखे (ख होता है कि क?), हिजाब में भी दीखते हैं, माने अब क्या? ! खैर... सौंदर्य रस पर कभी और लिखा जाएगा. और वैलेंटाइन से इस पोस्ट का कोई लेना देना नहीं है. वो क्या है कि - <i>सदा भलेनटाईन प्रेमी का, बारह मास वसंत.</i> पर पोस्ट लिखने का मुहूर्त आज ही बन गया. आप वैलेंटाइन की पोस्ट मानकर पढ़ रहे हैं तो भी हमें कोई आपत्ति नहीं. जो बारह मास वसंत वाले नहीं नही उनके लिए एक दिन ही सही ☺</div>
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३. पकौड़े बेचना <br />
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पकौड़े बेचने का बड़ा हौव्वा रहा आजकल. मेरा एक गुजराती दोस्त है. सिविल इंजिनियर. वो पिछले पांच साल से कह रहा है – “बाबा, बहुत हुई नौकरी. अब एक फ़ूड जॉइंट खोलते हैं. डॉलर छापेंगे. देख दीप फ़ूड वाले को”. वो बस इसीलिए नहीं खुल पा रहा क्योंकि सारी रेसिपी मेरी है. और भगवान ने गिने-चुने लोगों के भाग्य में लिखा मुझ जैसे आलसी के हाथ का खाना ! नौकरी की इतनी तौहीन और पराठा बेचने की ऐसी इज्जत उससे ज्यादा कोई और नहीं कर सकता. पर लोग साधारण सी बात को भी अपनी विचारधारा में लपेट के उलझा देते है. एक लाइन की बात है – <i>मज़बूरी और शौक का फर्क</i>. मैकडोनाल्ड्स भी अमरीकी वडा पाव बेचने वाला रहा होगा कभी. दीप फ़ूड वगैरह वगैरह तो खैर पकौड़ा ही बेचते थे. अगर आपको रूचि हो तो पूछियेगा हम सुनायेंगे दो चार <i>सक्स्सेस स्टोरी. </i><br />
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हमको जिंदगी में सबसे अधिक प्रभावित करने वाली बातों में से एक सीख मिली थी – ‘जो काम करो अच्छे से करो, घास ही छिलो तो ऐसे कि उधर से जाने वाला देख के कह उठे ...कौन है जो ऐसा काट के गया है? ! (प्लीज नोट दैट घास काटने की बात है कुछ और नहीं.)’ कालान्तर में हमने उसे थोड़ा<i> मॉडिफाई </i>कर दिया कि ‘जिंदगी में घास ही छिलो तो ऐसे कि कम से कम दो चार गोल्फ कोर्स का कॉन्ट्रेक्ट तो मिले ही!’ काम छोटा बड़ा नहीं होता. मैं जहाँ भी रहा वहां किसी न किसी चाय वाले की आमदनी जरूर जोड़ा और हमेशा लगा कि उसकी आमदनी ज्यादा है.<i> मार्जिन-रेवेन्यु-प्रॉफिट </i>हम जोड़ते ही रह गए वो आगे बढ़ते चले गए. दुनिया-जहाँ के तर्क-कुतर्क पढ़े. चिदंबरम साहब को कहते सुना कि मैं आपको देता हूँ ४५,००० रुपये - करके दिखाओ बिजनेस. <br />
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इससे पता चलता है कि किस दुनिया में जी रहे हैं लोग ! जब लोग कहते हैं कि पचास हजार महीने में बहुत मुश्किल है आज के टाइम में<i> सरवाइव</i> करना. <i>सरवाइवल </i>शब्द की बेइज्जती लगती है मुझे. मुझे पचास हजार वाली मुद्रा योजना का कुछ नहीं पता. उससे किस किस ने क्या किया वो भी मुझे नहीं पता. कितना सफल होगा... नहीं पता. <br />
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दो बातें जो पता हैं – <br />
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पहली ये कि मैं जानता हूँ ऐसे व्यक्ति को जिन्होंने किसान क्रेडिट के लोन से गाडी खरीद लिया एक के बाद दूसरी और फिर तीसरी. लोन माफ़ होता गया... <i>किसान</i> जो हैं.<br />
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ये करप्शन है? - हाँ.<br />
इससे किसी को फायदा हुआ – हाँ.<br />
जैसे होना था हुआ - नहीं.<br />
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पर वो क्या है कि चीजें इतनी साधारण नहीं होती कि जिसे भी ५०,००० रुपये मिलेंगे वो बिजनेस ही खड़ा कर देगा. वो उससे अपनी बेटी की शादी भी कर सकता है. करेगा भी. गरीबी के उस स्तर पर विचारधारा और अर्थशास्त्र नहीं चलता. और आपको लगता है कि पचास हजार में बेटी की शादी नहीं होती तो.. पचास हजार में पाँच भी होती है. आपने बस वो भारत देखा नहीं. जिसने देखा है वो जानता है. योजना की बात है तो स्वच्छ भारत योजना में बने टॉयलेट में गोईठा रखाएगा। हमने देखा है रखाते. लेकिन... कोई तो जाना चालु करेगा. आपका तर्क वैसे ही है जैसे... मनी कैन’ट बाई हैप्पीनेस सो तो ठीक है लेकिन व्हाट द हेल कैन पॉवर्टी बाई? <br />
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क्या ५०,००० से बिजनेस खड़ा हो सकता है? <br />
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इस पर दूसरी बात. स्वयं का अनुभव – <br />
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ये २०११ की बात है. <a href="https://www.accion.org/sites/default/files/Ventures_Spring%202012_F.pdf" target="_blank">इस लिंक पर इस नाचीज का लिखा. पेज नंबर ५. </a>पढ़िए इसमें कितने रुपये के लोन की बात है और कितने रुपये के रिचार्ज कूपन का. किराए पर लेकर रिक्शा चलाने वाले के लिए ५०,००० नहीं... सिर्फ उतना जो वो रोज किराए के लिए देता है वो अपने खुद के रिक्शे के लिए क़िस्त में भरने लगता है तो उसकी जिंदगी बदल जाती है. जब मैंने <i>माइक्रोफाइनांस </i>में काम किया था (खाली पटना सीरीज लिखने नहीं गया था, कुछ काम भी किया था).. लोन ५०००, १०००० के होते थे. ५०,००० के तो सबसे बड़े लोन थे. किश्तें ... २०, ५०,१००... आश्चर्य है कहाँ रहते हैं लोग? किस दुनिया में? जब किरोसिन को सोलर से रिप्लेस करने के प्रोजेक्ट पर काम किया था तो आईडिया था कि जितना एक परिवार किरोसिन के लिए महीने में खर्च करता है अधिक से अधिक उतनी ही क़िस्त होनी चाहिए सोलर लैम्प की. <br />
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क्या ये जो भी मुद्रा योजना है उसी तरह काम करेगी जैसे <i>माइक्रोफाईनांस?</i> –संभवतः नहीं. माइक्रोफिनांस में ब्याज दर सुन कर आपके होश उड़ जायेंगे. पर वहां स्वार्थ (इन्सेन्टिव) होता है पैसे देने वाले का कि वो सही बिजनेस में लगे. ताकि पैसे वसूल हो सके... सरकारी बाबुओं के पास ऐसा कोई इन्सेन्टिव नहीं. पर बिल्कुल ही बेकार, व्यर्थ या ये कह देने वाले कि ४०-५०,००० रुपये में कुछ हो नहीं सकता ! बिडम्बना है कि आपने कभी देखा ही नहीं भारत ढंग से. खाए पीये अघाए लोग कुछ भी लिखते-कहते हैं. और उसी तरह के लोग फिर बिना सोचे समझे जो दीखता है बिना पढ़े, सोचे फॉरवर्ड कर देते हैं. कम से कम सिर पैर तो देख लेना चाहिए ! आपके लिए पचास हजार कुछ नहीं. लेकिन आपके एक कॉफ़ी के पैसे से कम में दिन भर का खर्चा चल जाता है किसी का ! <br />
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चलिए अब जाइए मौज की<span lang="HI" style="line-height: 115%;">जिये. पहले ही बोला था तीन पर नहीं रुकने वाली बात <span style="font-family: "wingdings";"><span style="font-size: 10pt;">J</span></span></span><br />
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वैलेंटाइन हैं आज. तो अमेरिका में प्यार ‘सेल’ पर होता है – सुपर मार्किट, रेस्टोरेंट – हर जगह. और फ्लावर की तो खैर महिमा अपरम्पार है ही. बाकी १००८ वाली किताब कभी आयी तो पढियेगा जरूर :)<br />
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~Abhishek Ojha~<br />
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<div class="blogger-post-footer"><a href="http://www.aojha.in">Abhishek Ojha</a></div>Abhishek Ojhahttp://www.blogger.com/profile/12513762898738044716noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-8813075190326884926.post-77935344907250534392017-11-04T01:47:00.000-04:002017-11-04T16:16:02.415-04:00सीट नं ६३ <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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बनारस से बलिया जितना पास है जाने के पहले उतना ही ज्यादा सोचना पड़ता है - व्युत्क्रमानुपात में. इतनी कम दुरी है कि यात्रा तो सड़क से ही करनी चाहिए। ..पर सड़क से की गयी यात्राओं का इतिहास कुछ ऐसा विकट घनघोर रहा होगा कि कोई उसकी बात भी नहीं करता - जाना तो दूर की बात है. और रेल यात्रा का तो ऐसा है कि आपको भी पता ही होगा - <i>सिंगल लाइन, टाइमिंग , क्रॉसिंग </i>नहीं होनी चाहिए. <i>चेन पूलिंग</i>। यानि बनारस से बलिया जाने वाले <i>प्रॉब्लम</i> की <i>बॉउंड्री कंडीशंस</i> ही इतनी है कि <i>फीजिबल सोल्यूशन</i> बहुत कम हो जाता हैं. (<i>ऑप्टिमाईज़ेशन</i> की भाषा में उपमा लिखना कितना तो सरल है). जिस दिन अमेरिका से दिल्ली तक आने के लिए जितना सोचना पड़ता है उससे कम या उतना बनारस से बलिया जाने के लिए सोचना पड़े उस दिन मैं तो पूर्वी उत्तर प्रदेश को विकसित घोषित कर दूंगा. भूमिका ख़त्म.<br />
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भूमिकोपरांत ब्लॉग के पाठक को मालूम हो कि पिछले दिनों हमें बनारस से बलिया जाना था. शुभचिंतकों से पता चला कि एक नयी-नवेली-बहुत-अच्छी ट्रेन चली है. सुबह सुबह मिल जाए तो तीन घंटा में बलिया <i>लगा देती है</i>. शोध करने के बाद बचे एक ही विकल्प में से उसे ही चुन लिया गया। उसके बाद अनुभवी लोगों की सीख - 'बनारस से बलिया के लिए <i>रिजर्वेशन</i> कौन कराता है? - <i>बौराह</i>' को न मानते हुए (या मानते हुए भी हो सकता है - <i>बौराह</i> वाला पार्ट) हम वो भी करा लिए.<br />
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ट्रेन उस दिन एकदम से <i>राइट टाइम </i>थी सो आधे घंटे की देरी से प्लेटफ़ॉर्म पर आ गयी. असुविधा से होने वाले खेद की नौबत भी नहीं आयी। आती तो हमारी पहले से योजना थी बाहर चाय पीने जाकर उसे सुविधा बनाने की। एक बार बनारस में कुल्हड़ में चाय पीए थे वो <i>'मोमेंट'</i> दोहरा आते। ख़ैर... हम अंदर गए तो कोच में घमासान मचा था. एक लड़का सीट नंबर ६३ पर पहले से सो रहा था. एक सज्जन बोल रहे थे कि उनका रिजर्वेशन है लेकिन लग रहा है कि बैठने को जगह भी नहीं मिलेगी. एक अन्य सज्जन पर्ची पर नीले रंग की स्याही (स्याही को स्याही मत समझना, रिफ़िल वाली - बॉल पॉइंट पेन से लिखे थे) से एक के नीचे एक पाँच लिखे नंबर (जैसे बनिए के दूकान से सामान लाने के लिए लिस्ट लिखी गयी हो) देखकर बोल रहे थे - 'पांड़ेजी बैठिये न हटा के. तिरसठ, चौसठ, इक्यावन, बावन और पचपन अपना <i>बर्थ</i> है'. पर्ची लहराते हुए पांडे जी के मित्र युद्ध स्तर पर सीटों पर क़ब्ज़ा कर रहे थे।<br />
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हम सोच में पड़े थे कि ६३ नम्बर सीट तो ईमेल, एसेमेस वग़ैरह के हिसाब से रेलवे ने हमको भी <i>ऐलॉट</i> किया है तभी एक नौजवान आया और सीट पर लेटे हुए लड़के से बोला - 'हम नीचे गए थे पानी पीने तो आप लेट गए ? हमारा रिजर्वेशन है। उठिए'.<br />
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लड़का लेटे लेटे बोला - 'हम जौनपुर से सोते हुए आ रहे हैं और आपका रिजर्वेशन है? कम झूठ बोला कीजिए महाराज'<br />
मुझे देखकर पैर मोड़ते हुए बोला - 'बैठ जाइए। सबके पास <i>चालुए टिकट</i> है'. या तो लड़के को लगा कि एक यही है जिसने अभी तक सीट पर दावा नहीं ठोका। या समझ आ गया होगा कि ज़रूर इसी के पास टिकट है। मिला लेने में ही फ़ायदा है - अनुभव भी तो कोई चीज़ होती है!<br />
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ऐसा नहीं है कि हमने ये सब कभी देखा नहीं है। पर ये पर्ची वाला नया <i>कॉन्सेप्ट </i>था। बिलकुल नया।
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हम एहसान में मिली जगह पर बैठ गए. जो पानी लेने उतरे थे वो भी खिसका के बैठ लिए। पर्ची वाले सज्जन को अभी भी एक सीट कम पड़ रही थी। उनका फ़रमान था 'हमारा सीट है कम से कम बैठने तो दीजिए'.<br />
लड़के ने बोला - 'आपका सीट कैसे हो गया? टिकट दिखाइए हम हट जाएंगे.'<br />
'टिकट हम आपको क्यों दिखाएं ? टीटी आएगा तो दिखाएँगे'.<br />
'टीटी आएगा और बोलेगा तो हम भी हट जाएंगे ! टीटीये लिख के दिया है क्या आपको सीट नम्बर? या ख़ुद ही लिख लिए हैं? पर्ची पर लिख लेने से सीट आपका हो जाएगा?' पर्ची की महिमा से वो अपने मित्र पांडेजी को सपरिवार तो बैठा चुके थे लेकिन इस तर्क पर अंतिम सीट उन्होंने छोड़ दिया। उन्हें लगा होगा कि कट लेने में ही भलाई है। 'क्या मुँह लगा जाय' वाला <i>लूक </i>देकर वो कट लिए।
फ़िलहाल हम भी<i> अपने</i> सीट पर बैठ ही गए थे। जौनपुर से लेटकर आ रहा लड़का भी उठकर बैठ गया और जो पानी लेने उतरे थे उनका भी सीट पर दूसरी तरफ़ क़ब्ज़ा हो ही गया था। क़ब्ज़े के अवैध होने की बात नहीं थी क्योंकि जब हमने अंततः दिखाया कि टिकट हमारे पास है तो बात ये हो गयी कि <i>दिन का रिज़र्वेशन होता ही नहीं है !</i> लेकिन मत ये भी था कि भाई जिसने नासमझी में दिन का रिज़र्वेशन करा लिया है तो उसको बैठने को तो मिलना चाहिए ...और वो हमें मिल ही गया था। तो सब कुछ जैसा होना चाहिए वैसा ही हो गया था। आगे कुछ कहने सुनने को बचा नहीं। <br />
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इन सबके परे हमें एक चीज़ बहुत अच्छी लगी। इस रूट (की सभी लाइनें व्यस्त होने वाली बात नहीं है बिना पूरी बात पढ़े <i>कंक्लूड </i>मत कीजिए) पर मैं उस उम्र से चल रहा हूँ जब इस इलाक़े में बहुत अभाव था। ग़रीबी थी। घनघोर। (अभी भी है पर... ) तब लोग झोले-बोरे में समान लेकर चलते। कपड़े इतने झकाझक साफ़ नहीं पहनते। अब सबके हाथ में स्मार्ट फ़ोन और सबके पास बैग। खिड़की से बाहर देखने पर साइकिल की जगह मोटरसाइकिलें। जीवन स्तर में परिवर्तन के लिए किसी <i>इंडेक्स</i> को देखने की ज़रूरत नहीं होती। (इसे राजनीति से जोड़कर मत पढ़िए, व्यक्तिगत अनुभव है। और वो इलाक़ा वैसे ही धीमी गति का है। फ़टाक से कुछ भी <i>कंक्लूड </i>मत कीजिए)। वैसे इलाक़े का तो ये भी है कि स्वच्छ भारत में सरकार ने जब शौचालय बनवा के दिया तो लोगों ने अपने घरों के सामने <i>स्ट्रेटजिक लोकेशन</i> पर बनवाया ताकि उसमें गोईंठा वग़ैरह रखा जा सके! <br />
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खैर... हमारे पास बात करने की कमी तो होती नहीं है तो बातों बातों में पता चला युसुफ़पुर (ज़िला ग़ाज़ीपुर) आ रहा है. कहने का मतलब कि ट्रेन युसुफपुर पहुँच रही थी युसुफपुर तो जहाँ है वहीँ रहेगा. आये तो टीटी साहब... बहुत कम सीटें थी जिनपर वैध टिकट वाले लोग थे तो अपने हिसाब से <i>स्ट्रेटजिक लोकेशन</i> देखकर बैठ गए वो भी सीट नंबर ६३ पर ...<i>एडजस्ट </i>कर-करा के.<br />
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'टिकट बनवाएंगे कि किराया देंगे?' उद्घोषणा के साथ. किसी से टिकट मांगने की जरुरत नहीं समझी उन्होंने. उनका तो ये सब रोज का था. केवल कहने को नहीं ...सच में रोज का. चोरी अकेले की हो तो चोरी होती होगी - सामूहिक थी तो मामला ध्वनिमत से ही पारित होना था. जैसा अक्सर होता है यहाँ भी चोरी चोरी नहीं मज़बूरी थी. पर्ची वाले सज्जन ने कहा - 'देखिये अब <i>जनरल</i> में जाना तो संभव ही नहीं था ऊपर से परिवार साथ है तो कुछ कर नहीं सकते थे.'<br />
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'सही बात है. उसकी तो गुंजाइस ही नहीं है. चलिए कुछ दे दीजिये।' टीटी ने सहमत होते हुए कहा। मुझे लगा ये कुछ दे दीजिये क्या होता है? एकदम लूजूर-पुजूर टीटी। ये भी नया ही था थोड़ा. ऐसे थोड़े कोई मांगता है - माने श्रद्धा से कुछ दे दीजिये ! खैर.. रेल मंत्रालय ने <i>अटेंडेंट</i> को तो <i>'नो टिप प्लीज</i>' की वर्दी पहना दी पहले टीटी को ही पहना देते ! जौनपुर से आ रहा होनहार लड़का अपना बैग ठीक करते हुए खड़ा हुआ - 'हमारा तो स्टेशन आ गया... बाकी आप लोग तो पढ़े लिखे लोग हैं. समझदार हैं. देख लीजिये. कुछ न कुछ हिसाब बैठ ही जाएगा.'<br />
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'पढ़े लिखे होने' की ऐसे याद दिला गया जैसे चिंतामग्न बानरों से जामवंत के रोल में कह रहा हो- 'स्टेशन अयउँ न त करतेउँ कछुक सहाय तुम्हार' और निकल लिया।<br />
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इसी बीच किसी के फ़ोन पर 'कौन दिशा में लेके चला रे बटोहिया' बजा तो <i>कन्फर्म </i>हुआ गाड़ी सही रूट पर ही है। श्रद्धानुसार बिना किसी झंझट कुछ कुछ लोगों ने टीटीजी को चढ़ावा दिया। ट्रेन रुकी - युसुफ़पुर।<br />
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चाय-गरम चाय वाले से मैंने पूछा तो बोला - 'दस रुपए'। खुदा क़सम एक बात झूठ नहीं लिख रहे हैं ...दस रुपया सुनकर हमें लगा महँगाई बहुत बढ़ गयी है (खुदा क़सम का ऐसा है कि एक दोस्त बचपन में झट से 'खुदा क़सम' बोल देता। एक दिन अकेले में राज की बात बताया कि बहुत सोच समझ के उसने <i>फ़ाइनलाइज</i> किया था कि झूठ बोलने में विद्या क़सम खाने का रिस्क नहीं ले सकते, माँ क़सम का भी नहीं। भगवान क़सम में भी रिस्क तो है ही। खुदा कसम में कोई रिस्क नहीं। विभागे अलग है ! गणित विभाग के विद्यार्थी को इतिहास विभाग के शिक्षक से क्या रिस्क।) दस रुपया? युसुफ़पुर में? हमने चाय नहीं पी। जीवन स्तर-वस्त्र सब तो ठीक है लेकिन युसुफ़पुर में दस रुपए की चाय? वैसे युसुफ़पुर अगर कोई इंसान होता तो लड़ पड़ता - क्यों भाई ? हमारे यहाँ की चाय दस रूपये की क्यों नहीं हो सकती ! <i>डिस्क्रिमिनेशन</i> का इल्जाम लग जाता सो अलग ! खैर... चाय के तो हम वैसे भी बहुत शौक़ीन नहीं पर कुछ बातें समझ सी आ गयी। ...कि कैसे जब सुना था किसी को कहते हुए कि 'चार आना पौवा, पेट भरौवा’ जलेबी मिला करती थी। बात याद रह गयी थी बात का मर्म थोड़ा सा ही सही ..समझ अब आया। या कि कैसे कोई सब्ज़ी लेकर आता और उनके बूढ़े पिताजी पूछते कि सब्ज़ी कितने की मिली तो २० रुपए किलो के लिए भी कहते 'बाबूजी २ रुपए किलो’. या फिर अभी हाल में पढ़ा ये <a href="https://twitter.com/gyandutt/status/923416007833665536" target="_blank">ट्वीट</a>। दो रुपए तक की चाय तो हमने भी इस <i>रूट</i> पर बिकते देखा है।<br />
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हरे भरे खेतों के बीच से गुज़रते हुए एक जगह रेलवे लाइन के समांतर एक कतार में खड़े कई ट्रक दिखे। ड्राइवर-खलासी खाना बनाने की तैयारी कर रहे थे। आटा गुँथते, सब्ज़ी काटते, एक अरसे बाद किसी को स्टोव (जिसे एक उम्र तक हम 'स्टोप' सुना करते) में हवा भरते देखा! एक ट्रक पर पूनम, सोनी, अजय समेत पाँच नाम लिखे थे। लगा जैसे 'ट्रान्स्पोर्ट कम्पनी' (जैसा हर ट्रक पर लिखा हुआ था - यादव ट्रान्सपोर्ट कम्पनी वग़ैरह) के <i>सीईओ</i> को एक ही ट्रक पर पाँच नाम किसी मजबूरी में ज़बरन घुसाने पड़ गए थे। एक ट्रक पर तुलसी बाबा की चौपाई लिखी थी - 'चलत बिमान कोलाहल होई, जय रघुबीर कहई सबु कोई'। ड्राइवर के बैठने की जगह पायलट लिखने से बहुत ऊँचे स्तर की चीज़ थी ये। कुछ चीज़ें देखकर बिना किसी कारण ही अच्छा लगता है। चलती ट्रेन से ये एक झलक भी वैसा ही था। तुलसी बाबा की उड़ते हुए विमान में कोलाहल होने की दृष्टि भी और उसका ट्रक पर लिखा होना दोनों - <i>स्वीट, क्यूट जैसा</i>.<br />
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वैसे तो हमें थोड़ा और आगे तक जाना था लेकिन बलिया स्टेशन आया तो हम उतर गए। एक्सप्रेस ट्रेन छोटे स्टेशनों पर रूकती नहीं और ऊपर से रविवार का दिन। ..नहीं तो 'पढ़ने वाले लड़के' ट्रेन रोक ही देते। इस इलाक़े में पढ़ने वाले लड़के आज भी गुणी होते हैं - 'बलिया ज़िला घर बा त कौन बात के डर बा’ परम्परा के वाहक । चेन, वैक्यूम वग़ैरह खींच-काट के ट्रेन रोकने में सिद्धहस्त। (<i>वैक्यूम</i> कैसे कट जाता है पता नहीं - बस सुना है) लेकिन ऐसा नहीं होता तो छपरा तक चले जाने का ‘<i>रिक्स</i>’ था तो ‘हम तो कहेंगे कि चलिए बीच में कहीं ना कहीं तो ज़रूर रुकेगी’ के आश्वासन के बाद भी हम उतर गए।<br />
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स्टेशन से बाहर निकलते ही एक लड़का आया - 'भैया, गाड़ी होगा?'<br />
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हमने बात करने में रूचि दिखाई तो दो और आ गए। मैंने मन में जोड़ घटाव किया और बताया कि किलोमीटर के हिसाब से पैसे कुछ ज़्यादा हैं। मैं भोजपुरी में बात कर रहा था लड़का हिंदी में !<br />
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'हाँ भैया, ओला उबर सब किलोमीटर का हिसाब कर दिया है शहर में लेकिन यहाँ हमलोग को <i>पोसाता</i> नहीं है'। गाड़ी की बात छोड़कर मैंने पहले एक गम्भीर सवाल पूछ लिया - 'ए भाई, बलियो में हिंदी बोलाए लागी त भोजपुरिया कहाँ बोलायी?' लड़का झेंप गया पर बात हिंदी में ही करता रहा। इसी बीच एक दूसरा राज़ी हो गया चलिए हम ले चलेंगे। <i>कॉम्पटिशन</i> का फ़ायदा ! ये दुनिया में हर जगह काम कर जाता है। <i>मोर्गन स्टैन्ली</i> और <i>गोल्ड्मन सैक्स</i> के <i>इग्ज़ेक्युटिव्ज़</i> से मीटिंग में कह दीजिए कि ' <i>योर रेट ईज़ नॉट कम्पेटिटिव। कंपटिटर्स आर गिविंग अस बेटर रेट' </i>या ज़िला बलिया के गाड़ी वाले हों। मामला <i>कम्पेटिटिव रेट</i> की बात हो जाने पर अपने आप सही रेट पर<i> कन्वर्ज</i> कर जाता है। सामने वाला का <i>टोन </i> ही बदल जाता है. जय हो <i>कम्पटीशन देवता।</i> थोड़ी दूर खड़ा एक और गाड़ी वाला हमारी बात सुन रहा था। <i>फ़ाइनल </i>होने के बाद वो आया और बोला कि 'भैया हमारी वाली एसी गाड़ी है लेकिन उसमें थोड़ा ज़्यादा लगेगा'। मैंने उसे बताया मैं भीआइपी तो हूँ नहीं, बात नहीं बनती तो बस से जाने का प्लान था। तो बोला -<i> 'भैया, भीआइपी के कौनो बात नइखे। एसिया में तनी ख़र्चा ढेर लागेला'। </i>हमें उसकी ईमानदार बात पसंद आयी।
गाड़ी यानी एम्बेसडर। अभी भी हिंद मोटर में काम किए लोगों के नाती-पोतों को <i>नोस्टालज़ियाने</i> का काम बख़ूबी कर रही हैं खंडहर हो चुकी अंबेसडर कारें।<br />
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निर्माणाधीन सड़क अपना नाम सार्थक कर रही थी। सड़क के दोनों तरफ़ हर चीज पर धूल की इतनी गहरी परत थी कि - चढ़ै न दूजो रंग. क्या पेड़, पत्ते और क्या दूकान-घर. घुटन के स्तर की धूल। पर पैड़ल रिक्शा की जगह बैटरी रिक्शा देखना उम्मीद से ज्यादा सुखद था. और ये धूल-धक्कड, पीं-पाँ से भरा 'बलिया शहर' (शहर ही कहते हैं लोग! इस बात पर पटना की याद आयी जब बैरीकूल ने कहा था - भैया, जैसे न्यू यॉर्क को एनवायीसी कहते हैं वैसे ही पटना को भी पटना सिटी कहते हैं।) ५ मिनट में निकल गया तब हवा भी मन को चकाचक करने वाली मिली और हरे भरे खेत भी। बीच बीच में इलाक़े का फलता फूलता उद्योग - प्राइवेट स्कूल और ईंट भट्ठे। यहाँ फिर एक बार लगा जैसे भी हुआ हो बदलाव तो हुआ है। जींस पहने, स्कूटी चलाते लड़कियाँ भी दिखी।<br />
<br />
लेकिन असली मन वाली बात हुई जब गाना बजा। और जो मुस्कान मेरे चेहरे पर आयी वो खुदा क़सम झूठ नहीं बोल रहे हैं (फिर से !) वैसी मुस्कान पहली बार इश्क़ में बौराए इंसान के चेहरे पर भी नहीं आती। जब हम <i>पढ़ने वाले लड़के </i>(गुणी नहीं थे, ट्रेन व्रेन का चेन नहीं खींचे है) हुआ करते थे उन दिनों टेम्पो, विक्रम, बस वग़ैरह में एक ख़ास क़िस्म के गाने बजते। और उन दिनों दिमाग़ में <i>मेमोरी </i>भी बहुत होती अंट-शंट बातें याद रखने की ...तो हमें कुछ ऐसे धाँसू गानों की प्ले लिस्ट याद हो गयी थी (गाड़ियों में सुन सुन के घर में वो कैसेट नहीं थे)। ए-साइड में किस गाने के बाद कौन गाना बजेगा, बी-साइड में कौन सा। टी-सिरीज़ के गिने चुने तो लोकप्रिय कैसेट थे इस धाँसू श्रेणी के। यूँ तो कैसेट से और बाद में सीडी से भी बजने वाले गानों की आवाज़, सुर और गति का एक अलग ही स्तर होता - टेम्पो के बाजे में जो मोटर जैसा कुछ होता वो कुछ ज्यादा ही गति से चलते । जिसने वो सुना है वही ये वाली बात समझ सकता है! बिन अनुभव किए वो बात नहीं समझ आनी। तो हम आगे लिखने की कोशिश भी नहीं करने जा रहे। पेन ड्राइव से बज रहे गानों को सुन के लगा ... बदलते ज़माने में कुछ तो है जो बचा हुआ है। - वही प्लेलिस्ट. हमारी ना छुप सकने वाली मुस्कान पर लड़के ने गाने का <i>वोल्यूम</i> बढ़ा दिया और उसके बाद अगला गाना मुहम्मद अज़ीज़ की आवाज़ में जो न गूंजा -<br />
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.... मितवाआSS भुउउउउल न जाना मुझSकोओओ...।
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~Abhishek Ojha~
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<div class="blogger-post-footer"><a href="http://www.aojha.in">Abhishek Ojha</a></div>Abhishek Ojhahttp://www.blogger.com/profile/12513762898738044716noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-8813075190326884926.post-47378962148351579572017-04-26T13:36:00.000-04:002017-04-26T13:40:09.252-04:00लिखावट <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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कुछ दिनों पहले एक मीटिंग में किसी को फाउंटेन पेन से लिखते देखा। हरे रंग की स्याही। घुमावदार लिखावट - <i>कैलीग्राफी </i>जैसी । मुझे ठीक ठीक याद नहीं इससे पहले मैंने ऐसी लिखावट कब देखा था। बहुत अच्छा सा लगा। कई पुरानी बातें याद आयी। सालों पुरानी। खूबसूरत बातें।<br />
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सेंट जेवियर्स कॉलेज राँची - ग्यारहवीं कक्षा। केमिस्ट्री के एक प्रोफ़ेसर <i>मोल कॉन्सेप्ट</i> पढ़ाते थे। उनसे जुडी दो बातें याद हैं - उनकी बंधी हुई चुटिया और लिखावट। ब्लैक बोर्ड पर जब वो लिखते तो उनके हाथों में एक थिरक होती. 'Avogadro' लिखते तो 'g' के दो गोले बिना चॉक उठाये लिखने के बाद उसके ऊपर की फुनगी बनाने के लिए वो चॉक उठाकर एक झटके से हाथ घुमाते. उनका चॉक ऐसे चलता किअक्षरों के वक्र मोटे-पतले-लचकते हुए ब्लैकबोर्ड पर सौंदर्य बना देते।<br />
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रसायन उनसे कितना सीखा वो याद नहीं पर हम उनके बारे में दो बातें बोलते और दोनों में उनकी लिखावट का जिक्र आता - 'ये किसी जमाने में महारानी विक्टोरिया का शाही फरमान लिखते थे गलती से केमिस्ट्री पढाने लगे'. और दूसरी ये कि लिखते समय उनके हाथ और उनके चुटिया के <i>हार्मोनिक मोशन</i> की <i>फ्रीक्वेंसी</i> सामान होती है. किसी स्प्रिंग से जुड़े की तरह दोनों एक लय में घूमते.<br />
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मुझे नहीं याद मैंने उससे अच्छी अंग्रेजी की लिखावट कभी देखा हो वो भी ब्लैक बोर्ड पर - <i>लाइव</i> ! उनका लिखा हुआ मिटते देख ऐसे लगता जैसे किसी ने खूबसूरत<a href="https://en.wikipedia.org/wiki/Sand_mandala" target="_blank"> रेत मंडल </a>बनाकर मिटा दिया हो (यहाँ रूककर रेत मंडल के बारे में पढ़ लीजिये। कभी मौका मिले तो उसका बनना बिगड़ना जरूर देखिये और महसूस कीजिये - संसार चक्र।) हमें ऐसी लिखावट अच्छी तो बहुत लगती पर ये उम्र हमने अंको, समीकरणों और ढलान पर गेंद लुढ़कने की गति को समझने जैसी बातों में गुजार दी। ये शब्दों से साथ छूटने की उम्र थी. लिखावट की जगह घसीट कर कम से कम लिखने और ज्यादा से ज्यादा समझने के दिन थे. कागज पर अक्षर की जगह तीर, गोलाई और रेखा चित्रों की खिंचाई होती। <i>कर्व </i>अक्षरों की जगह <a href="http://baatein.aojha.in/2015/07/blog-post.html" target="_blank"><i>इक्वेशनों</i> के</a> बनने लगे. हिंदी और अंग्रेजी की कक्षायें सिर्फ जरुरत की हाजिरी भर के लिए गए. ...हमारी लिखावट बुरी नहीं तो <i>कैलीग्राफी</i> जैसी भी नहीं हो पायी.<br />
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कलम से याद आया। हमारी पीढ़ी ने घोर परिवर्तन देखा है। पीढ़ी का पता नहीं पर मैंने देखा है। गाँव के स्कूल में जहाँ मैंने पढ़ना-लिखना सीखा। गुरुकुल के जमाने और उसमें कुछ ख़ास अंतर नहीं आ पाया था। लकड़ी की पटरी (तख्ती) और खड़िया पर मैंने लिखना सीखा - स्लेट और चॉक-पेन्सिल नहीं ढेले सी खड़िया और पटरी। पटरी को शीशे की दवात की पेंदी से घिस कर चमकाना फिर खड़िया का घोल कर धागे से लाइनें बना कर उस पर सरकंडे की कलम से लिखा है मैंने। (घर पर पड़े किसी जमाने के मिट्टी के दवात भी देखे हैं लेकिन वो कभी इस्तेमाल नहीं किया) लिख लेने के बाद मिटा कर फिर से लिखने को तैयार हो जाती पटरी। <a href="http://www.huffingtonpost.com/sister-joan-chittister-osb/mandala-why-destroy-it_b_970479.html" target="_blank">रेत मंडल की तरह </a>- <i>नो अटैचमेंट्स</i>। लिखने के बाद वाह वाही मिली और बात वहीँ ख़त्म - मिटा कर आगे बढ़ो. सहेज कर रखने का हिसाब नहीं था. <i>इन्वायरमेंट फ्रेंडली</i> ! एक पटरी पीढ़ियों चलती। पटरी और दवात का भी योगदान कम नहीं होता पढ़ाई में - 'फलाने की पटरी है मत लिखो इस पर. दिमाग के भोथर थे पाँचवी पास भी नहीं कर पाए. अपना लिखा खुदे नहीं पढ़ पाते हैं'.<br />
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पटरी पर लाइन बनाने के लिए एक धागे को खड़िया के घोल में डूबा कर पटरी के दोनों छोरों पर रख खींच कर छोड़ा जाता. छींटे से लाइन बनती। यज्ञ वेदी पर लाइन बन रही हो जैसे. ज्यादा घोल हो तो लाइन मोटी और भद्दी हो जाती. कम हो जाती तो लाइन दिखती ही नहीं. कम-ज्यादा के संतुलन का अनुमान वहीँ से लगने लगता. लिखने के बाद बचे हिस्से में डिजाइन भी बना देते। शब्द लिखने के लिए सीधी लाइने और गिनती लिखने के लिए ग्रिड. पटरी नहीं <i>कैनवस </i>!<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgkNJfyikk4NvXgP98mggxwsTuSd9eU06ZdZ8gfZp4kJaqqXN7-myqtE0kyEDffbbUIOmcf2RTesYzRXJo6O5YkQDmmeqL2h1wrUElQe1FLKPdiuh8-UB01EHPsGT4IHuF329V_Y1t-hhdw/s1600/IMG_20150508_213021%257E2.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="187" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgkNJfyikk4NvXgP98mggxwsTuSd9eU06ZdZ8gfZp4kJaqqXN7-myqtE0kyEDffbbUIOmcf2RTesYzRXJo6O5YkQDmmeqL2h1wrUElQe1FLKPdiuh8-UB01EHPsGT4IHuF329V_Y1t-hhdw/s320/IMG_20150508_213021%257E2.jpg" width="320" /></a></div>
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पटरी चमकाना एक झंझट होता। हरे पत्ते लगाकर घिसना। उसी में तेज लड़के पुरानी बैटरी से निकले कालिख को कपडे में लपेट कर पटरी को काला करने का जुगाड़ बनाते. और स्कूल में खड़िया और छोटी मोटी खेलने की चीजों के बदले पटरी काली कर देते. उसी उम्र से व्यापर-धंधे की समझ होती कुछ बच्चों में।<br />
<br />
स्याही से परिचय हुआ पुड़िआ घोल कर स्याही बनाने से. हर कपडे की जेब में स्याही लगती। स्कूल ले जाने वाले थैले में भी स्याही लगती। कलम सरकंडे से बनती, तेज धार वाले चाकू से छील कर कैलीग्राफी के निब जैसी। निब काटना कला था अच्छा नहीं कटा तो बेकार - भोथर. कलम को दवात में डूबा-डूबा कर लिखा जाता । ज्यादा स्याही आ गयी तो फिर भोथर अक्षर. हमने ऐसे लिखना सीखा। -<i> ऑर्गेनिक </i>तरीके से. खड़िया, पटरी, स्लेट, पेन्सिल (स्लेट पर लिखने वाली). फिर रुलदार और चार लाइन वाली कॉपी. लिखने और छपाई के मिलाकर चार तरीके से अंग्रेजी के अक्षर लिखने सीखा था हमने. फाउंटेन पेन बहुत बाद में हाथ लगी। इन दिनों फाउंटेन पेन के साथ होल्डर और निब से भी कुछ दिन लिखा. निब भी हिंदी के लिए अलग, अंग्रेजी के लिए अलग. कक्षा छः में ताँबे के जी मार्का पिन को होल्डर में लगाना और लिखना सीखना शुरू ही किया था कि एक झटके से दूसरी दुनिया में ट्रांसपोर्ट हो गया. - टाट से बेंच. हरे रंग के शीशे के बोर्ड ! पढ़ाने वाले सर और हम एक पीढ़ी फाँदकर बॉल पॉइंट पेन पर आ गए. जैसे बचपन में तेज होने पर मास्टर साहब क्लास फँदा देते थे।<br />
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फाउंटेन पेन से लिखना शुरू होते ही बंद हो गया. शौक होकर रह गया. उन दिनों फाउंटेन पेन आते जिनमें रबर की ट्यूब होती जिसे पिचकारी की तरह दबा कर दवात में निब डुबोकर स्याही भरी जाती. सालों बाद मुझे किसी ने इतनी महँगी पेन दी जितने में पूरे मोहल्ले की दो चार साल की स्टेशनरी आ गयी होती। वो मैंने वैसे ही सहेज कर रखा है. फिर किसी ने पंख लगा हुआ होल्डर और खूबसूरत दवात भी दिया. इतना खूबसूरत की मुझे खोलने की हिम्मत नहीं हुई. सजा कर रखा हुआ है वैसे ही एक खूबसूरत डायरी के साथ - <i>अटैचमेंट !</i><br />
<br />
मेरी पीढ़ी ही नहीं मुझसे पहले की पीढ़ी के भी कई लोगों ने संभवतः ऐसे नहीं पढ़ा होगा. कई चीजें थी जो अब लुप्त हो गयी. स्याही की पुड़िया, सोखता कागज, स्याही से रंगे कपडे-चेहरे-थैले (फाउंटेन पेन की स्याही को सर में पोंछते रहते और हाथ जब जुल्फों से होते हुए चेहरे पर भी चल जाता... तो चेहरा रंगीन हो जाता !), गर्म पानी से फाउंटेन पेन की सफाई. अब तो स्याही न्यूज में सिर्फ तभी आती है जब किसी के चेहरे पर पोती जाती है ! <br />
<br />
कई ऐसे अद्भुत 'बेकार' काम हैं जिसके लिए लोग कई बार पूछ लेते हैं ये कहाँ से सीखा - गांठे बनाना। जूट से रस्सी बनाना। कैसे बताया जाय कहाँ से कहाँ और <a href="https://twitter.com/aojha/status/405544995647533056" target="_blank">कब क्या सीखा</a>.<br />
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लिखावट एक प्राचीन और मरती हुई कला है. ये वो कला है जिसके आर्टिस्ट और आप में सिर्फ इतना फर्क होता है कि वो आर्ट बना देते हैं और आप देख कर सोचते तो हैं कि ये तो मैं भी बना सकता हूँ पर आप कभी बनाते नहीं।<br />
<br />
आपको लिखना आता है तो लिखिए. कभी कभार ही सही. कोशिश कीजिये आप निराश नहीं होंगे. मैंने अपने फाउंटेन पेन में <strike>स्याही </strike>कार्टरेज भरा. 'कैंट टॉक व्हाट्सऐप ओनली' के जमाने में लिखना क्या बोलना भी हमारे ही जीवनकाल में खत्म हो जाये तो अतिश्योक्ति नहीं होगी ! जैसे चिट्ठियां ख़त्म हो गयी... चिट्ठियों से याद आया. कुछ लोगों की लिखावट गोल-मोती जैसी इतनी अच्छी होती जैसे लिखा नहीं पेंटिंग की हो. - लिखते नहीं छाप देते थे लोग! वैसे अक्षरों का फॉण्ट बनाना चाहिये. ये फॉण्ट हम जिसमें टाइप कर रहे हैं ये भी कोई फॉण्ट है !<br />
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...लेकिन हम भी देखिये टाइप करके कह रहे हैं कि - लिखना चाहिए :)<br />
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~Abhishek Ojha~<br />
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<div class="blogger-post-footer"><a href="http://www.aojha.in">Abhishek Ojha</a></div>Abhishek Ojhahttp://www.blogger.com/profile/12513762898738044716noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-8813075190326884926.post-81703617855487356722017-02-21T21:40:00.000-05:002017-02-26T16:53:42.876-05:00सैंयाजी के मालूम (पटना २१)<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: left;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;"><br /></span></div>
<div style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: left;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">शनिवार की शाम... ऑफ़िस कॉम्प्लेक्स लगभग खाली हो चुका था. दिन भर भीड़ से भरी रहने वाली सीढ़ियों से उतरते हुए सन्नाटा अजीब सा लगा. जैसे किसी हॉरर फिल्म में पूरा शहर खाली कर लोग भाग गए हों. बाहर निकल कर मैं सड़क के किनारे टहलने लगा. मेरे पास वक़्त इसीलिए था क्योंकि बीरेंदर ने कहा था कि वो मुझे बाइक से छोड़ देगा और मुझे ऐसे मिली फ़ुरसत में इस तरह घूमना अच्छा लगता इसलिए मैंने उसे दुबारा फ़ोन नहीं किया.</span></div>
<div style="text-align: left;">
<b id="docs-internal-guid-8a2b4c0a-638e-220d-8580-872defd7c858" style="font-weight: normal;"><br /></b>
</div>
<div style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: left;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">चाय की दुकान अभी भी खुली थी पर चाय का मैं उतना शौकीन नहीं कि अकेले चाय की दुकान पर जाता। वैसे लत हो जाने वाला कभी कोई शौक मुझे हुआ नहीं. फिर मुझे आजतक ये भी समझ नहीं आया कि कुछ लोग अपने शौक को लेकर इतने स्पष्ट कैसे होते हैं कि चाय भी ये वाली, शक्कर इतना ही, फेवरेट कलर, फेवरेट मिठाई, फेवरेट इंसान… चाय के शौक़ीन तो ऐसे होते हैं कि गलती से किसी दिन चाय नहीं पी तो उस दिन सूरज नहीं ढलने देंगे लोग. यहाँ चाय लोगे या कॉफी हमारे लिए कठिन सवाल हो जाता है. </span></div>
<div style="text-align: left;">
<b style="font-weight: normal;"><br /></b>
</div>
<div style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: left;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">खैर… ऑफिस कॉम्प्लेक्स वाली बिल्डिंग से थोड़ी ही दूर बहुत चहल पहल थी. ठेले वाले, चाउमिन, गोल गप्पे, रिक्शा, बस, टेम्पो, गाड़ियाँ। इतनी चहल पहल कि मैं टकराने से बचते बचाते जा रहा था. आसपास की दुकाने देखते. हार्डवेयर स्टोर, पान की दुकान, सुपर स्टोर, सिंगार गृह, फैशन ही फैशन, सत्तू ठेला, फ्रेस जूस, बोर्ड पर दुकानदार के नाम के आगे लिखा प्रो., बोर्ड के नीचे स्टाइल में लिखा कलाकार का छोटा सा </span><span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;"><i>साइन</i></span><span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;"> - नीरज आर्ट. जिसमें न के ऊपर बड़ी ई की मात्रा मंदिर के ऊपर ध्वज सी लग रही थी. और आर्ट का र्ट क्षैतिज दिल. मैं टहलते टहलते मौर्य लोक पंहुच गया. लोग ही लोग. मैं अकेला ही भटक रहा था पर इतने विभिन्न तरह के रंग बिरंगे लोग दिख रहे थे कि बोर होने की गुंजाईश नहीं थी.</span></div>
<div style="text-align: left;">
<b style="font-weight: normal;"><br /></b>
</div>
<div style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: left;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">बीरेंदर का फ़ोन आया तो मैंने कहा कि मौर्य लोक आ जाओ.</span></div>
<div style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: left;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;"><br /></span></div>
<div style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: left;">
<span style="font-family: "arial"; font-size: 11pt; white-space: pre-wrap;">‘पहिले बताये होते अभी हम उधरे से आये. सनीचर है त मंदिर चले गए थे’</span></div>
<div style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: left;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">बीरेंदर आया तो मैंने पूछा - ‘तुम मंदिर-वंदिर भी जाते हो? पता नहीं था.’</span></div>
<div style="text-align: left;">
<b style="font-weight: normal;"><br /></b>
</div>
<div style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: left;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">‘लीजिये, सनीचर के दिन मंदिर नहीं जाएंगे? माने अब भक्ति है या संस्कार उ हमको नहीं पता लेकिन कभी सोचबे नहीं किये कि काहे जाते हैं. आदत है. बैठिये एक ठो काम है उधरे से आप के छोर भी देंगे। एक ठो चिट्ठी बांचने जाना है”</span></div>
<div style="text-align: left;">
<b style="font-weight: normal;"><br /></b>
</div>
<div style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: left;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">‘चिट्ठी बाँचने? किसे पढ़ना नहीं आता? और चिट्ठी कौन लिखता है आजकल?’</span></div>
<div style="text-align: left;">
<b style="font-weight: normal;"><br /></b>
</div>
<div style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: left;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">‘आरे नहीं भैया, कोई सरकारी कागज होगा। चिट्ठी कहाँ आएगा अब. बैठिये बैठिये’ </span></div>
<div style="text-align: left;">
<b style="font-weight: normal;"><br /></b>
</div>
<div style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: left;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">बीरेंदर ने बाइक आगे बढ़ाई और मंदिर की बात पर वापस लौटा जैसे चिट्ठी की बात आ जाने से अधूरी रह गयी बात को पूरा करना हो. बाइक पर लगने वाली तेज हवा से बीच में आवाज़ सुनाई नहीं देती पर मैं यूँ हुंकारी भरता और बीच बीच में हँसता जा रहा था जैसे सब सुन रहा हूँ... </span></div>
<div style="text-align: left;">
<b style="font-weight: normal;"><br /></b>
</div>
<div style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: left;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">‘उ का है भईया कि हमको याद ही नहीं कब से मंदिर जाते हैं त कभी सोचे भी नहीं कि काहे जा रहे हैं या जाना चाहिए कि नहीं. आदत जैसा हो गया है. केतना न चीज देखिये ऐसे ही हो जाता है. जैसे हम एतना न मंतर सुने हैं बचपन में कि सुनिए के केतना याद हो गया. कुछ पिताजी के पढ़ते सुनते थे आ बाकी पड़ोस के कन्हैया चचा भोरे भोर चालु हो जाते थे. न मतलब पता न ई कि उ का बोल रहे हैं. बस सुनते सुनते रटा गया. जो देखे-सुने उ सीख गए. केतना चौपाई को मुहावरा का तरह इस्तेमाल करने लगे बिना जाने कि किस ग्रन्थ का है आ कौन लिखा है. कभी बाहर कोई नया चौपाई सुनते त आके घर पर पूछते.. कई बार नहीं पता होता त ढूंढा जाता. अब लगता है कि भुला गए सब. मजेदार बात बताएं आपको एक ठो... केतना त कुछ का कुछ सोचते रहे हम बहुत दिन तक. ‘हरी ॐ तत्सत्’ का जगह </span><span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;"><i>‘हरी ओम चकचक</i></span><span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">’ समझते थे. आ </span><span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;"><i>सान्ताकारम बुचक सेनम</i></span><span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">. बहुत बाद में पता चला कि बुचक सेना नहीं है. आ एक दू ठो तो आज तक पता नहीं चल पाया कि क्या था.’ बीरेंदर ने एक दुकान के सामने बाइक लगाई. पता नहीं मैंने हरी ॐ चकचक सही सुना या बीरेंदर ने कुछ और कहा पर बात समझ आ गयी.</span></div>
<div style="text-align: left;">
<b style="font-weight: normal;"><br /></b>
</div>
<div style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: left;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">‘आ जानते हैं.. पिताजी जिस सुर में पढ़ते हमको लगता वइसही पढ़ा जाता है. अब कहीं सुन लेते हैं आ धुन अलग हो त लगता है कि गलत गा दिया. - बिलोल बीच बल्लरी बिराजमान मुर्धनि. जैसे उ गाना नहीं है दिल से में 'पुंजिरीथंजी कोंजिकों मुन्थिरी मुंथोलि जिंधिकों वंजरी वर्ना चुंधरी वावे' माने वैसे ही. हमको थोड़े न सब बुझाता था. लेकिन उसी ओज में गा देंगे दो चार शब्द इधर उधर करके अगर कोई शुरू कर दिया तो.’</span></div>
<div style="text-align: left;">
<b style="font-weight: normal;"><br /></b>
</div>
<div style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: left;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">‘सही है. तुम्हे तो बहुत आता है फिर. बचपन की बातें याद रह भी जाती है. कुछ कविताएं मुझे भी वैसे ही याद है. बचपन का रटा दो और पंद्रह के पहाड़े की तरह याद रह जाता है. बाद का पढ़ा समझ भले आ जाये उन्नीस के पहाड़े की तरह होता है’.</span></div>
<div style="text-align: left;">
<b style="font-weight: normal;"><br /></b>
</div>
<div style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: left;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">‘ई त एकदम सही बोले आप. पंद्रह दूनी तीस तिया…' बोलते बोलते बीरेंदर रुक गया और... 'बनिकपुत्रं कभी न मित्रं, मित्रम भी त दगा दगी. </span><span style="font-family: "arial"; font-size: 14.6667px; white-space: pre-wrap;">कहाँ गए हैं रे बनिकपुत्रं? बुलाओ त जरा</span><span style="font-family: "arial"; font-size: 11pt; white-space: pre-wrap;">’ पहाड़ा छोड़ प्रणाम की मुद्रा में आकर बीरेंदर ने वहां बैठे लड़के से पूछा.</span></div>
<div style="text-align: left;">
<b style="font-weight: normal;"><br /></b>
</div>
<div style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: left;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">‘ऐसे थोड़े न बोलते हैं बुरा लग जाएगा।’ </span></div>
<div style="text-align: left;">
<b style="font-weight: normal;"><br /></b>
</div>
<div style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: left;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">‘इसको बुरा लग जाएगा? ई बनिया थोड़े है इसके मालिक को बोले हैं. आ उ तो गर्वे करते हैं’ बीरेंदर ने हँसते हुए कहा. </span></div>
<div style="text-align: left;">
<b style="font-weight: normal;"><br /></b>
</div>
<div style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: left;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">‘आ भैया उ आप याद रखने वाला बात एकदम सही बोले’ </span></div>
<div style="text-align: left;">
<b style="font-weight: normal;"><br /></b>
</div>
<div style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: left;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">‘कविता से क्या याद दिलाये दिए आप भी. ई सब बात छेड़ दीजिये त कोई ऐसा नहीं होगा जिसके चेहरे पर मुस्कान नहीं आ जाएगा. अब बात चला है त एगो और मजेदार बात बताते हैं आपको. छोटे थे हमलोग त रोज रात को लालटेन घेर के गोला में बैठ के पर्हते थे. कभी कभी तीन चार भाई-बहन. माने मौसी-मामा सब भी आते रहते थे. उसके बाद माने जे न नींद आता था. दम भर खेल के आते थे त नींद त एबे करेगा. नींद का काट एक्के था - लय में चिल्ला चिल्ला के कविता. आओ बेटा. आ जे न बड़ाई होता था. अरोस परोस का सब आदमी माने ऐसे बोलता था कि बीरेंदर केतना तेज लड़का है. केतना जोर जोर से पढता है. मेरा फेवरेट था - हवा हूँ हवा मैं बसंती हवा हूँ. हम पालथी मार के अपना मुंडी गोल गोल घुमा के पढ़ते थे. ओहिमे नींद आता. मुंडी घूमते घूमते लुढ़क भी जाते थे.</span></div>
<div style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: left;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;"><br /></span></div>
<div style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: left;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;"> ... ढिमलाते… आ गर्दन झटक के फिर गाने लगते - चढ़ी पेड़ महुआ, थपाथप मचाया; गिरी धम्म SSS से फिर, चढ़ी आम ऊपर, उसे भी झकोरा' </span><br />
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;"><br /></span>
<br />
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">...सोते सोते उसी में कैसेट फंसने जैसा आवाज भी होने लगता.. त उधर से पिताजी चिल्लाते. ऐ बिरेंदर सो रहा है का रे? त हम कुछ बोलने का जगह और जोर से पढ़ते - सुनो बात मेरी - अनोखी हवा हूँ। बड़ी बावली हूँ, बड़ी मस्तमौला। हवा हूँ हवा… मैं बसंती हवा हूँ. जे न बसंती हवा होता था आपको का बताएं. जब तक खाने का टाइम नहीं होता इहे चलता रहता. उ एक ठो अलगे टाइम था’ </span><br />
</div>
<div style="text-align: left;">
<b style="font-weight: normal;"><br /></b>
</div>
<div style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: left;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">बीरेंदर ने ऐसे भाव और मुद्रा से सुनाया जैसे पूरा दृश्य सजीव हो गया हो. ये बातें सुन लगा कि हमें खुद कहाँ पता होता है कि ऐसी बचकानी बातों ने भी हमें वो बनाया होता है जो हम हैं. </span></div>
<div style="text-align: left;">
<b style="font-weight: normal;"><br /></b>
</div>
<div style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: left;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">बनिकपुत्रं (पता नहीं उनका असली नाम क्या था !) लिफाफा लेकर आये - ‘क्या महफ़िल छेड़े हो बीरेंदर? तनी देखो त ई का आया है’</span></div>
<div style="text-align: left;">
<b style="font-weight: normal;"><br /></b>
</div>
<div style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: left;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">‘बीरेंदर ने लिफाफा खोल कर पढ़ा - कुछ काम का नहीं है. प्रचार में भेजा है कंपनी वाला।’ </span></div>
<div style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: left;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;"><br /></span></div>
<div style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: left;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">‘फिर त बेकारे है. अंग्रेजी में था त हमको लगा कुछ जरूरी होगा।’ </span></div>
<div style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: left;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">‘अब वापस काहे ला रख रहे हैं? लाइए इधर फेंकिए. माने ई सब बटोर के घर भर के का करेंगे?’</span></div>
<div style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: left;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">‘कागज कभी फेंकना नहीं चाहिए। क्या पता कभी कुछ जरुरत पड़ जाए’ </span></div>
<div style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: left;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">‘अरे महाराज बटोरिये।लाटरी का टिकट है जो जरुरत पड़ जाएगा? ना आपका सीसी भरी गुलाब की पत्थर पे तोड़ दूं वाला परेम पत्र है. संभाल के रखना होता है ! रखिये। मर्हवा के टांग दीजिये’ बीरेंदर ने हाथ जोड़कर कहा। </span></div>
<div style="text-align: left;">
<b style="font-weight: normal;"><br /></b>
</div>
<div style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: left;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">‘भैया आप कभी चिठ्ठी लिखे हैं? माने किसी और के लिए? कोई बोल रहा हो और आपको लिखना हो. माने हम जैसे अभी बांचे वइसही लिखने का भी खूब काम किये हैं. उ एक ठो अलगे ज़माना था. चिट्ठी लिखे नहीं होते त ना तो हमको लिखना आया होता न पढ़ना। माने… मगही, भोजपुरी में सुनते आ हिंदी में अनुवाद करके लिखते।’</span></div>
<div style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: left;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;"><br /></span></div>
<div style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: left;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">'चिट्ठियां तो बहुत लिखी पर किसी और के लिए तो नहीं लिखा' मैंने कहा. </span></div>
<div style="text-align: left;">
<b style="font-weight: normal;"><br /></b>
</div>
<div style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: left;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">'हम पहिला बार चौथा पांचवे क्लास में पढ़ते थे तब कोई बुलाया था चिट्ठी पढ़ने. आ हम जो न पढ़े हरहरा के. उ हमको बोले बौआ तनी धीरे धीरे बांचो. नंबर नहीं मिलेगा तेज बांचने का. फर्स्ट नहीं आना है. सामने वाले को समझ में आना चाहिए, थोड़ा महसूस करके पढ़ो - धीरे-धीरे। माने हमको त तेजे पर्हने में लगता था कि बड़ाई होगा. आज भी हम कुछ पर्ह्ते हैं त उहे बात याद आता है कि धीरे धीरे पर्हो नंबर नहीं मिलेगा तेज पर्हने का. तेज भी हर जगह काम नहीं आता है. माने बताइये कोई आपको कहे कि नींद नहीं आ रहा त उल्टा गिनती गिनो सोते समय. आप फटाक से गिन दिए </span><span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;"><i>सैया, निनाबे, अंठानबे,... पांच, चार, तीन दो, एक</i></span><span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;"> आ उठ के बैठ गए कि नींद तो आया नहीं हम त सबसे तेज गिन दिए ! धीरे धीरे गिनने वाला कैसे सूत गया?.'</span></div>
<div style="text-align: left;">
<b style="font-weight: normal;"><br /></b>
</div>
<div style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: left;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">‘तुम्हें उस उम्र की बातें याद है?’</span></div>
<div style="text-align: left;">
<b style="font-weight: normal;"><br /></b>
</div>
<div style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: left;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">‘ई सब भूलने वाला बात है ? माने जब कोई अपने कलकत्ता वाले सैंयाजी के चिट्ठी लिखवाने बुलाती. लिख दो बौवा कि बाद सलाम के सैंयाजी के मालूम हो कि… शुरू में त बुझाया ही नहीं हमको ‘बाद सलाम के’ क्या? ये ‘मालूम कि’ और ‘मालूम हो’ वाले डायलॉग... पर्हे लिखे हो न हो ये सबको आता था. जैसे आजकल फ़ोन उठाते ही 'हेलो' बोलना होता है. काहे बोलना होता है पूछियेगा त किसी को नहीं पता होगा। वैसे ही एक अलगे शब्दावली था चिट्ठी का. शुरू शुरू में </span><span style="font-family: "arial"; font-size: 11pt; white-space: pre-wrap;">हमें लिखना आता लेकिन ये शब्दावली नहीं। एक बार त जे न हुआ कि हमको एक ठो नयी नवेली दुल्हन का चिट्ठी लिखना था. दस साल का रहे होंगे हम. बोली कि बउवा लिख दे - सैंयाजी के मालूम कि <i>उँहा खइह ईहां अंचSईह</i>. हम को बुझाया ही नहीं कि लिखना क्या है. हम लिख दिया - वहां खाना यहाँ अंचाना। अंचाना माने हाथ धोना हमको पते नहीं था.'</span></div>
<div style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: left;">
<span style="font-family: "arial"; font-size: 11pt; white-space: pre-wrap;"><br /></span></div>
<div style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: left;">
<span style="font-family: "arial"; font-size: 11pt; white-space: pre-wrap;">'हा हा. पढ़ने वाला भी कंफ्यूज ही हो गया होगा कि करना क्या है' </span></div>
<div style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: left;">
<span style="font-family: "arial"; font-size: 11pt; white-space: pre-wrap;"><br /></span></div>
<div style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: left;">
<span style="font-family: "arial"; font-size: 11pt; white-space: pre-wrap;">'नहीं भैया कंफ्यूज क्या होगा। मुहावरा है. किताब से पहिले मुहावरा हम ऐसे ही सीखे। अनुवाद करना भी समझिये यहीं सीखे. एक ठो चिट्ठी होती जो सबके सामने बांचते घर भर के लोग बैठ के सुनते। और कभी कभी सीक्रेट बला भी बांचे हैं. लेकिन हम बिना सोचे पर्हते थे १०-१२ साल का उम्र में का बुझायेगा। छोटो को प्यार बड़ो को प्रणाम। सकुशल। आपकी कुशलता की ईश्वर से प्रार्थना। पूज्य, पूजनीय, सप्रेम। इति शुभम. … हम एक में से पढ़ते दूसरे में लिखते. फेंट फेंट के चिट्टी का एक्सपर्ट बन गए थे. </span></div>
<div style="text-align: left;">
<b style="font-weight: normal;"><br /></b>
</div>
<div style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: left;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">हमलोग बरा बर्हिया टाइम में पले बर्हे। कलकत्ता जाने वाली </span><span style="font-family: "arial"; font-size: 14.6667px; white-space: pre-wrap;">चिट्ठी में समझ लीजिये कि माताजी क्या लिखवाती, पिताजी क्या लिखवाते आ पत्नी क्या... धीरे धीरे हमको बुझाने लगा था रिश्ता उस्ता भी. अब कहाँ चिट्ठी और कहाँ पर्हने लिखने वाले. </span><span style="font-family: "arial"; font-size: 11pt; white-space: pre-wrap;">माने इतना तेजी से हमेशा बदलाव आता है कि हमीं लोग इतना कुछ देख लिए? <i>पंद्रह पैसा के पोस्ट कार्ड से व्हाट्सऐप तक </i>! हमको लगता है पहिले ज़माना धीरे धीरे<i> अपडेट</i> होता था. ई फ़ोन के देखिये पता नहीं भीतरे भीतर दिन भर का अपडेट करते रहता है. हमारे खाने पीने के फ्रिकवेंसी से जादे इसका अपडेट होता है. ओहि गति से दुनिया भी अपडेट हो रही है. </span></div>
<div style="text-align: left;">
<b style="font-weight: normal;"><br /></b>
</div>
<div style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: left;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">खैर… हमरा नाम था चिट्ठी लिखने में. एक ठो नया दुल्हन का चिट्ठी लिखने गए थे. उसके ससुर बोले कि ‘ऐसा मत लिख देना कि उ पढ़ते ही चला आये. पता नहीं ऐसा क्या लिख देता है. अपना दिमाग भी लगाना होता है थोड़ा। समझे कि नहीं?’</span></div>
<div style="text-align: left;">
<b style="font-weight: normal;"><br /></b>
</div>
<div style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: left;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">हम पता नहीं उस समय हम क्या समझे पर लिखने का तरीका धीरे धीरे बदला और जब समझ आने की उम्र होने लगी त चिट्ठी लिखना बन्दे हो गया. चिट्ठी को फोन खा गया. आ पोस्टकार्ड, अंतरदेसी, टिकट के कुरियर. </span></div>
<div style="text-align: left;">
<b style="font-weight: normal;"><br /></b>
</div>
<div style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: left;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">‘सही कह रहे हो, वैसी चिट्ठी देखे तो एक ज़माना हो गया’ - मैंने धारा प्रवाह में बोल रहे बीरेंदर के बीच में बोला जैसे ये दिखाना हो कि मैं भी समझ रहा हूँ.</span></div>
<div style="text-align: left;">
<b style="font-weight: normal;"><br /></b>
</div>
<div style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: left;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">‘हाँ हम बटोर के रखे हैं कुछ. हमको त बहुत लगाव रहा चिट्ठी से. कैथी लिपि का पुस्तैनी चिट्ठी भी रखे हैं हम. बाबूजी दिए थे हमको. ईस्ट इंडिया कंपनी का स्टैम्प वाला। वैसे अब उ संग्रहालय आइटम हो गया है.’</span></div>
<div style="text-align: left;">
<b style="font-weight: normal;"><br /></b>
</div>
<div style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: left;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">‘फिर तो सही में देखने लायक होगा. वो होगा मढ़वा कर रखने का चीज’</span></div>
<div style="text-align: left;">
<b style="font-weight: normal;"><br /></b>
</div>
<div style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: left;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">‘वैसे कभी कभी लगता है कि सहेज के रखने से बर्हिया आजे का ज़माना है. डिलीट मार दिए ख़तम. नहीं त खुशबू में बसे खत गंगा में बहाने का जद्दोजहद हो जाता था शायर सब के.’</span></div>
<div style="text-align: left;">
<b style="font-weight: normal;"><br /></b>
</div>
<div style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: left;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">हम वापस चलने लगे तो बीरेंदर ने बाइक स्टार्ट करते हुए कहा - ‘आ एक ठो सबसे मजेदार बात तो बताना ही भूल गए. </span><span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;"><i>पाता </i></span><span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">कई लोग बड़ा संभाल के रखते थे जैसे कोई खजाना हो. गाँठ खोल के निकालते - कलकत्ता, सूरत, लुधियाना, बम्बई का पता. चुमड़ाया हुआ कागज. कभी पुराना लिफाफा जिसमें प्रेषक लिखा होता, कभी किसी ठोंगे पर लिखा हुआ, दफ़्ती पर लिखा हुआ. साक्षरता थी नहीं और ऊपर से अभाव ! चिट्ठी लिखने अपना कॉपी कलम लेकर जाना पड़ता। कई बार हम पते को नए कागज पर उतार कर दे देते. बड़ा आशीर्वाद देते उसके लिए भी </span><span style="font-family: "arial"; font-size: 14.6667px; line-height: 20.24px; white-space: pre-wrap;">लोग </span><span style="color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">। और एक बार </span><span style="font-family: "arial"; font-size: 14.6667px; line-height: 20.24px; white-space: pre-wrap;">एक चाची </span><span style="font-family: "arial"; font-size: 11pt; line-height: 1.38; white-space: pre-wrap;">पता बोल कर लिखा रही थी. ग्राम, पोस्ट, जिला सब लिखाने के बाद बोली - हुहें पान के गुमटिया प दिन भर बैठे रहते हैं.</span></div>
<div style="text-align: left;">
<b style="font-weight: normal;"><br /></b>
</div>
<div style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: left;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">हम भी लिफाफा पर पता के साथ लिख के आ गए - पान के गुमटिया पर दिन भर बैठे रहते हैं. </span></div>
<div style="text-align: left;">
<br /></div>
<div style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: left;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">बहुत दिन तक ये बात सोच कर लगता कि हम भी क्या बकलोल थे… और आज देखिये कैसे चाव से सुना रहे हैं. यही है नोस्टाल्जियाने का ... आ ऐसा नहीं है कि लोग एक दूसरे से दूर थे उस जुग में. अब भले व्हाट्सऐप वाले नहीं सोच सकते कि कैसा रहा होगा। चिट्ठी और मोबाइल में माने वही अंतर है जो फेसबुक और कॉफ़ी हाउस आ चौपाल में मिलने में ! व्हाट्सऐप आ इन्टरनेट </span><span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;"><i>टूल </i></span><span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">है. टूल से थोड़े दिल जुड़ता है. पहिले चुमड़ाये कागज में लोग पता संभाल के रख लेते थे अब फ़ोन में नंबर रह के भी </span><span style="font-family: "arial"; font-size: 14.6667px; line-height: 20.24px; white-space: pre-wrap;"> एक दूसरे से </span><span style="font-family: "arial"; font-size: 11pt; line-height: 1.38; white-space: pre-wrap;">नहीं बतिया पाते हैं. का कीजियेगा यही सब है. '</span></div>
<div style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: left;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;"><br /></span></div>
<div style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: left;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">-- </span></div>
<div style="line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt; margin-top: 0pt; text-align: left;">
<span style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-style: normal; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline; white-space: pre-wrap;">~Abhishek Ojha~ </span></div>
</div>
<div class="blogger-post-footer"><a href="http://www.aojha.in">Abhishek Ojha</a></div>Abhishek Ojhahttp://www.blogger.com/profile/12513762898738044716noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-8813075190326884926.post-4339244541345970462016-11-30T15:09:00.001-05:002018-11-16T10:41:15.865-05:00न चोरहार्यं न च राजहार्यंन...<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
मैं लगभग <i>कैशलेस</i> इंसान हूँ. मुद्राहीन - चैन से रहने वाला !*<br />
(*शर्ते लागू)<br />
<br />
<div style="text-align: left;">
पिछले कई सालों से कभी मेरे जेब में नोट या सिक्के रहे हो... और वो भी एक दिन से ज्यादा के लिए - मुझे याद नहीं. यात्राएं अपवाद रही. इस अपवाद के दिनों में नोट को लेकर कई अनुभव हुए (जिंदगी में लोग हो या घटनाएं अपवादों का बहुत महत्त्व है - इस पर फिर कभी). कुछ अनुभव सामान्य लेकिन याद रह गए. वैसे तो मुझे बहुत कुछ याद नहीं रहता लेकिन <i>कुछ</i> बातों में <i>कुछ बात</i> होती है जो याद रह जाती है. 'नोट' सामयिक बात है तो ऐसी ही कुछ याद रह गयी बातों से कुछ <i>नोट्स</i> - </div>
<br />
<span style="color: blue;"><b>दृश्य १</b>: (पटना)</span><br />
<br />
उन दिनों मैं एटीम से पांच हजार रुपये निकालता, जब-जब जेब में पांच सौ से कम हो जाते.* जिस दिन की बात है उस दिन मेरे पास छुट्टे नहीं थे और मुझे अपने कपडे वापस लेने थे. दुकानदार ने कहा - "अरे ले जाइए. आपका कौन सा एक दिन का है. फिर त ऐबे करियेगा. तब दे दीजियेगा. कहाँ रहते हैं? नया आये हैं इधर?" मैंने कभी खाता नहीं लिखवाया. पर ये बात कभी भूल नहीं पाया. पहली बार मैंने कपडे दिए थे उस दूकान पर. कुल ढाई महीने के लिए था मैं उस शहर में, रोज का जाना नहीं था मेरा. और कोई मुझे बिना मांगे उधार देने को राजी हो गया था.<br />
<br />
जो कह रहे हैं कि... नोट की कमी से किसानों की बुवाई नहीं होगी मुझे नहीं समझ उन्होंने किस तरह के भारत को देखा है ! एक तो किसान की बुवाई में लाखों रुपये नहीं लगते. फिर बीज बेचने वाला, ट्रैकर वाला... ट्रैक्टर का तेल बेचने वाला. सबको एक दुसरे के साथ ही उठना बैठना होता है. सब एक दुसरे के यहाँ खाते हैं और सबके यहां सबके खाते चलते हैं. अगर आपको लगता है कि विमुद्रीकरण से किसी का खेत बंजर रह गया होगा तो पता नहीं आप किस हिन्दुस्तान में पले बढे हैं ! शायद आपको लगता है कि खेती और <i>फैक्ट्री का प्रोडक्शन</i> एक ही बात है. और जिन्हें लग रहा है कि कुछ दिन ५०० और १००० के नोट नहीं रहने से <i>बार्टर सिस्टम</i> हो गया है. उन्हें एक बात बता दें... दुनिया में कभी भी शुद्ध वस्तु-विनिमय (बार्टर सिस्टम) रहा ही नहीं. भरोसा रहा. <a href="https://en.wikipedia.org/wiki/Debt:_The_First_5000_Years" target="_blank">उधार रहा</a>. और वो हमेशा मुद्रा से ज्यादा चलन में रहा. आज भी है. सालभर कोई आपको आपकी जरुरत का सामान दे और साल में एक बार या दो बार जो आपके पास है वो आप उसे दे दें- इसे वस्तु विनिमय नहीं कहते. भरोसा कहते हैं या उधार (<i>डेट</i>). ये दुनिया में मुद्रा के आने के बहुत पहले से है. पर बाते ये है कि जिन्होंने कभी गाँव देखा ही नहीं वो गाँव वालो की समस्या से सबसे ज्यादा पीड़ित हैं.<br />
<br />
*दो लाइने लग रहा है कंप्यूटर प्रोग्राम है. :)<br />
इफ (मनी_इन_जेब < ₹५००){<br />
विदड्रा ₹५०००<br />
}<br />
<br />
<br />
<span style="color: blue;"><b>दृश्य २:</b> (बलिया)</span><br />
<br />
मेरे हाथ में ₹५०० के कुछ नोट थे. किसी ने मुझसे कहा - "क्यों लहरा रहे हो? ढेर पैसा हो गया है? रुपया दिखाने का चीज नहीं होता है. कोई ठाएँ से मार देगा तो आज ही सब काम हो जाएगा. गंगाजी भी बगले में हैं".<br />
"इतने से रुपये के लिए?"<br />
"इतने से? पैसठ रूपया का कारतूस आता है. सौ रूपया के लिए भी कोई मारेगा तो पैंतीस रूपया का शुद्ध मुनाफा. जोड़-घटाव आता है कि नहीं?"<br />
<br />
इस पर कोई टिप्पणी नहीं.<br />
<br />
<span style="color: blue;"><b>दृश्य ३</b>: (स्विट्ज़रलैंड)</span><br />
<br />
आपको लगेगा कि जरूर कोई राजनितिक बात करने जा रहा है. सारी बातें बना कर बोल रहा है, ज़माना ही वही है. तो २००५ में घटी एक घटना, जो २००८ में पोस्ट की गयी थी - ब्लॉग्गिंग वाले दिनों की पोस्ट है - यहाँ जाकर बांचा जाय - <a href="http://uwaach.aojha.in/2008/01/ii.html" target="_blank">वो लोग ही कुछ और होते हैं ... (भाग II)</a><br />
<br />
<span style="color: blue;"><b>दृश्य ४:</b> (रोम)</span><br />
<br />
कॉफ़ी का बिल और साथ में रखा नोट उठाकर पुनः वापस रखते हुए <i>वेट्रेस</i> बोली - "<i>इत इज ब्यूयूयूऊऊतीफुल ! बट नोत यूरो माय फ्रेंड"</i> मुझे कुछ समझ नहीं आया कि बोला क्या उसने. और मैं वैसे हँसा जैसे... कुछ ढंग से नहीं सुनाई देने पर या समझ में न आने पर हम फर्जी ही ही करते हुए मुस्कुराते हैं. और वैसे ही मुस्कुराते हुए मैंने धीरे से हिंदी में पूछा - 'क्या बोल रही है? ले क्यों नहीं गयी? बीस का नोट ही तो रखा है'<br />
"ये बोल रही है कि यूरो नहीं है. फिर से देखो तुमने क्या रखा है".<br />
<br />
<img align="right" border="0" src="https://vignette1.wikia.nocookie.net/currencies/images/d/dc/Switzerland_20_CHF_obv.JPG" height="169" style="text-align: right;" width="320"><br />
हमारे पास एक छोटा सा बैग है. पासपोर्ट रखने भर का. उसमें बची खुची विदेशी मुद्रा पड़ी रहती है. वो तभी निकलता है जब कहीं पासपोर्ट लेकर जाना होता है - माने अंतरराष्ट्रीय. वापस आकर फिर वैसे ही रख दिया जाता है. भूले भटके, मज़बूरी में जिन नोट और सिक्को को देखना हो... क्या समझ में आएगा किस देश की चवन्नी-किसकी अठन्नी, क्या यूरो-क्या फ्रैंक !. हमने यूरो की जगह स्विस फ्रैंक रख दिया था. गांधीजी पहचान में आते हैं और वाशिंगटन, हैमिल्टन, लिंकन धीरे धीरे आ गए है. बाकी सब बिन पढ़े थोड़े पता चलेगा. एक रुपये के नोट का बॉम्बे हाई या पांच रूपये के नोट वाली ट्रैक्टर थोड़े न है कि जीवन भर के लिए छप जाएगा दिमाग पर. (वैसे नोटों की खूबसूरती/डिजाइन और जारी करने वाले देश के विकसित होने में क्या संबंध है ये भी एक रिसर्च की बात हो सकती है. लेकिन खूबसूरती आते ही परिभाषित करने की समस्या आ खड़ी होती है. खूबसूरती न सिर्फ देखने वाले इंसान की आँखों में होती है वक़्त के साथ उन आखों का नंबर भी बदलता रहता है!).<br />
<br />
<span style="color: blue;"><b>दृश्य ५: </b>(सेंटोरिनी) </span><br />
<br />
एक और पुरानी पोस्ट पढ़ा जाए. वैसे <i>कैश</i> इतना बुरा भी नहीं है. देखिये कैसी कैसी बातें हो जाती हैं छुट्टा न होने से. - <a href="http://uwaach.aojha.in/2016/08/blog-post.html" target="_blank">ग्रीक म्यूजिक</a>.<br />
<br />
<span style="color: blue;"><b>दृश्य ६</b>: (न्यू यॉर्क)</span><br />
<br />
बात उन दिनों की है जब हम नए नए अमेरिका में आये थे. बिल था $८.२५. मैंने दस डॉलर का नोट दिया और साथ में २५ सेंट का सिक्का. मतलब अब आदत थी तो थी. और ये तो फर्ज बनता है कि छुट्टा आपके पास है तो सामने वाले का काम आसान बनाइये. ₹४१० देना है तो सामने वाले को ₹५०० की जगह ₹५१० दीजिये. इतना गणित तो सबको आता है. पर यहाँ न टॉफ़ी पकडाते हैं न उन्हें छुट्टे का खेल समझ आता है -<br />
काउंटर पर खड़ी लड़की ने ऐसे देखा जैसे... किसी महामूर्ख अजूबे को देख रही हो. "<i>व्हाई वुड यू गिव मी दिस?</i>" अमरीकी चवन्नी दिखाते हुए उसने मुझसे पूछा.<br />
"<i>आई थोट.... हम्म.. सॉरी</i>" मुझे लगा अब इसको समझाने का क्या फायदा कि <i>व्हाट आई थोट</i> और कैसे करना होता है लेन देन. न ही वो ज्ञान इस देश में किसी के काम आता. लम्बी कहानी अलग होती. अजीब भी लगा कि इस देश में इतनी साधारण बात नहीं पता लोगों को ! उसने मुझे वापस एक मुट्ठी सिक्का पकड़ा दिया. एक एक<i>सेंट </i>लौटा देते हैं लोग ! और हर चीज की कीमत <i>डेसीमल </i>में ही रखेंगे. शुरू के दिनों में इतने सिक्के जमा हो जाते और सिक्के किसी को देने में गिनने का झंझट. ये झंझट मेरे कैशलेस होने के पीछे का सबसे बड़ा कारण था.<br />
<br />
..आजकल अर्थशास्त्र के सिद्धांतों का हवाला देकर जो कुछ भी किसी के मन में आये लिख दे रहे हैं वे सारे सिद्धांत ऐसी ही मूलभूत बातों पर आधारित है. जिनमें से कई भारतीय परिवेश में लागू नहीं होते. उनके तर्क आपको सही लगेंगे पर... जिन बातों को आधार बनाकर वो तर्क देना चालु कर पूरा लेख लिख मारते हैं. जिसे पढ़कर आपको लगता है अरे इतना बड़ा आदमी इतने बड़े बड़े सिद्धांतों की बात कर रहा है.. उसकी बात अगर आप ध्यान से पढ़ें तो पता चलेगा सिर्फ राजनितिक कचरा है ! किसी का भी लिखा हो उसे दिमाग लगाकर पढ़िए - हाल फिलहाल में जितना पढ़ा ये बात और दृढ होती गयी. इतनी गलत बातें ! अखबार में लिखने और टीवी पर एक्सपर्ट बने सभी विशेषज्ञ निष्पक्ष नहीं होते. विशेषज्ञ तो खैर शायद ही होते हैं. उनके पूर्वाग्राह आपसे बड़े हैं. उनका <i>एजेंडा</i> भी. आँखे खोल कर दुनिया देखना सीखिए. आप किसी को ८.२५ की जगह १०.२५ देकर गलत नहीं कर रहे. ज्यादातर तथाकथित बुद्धिजीवी विशेषज्ञों को पता ही नहीं ये कैसे काम करता है और वो आपको मुर्ख कह दे रहे हैं !<br />
<br />
<span style="color: blue;"><b>दृश्य ७</b>: (राँची)</span><br />
<br />
"आपको सुखी कहते हैं? आपको ज्यादा पता है कि हमको? अमीर कहते हैं सेठ-मारवाड़ी को ! आप जैसे लोगों को नहीं. आपके कहने से हम आपको अमीर कह देंगे और मान लेंगे कि आपको कोई तकलीफ नहीं है?"<br />
<br />
सड़क के किनारे हाथ देखने वाले और साथ में अंगूठी बेचने वाले ज्योतिषी ने एक आदमी को बिल्कुल डांटने वाले अंदाज में कहा था. उस आदमी का गुनाह ये था कि... अंगूठी बेचने वाले की बतायी गयी बात -<br />
<br />
"आप तकलीफ में तो हैं..., आपकी आमदनी से ज्यादा खर्चा हो रहा है. आप दिल के तो बहुत अच्छे हैं लेकिन लोग आपको समझ नहीं पाते हैं. गरीबी आपको परेशान कर रही है"<br />
<br />
के जवाब में उसने कह दिया - "नहीं, ऐसा तो नहीं है. हम तो बहुत सुखी हैं. भगवान का दिया सब कुछ है".<br />
<br />
मैं तब ग्यारहवीं में पढता था. और ये बात मैंने इतने लोगों को सुनाई है कि मैं क्या मुझे जानने वाले कई लोग भी ये बात नहीं भूलेंगे. वे दिन थे कि पैदल चलते-चलते कहीं रुक कर ऐसी बाते सुन लेते. कभी भटकिये ऐसे... बहुत मजेदार बातें सीखने को मिलेंगी :)<br />
<br />
तो.. ये विशेषज्ञ ऐसे ही हैं. अगर आप कहेंगे कि आपको तकलीफ नहीं है तो वो आपके मुंह में ठूस कर उगलवा लेंगे कि आपको तकलीफ है. वो विशेषज्ञ हैं कि आप? आप कौन होते हैं फैसला करने वाले कि आपको तकलीफ है या नहीं? आप कैसे बता सकते हैं कि आपके लिए क्या अच्छा है? बस यही हो रहा है और कुछ नहीं. आप खुद सोचिये और फैसला लीजिये. क्यों अंगूठी बेचने वाले के चक्कर में पड़े हैं. अखबार वाला भी अंगूठी ही बेच रहा है. टीवी वाला भी. चलिए वो तो कुछ बेंच रहे हैं... पर वो जो उनके कहे को ब्रह्मसत्य मान तर्क पर तर्क दिए जा रहे हैं. व्हाट्सऐप पर <i>फॉरवर्ड</i> किये जा रहे हैं उनका क्या?<br />
<br />
गाइड सिनेमा में जब राजू के पास एक व्यक्ति रोजी के हस्ताक्षर लेने आता है... वो सीन याद है आपको?<br />
राजू: 'तो मार्को रोजी के जेवरात हडपना चाहता है?'<br />
'जी नहीं, बल्कि वो तो चाहते हैं कि... सारे गहने रोजी को ही दे दिये जाएँ.'<br />
राजू: 'तो मार्को ये दिखाना चाहता है कि वो बहुत अमीर है" (संवाद अक्षरशः नहीं है, बात याद रह गयी संवाद भूल गया)<br />
<br />
दोनों ही निष्कर्षों में गलत तो कुछ नहीं है! पर उदहारण का मतलब ये है कि विशेषज्ञ ऐसे ही दुनिया देखने लगे हैं. वो फैसला पहले ही कर के बैठे हैं मुद्दा जो भी हो. सामाजिक विज्ञान के बारे में हमारे एक सांख्यिकी के प्रोफ़ेसर कहा करते कि - "<i>सोसिओलोजी</i> के <i>हेड ऑफ़ डिपार्टमेंट</i> आकर बोलते हैं. सर, एक बहुत अच्छा <i>पेपर</i> लिखा है. कोई अच्छा सा <i>मॉडल</i> बताइये जो उस पर <i>फिट</i> हो जाए. <i>डाटा</i> है बस एक अच्छा <i>मॉडल</i> चाहिए.<i>क्वांटिटेटिव</i> हो जाएगा तो आराम से छप जाएगा और थोडा वजन भी आ जाएगा." खैर इस बात को कहने से जो बात आपके दिमाग में आई वो तो आप समझ ही गए होंगे? आप बोलिये किस बात पर किस पक्ष में लिखना है. हम लिख देते हैं - आंकड़ा, सिद्धांत सब <i>फिट</i> करके।**<br />
<br />
बात चली थी <i>कैशलेस</i> होने के फायदे से और कहीं और निकल गयी. खैर शीर्षक से याद आया - कोई भी और धन विद्याधन तो कभी नहीं हो सकता. लेकिन... कैशलेस होने से.. वो क्या है कि.. विद्या के कुछ गुण तो उसमें आ ही जाते हैं जैसे विदेश में इन्सान की बंधु - न <i>एक्सचेंज रेट</i> की समस्या न <i>कमीशन</i> की, न ही अनजान मुद्रा पहचानने-गिनने की (वैसे आपके पास अच्छे वाले <i>कार्ड</i> न हो तो बैंक <i>कमीशन</i> लेते हैं), धन जिसे कोई चुरा नहीं सकता, राजा नहीं ले सकता, उसका भार नहीं होता और उसका कभी नाश नहीं होता... विद्याधन पर ये सारे श्लोक तो आपने पढ़े ही होंगे?. <i>डिजिटलधन</i> के लिए भी सही है.*<br />
<br />
दिमाग अच्छे कामों में लगाइए...<a href="https://www.aojha.in/quotes-etc/useyourbrainormaybe" target="_blank">अन्यत्र</a> हमने कहा कि दिमागी व्यायाम होना जरूरी है सोच अच्छी रहती है.<br />
बाकी तो भावना अच्छी हो तो दुनिया खुबसूरत ही खुबसूरत है. जाकी रही भावना जैसी -<br />
<br />
--<br />
~Abhishek Ojha~<br />
<br />
<span style="color: blue;">पुनश्चः</span> एक और बात - आजकल लोग लिखना शुरू करते हैं - मेरी काम वाली बाई, मेरा ड्राइवर, मेरा दोस्त, मजदूर, मेरा <i>पलम्बर, </i>किसान फिर बताते हैं कि उसे विमुद्रीकरण से कितनी तकलीफ है. पढ़े लिखे लोग आजकल ऐसे ही बात करते हैं. संभवतः ऐसे लोगों को खुद कभी कोई परेशानी नहीं होती, खासकर जब पैसे की बात हो. काम करने वाले और गरीब लोगों को क्या आप इंसान नहीं समझते? वो क्या बेवकूफ हैं? अशिष्ट हैं. हमें लगता था दासप्रथा अंत हुए कुछ साल हो चुके हैं - <i>आपके</i> ड्राइवर? खैर हमें व्यक्तिगत रूप से न तो ड्राइवर रखने का अनुभव है न काम वाली बाई का. पर जो शुरू ही ऐसे करते हैं उनकी बात आगे क्या पढ़ी जाए ! आप बताएंगे कि उनको तकलीफ है क्योंकि उन्हें खुद नहीं पता? और आपको कोई तकलीफ नहीं?... उनके पास इफरात में ५०० और १००० के नोट हैं जो ख़त्म ही नहीं हो रहे, ये कह कर आप गरीब का अपमान नहीं कर रहे? और आपके पास तो कुछ था नहीं? और उनको तकलीफ है तो मदद करने की जगह आप उसे ट्वीट करते हैं? अंगूठी बेचने वाले विशेषज्ञ! - जो कह रहा है मुझे कोई तकलीफ नहीं उसे तो जीने दो. मेरी मानो तो गया चले जाओ - बहुत <i>स्कोप</i> है. वहां मुर्दे को भी तकलीफ में दिखा देने वाले लोग होते हैं :)<br />
<br />
**पता चला किसी ने खुले में शौच के समर्थन में लेख लिख दिया. उसके बाद लगा अपने इस स्टेटमेंट पर भी स्टार लगा देना चाहिए. मुझमें उतनी योग्यता नहीं. :)<br />
<br /></div>
<div class="blogger-post-footer"><a href="http://www.aojha.in">Abhishek Ojha</a></div>Abhishek Ojhahttp://www.blogger.com/profile/12513762898738044716noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-8813075190326884926.post-88084417233201692162016-10-02T09:30:00.000-04:002016-10-03T12:11:16.261-04:00एथेंस (यूनान ४)<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
किसी नई जगह जाने पर सबसे पहले वो बातें ध्यान में आती हैं जो बाकी जगहों से थोड़ी अलग होती हैं. उन बातों से फ़टाफ़ट किसी देश के बारे में धारणा बनानी चाहिए या नहीं वो तो पता नहीं पर...<br />
<i><br /></i>
<i>चर्च, सुट्टा और राष्ट्रीय झंडा</i> ग्रीस में ये तीनों बाकी देशों (जितनी दुनिया हमने देखी है) की तुलना में ज्यादा दीखते हैं - हर जगह. और एक बात अलग लगी वो है रेस्टोरेंट में आप आराम से बैठे रहिये. किसी को जल्दी नहीं होती ...न आर्डर लेने की ना बिल लाने की. जब तक आप खुद बुला कर ना बोलें. बिल आता है... <i>रोल</i> करके, छोटे से <i>शॉट ग्लास </i>में, टोकरी में या ऐसे ही किसी चीज में. छोटी सी बात है पर अलग होती है तो ध्यान में आ जाती है. देश भी इंसानों की तरह होते हैं - संस्कार कह लीजिये या अदा ! एथेंस में एक और बात अजीब लगी वो ये कि देर रात बच्चे पार्क में खेलते मिल जाते। जब डिनर का टाइम होना चाहिए तब शाम की कॉफ़ी का टाइम होता। जब सब कुछ इतनी रात ख़त्म होता तो स्वाभाविक है सुबह सब कुछ देर से शुरू होता। मुझे किसी की बतायी एक जापानी मान्यता याद आयी.. जिसके अनुसार सूर्य से सृष्टि चलती है. जीवन चलता है. इसलिए सूर्य का कभी अपमान नहीं करना चाहिए। हर सभ्यता में सूर्य की पूजा की जाती रही है. और सूर्य की पूजा मंदिर में नहीं होती सूर्य के साथ अपने को एकाकार कर होती है... जिस सभ्यता में लोग सूर्योदय के बाद उठते हैं वो सूर्य का अपमान करते हैं. सूर्य को पैर नहीं दिखाना चहिये। एक जापानी वर्ग ऐसे लोगों के साथ व्यापार नहीं करते थे जो देर से सोकर उठते। मान्यता भले अंधविश्वास हो लेकिन कहने का मतलब ये कि - ग्रीस इस मामले में जापान नहीं है. वैसे कुछ दिन रह कर किसी देश के बारे में कोई धारणा नहीं बनानी चाहिए। पर लोगों की तरह देश भी आलसी और देर से उठने वाले तो हो ही सकते हैं?<br />
<br />
ग्रीक इतने सपाट जवाब देते हैं कि कई बार (कम से कम बाकी यूरोप के तहजीब की तुलना में) थोडा रुखा लग सकता है. जैसे -<br />
<br />
"कैन वी हैव ग्रीक कॉफ़ी?"<br />
<br />
"ग्रीक कॉफ़ी? इट्स नॉट गुड. इट्स फॉर ग्रीक पीपल. यू विल नॉट लाइक. ट्राई फ़िल्टर कॉफ़ी ऑर कैपेचीनो" मैंने सोचा भाई ये अजीब है. मुझे अच्छी नहीं लगेगी तो नहीं दोगे? (फ़िल्टर कॉफ़ी से मद्रास ही दिमाग में आता है उसके अलावा यहीं सुना). वैसे बाद में लगा सही ही कहा था उसने. मुझे पसंद नहीं आई ग्रीक कॉफ़ी. जो है वो मुंह पर ही बोल देते हैं.<br />
<br />
झंडे और सुट्टे का तो पता नहीं। पर चर्च का ऐसा है कि ईसाई धर्म का 'इस्टर्न (ग्रीक) ऑर्थोडॉक्सी' सम्प्रदाय ग्रीस का <a href="https://simple.wikipedia.org/wiki/State_religion" target="_blank">सवैधानिक धर्म </a>है. (अगर आपको लगता है कि पूरा यूरोप <i>संवैधानिकली </i>धर्मनिरपेक्ष है तो ऐसा नहीं है). रोमन कैथोलिक, प्रोटेस्टेंट और ईस्टर्न ओर्थोडोक्सी इसाई धर्म के तीन मुख्य सम्प्रदाय हैं. ये विभाजन धार्मिक कम राजनितिक ज्यादा थे - रोमन, बीजान्टिन साम्राज्य और मार्टिन लूथर से बने. आगे बात करने पर ये पोस्ट इसाई धर्म के इतिहास की क्लास लगने लगेगी. वैसे घुमने का ये सबसे बड़ा फायदा होता है - <i>क्रैश कोर्स </i>हो जाता है इतिहास का. कुछ देखकर, कुछ सुनकर बाकी पढ़कर. मजेदार गाइड मिल जाए तो मिर्च मसाले के साथ. खैर हम अभी इतिहास के इस कोने में नहीं जा रहे.<br />
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एथेंस ऐतिहासिक जगह है. वैसे इतिहास में जिस स्वर्णिम काल के लिए एथेंस का इतना नाम है वो बहुत कम समय के लिए था. सौ साल से भी कम. ऐसे समझ लीजिये कि एथेंस सौ साल से भी कम पाटलीपुत्र रहा बाकी समय पटना. वैसे निष्पक्ष विश्व इतिहास पढ़ें तो पता चलेगा कि एथेंस-स्पार्टा का इतिहास और उससे प्रेरित ३०० फिल्म वगैरह वगैरह में वर्णित गौरव बहुत हद तक पश्चिमी इतिहासकारों का पक्षपात है. हर पैमाने पर इससे अच्छी, सभ्य और विकसित सभ्यताएं संसार में अन्यत्र रही. उस काल में भी और उससे पहले भी. पर इतिहास ऐसे लिखा गया कि... जैसे - <i>बारबेरियन</i> का मतलब था वो कोई भी जो रोमन या ग्रीक भाषा न बोलता हो. वास्तव में भले वो हजार गुना सभ्य रहा हो - कहते हैं कि बारबेरियन शब्द बना ही ऐसे कि... जिनकी भाषा सुनकर समझ में न आये. सुनने में - बार्ब-बार्ब-बार्ब लगे वो हो गया बारबेरियन - असभ्य. उसी तरह ग्रीक-रोमन गौरव काल की अच्छाई वालीं बातें बढ़ा चढ़ा कर लिखी गयीं. उस समय की सैकड़ों कुरीतियों को नजरअंदाज करते हुए. इतिहास लिखने (और पढने) का तरीका आने वाले समय का बहुत कुछ निर्धारित करता है ! ... वैसे हम भी पश्चिमी इतिहासकारों का लिखा इतिहास ही पढ़ते हैं. खैर हम अभी इतिहास के इस कोने में भी नहीं जा रहे.<br />
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इतिहास जानने से बहुत कुछ सीखने को मिलता है. जो जगह आज जैसी है वैसी क्यों है. वहां के लोग, उनकी सोच और उनकी मान्याताएं। जगहों के चरित्र उनके इतिहास से बनते हैं. क्यों जगहों के हजारों सालों के इतिहास में 'वो भी क्या ज़माना था' वाले कुछेक साल ही बस हर जगह देखने को मिलते हैं. बाकी जगहों की कोई चर्चा ही नहीं मिलती। अगर ज्यादा नहीं सोचना है तो किसी शहर में बिकने वाला <i>सूवनिर </i>किस काल से आता है देखकर समझ लीजिये वो उस शहर का गौरवशाली काल था - एथेंस में एक्रोपोलिस, रोम में कोलोसियम, फ्लोरेंस में डेविड, वेनिस में <i>मास्क, </i>न्यू यॉर्क में एम्पायर स्टेट और लिबर्टी।<br />
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<a href="https://en.wikipedia.org/wiki/Athens" target="_blank">एथेंस</a> और <a href="https://en.wikipedia.org/wiki/Delphi" target="_blank">डेल्फी</a> के खंडहर की बात करने से पहले बात करते हैं एक कम प्रसिद्द जगह की. एथेंस में सुकरात की जेल के नाम से जानी जाने वाली एक लगभग अज्ञात सी जगह है. एक पहाड़ी पर गुफा जैसी. विश्वप्रसिद्ध एक्रोपोलिस से थोड़ी ही दूर. पेंड़ों के बीच - उपेक्षित. स्वाभाविक उत्सुकता थी उस जगह पर जाने की. थोड़ी मुश्किल से ढूंढते ढूंढते मिली. वहां जाकर पता चला कि - ये स्थानीय लोगों की बस एक मान्यता है कि सुकरात को यहाँ स्थित एक जेल में रखा गया होगा. पर ऐतिहासिक प्रमाण कुछ नहीं है... जितना है वो उल्टा ये है कि ये जगह सुकरात की जेल नहीं रही होगी. भूले भटके कुछ लोग पंहुच जाते हैं. हम ये सोचते लौट आये कि.... यहाँ ऐसी कोई बात नहीं लिखी होती तो हम थोडा ज्यादा सोचते और खुश होते। इस बोर्ड को यहाँ से हटा देना चाहिए. सुकरात ने ही कहा था - “The only true wisdom is in knowing you know nothing.”. खैर इस जगह से एक्रोपोलिस का अच्छा<i> व्यू </i>दीखता है.<br />
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<a href="https://en.wikipedia.org/wiki/Acropolis_of_Athens" target="_blank">एक्रोपोलिस</a> - देख कर लगता है. क्या अद्भुत मंदिर रहा होगा ! वास्तुकला, इतिहास, इंजीनियरिंग. देखने के पहले हम काल्पनिक मॉडल देख आये थे म्यूजियम में - आलिशान. पर वहां जाते हुए अब कहीं से मंदिर जाने वाली अनुभूति नहीं आती. अब सिर्फ खंडहर है. कितना कुछ बदल देता है वक़्त. हमें कभी महसूस नहीं हो सकता जैसा यहाँ आने वालों को कभी हुआ करता होगा. ना उन दिनों किसी ने सोचा होगा कि कभी एक दिन ऐसी हालत होगी उस आलिशान मंदिर की. अब मंदिर वाली भावना की जगह ये ध्यान आता है कि बनाया कैसे होगा. बिना विकसित गणित-कंप्यूटर के <i>सिविल इंजिनियर </i>काम कैसे करते होंगे? वगैरह वगैरह. और ये कि कैसे एक सभ्यता ने दूसरे का बेरहमी से विनाश किया। वैसे कुछ चीजों को पुनर्जीवित करने के प्रयास अच्छे लगे. जैसे <a href="https://en.wikipedia.org/wiki/Odeon_of_Herodes_Atticus" target="_blank">एक थियेटर</a> हैं जिसे फिर से इस हालत में लाया गया है जहाँ अब भी वहां कलाकार <i>परफॉर्म</i> करते हैं.<br />
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiPPdqlcJ4Y4KvA4HBn4IBvYTgyCQ002xOuaEGGr5BJBBCK1tVNTNMlYAoQck5VNY7TG7z9qg_3gy5PafMcRwLgZDO9xJPPX_vaWchp0CwzHSi83AnPh5nOGzcuusvHQAP0eeA4eXsPLp6F/s1600/Parthenon.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="213" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiPPdqlcJ4Y4KvA4HBn4IBvYTgyCQ002xOuaEGGr5BJBBCK1tVNTNMlYAoQck5VNY7TG7z9qg_3gy5PafMcRwLgZDO9xJPPX_vaWchp0CwzHSi83AnPh5nOGzcuusvHQAP0eeA4eXsPLp6F/s320/Parthenon.jpg" width="320" /></a></div>
एथेंस - <a href="https://en.wikipedia.org/wiki/Athena" target="_blank">एथेना </a>देवी के नाम पर बना शहर है. उल्लू प्रतीक-विजय-ज्ञान-बुद्धि की देवी यानि सरस्वती-लक्ष्मी-काली जैसी देवी। अनगिनत समानताएं।<br />
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एथेंस का ज्ञात इतिहास सिर्फ २५०० सालों में बिखरा है. अगर एक पैराग्राफ में नाप लेना हो तो कुछ यूँ होगा -<br />
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एथेंस २५०० साल पहले एक साधारण महाजनपद (शहर-राज्य) था. जिसे ईपू ५००-४८० में <a href="https://en.wikipedia.org/wiki/Achaemenid_Empire" target="_blank">फारसी</a> बादशाह ने ध्वस्त किया. पर उसके बाद फारस के खिलाफ युद्ध में एथेंस कई ग्रीक महाजनपदों का नेता बना. ईपू ४५०-४०० का काल - स्वर्णिम काल. फारसियों पर विजय के बाद एक्रोपोलिस बना. वहां एथेना देवी की विशाल मूर्ति बनी. हम जो भी पढ़ते हैं वो अधिकतर इसी काल से आता है. कला-थियेटर-वास्तु-सुकरात-प्लेटो-एक्रोपोलिस-पार्थेनन-गणित-दर्शन-वगैरह. उसके बाद ईपू ३३८ में सिकंदर ने जीता. ईपू १४६ में रोमन साम्राज्य ने. पर जीतकर वो यहाँ की संस्कृति से प्रभावित ही हुए, उसे अपनाया और बाकी दुनिया में फैलाया भी. रोमन साम्राट कॉन्सटेंटाइन ने जब ईसाई धर्म को मान्यता दी और खुद भी धर्म परिवर्तन कर लिया। उसके बाद <a href="https://en.wikipedia.org/wiki/Paganism" target="_blank">पेगन </a>के नाम पर उस समय तक के सारे मंदिर या तो चर्च बन गए या तोड़ ताड़ दिए गए. पार्थेनन चर्च बन गया. सारे <i>पेगन</i> प्रतीक मिटा दिए गए. उधर रोमन साम्राज्य का पतन प्रारम्भ हुआ और इधर एथेंस पर '<i>बारबेरियन'</i> हमले. एथेंस ४७६ ई के बाद एक हजार साल तक <a href="https://en.wikipedia.org/wiki/Byzantine_Empire" target="_blank">बीजान्टिन साम्राज्य </a>के अधीन रहा (इसी काल में इस्टर्न ऑर्थोडॉक्सी यहाँ हमेशा के लिए जम गयी). बीजान्टिन यानी पूर्वी रोमन साम्राज्य जिसकी राजधानी थी कुस्तुन्तुनिया (आज का इस्ताम्बुल). १४५३ में जब <b>कुस्तुन्तुनिया का पतन</b> हुआ तब अगले ४०० सालों के लिए एथेंस तुर्कों (<a href="https://en.wikipedia.org/wiki/Ottoman_Empire" target="_blank">ओटोमन साम्राज्य</a>) के अधीन रहा. कुस्तुन्तुनिया का पतन (बीजान्टिन के लिए) कहिये या कुस्तुन्तुनिया विजय (ओटोमन के लिए). ...स्कूल में कुछ चीजें ऐसी थी जिन्हें पढ़ कर या सुनकर बहुत मजा आया. जैसे पंद्रह का पहाडा ! आपने पढ़ा है तभी जान सकते हैं क्या <i>स्पेशल</i> होता है उसके बारे में - पंद्रह दूनी तीस तियान पैतालिस... वैसे ही था 'कुस्तुन्तुनिया का पतन'. नौवी के इतिहास में था. Fall of Constantinople पढ़ के भी क्या पढ़े होते ! 'कुस्तुन्तुनिया का पतन' सुन कर लगता था कुछ भारी भरकम बढ़िया सी चीज पढ़ रहे हैं ! खैर... तो यही था मोटा-मोटी एथेंस का इतिहास. एक्रोपोलिस पर एक के बाद दूसरी सभ्यता ने अपना कब्ज़ा किया. <a href="https://en.wikipedia.org/wiki/Parthenon" target="_blank">पार्थेनन</a> पैगन मंदिर से मिटाकर चर्च, चर्च मिटाकर मस्जिद, उसे मिटाकर संग्रहालय और यूनेस्को हेरिटेज बना. वहां की सबसे अच्छी मूर्तियाँ और पत्थर <i>कोहिनूर गति को प्राप्त </i>हुए. यानी अब ब्रिटिश म्यूजियम लन्दन में पड़े हुए हैं. ग्रीक जिसपर अपना हक़ और वापस लाने की बात करते रहते हैं. [ब्रेक्जिट नहीं हुआ होता तो कुछ उम्मीद भी होती :)]. १८२१ में ग्रीक में आजादी आन्दोलन/क्रांति हुआ.. वैसे इस आजादी के बाद लोकतंत्र नहीं आया. लम्बे समय तक राजशाही रही. द्वितीय विश्वयुद्ध के समय नाज़ी कब्ज़ा... फिर मार्शल प्लान. (मुझे नहीं पता बाकी लोगों को कितना अच्छा या पकाऊ लगा होगा ये पढ़ना. तो एक पैराग्राफ में बात ख़त्म.)<br />
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEifOpij-dwqTiNKWdKZ3cPXM_N199QDluh8mDFBUiwHB8woVhKeMxgDsyTKRMS6nuV_yhW2gCdL6AFA37eVBhk0PGn9j6nx4lHSxbOegOCV3kWjjrfcj8Z_j_ai1veiUYTTjI6lVAOhKdpw/s1600/Delphi-1.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="213" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEifOpij-dwqTiNKWdKZ3cPXM_N199QDluh8mDFBUiwHB8woVhKeMxgDsyTKRMS6nuV_yhW2gCdL6AFA37eVBhk0PGn9j6nx4lHSxbOegOCV3kWjjrfcj8Z_j_ai1veiUYTTjI6lVAOhKdpw/s320/Delphi-1.jpg" width="320" /></a></div>
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अब एथेंस का केंद्र है <a href="https://en.wikipedia.org/wiki/Syntagma_Square" target="_blank">सिंतागमा स्क्वायर.</a> जो एक साथ ग्रीस का संसद, धरना के लिए जंतर मंतर और अमर जवान तीनो है. <i>नो डिसृस्पेक्ट</i> पर वहां जैसे ड्रेस में गार्ड खड़े होते हैं - फैंसी ड्रेस लगता है (अगर मैं नौटंकी कहने से अपने को रोकूँ तो). वैसे वो बहुत ही अच्छी मद्धम चाल और भाव भंगिमा में अपनी जगहें बदलते हैं. <a href="https://twitter.com/aojha/status/652466383037534208" target="_blank">माने बहुत ही अच्छा</a>. एक और जानकारी - उनके ड्रेस में ४०० चुन्नट होते हैं. तुर्कों के हर एक साल की गुलामी के लिए एक चुन्नट.<br />
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डेल्फी... खुबसूरत जगह पर है. पहाड़ों में बसा. अच्छी चढ़ाई होती है. ऐसा लगा जैसे <a href="https://en.wikipedia.org/wiki/Pythia" target="_blank">ओरेकल</a> (पुजारन कह लीजिये) ने जान बुझ कर बनाया होगा ऐसी जगह कि कठिन चढ़ाई कर वही आ सकें जिन्हें सच में श्रद्धा/उत्सुकता हो. फिर वहां खड़े खड़े एक बार को जरूर ये ख़याल आता है कि कैसे घोड़े पर या पैदल थके-हाँफते एथेंस, स्पार्टा, ओलंपिया वगैरह से लोग पहाड़-घाटियां पार करते आते होंगे अपना भविष्य जानने. बहुत मुश्किल होता होगा तब आना.<br />
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लिखते लिखते लगता है बहुत इतिहास लिखा गया... डेल्फी में <a href="https://en.wikipedia.org/wiki/Apollo" target="_blank">अपोलो</a> का मंदिर था. और साथ में उन दिनों पूजे जाने वाले कई देवताओं के मंदिर. एक थियेटर और खेलों का एक प्रसिद्द स्टेडियम. (ओलंपिक की तरह यहाँ <a href="https://en.wikipedia.org/wiki/Pythian_Games" target="_blank">पिथियन गेम्स</a> होते थे). रोमन जमाने में एक रोमन <i>अगोरा</i>। पर इस जगह को सबसे अधिक प्रसिद्धि दिलाई <i>ओरेकल</i> और <i>अपोलो</i> के मंदिर ने. ओरेकल यहाँ की पुजारन होती थी. मंदिर प्रांगण में एक जगह धुंआ जैसा कुछ निकलता जहाँ बैठकर वो भविष्यवाणी करती. माने साधारण भाषा में कहें तो गांजा जैसे कुछ फूंक के बता देते रहे होंगे। एक समय ऐसा था कि कोई भी राजा बिना ओरेकल से सलाह लिए बिना फैसला नहीं करता था. क्या और कैसे इस पर बहुत कहानियाँ और <i>थियरिस</i> हैं.<br />
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhgGb2ju9H8l1VJAM9DlaOv62PAynB-ebrRgJkKCPERtq8BPKrluPV3U0U8QMUiYEsqW_vKkh31_Q6o7TAHdi4mV_q5pJIrsPAfyiT0mDI0-EiRySgT_eAW7LhQxSue6K8UEPIpn8z-t7r8/s1600/Delphi.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="213" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhgGb2ju9H8l1VJAM9DlaOv62PAynB-ebrRgJkKCPERtq8BPKrluPV3U0U8QMUiYEsqW_vKkh31_Q6o7TAHdi4mV_q5pJIrsPAfyiT0mDI0-EiRySgT_eAW7LhQxSue6K8UEPIpn8z-t7r8/s320/Delphi.jpg" width="320" /></a></div>
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पुराने जमाने में ग्रीक ये भी मानते थे कि डेल्फी दुनिया का केंद्र है. इसीलिए वहां पर अपोलो का मंदिर बना. कहते हैं कि दुनिया का केंद्र पता करने के लिए <a href="https://en.wikipedia.org/wiki/Zeus" target="_blank">जीयस</a> ने दुनिया के दो छोरों से दो बाज उडाये. एक ही समय पर, विपरीत दिशा में, एक ही गति से. [अपने युग का विज्ञान !] दोनों बाज जहाँ मिले वहां से जीयस ने एक पत्थर फेंका. वो पत्थर जहाँ गिरा वही हुआ संसार का केंद्र और वहां बना अपोलो का मंदिर !<br />
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खैर... पोस्ट अपनी लम्बाई को प्राप्त हुई. लिखने के पहले लगता है क्या लिखें... लिखना शुरू करो तो जो बात लिखनी थी उसके पहले ही पोस्ट पूरी हो जाती है. ना ना करते इतना इतिहास ही लिख गए. अपोलो के मंदिर के स्थान पर जो वर्णन लिखा हुआ है उसमें लंबी सी कहानी के अंत में ये भी लिखा हुआ है कि पत्थरो पर सात ऋषियों के ज्ञान का सार लिखा हुआ था - γνῶθι σεαυτὸν - "know thyself". और μηδὲν ἄγαν- 'Nothing in excess'. बात तो सुनी हुई लगी. <a href="https://en.wikipedia.org/wiki/Seven_Sages" target="_blank">सप्तर्षि </a> एक ही रहे होंगे?<span style="background-color: white; color: #545454; font-family: "arial" , sans-serif; font-size: x-small;"></span><br />
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एक बात कुलबुला रही थी दिमाग में. ग्रीस में हमें लोग समझाते कि वॉलेट सामने की जेब में रखना. मैं अभी कहीं और गया था वहां भी लोगों ने यही कहा. मैं सोच रहा था पश्चिम के पॉकेटमार बिलकुल ही पगलेट होते हैं क्या? सलाह देने वाले सबको पता है सिर्फ उन्हें नहीं पता कि आजकल लोग वॉलेट कहाँ रखते है? गया-मुगलसराय जाके ट्रेनिंग लेनी चाहिए उन्हें !<br />
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लोगों से की गयी बातों वाली पोस्ट ज्यादा रोचक होती है. इतिहास सुनाने की चीज है तभी अगर कोई सुनने वाला हो. लिखते हुए बार बार लगता है कौन पढ़ेगा? ! पोस्ट लिखने में न्याय नहीं हो पाता। सुनाने में पता होता है सुनने वाला कितने चाव से सुन रहा है... सुनाने में फिर वही चाव आ जाता है.<br />
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और... <i>आप जो करते हैं वो नहीं कर रहे होते तो क्या करते</i> के जवाब में बहुत कुछ आता है दिमाग में. उन्हीं में से एक <i>'टूर गाइड' </i>बनना भी बहुत दिलचस्प लगता है. पर फतेहपुर-सिकरी, आगरा में शेर सुनाने वाले टूर गाइड याद आते हैं तो लगता है हममें ना तो वो हुनर है न वो करना चाहते ! आपने झेला है तो आप जानते हैं :)<br />
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~Abhishek Ojha~<br />
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<div class="blogger-post-footer"><a href="http://www.aojha.in">Abhishek Ojha</a></div>Abhishek Ojhahttp://www.blogger.com/profile/12513762898738044716noreply@blogger.com9tag:blogger.com,1999:blog-8813075190326884926.post-25009096504388683762016-09-03T00:14:00.001-04:002016-09-26T10:49:45.561-04:00...उसको जल जाना होता है !<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<a href="http://uwaach.aojha.in/2016/08/blog-post.html" target="_blank">पिछली पोस्ट</a> ख़त्म हुई थी ... इस बात पर कि हमें क्यों फर्क पड़ता है ऐसे लोगों के सामने भी जो न तो हमें जानते हैं, न ही हमें उनसे कभी दुबारा मिलना होता है. <i>एवोल्यूशनरी साइकोलोजी </i>पढने से ऐसे सवालों का उत्तर मिलता है. वैसे एक मजेदार बात ये है कि... ये एक ऐसा विषय हैं जहाँ <a href="https://twitter.com/aojha/status/691678511266992129" target="_blank">हर सवाल का एक ही उत्तर</a> होता है. कई बार ऐसा लगता है जैसे.. उत्तर पता है और बस <i>फिट</i> करना है उसे... आप सवाल तो ले आओ !<br />
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<i>एवोयुश्नरी साइकोलोजी</i> के अलावा <i>बिहेवियरल इकोनॉमिक्स</i> भी ऐसा ही विषय है. जो पढने-सुनने में बहुत अच्छे लगते हैं. इसलिए भी कि... जिन बातों का हमारे पास आसान सा उत्तर नहीं होता.. उनका बिन दिमाग खपाए एक सरल उत्तर मिल जाता है. भले समझ के यही समझ में आये कि इस समझ से कुछ फायदा होना नहीं है. समझ से सिर्फ दूसरों को ज्ञान दिया जा सकता है. <a href="http://uwaach.aojha.in/2014/06/blog-post.html" target="_blank">ग्रन्थ लिखे जा सकते हैं.</a> समझ कर खुश हुआ जा सकता है कि हमें समझ में आ गया कि दुनिया ऐसी क्यों है. भले ही समझ के हम फिर वही काम करें - 'शिकारी आयेगा जाल बिछाएगा'... क्योंकि ये पढ़ कर समझ यहीं पंहुचती है कि - हमें खुद नहीं पता हम क्या कर रहे हैं. खूब सोचा तो यही सोचा के सोच के कुछ नहीं होना !<br />
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खैर - <i>एवोल्युश्नरी साइकोलोजी </i>के हिसाब से हर बात का उत्तर होता है - '... क्योंकि हमारे पूर्वज कभी शिकारी-संग्रहकर्ता (<i>हंटर-गैदरर</i>) थे जो कबीलों में रहते थे.' - हर समस्या-उत्सुकता का एक ही उत्तर - सरल सपाट. ऐसे सोचिये कि अगर हम आज भी शिकारी-गुफा-कबीला युग में रह रहे होते तो क्या करते? गुस्सा.नफरत.प्यार. आलस.आतंक.दोस्त.दुश्मन.गर्व. कब, क्यों और कैसे ! - माने सब कुछ. हम कब कैसा बर्ताव और महसूस करते हैं और क्यों ! उस समय सबसे जरूरी क्या था? सबसे अधिक क्या चाहिए था? सबसे अधिक डर किस बात का था? तब जीवन के लक्ष्य क्या थे?<br />
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उस युग की वो बातें <i>फिट</i> हैं हमारे अन्दर. पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही हैं. कोई नहीं भी हो सिखाने वाला तो भी बहुत कुछ जीवों में <i>इनबिल्ट</i> ही आता है. हँसना-रोना से लेकर ऐसा पाया गया कि जिन्होंने कभी बचपन से सांप नहीं देखा-सुना.. वो भी पहली बार जब सांप देख ले तो डर जाते हैं. लडकियां मकड़ी, छिपकली, तिलचट्टा वगैरह से ज्यादा डरती हैं. वगैरह. वगैरह. बहुत काम किया है लोगों ने इस क्षेत्र में. <i>लेक्चर नोट्स</i> थोड़े न है जो सब <i>रेफेरेन्स</i> के साथ लिखा जाय. एक लाख २५ हजार सालों से भी अधिक समय से हमारा विकास चल रहा है. संभवतः एक लाख साल तक हम शिकारी-गुफा वाला जीवन ही जीते रहे. सब ठीक चल रहा था. विकासवाद के हिसाब से अभी दस हजार साल भी नहीं हुए खेती का आविष्कार हुए. फिर इन दस हजार सालों में सभ्यता के विकास का पहिया ऐसा घुमा कि... धड़ाधड़ एक के बाद एक विकास होते गए... विज्ञान... गाड़ी, बिल्डिंग, फैक्टरी...सैटेलाईट. एटम बम, फ़ोन, इंटरनेट. सभ्यता कहाँ से कहाँ पंहुच गयी. लाखों सालों में धीरे धीरे बढ़ने वाले हम दस हजार साल में कहाँ से कहाँ आ गए. माने भगवान का बनाया उनके हाथ से निकल गया. प्रकृति ने सोचा था कि उसी रफ़्तार से चलेगी सभ्यता. उस हिसाब से हमें तैयार किया... <i>नेचुरल सेलेक्शन</i>। फिर तुम्हारी है तुम्ही संभालो ये दुनिया कह के बनाने वाला निकल लिया.<br />
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कहने का मतलब ये कि...<br />
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हमारी जो <i>बायोलोजी</i> है वो बहुत धीमी गति से सीखती और बदलती है... पर दुनिया बदल गयी - सभ्यताएं बदल गयी. हमारे अन्दर की <i>वायरिंग</i> वैसी ही रह गयी. कायदे से दोनों को एक साथ चलना था पर एक घोघा की चाल से चला और दूसरा चीते की चाल. हमारे शरीर और दिमाग का बहुत कुछ अब भी तकरीबन तीस चालीस हजार साल पहले के हिसाब से काम करते है. उसी हिसाब से सोचते है. उसमें वही <i>फिट</i> है जो हमारे लिए उस युग में सही होता. माने अब जा रहे हैं और सामने शेर दिख गया तो दिमाग ने फिट कर दिया ... सोचो मत. पहले भाग लो, उसके बाद सोचना. पका फल देखा तो <i>वायर</i> हुआ ये रंग हमारे लिए अच्छा है. जिससे दुर्घटना हुई उससे डरना सीखाया. औरत को माँ बनना होता है तो उसे किस चीज से डरना चाहिए. उसे कब कैसा सोचना चाहिए. पुरुष का प्यार कब चरम पर होगा औरत का कब. वगैरह वगैरह. उस जमाने की <i>वायरिंग</i> का दो बड़ा काम था.. 'मरो मत और कुटुंब बढाओ' - <i>सर्वाइवल एंड रिप्रोडक्शन</i>! जो सीखता गया बचता गया और बढ़ता गया. इसके लिए समय के हिसाब से जो हो सकता था धीरे धीरे प्रकृति ने इंसान में बनाया. क्या देख खुश होना है. क्या देख डरना है, कब गुस्सा करना है. कब भागना है. कब अपने कबीले को बचाना है. कैसे <i>पार्टनर</i> की ओर आकर्षित होना है. उसमें क्या देख के आकर्षित होना है. कब तक होना है. कौन से अंग-रंग-रूप-अदा-ज्ञान. कौन अपना है. कौन पराया. सब की <i>वायरिंग </i>की. माने हमें लगता है हम दिमाग लगा रहे हैं उधर न्यु<i>रोंस प्रोग्राम</i> कर दिए गए हैं धड़ाधड़ देख के फैसला कर लेने को.<br />
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इस बीच सभ्यता इतनी आगे बढ़ गयी कि... अब उनमें से कई चीजों की जरुरत नहीं रही - जैसे <i>सर्वाइवल</i> का मतलब अब कुछ और है. अब हम गुफों और जंगलों में नहीं रहते. अब जंगली जानवर नहीं होते. कीड़े-मकोड़े-इत्यादि. पर हम व्यवहार अब भी वैसे ही करते हैं. हमारी <i>वायरिंग </i>को नहीं पता कि अब उसकी जरुरत नहीं. उसे नहीं पता कि अब किसी और कबीले का आदमी है तो उससे कभी नहीं मिलना. तो अगली बार कोई <i>ओवरटेक</i> करके जाए तो आपको गुस्सा आना लाजिमी है. <i>वायरिंग </i>सोचेगी कि दुसरे कबीले का आकर ऐसे करके चला जाएगा तो अगली बार फिर आएगा, उसे सबक देना चाहिए ! हमारे दिमाग को नहीं पता कि दुनिया यहाँ आ गयी है कि कबीले की जगह फेसबुक से जुड़ गए हैं लोग. वैसे ही वो <i>डिप्रेस</i> हो जाता है क्योंकि उसे लोग चाहिए... घर, सामान, गाडी, घोड़े का भूखा नहीं है वो.. उसके लिए <i>वायर</i> होने में अभी कुछ हजार साल और लगेंगे. इसे <i>इरेशनल बेहवियर</i> कह लें या चेतना जैसा कुछ... हम एक हद तक गुलाम है उस प्रागैतिहासिक <i>वायरिंग</i> के. जो हमें खुद भी नहीं पता. <i>फेमिनिस्ट</i> माफ़ करेंगे लेकिन दिमागी <i>वायरिंग</i> को<i>फेमिनिस्ट</i> आन्दोलन का नहीं पता ! पुरुष पुरुष की तरह क्यों होते हैं और महिलाएं महिलाओं की तरह क्यों होती है - उसके भी कारण हैं.<i>फेमिनिस्ट </i>और <i>एवोल्यूशन</i> वालों की कभी ठनती कैसे नहीं है? ठनती भी होगी शायद मुझे पता नहीं.<br />
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छोडिये... ये तो सुना ही होगा आपने - '<i>शमा कहे परवाने से... वो नहीं सुनता उसको जल जाना होता है. हर खुशी से, हर ग़म से, बेगाना होता है'</i>. शमा-परवाना से ज्यादा शायरों को कुछ पसंद नहीं - इश्क ! इससे ज्यादा मानव सभ्यता को किसी और चीज ने प्रभावित नहीं किया. बदला नहीं - इतिहास उठाकर देख लीजिये. और जो मैं लिखने जा रहा हूँ इससे अच्छा उदहारण मुझे नहीं सुझा. परवाने को जल जाना नहीं होता. उसे नहीं पता इश्क किस चिड़िया का नाम है. दरअसल परवाने के दिमाग की जो <i>वायरिंग</i> है वो उस ज़माने की है जब शमा हुआ नहीं करती. तब प्राकृतिक रौशनी हुआ करती और परवाने को <i>एंगल-वेंगल</i> का पता चलता रौशनी से कि किधर उड़ना है. उसके दो ही काम थे - <i>सर्वाइवल और रिप्रोडक्शन</i> ! रौशनी देखकर उड़ना भी इसी का हिस्सा था. सभ्यता के विकास ने इंसान को ही नहीं परवाने को भी ऐसे उलझाया कि... उसे नहीं पता चलता कि जिस चीज से उसे जीवन मिलना था उसी से वो मर क्यों जाता है! वहीँ पर हजारों परवाने मरे होते हैं तब भी उसे नहीं समझ आता कि ये शमा वो चीज नहीं जो... और वो समझ भी कैसे सकता है. दिमाग को ही तो सोचना है और उसीकी <i>वायरिंग</i> में लोचा है. जैसे <a href="http://www.bbc.com/news/world-us-canada-32491715" target="_blank"><i>माइग्रेटरी बर्ड्स </i>फँस जाती हैं <i>मैनहट्टन </i>के इमारतों की रौशनी में</a>. तारे की जगह रौशनी देख उन्हें लगता है अब इस दिशा में जाना है ! परवाने भी वही करते हैं. यकीं मानिये उनको जलना नहीं होता. वैसे उपमा सही है. ठीक उसी तरह हम भी अक्सर समझ ही नहीं पाते कि हम कर क्या रहे हैं... 'वसीयत 'मीर' ने मुझको यही की, कि सब कुछ होना तो, आशिक न होना' टाइप। पर... समझ ही गए होंगे आप ! <i>शमा-परवाना-मीर-एवोल्यूशन</i>. हमारी भावनाएं हमें वैसे ही छलती हैं. वो किसी और युग और काम के लिए बनी हैं. अगली बार आग का दरिया टाइप शायरी पढ़ते समय एक बार सोचियेगा कि क्यों है जो है सो. जीसस ने जिसे कहा - माफ़ करना ऐ भगवान, इन्हें नहीं पता ये क्या कर रहे हैं. या जिसे कहते हैं - माया, लीला, <i>ब्रेन-वायरिंग, एवोल्यूशन.</i><br />
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कबीलाई सोच पर आगे - क्यों कुछ लोग हमारे अपने होते हैं? -दोस्त. और क्यों कुछ लोगों से हम दूर-दूर रहते हैं. -दुश्मन। फिर जो लोग हमें अच्छे नहीं लगते उनका भी एक दोस्तों और अच्छे लोगों का समूह होता है. आप जिसे सबसे ज्यादा बुरा मानते हैं उसका भी एक सबसे अच्छा दोस्त होगा जो उसे बहुत अच्छा आदमी मानता होगा. तो ऐसा क्यों है? रामबाण उत्तर तो आपको पहले ही बता दिया है. बस उसे फिट करना है ! हमारी <i>वायरिंग</i> ऐसी है कि हम खुद के और अपनों के गुण ज्यादा देखते हैं. लक्ष्य ही वही है. हमारी अच्छाई हमारा <i>कोर </i>(असलियत) है. हमारी विफलता के कारण होते हैं. हम जिन्हें पसंद नहीं करते उनकी बुराई उनकी असलियत होती है और उनकी अच्छाई के कारण होते हैं. उन्हें थाली में सजा के मिल गया हमने मेहनत की. बुरा हमारे साथ हो गया - उन्होंने बुरा किया. हमारे अपने रिश्वत लें तो 'उन्हें लेना पड़ता है' तक कहते सुना है मैंने !! और जो अपने नहीं है वो तो आप जानते ही हैं वही देश बेच रहे हैं. हमारे दोस्त के भी दुश्मन होते हैं, हमारे दुश्मनों के भी दोस्त. दोनों एक साथ सही हो सकते हैं? - सोच हमारी रह गयी कबीले में रहने वाली - <i>मैं और तुम वाली</i>. मैं और तुम को बड़ा करते जाइए. परिवार-कबीला- -देश-धर्म. मेरा कबीला अच्छा, तुम्हारा बुरा. प्रकृति ने मुझे भी वही सोचने के लिए बनाया, तुम्हे भी. मेरा अपना 'मैं' हैं तुम्हारा अपना 'मैं'. सही पकड़ा उन ऋषियों ने जो 'वसुधैव कुटुम्बकं' कहते रहे ! 'मैं' का त्याग करने को कहते रहे.<i>एवोल्युश्नरी साइकोलोजी</i> कहती है - हम बने ही नहीं उसके लिए. यानी हमें वो करना पड़ेगा जिसके लिए हम बने नहीं ? -आत्म-नियंत्रण।<br />
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माया, लीला ! - ऋषि ने कहा.<br />
<i>एवोल्यूशन</i> - <i>बायोलोजिस्ट</i> ने.<br />
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दिमाग ने सीखा है... कबीले में कैसे किसी को <i>इम्प्रेस</i> करना है. उसके लिए कैसे और किस हद तक जाना है. इंसान ही नहीं आप किसी जीव को उठा कर देख लीजिये. ये भी सिखाया कि कब मुड़ जाना है. कब तक पलट के देखना है. कब से नहीं देखना है. किस चीज से घृणा हो जानी है. कब तक वफ़ा, कब से बेवफा. कैसे अपने कबीले को बचाना है. मर्द ऐसे क्यों होते हैं. औरत वैसी क्यों. प्रकृति ने पचास हजार साल पहले ठोक पीट के बनाया. <i>फेसबुक</i>-<i>व्हाट्सऐप</i> के जमाने को आत्मसात करने में उस गति से उसे पचास हजार वर्ष और लग जायेंगे और तब तक सभ्यता कहाँ पंहुच जायेगी? ऐसा खेल है - माया-लीला-<i>वायरिंग</i>. <i>जेनेटिक</i> के साथ <i>नॉन-जेनेटिक एवोल्यूशन</i> भी हुआ। विचारों का - सब माया है - वसुधैव कुटुम्बकम - आत्म नियंत्रण - बुद्ध - कितना दर्शन हमें <i>रेडीमेड </i>मिलता है. <i>कृत्रिम एवोल्यूशन</i> - बाहरी <i>वायरिंग</i>. पर दिमाग अब भी शिकारी के युग का है. उसका एक ही काम है स्वार्थी <i>जीन </i>को अगली पीढ़ी तक पंहुचाने का. झमेला बनाए रखने का. सभ्यता के साथ हुए विचारों के विकास के बारे में प्रकृति ने नहीं सोचा था. कृत्रिम रौशनी बन गयी इंसान उड़ कर उसमें उलझने लगा.<br />
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प्रकृति ने बनाया सुख की मरीचिका - है वो मरीचिका. पर उसे स्थायी न सोचे तो फिर उसके पीछे भागेगा कौन? ख़ुशी का काम है सिर्फ प्रोत्साहित करना. उसका तत्व ही है अनित्यता - बुद्ध का<i>इम्पर्मानेंस !</i> प्रकृति का लक्ष्य ही नहीं हमेशा के लिए ख़ुश करना. <i>'ह्यूमन्स आर नॉट वायर्ड टू बी हैपी'. </i>दुखी रहो अगर उससे प्रकृति के लक्ष्य पुरे हो रहे हैं तो. ख़ुशी इतने के लिए है कि लगे रहो काम में. <i>रिवार्ड बेस्ड सिस्टम</i> ! ख़ुशी का काम सिर्फ इतना है -<i>रिवार्ड</i> की ललक में बझाए रखना. प्रकृति की प्रकृति है कि एक सफलता की ख़ुशी के बाद और बड़ी सफलता चाहिए पिछली सफलता जितनी ख़ुशी के लिये - <i>हेडोनिक ट्रेडमिल</i>. उलझे रहो. जिंदगी में कुछ अच्छा होने के बाद अगर इंसान को लगने लगे कि अब बस हो गया ! - हमेशा के लिए खुश ! बस अब और नहीं करना कुछ. तो जो <i>वायरिंग</i> है - '<i>सरवाइव एंड रिप्रोड्यूस</i>' उसका क्या होगा? ज्यादा से ज्यादा <i>रिप्रोड्यूस</i> ज्यादा से ज्यादा <i>सरवाइव</i> - और इस बात की<i>मैक्सिमम प्रोबबिलिटी </i>तभी होगी जब... ख़ुशी - <i>इम्पर्मानेंट</i> हो, मरीचिका हो - हमें उस मरीचिका की ललक हो. प्रकृति को सृष्टि चलाना है. उसका काम हमें खुश करना नहीं है.<br />
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<i>एवोल्युश्नरी बायलोजी</i> को इस एंगल से पढो तो लगता है सब कह गए हैं ऋषि-मुनि बस <i>जार्गन </i>अगल हैं :)<br />
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खैर बात यहाँ से चली थी कि हमको फ़िक्र काहे को हो रही थी... उस घटना के बाद - कबीलाई सोच !<br />
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हरी ॐ तत्सत् !<br />
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--<br />
~Abhishek Ojha~<br />
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[बोलने पर ये टॉपिक ज्यादा स्पष्ट होता है. लिखने में वो <i>बात </i>नहीं]<br />
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<div class="blogger-post-footer"><a href="http://www.aojha.in">Abhishek Ojha</a></div>Abhishek Ojhahttp://www.blogger.com/profile/12513762898738044716noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-8813075190326884926.post-32392502210348091732016-08-24T22:03:00.000-04:002016-08-25T11:38:44.557-04:00ग्रीक म्यूजिक (यूनान ३)<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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यादें धुंधली पड़ती जाती हैं. अच्छी-बुरी सब. कुछ यादें स्थायी <i>जैसी</i> होती तो हैं - पर स्थायी नहीं. कुछ उड़ते समय अवशेष छोड़ जाती हैं - रसायन में जिसे अवक्षेप कहते हैं - <i>प्रेसिपिटेट</i>. जिन बातों के होते समय लगता है कि ये अनुभव तो कभी नहीं भूल सकते - सवाल ही नहीं उठता ! ... वो अनुभव भी धुंधले हो ही जाते हैं - <i>एवरी एक्साइटमेंट हैज अ हाफ लाइफ ! </i><br />
<i><br /></i>कई बार खुद की डायरी में लिखे नोट्स पढ़ते हुए लगता है कि लिखना क्या चाहा था? लिखावट उतनी बुरी भी नहीं कि खुद का लिखा न पढ़ पाएं पर लिखते समय अक्सर बस एक दो शब्द लिख जाता हूँ... क्योंकि उस समय तो ऐसा लगता है जैसे ये घसीट कर लिखे हुए शब्द देखते ही सब कुछ आँखों के सामने घूम जाएगा. पर बहुत दिन बीत जाए तो कई बार खुद ही नहीं जोड़ पाता उन शब्दों को ! डायरी पलटा तो "<i>ग्रीक म्यूजिक? :)</i>" सिर्फ इतना ही लिखा है एक पन्ने पर. पर ये दो शब्द बहुत हैं याद दिलाने को कि हुआ क्या था. वैसे यात्रा में जो बुरे अनुभव होते हैं वो याद रह जाते हैं कोई बचकानी हरकत, कोई समस्या, शर्मिंदगी, फँस जाना - वगैरह. ऐसी बातें हर यात्रा में होती हैं. और जैसे <i>जिंदगी का हर सपना पूरा हो जाने के बाद ओवररेटेड लगने लगता है</i>, वैसे ही हर उलझन से निकल जाने के बाद वो परेशानी हलवा लगती है और हम बाद में उसे चाव से सुनाते हैं. वैसे ये बहुत छोटी सी बात थी.<br />
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कहीं जाने के पहले <i>बजट-टाइम कन्स्ट्रेन्स </i>के साथ सोचना पड़ता है कि कहाँ-कहाँ जाएँ. गूगल अपनी जगह है पर किसी जगह के बारे में वहां के लोगों से पूछो तो वो बड़ी ख़ुशी से बताते हैं. किसी को उसकी 'अपनी' जगह के बारे में बताते हुए सुनने में एक अलग खूबसूरती होती है. इतनी ख़ुशी और गर्व होता है बताने वाले के चेहरे पर कि...<br />
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मुझे भी एक ग्रीक-दोस्त ने जगहों का विस्तृत ब्यौरा पहले बताया फिर लिखकर भी भेजा. कहाँ जाना, क्या देखना, कहाँ रुकना, क्या खाना, क्या करना, क्या नहीं करना... पर उसने सब कुछ कुछ इस तरह बताया मानो <i>ऑप्टिमाइजेशन बिना किसी कन्स्ट्रेन सोल्व</i> करना हो. बजट और टाइम की फ़िक्र किये बिना ! मुझे उनका विस्तार से बताना और फिर काट-छांट के बनायी गयी यात्रा ! ऐसे याद रहा कि कुछ दिनों पहले जब किसी ने मुझसे पूछा 'भारत देखने के लिए कितने दिन चाहिए'. तो मुझे समझ नहीं आया क्या जवाब दूं. बताने बैठो तो पुराण लिखना पड़ जाए. मैंने कहा 'सवाल गलत है - तुम बताओ तुम्हारे पास कितने दिन हैं और तुम्हें कैसी जगहें पसंद हैं'. ये बात दुनिया के हर जगह के लिए सच है. मुझे नहीं पता लोग कोई भी देश या पूरा यूरोप कैसे देख आते हैं एक सप्ताह में। ग्रीस में भी दो सप्ताह जैसी समय सीमा में बहुत कम देखा जा सकता है. जगहें भी अलग अलग तरह की. हर कदम - इतिहास और <i>मिथ</i> नहीं तो प्राकृतिक खूबसूरती - क्या देखें-क्या छोडें ! फिर जैसे कोई पूछे कि... गोवा के अलावा कहाँ कहाँ जा सकते हैं भारत में. तो अक्सर हम कहेंगे ही कि... 'और भी अनगिनत अच्छी जगहें हैं ! गोवा खुबसूरत है - पर उससे भी अच्छी जगहें हैं'. एक ही जगह के लिए - '<i>इट्स अ मस्ट सी</i>' से लेकर '... '<i>वी हैव बेटर प्लेसेस..</i>.' जैसे सुझाव दिए थे लोगों ने. पर कुछ जगहें हर लिस्ट में <a href="http://www.planetware.com/tourist-attractions/greece-gr.htm" target="_blank">निर्विवाद थी</a> तो वहां जाना ही था! -जब बहुत सारे कंस्ट्रेन हों तो <a href="https://en.wikipedia.org/wiki/Common_minimum_programme" target="_blank">कॉमन मिनिमम</a> एजेंडा टाइप कुछ निकल ही आता है.<br />
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मिथ और खंडहरों से भरा पड़ा है ग्रीस - संरक्षित और जानकारी से भरपूर. ग्रीक के द्वीप दुनिया के सबसे खुबसूरत द्वीपों में आते हैं. ये दो सबसे बड़े कारण हैं जिससे ग्रीस हर साल अपनी जनसँख्या के दोगुने से अधिक पर्यटकों को आकर्षित करता है. इसके बाद भी अर्थव्यवस्था... :) इकॉनमी फिर कभी.<br />
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अगर आप कहीं घुमने जा रहे हैं तो कोई होना चाहिए जो आपको खंडहरों से खींच कर खूबसूरत जगहों पर भी ले जाए. और अगर आप खुबसूरत जगहों के शौक़ीन हैं तो कोई चाहिए जो आपको खींच कर खँडहर और संग्रहालयों में ले जाय. समुद्र-झील-पहाड़-घाटी श्रेणी की खुबसूरत जगहें प्रेमचंद की कहानियों की तरह होती हैं - सदाबहार -सुपरहिट. मुझे अब तक कोई नहीं मिला जिसे पसंद न हो. पत्थरों, खंडहरों और म्यूजियम कुछ लोगों को ही पसंद आ पाते हैं '<i>घुमने जाते हो कि पढने</i>?' टाइप के लोग. अपनी-अपनी पसंद. और बहुत प्रसिद्द जगह हो तो भी ये जरुरी नहीं कि वो वहां के निवासियों की भी पहली पसंद हो. कई जगहें पर्यटकों के लिए खूब विकसित की गयी हैं . सब कुछ वैसा ही जैसा पर्यटकों को चाहिए - एक तो खूबसूरत ऊपर से सिंगार ! - संतोरिणी.<br />
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यूनान - डेमोक्रेसी, रोमन लिपि, गणित, दर्शन, खगोल, ट्रेजेडी, कॉमेडी, खेल, युद्ध, जीयस, वीनस, अपोलो, ओरेकल, अगोरा, अकिलीस, ओडीसस, सिकंदर, पाइथागोरस, सुकरात, प्लेटो, अरस्तु, ओलंपिक, मैराथन, <i>काठ का घोडा</i> - अनगिनत - पश्चिमी सभ्यता का सबकुछ. पढ़ते रहो तो ख़त्म न हो घूमते रहने से कहाँ हो पायेगा !<br />
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खैर.. लोगों से उनके देश के बारे में पूछने से होने वाली ख़ुशी की ही तरह एक और ख़ुशी होती है जब आप उस देश की भाषा (अंग्रेजी छोड़कर) बोलने की कोशिश करते हैं. टूटी फूटी ही सही. मुझे ग्रीक नहीं आती पर... मैंने बस स्टैंड पर जोड़-जाड के पढ़ा ΚΤΕΛ क्टेल? Δρομολόγια - डेल्टा-रो-ओ-म्यु-लैम्ब्डा-गामा-आयोटा-अल्फा - ड्रोमो... ड्रोमो-लोगिया.... ड्रोमोलोग्या ?<br />
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'यू स्पीक ग्रीक?'<br />
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मैंने कहा नहीं... पर अक्षर पढ़ लूँगा (इस कार्टून की तरह) - ग्रीक लिपि में<br />
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjves-XnIV7gwkMb53w0OhUKiL-LGHJ_p2sJJzXB2ft2lYAI6IXJuU-lThyphenhyphenEmJ4I3620dK0DzP0oy9gRJyTBiGju_H3sAuxBskxI2wGvqqNklMmOvCIZuwkjWzqDfj1DIirzuV21Ha3QeGl/s1600/pi-log-u-tau-g.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjves-XnIV7gwkMb53w0OhUKiL-LGHJ_p2sJJzXB2ft2lYAI6IXJuU-lThyphenhyphenEmJ4I3620dK0DzP0oy9gRJyTBiGju_H3sAuxBskxI2wGvqqNklMmOvCIZuwkjWzqDfj1DIirzuV21Ha3QeGl/s200/pi-log-u-tau-g.jpg" width="200" /></a></div>
<a href="https://en.wikipedia.org/wiki/Greek_alphabet" target="_blank">एक अक्षर नहीं</a> जो गणित-विज्ञान में इस्तेमाल न होता हो - एक भी नहीं. सिग्मा, थीटा, अल्फा, बीटा, पाई, टाऊ, ओमेगा... वगैरह वगैरह. ग्रीक लिखा हुआ देखकर लगता है किसी नौसिखिये ने फार्मूला लिखने की कोशिश की है. और सारे <i>सिंबल</i> की खिचड़ी बना दी है. पता नहीं बस स्टैंड पर खड़े उस आदमी को पता था या नहीं कि दुनिया में कहीं भी मैथ-फिजिक्स-इंजीनियरिंग के सिंबल ग्रीक अक्षरों में ही लिखे जाते है. पर वो खुश बहुत हुआ. उसने बताया - कटेल यानि बस. और द्रोमोलोग्या माने टाइम टेबल. मुझे ग्रीक पढने में मजा आता. जैसे नया नया पढ़ना सीखे बच्चे सब कुछ पढ़ डालते हैं - बिना मतलब पता हुए. सारे अक्षर पहचान के थे, मतलब कुछ नहीं पता था. κέντρο मैंने एक बोर्ड देखकर पढ़ा - केंत्रो. टैक्सी वाले ने सुधारा - केद्रो जैसा कुछ कहा उसने. मतलब बताया सेंटर. तब चमका मुझे - <i>केन्द्रो-केंद्र-सेंटर</i>. यूँही तो नहीं हो सकता एक ही शब्द. ॐ गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती. नर्मदे सिंधु कावेरी जलेऽस्मिन सन्निधिं कुरू टाइप लगा ॐ संस्कृते च ग्रीके चैव लैटिनं ... टाइप कभी रहा होगा. वीनस सरस्वती हों न हों, इंद्र जीयस हो न हो... केंद्र तो केंद्र होगा ही ! यहाँ से वहां गया हो या वहां से यहाँ आया हो.<br />
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'ग्रीक म्यूजिक?' - इन दो शब्दों में छुपी कहानी पर वापस आते हैं. <i>इटरनल, स्पिरिचुअल,</i> खुबसूरत - वगैरह वगैरह <i>कैप्शन</i> वाली जगहें हम भूल सकते हैं पर ऐसे अनुभव नहीं. हुआ यूँ कि इतिहास-खँडहर-पत्थर वाले इंसान को <i>'व्यू'</i> वाली <i>हाई-फाई </i>जगहों का अनुभव तो वैसे ही नहीं. तो ऐसी जगह जाने पर हर चीज देखकर हम मान लेते हैं - <i>बड़े लोग हैं ऐसा ही करते होंगे !</i> और फिर जितनी <i>सभ्यता-शिष्टता</i> से अपने आप को समेट कर रख सकते हैं रखते हैं. तो ऐसा ही कुछ हुआ एक <i>बड़े लोगों वाले</i> रेस्टोरेंट में. मद्धम मद्धम रौशनी. अभी अभी सूर्यास्त हुआ था. व्यू के साथ सिंगार-पटार वाली जगह. दो संगीतकार टाइप के लोग संगीत बजा रहे थे. अब अच्छा संगीत तो वैसा होता है जो सबको ही अच्छा लगता है. कोई भी बाजा हो - देश-काल-भाषा के इतर. अच्छा संगीत बस अच्छा संगीत होता है. हमें भी बहुत अच्छा लग रहा था. नाचने-गाने-थिरकने वाली <i>कैटेगरी</i> वाले तो नहीं हैं पर बैठे बैठे पैर वैसे हिल रहे थे.. जैसे हिलाने पर डाँट पड़ती है - 'पैर मत हिलाओ'. थोड़ी देर में वो घूम घूमकर बजाने लगे. हमें देख उन्हें शायद कुछ ज्यादा अच्छा सा लगा होगा. स्पेशल टाइप. सो वो आ गए हमारे टेबल के पास. बजाने लगे... हम बहुत खुश हुए. माने... बता नहीं सकते. हर टेबल से तुरत ही चले जाते। हमारे यहाँ जम से गए. हम विडियो भी बनाए. ताली भी बजाये. वो भी एक दम लीन होकर भाव भंगिमा के साथ बजाये. फिर उन्होंने फरमाइसी संगीत का कार्यक्रम टाइप भी किया और पूछा - 'ग्रीक म्यूजिक? ग्रीक म्यूजिक?' सर हिलाते हुए - सिर्फ दो शब्द। और सर ऐसे गिरगिट की तरह हिलाते रहे... मानों उनको उतनी ही अंग्रेजी आती हो जितनी हमें ग्रीक.<br />
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हम भला क्यों मना करते !<br />
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थोड़ी देर बाद हमें लगा अब कुछ ज्यादा हो रहा है. हमारे पास ही ये क्यों बजाये जा रहे हैं ! उनकी मुस्कान भी तल्लीनता से <i>लेफ्ट टर्न </i>लेकर इस मुद्रा में आ गयी थी कि ...वो भी कुछ वैसा ही सोच रहे थे जैसा हम. तब मुझे पहली बार लगा कि इन्हें कुछ देना होगा. तब लगा कि शायद बाकी जगह लोगों ने उतना भाव नहीं दिया या तुरत कुछ दे दिया होगा ! इन दो बातों का उनका इतनी देर तक बजाने और इतने अच्छे से बजाने में जरूर ज्यादा योगदान रहा होगा. हम कितने <i>स्पेशल</i> लग रहे थे वो दिल बहलाने का ग़ालिबी ख्याल साबित हो गया. खैर ये कोई बात नहीं जो याद रह जाए... बात तब हुई जब हमने जेब टटोला.<br />
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जेब खाली तो नहीं थी पर...<br />
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ग्रीस हम गए थे ये सोच कर कि - यूरोप है ! हर जगह <i>कार्ड</i> चलेगा. ग्रीस ऐसा है कि एक तो कार्ड कोई नहीं लेना चाहता (कैपिटल कण्ट्रोल भी था तब पर लोगों ने बताया कि बिना उसके भी यही हाल रहता है). जहाँ कार्ड लेते भी वहां - <i>कार्ड से इतना, कैश से उतना </i>का हिसाब. और ये उतना इतने से हमेशा कम. अब दुनिया का कोई भी कोना हो दिमाग <i>एक्सचेंज रेट</i> लगा तुरत जोड़-घटाव कर लेता है कि कितना घाटा-फायदा हो रहा है. तो हमने उसी शाम<i> कैश</i> तो निकाल लिया था. लेकिन 'जहां काम आवे सुई, कहा करे तरवारि' की तरह हमारे पास १०० यूरो से नीचे कुछ था नहीं. अमेरिका में २० डॉलर से ज्यादा के नोट कभी एटीम से निकलते देखा नहीं. या कभी सौ से ज्यादा कैश निकाला हो ये भी याद नहीं. भारत होता तो वैसे ही कोई जुगाड़ निकल आता. खैर... ऐसे मौके पर दिमाग तुरत हिंदी पर आ जाता है. जीटा-थीटा थोड़े करोगे आपस में अब. हमने अपने साथी से पूछा तो वहां भी यही हाल था. हाथ में <i>वॉलेट</i> लिए.. अब हम बेशर्मी वाली मुस्कान के अलावा ज्यादा कुछ कर नहीं सकते थे. छुट्टा भी नहीं पूछ सकते थे -कलाकार की बेइज्जत्ती हो जाती. हमने एक बार मुस्कुराया.. वो दोनों जो एक वायलिन सरीखा और एक कोई ग्रीक बाजा लिए थे.. मेरे हाथ में बटुआ देख और जोश में बजाने लगे. वो हमें देख मुस्कुराते, हम उन्हें.. ये सिलसिला कुछ देर तक चला. माने हमारे ऊपर थोड़ी देर तक पानी पड़ा जब तक उन्हें समझ आया... अब उन्हें जो भी समझ आया हो. थोडा बहुत हमें भी समझ आया और हम उठकर काउंटर पर छुट्टा पूछने गये. पर वो अपनी समझ से दूसरी तरफ निकल लिए. मुझे लगा वो इसी रेस्टोरेंट में काम करते होंगे पर वो निकल कर चले ही गए. माने अब... हम लिखने में इतने सिध्हस्त तो हैं नहीं कि वो<i>सीन</i> लिख सके. यूँ समझ लीजिये... दोनों पार्टियों की ख़ुशी परवर्तित हो रही हो दिमाग की झुंझलाहट में और चेहरे पर मुस्कान बनी रहनी चाहिए! बैकग्राउंड म्यूजिक के साथ. तो कैसा दृश्य रहा होगा. इससे ज्यादा मैं नहीं लिख सकता. :)<br />
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आप कहेंगे ये भी कोई सोचने की बात हुई.. उनसे अब कौन सा फिर से मिलना है. पर वो क्या है न कि... <i>इवोल्यूशनरी साइकोलॉजी</i> कहती है... किसी और पोस्ट में.<br />
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ये पोस्ट भूमिका में ही ख़त्म होने की सी लंबाई को प्राप्त हो गयी !<br />
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--<br />
~Abhishek Ojha~<br />
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<div class="blogger-post-footer"><a href="http://www.aojha.in">Abhishek Ojha</a></div>Abhishek Ojhahttp://www.blogger.com/profile/12513762898738044716noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-8813075190326884926.post-91683106870484345622016-02-09T20:27:00.000-05:002016-02-09T20:27:01.127-05:00...उस पार<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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ज्ञान देना (भाषणबाजी) बहुत मस्त काम है।<br />
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ज्ञान देने वाला खुद वैसा ही हो या नहीं इस बात से इसका कोई लेना देना नहीं. और फिर <i>गूगल-फेसबुक-ट्विट्टर-विकिपीडिया </i>के जमाने में जिसे देखिये वही घनघोर ज्ञान और संवेदना से लबालब भरा बैठा है. इतना कि उसे छलकाने के लिए मुद्दे-मौके कम पड़ जा रहे हैं ! भाषणबाजी से याद आया कि जो लोग असल जिंदगी में चंद लोगों के साथ भी ढंग से न रह पाते उनसे अच्छा रिश्तों पर कोई नहीं बोलता ! घर में अँधेरा हो तो हो महफ़िल में <i>चराग-ए-भाषण</i> जरूर जलाते है. और ये तो खैर फैक्ट ही है कि <i>लभ-गुरु</i> बनने का सबसे ज्यादा <i>पोटैन्श्यल </i>होता है असफल प्रेमियों में।<br />
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पहले का पता नहीं पर आजकल ज्ञान देते-देते लोग लड़ने पर उतर आते हैं. ये कैसा अद्भुत ज्ञान? ! जैसे कोई कहे.... मैं बहुत अहिंसक हूँ और सामने वाला न माने तो उसकी गर्दन ही तोड़ दो - <i>बोला था अहिंसक हूँ ! समझते ही नहीं हों लोग ! </i>और एक <i>लेवल </i>के बाद दोनों ही पक्ष एक दूसरे को मुर्ख करार देते हैं! <i>मुर्ख को उपदेश देना क्रोध को बढ़ाना है, मूरुख हृदयँ नहीं चेत , नेवर आर्ग्यु विथ स्टुपिड पीपल... व</i>गैरह वगैरह कोट तो वैसे ही बरसाती मेंढक हैं इंटरनेट के. वैसे आप विवाद का हिस्सा नहीं हैं तो कई बार मुश्किल होता है समझ पाना कौन बुद्धिमान वाला पक्ष है कौन मुर्ख वाला। लड़ते हुए देख लेने के बाद लगता है बुद्धिमता और मूर्खता अन्योन्याश्रित हो चली है। अगर आप एक पक्ष के साथ हैं तब तो मुर्ख <i>ऑब्वियस्ली</i> सामने वाला ही होगा।<br />
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खैर.. भाषणबाजी सुनकर अक्सर लगता है... कि भाषणबाजी अगर इस पार का काम है तो उसे जीना उस पार का। ज्ञान सुनाने वाले को समस्या हलवा लगती है और संसार बेवकूफ ! वहीँ सुनने वाले को लगता है - <i>मेरी जगह होते तो इन्हें पता चलता !</i> सही भी है जब तक आप इस पार रहते हैं तब तक उस पार का सोच पाना कठिन सा होता है - <i>एक अलग डाइमेन्शन में सोचने जैसा</i>।<br />
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पर अक्सर लोग उस पार जाकर भी कुछ ज्यादा सीख नहीं पाते। छात्र जीवन में शिक्षकों को खडूस कहते रहे, शिक्षक बने तो छात्रों को नालायक करार दिया. उस पार गए तो इस पार का भूल गए - याद नहीं रहती खुद की अनुभव की हुई सारी बातें। <i>डिस्टोर्टेड वर्जन </i>याद रह जाता है। वैसे भी जो झेल चूका होता है उससे उम्मीद करना कि जो आप झेल रहे हैं वो बेहतर समझेगा तो आप भोले हैं - मैं ही नहीं कह रहा बड़े लोग भी ऐसा कह रहे हैं - <a href="https://hbr.org/2015/10/its-harder-to-empathize-with-people-if-youve-been-in-their-shoes" target="_blank">It’s Harder to Empathize with People If You’ve Been in Their Shoes</a><br />
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- भाँति-भांति के लोग !<br />
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...भूमिका ख़त्म. बात पर आते हैं।<br />
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ज्ञान के नाम पर गर्दन तोड़ देने वाली चीज देखने को मिली पिछले दिनों। न्यू यॉर्क में एक प्रतियोगिता हुई जिसमें कई विश्वविद्यालयों के पढ़ने लिखने वाले छात्र-छात्राओं ने हिस्सा लिया। (यहाँ ध्यान दीजिएगा कि सारे छात्र पढ़ने लिखने वाले नहीं होते हैं - दंगा, धरना-प्रदर्शन, मार पीट, लफंगई वगैरह वगैरह करने वाले भी छात्र होते हैं) न्यू यॉर्क ही नहीं छः-आठ घंटे दूर तक से छात्र छात्राएं आए थे... (कभी कभी दूरी में वजन डालने के लिए उसे घंटे में भी नाप दिया जाता है)। छात्रों को एक '<i>केस' सोल्व</i> करना था-एक कंपनी का केस।<br />
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अब छात्र माने बैचलर से पीएचडी तक। कुछ बिलकुल ही <i>नवा-नवा </i>कॉलेज में नामांकन कराये ... जिन्होंने कभी जेब खर्च के लिए भी नहीं सोचा होगा कि कहाँ से आ रहा है कहाँ जा रहा - उन्हें भी उसी केस के बारे में सोचना था। जिसके बारे में एमबीए, पीएचडी वाले भी सोच कर आए थे। पाँच-सात साल अनुभव वाले भी थे! बोली भी अंग्रेजी होते हुए भी सबकी अलग (वैसे बहुमत - चाइनीज अंग्रेजी) । फिर ऐसे भी थे जो जबान से दनादन <i>'जार्गन' </i>उगलते हैं - प्रति मिनट सौ-डेढ़ सौ की रफ्तार से - भले उसका <i>केस</i> से कोई लेना देना नहीं हो। वैसे मुझे लगता है दुनिया में मैं अकेला तो नहीं ही होऊंगा जिसे <i>मीटिंग</i>, <i>कॉन्फ्रेंस</i> में काम के बात की जगह <i>'जार्गन' </i>की <i>दवनी</i> होता सुनकर लगता है... छोड़िए फिर कभी :)<br />
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बहुत मेहनत की थी सबने... लेकिन <i>प्रेजेंट </i>करने वाला जैसा भी हो <i>'जज' </i>(अक्सर) होता है - बेशर्म - भाषणबाज - ज्ञान झाड़ने वाला- गर्दन तोड़ने वाला अहिंसक। सवाल पूछने से पहले ये भी नहीं सोचता कि... जिसे क, ख, ग ढंग से नहीं पता हो उससे उपनिषद <i>एक्सप्लेन</i> करने को कहना - मतलब क्यों? ! ... जज का एक काम शायद सामने वाले को बेइज्जत करना भी होता है! वो <i>प्रजेंट</i> करने वाले से प्यार से बात नहीं कर सकता।<br />
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मुझे उस पार ...यानी जज वाले साइड बैठना था. मेरे बगल में बैठे एक सज्जन बार बार - "<i>व्हाट द</i> [अगला शब्द आप समझ ही गए होंगे]" - और बार बार <i>टीम्स</i> के किये कराये को "[<i>बैल का गोबर</i>]" करार दे रहे थे। खैर <i>इट्स कूल टु टॉक लाइक दैट दीज डेज।</i> मैं उस पार बैठने वाला नवा-नवा मैं क्या ही बोलता ज्यादा कुछ. सोचा पूछ लूँ - "आपको उस उम्र में पता था कि जो पढ़ रहे हो वो <i>इंडस्ट्री</i> में इस्तेमाल नहीं होता?" फिर ये सोच रहने दिया कि हो सकता है वो अभिमन्यु रहे होगे !<br />
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हमारा दिल पिघल रहा था.. हम उस पार होके भी नहीं थे. हम सोच रहे थे किस किताब की लाइन उठा के लाये हैं... जो बोल रहे हैं वैसा क्यों बोल रहे हैं? कहाँ से सीखा होगा? हंसी नहीं आई मुझे कॉपी-पेस्टीय अनभिज्ञता पर - जहाँ हो सकता था ज्ञान से प्रभावित जरूर हुआ। पता तो वैसे भी चल ही जाता है जो रट के बोल रहे होते हैं ...जिनका मतलब भी नहीं पता उन्हें ! पर मैं ये सोच रहा था कितनी मेहनत की है एक एक शब्द पर... कितना तैयार होकर आए हैं... बाहर गया तो देखा... लड़के-लडकियां रट रहे थे टहलते हुए। आखिरी मिनट तक। स्लाइड देख कर न बोलना पड़े... सूट, जूते, घड़ी, बाल... सब एक दम चकाचक। एक बाल इधर की जगह उधर नहीं... जैसे चमको छाप डिटर्जेंट के एजेंट हों ! कब स्माइल करना है, कैसे अभिवादन करना है. कब तक किसे बोलना है. हमें अपने दिन याद आ रहे थे - प्लेसमेंट सीजन के पहले दो चार लोगों को छोड़ दें तो सूट और जूते क्या बेल्ट भी उधार का होता था - "अबे जल्दी जाओ तैयार होके... आधे घंटे में इंटरव्यू है"। खबर हॉस्टल में आती तो लोग अभियान शुरू करते कपड़े ढूंढने का..."..."अबे जल्दी जाओ, इसी के ऊपर पहन लो !"। कितनी बार सब कुछ आते हुए भी नहीं बोल पाना...<br />
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मैं ये भी सोचता रहा कि किसका <i>बैकग्राउंड </i>क्या होगा। उनसे पूछ भी लिया - सही ही सोचा हर बार। <i>फाइनन्स, मैथ, कम्प्युटर साइंस, एकोनोमिक्स, मार्केटिंग</i>... फर्क दिखता है कौन क्या पढ़ा है। कौन कैसे तर्क देता है. किसने कितनी मेहनत की है वो भी दिखता है। हमेशा एक दो टीम ही बहुत अच्छी होती है... वो ऐसे ही दिख जाता है। पर एक बात मुझसे देखी नहीं जा रही थी - जजों द्वारा तौहीन ! - [<i>बैल का गोबर</i>]<br />
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एक दो <i>ग्रुप</i> से सवाल पूछे जाने के बाद लड़के-लड़कियों की शक्ल देखने लायक हो गयी ! घोर हताशा... जैसे एक पल में सारी मेहनत चली गयी हो ! दिल टूटता हुआ दिखता है चेहरे पर। उम्मीद का टूट जाना. बोलने से पहले काँपती है आवाज। गया सब कुछ... करुणा <i>टाइप</i> का हो जाता है। ...उनका गला सुखने लगा हो जैसे... और मेरे बगल में बैठे सज्जन ने भकोसी हुई कुकी को कॉफी से गले के नीचे उतारते हुए कह दिया - [<i>बैल का गोबर</i>] - राम राम !<br />
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मैं सोच रहा था क्या चल रहा होगा उनके दिमाग में वैसे सवाल पर जो उन्हें ढंग से समझ भी नहीं आया?<br />
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- क्या होगा इसका सही उत्तर? सुना हुआ तो लग रहा है... जैसे दिमाग के सारे <i>न्यूरॉन</i> एक साथ चमक गए हों... - ओह ! तो ये बोलना था? आसान था यार पर समझ ही नहीं आया। ...क्या पूछ रहा था यार वो मैंने तो कभी सुना ही नहीं था... फिर से सवाल <i>रिपीट</i> करने को बोला तो जो थोड़ा बहुत समझ आया था वो भी हवा हो गया. <i>विनिंग टीम</i> को देखा तुमने? अबे यार इतने सीनियर लोग आएंगे तो क्या ही होगा। लेकिन क्या ही प्रेजेंटेशन था यार उनका - <i>फ्लॉलेस</i>! हमने तो कुछ किया ही नहीं। मुझे तो अब सोच के ही शर्म आ रही है, हम क्या ही बोल रहे थे ...हम कहीं नहीं टिकते। अबे यार पर उस खडूस जज को कुछ नहीं आता ! पता नहीं किसने बना दिया उसे जज। कितना समझाया मैंने उसे... उसे समझ ही नहीं आया कि हमने किया क्या है। पता नहीं क्या पूछ रहा था। उस बात का इस केस से क्या लेना देना ?- पकड़ के बैठ गया एक ही बात। इतना कुछ किया था किसी ने कुछ सुना ही नहीं, सब बेकार हो गया! हड़बड़ी में जो एक <i>कोट</i> रट के गया था वो तो बोल ही नहीं पाया। छोड़ यार अब... ...वैसे हमारा तो उनसे अच्छा ही था... मेहनत तो की ही थी हमने. बस लटके झटके अच्छे थे उस टीम के हमने कितना काम किया था। उन्होने तो कुछ किया भी नहीं और जीत गए.<br />
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हमेशा अंत में बात यहीं रुकती है... एक टीम का <i>प्रेजेंटेशन </i>अच्छा था और एक का काम अच्छा था। और एक टीम हमेशा होती है जो अच्छी होकर भी नहीं जीतती।... मेरा दिल और वोट हमेशा उनको जाता है। ये अनुभव हुआ कई बार... पहले भी और इस बार भी.<br />
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खैर... बात जब दूसरे पार की हो तो थोड़ा मुश्किल भी होता है समझना... जैसे मान लीजिये पढ़ाने वाला निश्चय कर ले कि मैं किसी को फेल नहीं करूंगा और ये कि... जिसे मन हो वो पढे नहीं तो क्लास आने की जरूरत नहीं है। पढ़ाने वाले को लगेगा कि इतना रोचक है, मैं इतना अच्छा समझाता हूँ... कैसे नहीं पढ़ेगा कोई ? और <i>स्टूडेंट </i>को लगे... अबे एक दम गाय है प्रोफेसर... एक दम <i>कूल</i>। इस कोर्स में कोई टेंशन नहीं... दूसरा <i>वाट</i> लगा देगा उसीका पढ़ते हैं !<br />
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पटना में राजेसजी से हुआ वार्तालाप याद आया - मैंने कहा था- ‘<i>जूनियर इम्प्लोयी</i> से बड़े बुरे तरीके से बात करते हैं वो. प्यार से बात करने से सब काम हो जाता है लेकिन….’<br />
‘अरे नहीं सर ऊ त ठीके है. बिना उसके इहाँ काम चले वाला है? इहाँ नहीं चलेगा आपका परेम-मोहबत. आप नहीं समझेंगे यहाँ का मनेजमेंट… यहाँ परेम देखाइयेगा त जूनियर एम्प्लाई आपका बेटीओ लेके भाग जाएगा’।...एक ये पहलू भी है जो अनुभवी लोग बताते हैं, मैं सहमत होऊं या नहीं!<br />
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...खैर अंत में हुआ यूं कि उस पार बैठे हुए भी मेरी इस पार वालों से खूब दोस्ती हुई. भाषणबाजी ही कहेंगे पर मैंने जो टीम रोने-रोने सी हो गयी थी और वो एक टीम जो अच्छी होकर भी नहीं जीतती। उनसे बहुत देर बात की... अच्छा अनुभव रहा. बहुत कुछ सीखने को मिलता है खासकर उस पार बैठने पर जब आपको हार जीत की फ़िक्र नहीं होती !<br />
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और सबसे अंत में हुआ यूँ कि... किसी ने एक फोटो शेयर की कैप्शन था - '<i>विनिग टीम विथ जजेस'</i>... उसमें एक चेहरा हमारा भी था. हमें <i>विनर </i>होने के बधाई के कुल छः<i>मेसेज </i>आये<i> </i>। हम<i> विनर</i> तो थे नहीं ...उस पार वाले हो चुकने के बाद यही सोच खुश हो लिए कि... शायद हमारी त्वचा से हमारी उम्र का पता ही नहीं चलता होगा ! :)<br />
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~Abhishek Ojha~<br />
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<div class="blogger-post-footer"><a href="http://www.aojha.in">Abhishek Ojha</a></div>Abhishek Ojhahttp://www.blogger.com/profile/12513762898738044716noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-8813075190326884926.post-48636996351006035522015-12-08T21:16:00.000-05:002015-12-11T12:14:12.313-05:00... 'ओक्सिटोसिन' क़हत टैटू मोरा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
बात शुरू हुई एक र<a href="https://twitter.com/YayawarTripathi/status/673932106980941824" target="_blank">स-आयनिक टैटू वाले ट्वीट</a> से - </div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
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<table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhEcenzySIYuWUCnkJHT0lpobr8cP6mUfkSvzch8sdE4q596eU0qo4IYiex5jNWIg3DiX-n_oIO71h74Ht9oRLsSguNOaw5XYxJQa4MFlqPj0hagiT5h6banSYahERk8hlmOuR_CzpKRvjv/s1600/Oxytocin-Tattoo.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhEcenzySIYuWUCnkJHT0lpobr8cP6mUfkSvzch8sdE4q596eU0qo4IYiex5jNWIg3DiX-n_oIO71h74Ht9oRLsSguNOaw5XYxJQa4MFlqPj0hagiT5h6banSYahERk8hlmOuR_CzpKRvjv/s200/Oxytocin-Tattoo.jpg" width="200" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">Oxytocin Tattoo</td></tr>
</tbody></table>
</div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
इस पर पोस्ट लिखने की बात हुई तो याद आया - चित्र देखकर कहानी लेखन जैसा कुछ होता तो था हिन्दी-व्याकरण की किताबों में। हर व्याकरण की किताब में एक तस्वीर जरूर दी ही होती थी। सारस और लोमड़ी. तस्वीर देखते ही कहानी समझ आ जाती कि दोनों ने एक दूसरे को कहा होगा - "कभी खाने पर आओ हमारे घर"... आगे की कहानी तो आप समझ ही गए होंगे। हमारी शिक्षा व्यवस्था ही ऐसी है ! दस बटा दस पाने वाले विद्यार्थी को भी तस्वीर दे दीजिये कहानी लिखने को तो वो उसमें भेड़िया, लोमड़ी, सारस ही तो ढूंढेगा? हमने भी बहुत गौर से देखा लेकिन इसमें ऐसा कुछ दिखा <span style="font-size: 12.8px;">नहीं</span><span style="font-size: 12.8px;">। मोबाइल उल्टा करके देखना पड़ा तब थोड़ा बहुत समझ आया कि ये चित्र है क्या ! </span><br />
<span style="font-size: 12.8px;"><br /></span></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
...बैकग्राउंड पर से ध्यान हटा गौर से देखा तो ये संरचना कुछ तो देखी-देखी सी लगी. ख्याल आया कि <a href="https://en.wikipedia.org/wiki/Oxytocin" target="_blank">ओक्सिटोसिन </a>तो नहीं ? गूगल किया तो ख्याल 'अटेस्ट' हो गया। ओक्सिटोसिन माने प्यार-मोहब्बत का रसायन- लव हार्मोन। अब <span style="font-size: 12.8px;">अनुमान तो यही लगाया जा सकता है कि ये टैटू, ये मुद्रा... '<i>ये रातें, ये मौसम, नदी का किनारा, ये चंचल हवा'</i> टाइप्स प्यार</span><span style="font-size: 12.8px;"> से ही जुड़ा होगा. </span><span style="font-size: 12.8px;">किसी ने कह दिया होगा - यही है असली केमिकल लोचा तो गोदवा ली होंगी अपनी काया पर !</span><span style="font-size: 12.8px;"> (टैटू से टैटूवाना क्रिया बने न बने हिन्दी में गोदवाना/गुदवाना ही कहते हैं) या फिर हो सकता है बुद्ध के चार सत्य </span><span style="font-size: 12.8px;">की तरह अनुभूति हो गयी हो मोहतरमा को - </span><br />
<span style="font-size: 12.8px;">इस दुनिया में प्यार ही प्यार है। </span><span style="font-size: 12.8px;">प्यार का कारण ओक्सिटोसिन है। </span><span style="font-size: 12.8px;">प्यार को पाया जा सकता है। और फिर </span><span style="font-size: 12.8px;">प्यार प्राप्ति के अष्टांग मार्ग में एक टैटू गोदवा लेना होता होगा या अभय मुद्रा, धर्मचक्र मुद्रा इत्यादि की तरह प्यार प्राप्ति के बाद की <i>टैटू-मुद्रा</i> होगी ये.</span></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
<br /></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
अब हम और सोच भी क्या सकते हैं? हमसे कोई पूछे तो। ...टैटू बनवाने में दर्द भी, पैसा भी और ऊपर से परमानेंट... वो भी एक केमिकल का फॉर्मूला ! हम एक और सवाल पूछ बैठेंगे - मतलब... <i>क्यों? कोई मज़बूरी थी?</i>... मान लीजिये कल को पता चला कि हाइड्रोक्साइड गलत जगह पर लग गया हो, कल को ये भी हो सकता है प्यार पर से भरोसा ही उठ जाये, बेहतर केमिकल का आविष्कार हो जाये तब? <i>दाहिने भुजा टैटू बनाए</i> के बाद <i>अहिरावण की भुजा उखाड़े</i> स्टाइल में कुछ करना पड़ जाएगा. (अगर टैटू भुजा पर हो तो नहीं तो जो भी <i>अप्रोप्रिएट</i> हो)। वैसे भी <i>साइंस</i> का क्या भरोसा ! <i>रिलिजन</i> तो है नहीं... किसी ने कह दिया तो वो शाश्वत सत्य हो गया। विज्ञान की तो खूबसूरती ही इसीमें है कि सवाल उठाओ! आइंस्टीन को भी गलत कर दिए तो कोई फतवा थोड़े जारी करेगा. उलटे और वाह-वाही होगी। <i>कल का सही आज तक गलत नहीं हुआ तो कल गलत नहीं होगा इसकी कोई गारंटी नहीं। गलत नहीं भी होगा तो बेहतर सत्य आते रहेंगे !</i> खैर... इतना सोचने वाले टैटू नहीं बनवाते होंगे।<br />
<br /></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
प्यार<span style="font-size: 12.8px;"> की बात आती है तो मुझे तुलसी बाबा कि ये बात जरूर याद आती है। बड़ी रोमांटिक लाइन है - </span><br />
<span style="font-size: 12.8px;"><br /></span></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा। जानत प्रिया एकु मनु मोरा॥</div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
सो मनु सदा रहत तोहि पाहीं। जानु <i>प्रीति रसु </i>एतनेहि माहीं॥<br />
<br /></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
तुलसी बाबा संत आदमी थे। वैसे हमेशा से संत नहीं थे. <span style="font-size: 12.8px;">मैंने तूफ़ान से लड़ते आशिकों को भी तुलसीदास कहे </span><span style="font-size: 12.8px;">जाते सुना है। </span><span style="font-size: 12.8px;">नदी पार करने</span><span style="font-size: 12.8px;"> वाली उम्र में होते तो शायद कुछ और कहे भी होते... </span><span style="font-size: 12.8px;">लेकिन ये बातें उन्होने आत्मज्ञान और प्रभु दर्शन हो जाने के बाद कही। प्रेम का सार, प्रीति-रस इतने में ही है - विशुद्ध बात। पर टैटू से पता चलता है वो ओक्सिटोसिन नामक प्रेम-रस तक सीमित</span><span style="font-size: 12.8px;"> प्रेम की बात है ! लव-केमिकल यानि <i>प्रीति-रस</i> का नाम पता चला टैटू बनवा लिया - </span><i style="font-size: 12.8px; line-height: 17.92px;">प्रीति रसु </i><span style="font-size: 12.8px; line-height: 17.92px;">एतनेहि माहीं. </span><br />
<br /></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
खैर... हमने भी ट्वीट का जवाब ट्वीट से दे दिया - <i>"तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा। ओक्सिटोसिन कहत टैटू मोरा।" </i>ट्वीटर पर अक्सर 140 अक्षर में ही बात वहीँ की वहीँ निपट जाती है। पर जवाब के बाद भी पोस्ट की बात बाकी रह गयी। और आप तो जानते ही हैं कि <i>उधार-बाकी ओक्सिटोसिन का एंटीडोट है.</i>.. (प्रेम उधार की कैंची है का अनुवाद !)<br />
<br /></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
अब बात निकली तो बता दें कि हम भी <i>टैटू एक्सपर्ट </i>रह चुके हैं। मेरे एक मित्र को टैटू <i>टैटूवाना</i> था - दाहिनी भुजा पर गर्लफ्रेंड का नाम - तमिल में। बिना गर्लफ्रेंड को बताये। तमिल उन्हें खुद आती नहीं थी। समस्या ये थी कि गूगल इनपुट टूल्स पर ज्यादा भरोसा किया नहीं जा सकता। पता चला कुछ और ही गोदवा लिए ! "<i>गोदनाधारी अपने गोदना के लिए खुद ज़िम्मेवार है"</i> टाइप डिस्क्लेमर ना भी हो तो गोदनाहार को तो आप जो देंगे वो तो वही बना देगा। ...रिस्क लेना भारी काम है। जैसे इसी गोदना में... मान लीजिये एक दो हाइड्रोक्साइड गलत जगह पर लग गए और पता चला ओक्सिटोसिन की जगह <a href="https://en.wikipedia.org/wiki/Cortisol" target="_blank">कोर्टिसोल</a> की तरह काम करने लगा ! केमिस्ट से प्यार होगा तो वो तो पकड़ लेगा कि फार्मूला ही गलत है.<br />
<br />
दोस्त-दोस्त के काम आने वाले सिद्धान्त के तहत हमने अपने एक तमिल सीनियर को ईमेल किया। हमारे सीनियर तब हार्वर्ड में थे। बहुत बड़े फिजिस्ट हैं। पर मामला भी गंभीर ही था। गंभीर न भी हो तो <i>अब किसी दोस्त को कल को नोबल प्राइज़ भी मिल जाये तो ऐसा थोड़े न होगा कि पीएनआर कन्फर्म हुआ या नहीं जानने के लिए उसको फोन नहीं करेंगे?</i> (वो बात अलग है कि अब फोन में इन्टरनेट हो गया पर अपने जमाने का डायलॉग मार दिया तो आप दोस्ती के वसूल का मर्म समझ ही गए होंगे)। मेरे सीनियर ने भी इस बात को उम्मीद से कहीं ज्यादा गंभीरता से लेते हुए विस्तृत जवाब भेजा। निष्कर्ष ये था कि वो उत्तर भारतीय नाम <i>तमिल में शुद्ध तरीके से लिखा ही नहीं जा सकता</i>! तमिल भाषा की अपनी सीमाएं हैं। (तभी पता लगा कि त को थ क्यों लिखा रहता है कई तमिल नामो में)। खैर उनके सुझाव के हिसाब से जो सबसे सटीक हो सकता था <span style="font-size: 12.8px;">वो</span><span style="font-size: 12.8px;"> </span><span style="font-size: 12.8px;">हमारे मित्र ने अपने हाथ पर गुदवा लिया ! गलत नाम गुद जाने के अलावा एक रिस्क ये भी था... जो तनु वेड्स मनु में कंगना ने राजा अवस्थी के नाम का टैटू करा ले लिया था! उसमें उन्होंने हल भी बताया था - <i>सरनेम का टैटू है उसी नाम का कोई और ढूंढ लुंगी।</i> उनके इस डर से ये बात भी सीखने को मिली थी कि आधुनिक इश्क़ में चीजें '</span><i style="font-size: 12.8px;">वैरिएबल</i><span style="font-size: 12.8px;">' होनी चाहिए - परमानेंट कभी नहीं। लभ लेटर हो या टैटू... पुनः इस्तेमाल होने वाले होने चाहिए। रिसाइकल होने वाले। ओरगेनिक - ग्रीन टाइप्स। - </span><i style="font-size: 12.8px;">मुदित भए पुनि पुनि पुलकाहीं।</i><br />
<br /></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
खैर... ओक्सिटोसिन को वैज्ञानिक प्रेम-मुहब्बत के लफड़े वाला केमिकल मानते हैं। यही वो केमिकल है जिससे <i>उल्फ़त वाला लोचा </i>होता है। माँ के 'माँ' जैसी होने के पीछे भी लोग-बाग इसका होना ही कारण बता देते हैं। और भी कई चीजें - भरोसा वगैरह। दरअसल भोले लोग बहल जाते हैं। इतना आसान होता तो... <i>दो चार सुई घोंप देते(-लेते) इश्क़ कम पड़ने लगता तो. नहीं?</i> दरअसल बस इतना भर है कि किसी न्यूज चैनल वाले को बता दीजिये तो '<i>गॉड पार्टिकल</i>' की तरह इस पर भी आलंकारिक भाषा में प्रोग्राम कर देंगे -<i> वैज्ञानिकों के ढूंढा लोचा-ए-उल्फ़त का केमिकल</i>। और वो देख बायोलॉजिस्ट-केमिस्ट वैसे ही सर पीट लेंगे जैसे गॉड पार्टिकल पर प्रोग्राम देख फिजिसिस्ट ! <span style="font-size: 12.8px;">इस बात पर कैसी कैसी हेडलाइन बनाएँगे न्यूज बेचने वाले वो आप यहाँ एक ब्रेक लेकर सोच-सोच मुस्कुरा लीजिये। </span><br />
<br /></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
ब्रेक के बाद -<br />
<br /></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
ऐसे ही एड्रेनालीन, डोपामिन जैसे कई केमिकल लोग बताते हैं ख़ुशी वगैरह के लिए। पर खुशी, प्रेम... जैसी जटिल चीजों को एक केमिकल में सिमटा देना वैसे ही हो जाएगा जैसे भोले लोग खुशी का फॉर्मूला दे देते हैं - माइनस और माइनस मिला के प्लस बन जाता है। बिल्कुल सही बात है ! पर यहाँ <i>कर्ल-डाइवरजेंस-इंटेग्रेशन-स्टो<wbr></wbr>कास्टिक-अगैरह-वगैरह</i> भी लगा दीजिये तो संभव है कभी खुश हो जाने का फॉर्मूला लिख पाना?<br />
<br /></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
<div style="color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
पर जिसने टैटू कराया उससे कह दीजिये कि ये प्यार का फॉर्मूला नहीं है तो बिगड़ ही जाएगा ! भोले लोग हैं... साइंस, फिलोसोफी, गायक, भगवान, शंख, चक्र, गदा, क्रॉस, चिड़िया, फूल, पत्ती, जो पसंद आये छपवा लेते हैं. किसी ने भेजा था मुझे एक मैथ वाला टैटू... </div>
<div style="color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
<br /></div>
<table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="color: #222222; float: right; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px; margin-left: 1em; text-align: right;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi7LOcKiMUb623IslquJPpZag9w51kMGpzwDODY0I_hcHnVukyki6rQEBPDEFSWuIhfTklbCzDddXRrXh2sAebYF-RcBK__YSTnaibJ4JzHmckxDtzn3qm5NdlBJhouX00JLdDH0Z0WJTPu/s1600/Math-Tattoo.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi7LOcKiMUb623IslquJPpZag9w51kMGpzwDODY0I_hcHnVukyki6rQEBPDEFSWuIhfTklbCzDddXRrXh2sAebYF-RcBK__YSTnaibJ4JzHmckxDtzn3qm5NdlBJhouX00JLdDH0Z0WJTPu/s200/Math-Tattoo.jpg" width="149" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">Math Tattoo </td></tr>
</tbody></table>
<span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"><span style="font-size: 12.8px;">मैंने कहा - खूबसूरत है ! पर ध्यान भटक जा रहा है। गणित </span></span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif; font-size: 12.8px;">ऐसे</span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif; font-size: 12.8px;"> तो </span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif; font-size: 12.8px;">नहीं पढ़ा जा सकता। और जगह भी कम पड़ गयी है। जगह कम होता देख <a href="https://en.wikipedia.org/wiki/Fermat%27s_Last_Theorem" target="_blank">फ़र्मैट का <i>मार्जिन</i> </a>याद आ गया। एक महान गणितज्ञ हुए फ़र्मैट, वो लिखते लिखते लिख गए थे एक धांसू प्रमेय। और उसके बाद लिख गए - "मेरे पास इस प्रमेय का <i>प्रूफ</i> भी है पर उसे लिखने के लिए ये <i>मार्जिन </i>बहुत कम है"। जो प्रमेय लिख के गए वो गणित का सबसे कठिन सवाल बन गया. सदियों बाद हल भी हुआ तो ७०० पन्नों का हल छपा. गणित के लिए <i>मार्जिन</i> होना बहुत जरूरी है. बड़ी महिमा गायी है गणित के विद्वानो ने. फ़र्मैट साहब के पास थोड़ा और मार्जिन होता तो गणित का इतिहास शायद आज कुछ और होता ! और इस टैटू में... कालिदास के शब्दों में जिसे <a href="http://www.kavitakosh.org/kk/%E0%A4%9B%E0%A4%B0%E0%A4%B9%E0%A4%B0%E0%A5%80_%E0%A4%A6%E0%A5%87%E0%A4%B9_%E0%A4%95%E0%A5%80_%E0%A4%89%E0%A4%A0%E0%A4%A4%E0%A5%87_%E0%A4%B9%E0%A5%81%E0%A4%8F_%E0%A4%AF%E0%A5%8C%E0%A4%B5%E0%A4%A8%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A5%80_/_%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%B8" target="_blank">"</a></span><span style="color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif;"><span style="font-size: 12.8px;"><i><a href="http://www.kavitakosh.org/kk/%E0%A4%9B%E0%A4%B0%E0%A4%B9%E0%A4%B0%E0%A5%80_%E0%A4%A6%E0%A5%87%E0%A4%B9_%E0%A4%95%E0%A5%80_%E0%A4%89%E0%A4%A0%E0%A4%A4%E0%A5%87_%E0%A4%B9%E0%A5%81%E0%A4%8F_%E0%A4%AF%E0%A5%8C%E0%A4%B5%E0%A4%A8%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A5%80_/_%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%B8" target="_blank">मध्ये क्षामा"</a></i> कहेंगे वहां तो... ना हो पायेगा. </span></span><br />
<div style="color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
<span style="font-size: 12.8px;"><br /></span></div>
<div style="color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
<span style="font-size: 12.8px;"><br /></span></div>
<div style="color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
<span style="font-size: 12.8px;"><br /></span></div>
<div style="color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
<span style="font-size: 12.8px;"><br /></span></div>
<div style="color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
<span style="font-size: 12.8px;"><br /></span></div>
<div style="color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
<span style="font-size: 12.8px;"><br /></span></div>
<div style="color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
<span style="font-size: 12.8px;"><br /></span></div>
<div style="color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
<span style="font-size: 12.8px;">लीजिये लिखते लिखते एक किताब में मिले मॉडलस-ऑन-मॉडलस वाला <a href="https://twitter.com/aojha/status/323098006721273856" target="_blank">आलंकारिक गोदना</a> भी याद आ गया - </span><span style="font-size: 12.8px;"><i>मॉडल मॉडल ते सौ गुनी मादकता अधिकाय</i>- </span><br />
<span style="font-size: 12.8px;"><br /></span></div>
<table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhV925eO-ewAsqukVlBZkdjtqIqhwENTLRU1Lbk_f0lAMajaIrxAA-TnlJEsJmxn8uxRDshKJFe0NMmVpPd40L2yvxVL_8qAQ49mAHhB72kr3V3FMsoPpLZ0lraFCX45fcfZJd9GvD2Za6N/s1600/Models+on+Models.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="161" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhV925eO-ewAsqukVlBZkdjtqIqhwENTLRU1Lbk_f0lAMajaIrxAA-TnlJEsJmxn8uxRDshKJFe0NMmVpPd40L2yvxVL_8qAQ49mAHhB72kr3V3FMsoPpLZ0lraFCX45fcfZJd9GvD2Za6N/s200/Models+on+Models.jpg" width="200" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">Models on Models </td></tr>
</tbody></table>
<div style="color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
<span style="font-size: 12.8px;">कुछ लोग संस्कृत के मंत्र ही गुदवा लेते हैं। श्लोक के उच्चारण का महत्त्व तो पढ़ा है। गुदवाने का भी कुछ तो फायदा होता ही होगा। नहीं तो कम से कम संस्कृत तो पढ़ ही लेते होंगे थोड़ा बहुत। </span><span style="font-size: 12.8px;">जैसे केटी पेरी का टैटू देखा तो लगा ये सबसे अच्छा तरीका हो सकता है <i>लोट लकार, प्रथम पुरुष</i> का उदाहरण पढ़ाने के लिए। खट से याद हो जाएगा ! </span></div>
<div style="color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
<span style="font-size: 12.8px;"></span></div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgwDMUikH8W2O2K9C1YoGvn8OgFAkP2ezcjzWq-5VY0PN5kP_JIxkBX7FxlvWqpx6M0Dn0mCVVZG9mJ590sUAMngBNZQ3SZKiw-aYLKCRj8Q0DO_sYnqcbtixHwqTIAdMo7Po0_6xoboemE/s1600/katy+perry+tattoo.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="111" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgwDMUikH8W2O2K9C1YoGvn8OgFAkP2ezcjzWq-5VY0PN5kP_JIxkBX7FxlvWqpx6M0Dn0mCVVZG9mJ590sUAMngBNZQ3SZKiw-aYLKCRj8Q0DO_sYnqcbtixHwqTIAdMo7Po0_6xoboemE/s200/katy+perry+tattoo.jpg" width="200" /></a></div>
</div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
और कुछ लोग - अजंता एलोरा के भित्ति चित्र की तरह पूरा शरीर ही चलता फिरता कला का संग्रहालय बनवा लेते हैं! <span style="font-size: 12.8px;">खैर हमसे किसी ने एक बार पूछा था धार्मिक कुछ बताओ टैटू करवाने को तो हमने कहा था <a href="https://en.wikipedia.org/wiki/Kirtimukha" target="_blank">कीर्तिमुख </a>बनवा लो ! </span><br />
<span style="font-size: 12.8px;"><br /></span>
<span style="font-size: 12.8px;">...टैटू का अच्छा मार्केट है. एक टैटू सलाहकार की दुकान खोली जा सकती है. बढ़िया चलेगा।</span><br />
<span style="font-size: 12.8px;"><br /></span></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
अभी ही देखिये बात निकली तो तमिल भाषा की सीमा से लेकर, प्रेम, ओक्सिटोसिन, किर्ति मुख, फ़र्मैट... कितना कुछ है जी जो अभी चर्चा में आ गया। प्रेम और टैटू का तो खैर गहरा संबंध है। </div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
वैसे... गोदना की डिजाइन के साथ साथ अंग चयन की भी बड़ी महिमा बताई है टैटू-विद्वानो ने :)</div>
<br />
<span style="background-color: white; color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif; font-size: 12.8px;">(टैटू पर बहुत अच्छा पढ़ना हो तो </span><a href="http://shiv-gyan.blogspot.com/2011/05/blog-post_09.html" style="background-color: white; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;" target="_blank">यहाँ </a><span style="background-color: white; color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif; font-size: 12.8px;">पढ़िये)</span><br />
<span style="background-color: white; color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif; font-size: 12.8px;"><br /></span>
<span style="background-color: white; color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif; font-size: 12.8px;">--</span><br />
<span style="background-color: white; color: #222222; font-family: "arial" , sans-serif; font-size: 12.8px;">~Abhishek Ojha~ </span><br />
<br /></div>
<div class="blogger-post-footer"><a href="http://www.aojha.in">Abhishek Ojha</a></div>Abhishek Ojhahttp://www.blogger.com/profile/12513762898738044716noreply@blogger.com12tag:blogger.com,1999:blog-8813075190326884926.post-8189548176053386512015-10-16T00:50:00.001-04:002015-10-28T13:48:29.825-04:00अहिम्सा (यूनान २)<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
<br /></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
नयी जगहों पर जाते हुए मन में कहीं न कहीं चलता रहता है कि <i>वहाँ खाने को पता नहीं क्या मिलेगा </i>! वैसे समय के साथ ये समस्या लगभग खत्म हो गयी है। मेरे एक दोस्त कहते हैं - 'ये ऐसा <i>वेजिटेरियन</i> है कि कुछ भी खा सकता है'। उनके कहने का मतलब मांस-मछली-अंडा के अलावा मैं कुछ भी <i>लगभग निर्विकार</i> भाव से खा लेता हूँ। जैसे सुना है कि सुट्टेबाज अजनबियों में अक्सर माचिस-सुट्टे को लेकर बातचीज शुरू हो जाती है... (होती होगी !) वैसे ही मेरा शाक-पात-भक्षी होना एक मुलाक़ात का कारण बना था, ग्रीस में, आइरिन से - </div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
<br /></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
वैसे ये सुखद था कि ग्रीस में मुझे खाने-पीने की कोई दिक्कत नहीं हुई। शायद ये भी कारण रहा हो कि मैं जिन जगहों पर गया वो सारे विश्वप्रसिद्ध पर्यटक स्थल हैं । या एक कारण ये भी हो कि खाने में आधा किलो टमाटर, चीज के साथ सामने रख दिया जाना भी मुझे अच्छा ही लगा। टमाटर-चीज-शिमला मिर्च-बैंगन-दही-फल-ब्रेड-चावल-<wbr></wbr>पास्ता... अब देखिये लिखना शुरू किया था तो लगा बस टमाटर और चीज ही तो खाने को मिलता था। पर लिस्ट लंबी होती गयी। कहने का मतलब ये कि दही-टमाटर-चीज की प्रमुखता रही पर दिक्कत वाली कोई बात नहीं थी। <i>सैलेड</i> के अलावा <i>जेमिस्टा, केफेटेडेस,</i> लंदर, फंदर जो भी नाम रहे हों व्यंजनों के एकाध बार छोड़ दें तो जीभ को भी कुछ खास शिकायत नहीं रही। मुझे लगता है कहीं न कहीं खान पान पर यूरोप के अलावा ओट्टोमान साम्राज्य और मध्य पूर्व की मिश्रित सभ्यताओं का असर इस ना-शिकायती का कारण रहा होगा। कहने का मतलब ये कि जीभ के गुलाम लोगों के लिए भी ग्रीस अच्छी जगह है। </div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
<br /></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
खैर… खाने के चक्कर में आइरिन की बात अधूरी ना रह जाए. आइरीन से मुलाक़ात हुई थी एक खूबसूरत रेस्तरां में। मेरे अपने शाकभक्षी होने की बात वेटर को समझा चुकने के तुरत बाद पीछे से आवाज आई - '<i>हाउ लॉन्ग हैव यू बीन अ वेजिटेरियन</i>?' मैंने मुड़कर देखा तो आइरिन मुस्कुराती नजर आई। </div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
<br /></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
मैंने कहा - '<i>हाय ! आई वाज रेजड ऐज़ ए वेजिटेरियन सो... बेसिकली माई एंटायर लाइफ</i>' </div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
<i>'वॉव ! यू नेवर ईवन ट्राइड? आई वाज अ वेजेटेरियन फॉर फ़्यू यीयर्स। बट देन... इट्स टफ।' </i></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
<i><br /></i></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
मैंने जवाब में मुस्कुरा दिया। शायद कोई बहुत छोटा उत्तर नहीं था मेरे पास जो एक अजनबी को दिया जा सके। पर जब आइरिन ने खुद ही अगले सवाल के रूप में जवाब देते हुए कहा -<i> 'बिकॉज़ ऑफ अहिम्सा ?'</i> तो बात आगे निकल गयी। इससे पहले मुझे याद नहीं कभी मैंने एक शब्द का उत्तर दिया हो अपने शाकाहारी होने के सवाल का। <i>'अहिम्सा'</i> सुनकर बहुत सुखद अहसास हुआ.</div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
<br /></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
बात आगे बढ़ी तो आइरिन ने बताया कि '<i>योगा ऐंड इन्दु फिलॉसोफी'</i> में उसे रुचि है। कुछ क्लासेज भी की है उसने। <i>दे इवन सर्व अ योगिक वेजिटेरिअन मील ओन वीकेण्ड्स.</i></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
<i><br /></i></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
<i>'ऐंड वॉट अबाउट आयुर्वेड़ा?'</i> उसने पूछा।</div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
<br /></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
मैंने आइरिन को बताया कि मुझे आयुर्वेद की कोई ख़ास जानकारी नहीं। उसने पूछा '<i>व्हाइ? आई लव आयुर्वेड़ा ! यू हैव बीन टू केराला? व्हेयर आर यू फ़्रोम इन इंडिया?</i>' बात अहिंसा से <i>आयुर्वेड़ा</i> पर आई तो मुझे समझ में आ गया कि इस लड़की को पर्यटक स्थलों पर भारतीय देखकर '<i>नामास्ते</i>' और बिना रुके-थमे एक सांस में '<i>केसहेंयाप</i>' कहने वालों से कहीं ज्यादा पता है। (एथेंस में एक गाइड ने हाथ जोड़ '<i>केसहेंयाप</i>' कहा तो मुझे थोड़ी देर तक समझ नहीं आया कि वो क्या कह रहा है। फिर उसने पूछा <i>यू नो हिन्दी</i>? तब समझ में आया कि वो 'कैसे हैं आप' कह रहा था।)</div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
<br /></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
मैंने आइरिन को अपने तरीके से समझाया कि मुझे आयुर्वेद की जानकारी इसलिए भी नहीं क्योंकि मुझे उसकी कभी जरूरत नहीं पड़ी। वैसे तो मैं बहुत उत्सुक इंसान हूँ पर दुनिया में कई चीजें ऐसी हैं जिनका <span style="font-size: 12.8px;">मैं</span><span style="font-size: 12.8px;"> </span><span style="font-size: 12.8px;">अनुभव करना नहीं चाहता। चिकित्सा भी वैसी ही एक चीज है - वो चाहे आयुर्वेद हो या कुछ और। जैसे मान लो मेरे पास कुछ दवाइयाँ पड़ी हैं। मेरे हिसाब से उनका सबसे अच्छा उपयोग होगा कि वो पड़ी-पड़ी खराब हो जाएँ ! सबसे अच्छा उपयोग कि वो उपयोग में आए ही न । अब जैसे मेरे <i>मेडिकल इन्स्युरेंस</i> का सबसे अच्छा पैसा वसूल यही तो होगा कि वो बिन इस्तेमाल हुए मेरी जगह बीमा कंपनी का ही फायदा करा दे? मैं नहीं चाहता कि वो <i>बेकार जा रहे </i>पैसे वसूल करने की कभी नौबत आए। </span></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
<span style="font-size: 12.8px;"><br /></span></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
आइरिन को मेरी बात अच्छी लगी। उसने पूछा '<i>बट व्हाट अबाउट योगा ऐंड आयुर्वेड़ा ऐज़ वे ऑफ लिविंग?'</i></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
<i><br /></i></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
मैंने आइरिन को समझाया कि बहुत तो नहीं पर हां जिस तरह मैं पला बढ़ा कुछ <i style="background-color: transparent; font-size: 12.8px;">वे ऑफ लिविंग </i><span style="background-color: transparent; font-size: 12.8px;">की बातें </span><i style="background-color: transparent; font-size: 12.8px;"> </i><span style="font-size: 12.8px;">'</span><i style="font-size: 12.8px;">बाई डिफ़ाल्ट</i><span style="font-size: 12.8px;">' ही पता होती जाती हैं - </span><i style="font-size: 12.8px;">अनकोंसियसली... नॉट एक्सपर्ट बट यू नो वॉट आई मीन। </i><span style="font-size: 12.8px;">मैंने सोचा कि अब घर की बात क्या बताई जाये उसे</span><span style="font-size: 12.8px;"> पर सच्चाई तो ये है कि </span><i style="font-size: 12.8px;">हमारे देश में हर दूसरा इंसान ही वैद्य होता है। </i></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
<i><br /></i></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
थोड़ी इधर उधर की बात हुई तो आइरिन ने पूछा - '<i>यू डोंट ड्रिंक ऐज़ वेल? यू डोंट नो माई फ्रेंड वॉट यू आर मिसिंग</i>'।<br />
<div style="text-align: right;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhbTAbRYuHA5X77jF9inJiiYojWQQSV_dFiyu_BbBPaiBp4CS8ic8JmWNng1_9a1_vKp0-LyjmgSOFTN1Zp1qX8EUWutZlHQQmNBiya9i1Ctqlc-9L6vugkU44JO0sTdTZhBgtJ3Y1PapJp/s1600/IMG_4199.JPG" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="213" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhbTAbRYuHA5X77jF9inJiiYojWQQSV_dFiyu_BbBPaiBp4CS8ic8JmWNng1_9a1_vKp0-LyjmgSOFTN1Zp1qX8EUWutZlHQQmNBiya9i1Ctqlc-9L6vugkU44JO0sTdTZhBgtJ3Y1PapJp/s320/IMG_4199.JPG" width="320" /></a></div>
</div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
<br /></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
फिर आइरिन ने मुस्कुराते हुए मुझे एक टंगा हुआ बोर्ड दिखाया जिस पर लिखा था “<i>A man who drinks only water has a secret to hide. - Charles Baudelaire" </i></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
<i><br /></i></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
मैंने कहा - <i>आई डोंट नो, इफ आई कैन कीप माई सिकरेट्स आफ्टर अ ड्रिंक ऑर नॉट... बट ऐज़ यू सेड़ आई डोंट नो वॉट आई एम मिसिंग ! </i>और जब मुझे पता ही नहीं कि मैं क्या मिस कर रहा हूँ क्या नही तो फिर उस चीज की कमी कैसे हो महसूस हो सकती है? कभी किया होता तब तो अच्छा, बुरा या फिर मैं क्या मिस कर रहा हूँ ये पता चलता ? मैंने आइरिन को समझाया कि '<i>आई डोंट नो वॉट आई एम मिसिंग' </i>भी एक उत्तर है कि मुझे क्यों कभी <i>ट्राई </i>करने की जरूरत नहीं पड़ी।<i> गुड टिल आई डोंट नो. </i></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
<i><br /></i></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
<i>"बट देन हाउ विल यू एवर नो हाऊ ईट फील्स लाइक? दिस वे यू कैन नेवर फील फ़्यू थिंग्स। "</i></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
<i><br /></i></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
<i>मेबी आई डोंट नीड़ टू ! आई नेवर फेल्ट दैट आई शुड। </i>शायद मुझे कभी <i>इनकंप्लीट</i> लगा नहीं क्योंकि '<i>आई डोंट नो वॉट आई एम मिसिंग'। </i>मैंने आगे कहा कि कैसे ये आइरिन के लिए समझना कठिन हो सकता है. जिसकी कभी आँखें रही ही नहीं वो कैसे सोच सकता है कि जो देख पाते हैं वो क्या देखते होंगे? अच्छा, बुरा या मिस करने का सवाल ही नहीं उठता। बात वैसी ही है कुछ. <span style="font-size: 12.8px;">मैंने उसे समझाया कि जब मैं अपने उन दोस्तों के साथ जाता हूँ जो - प्याज, लहसुन, दूध तक नहीं खाते ! मुझे तुरत लगता है कि ये खाते क्या हैं फिर? इन्हें तो पता ही नहीं स्वाद क्या होता है? ये जिंदा कैसे रहते हैं? मैं भी वैसा ही हूँ तुम्हारे लिए. </span><span style="font-size: 12.8px;">पर कहीं न कहीं जो नहीं जानते कि वो क्या मिस कर रहे हैं उनके लिए आसान है वैसे ही बने रहना। पर एक बार कुछ जीवन का हिस्सा बन जाये फिर उसे छोडते हुए आपको पता होता है कि क्या जा रहा है जिंदगी से क्या नहीं। <i>बीलीव मी, इट्स गुड समटाइम्स नॉट टू नो वॉट वी आर मिसिंग ऑर नॉट मिसिंग। </i></span></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
<span style="font-size: 12.8px;"><i><br /></i></span></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
ऐसा लगा जैसे आइरिन को फिर मेरी बात पसंद आई। </div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
<br /></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
उसने बताया कि वो कुछ साल तक <i>वेजिटेरियन </i>रह चुकी है। इंडिया से लौटने के बाद। - <i>आई हैव बीन टू इंडिया - केराला, रिचिकेश, वारानासी ऐंड माडुराई।</i></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
<i><br /></i></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
मुझे बहुत खुशी हुई। अब पता चला कि उसे इतना कैसे पता है. आइरिन ने आगे बताया... वो पहली बार भारत गयी आयुर्वेद के लिए। दुबारा <i>ब्रेकअप</i> होने के बाद '<i>योगा कैपिटल रिचिकेश</i>'। जब उसके सारे दोस्तों की शादी होने लगी और वो अकेली, टूटी, अवसाद में डूबी, सब कुछ खो जाने के बाद. उन दिनों उसे किसी ने उसे ऋषिकेश जाने की सलाह दी। तब वो बत्तीस साल की थी.</div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
<br /></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
<i>"इट वाज सो डेंजरस बट आई टूक अ डीप इन गैन्गीज।" </i>उसके बाद उसी यात्रा पर वो अपने होने वाले पति से मिली मदुरै में ! किसी फिल्मी कहानी की तरह मैं आइरिन की बातें मंत्रमुग्ध सुनता रहा। <i>ही इज फ्रॉम रोमानिया। लाइफ हैज बीन काइंड आफ्टर दैट. </i>आइरीन ने मुझे अपनी बेटी की फोटो भी दिखाई - <i>ईट वाज हर सेकंड बर्थडे लास्ट मंथ. </i></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
</div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
उसके पति नौकरी ढूंढ रहे हैं। <i>क्राइसिस </i>में आसान नहीं है, ऊपर से <i style="background-color: transparent; font-size: 12.8px;">कैपिटल कंट्रोल</i><span style="font-size: 12.8px;">। ..<i>. बट आई हैव सीन सो मच दैट... आई डोंट वांट टू डू एनिथिंग स्टुपिड अगेन। </i></span></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
<br /></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
मैंने सतही सा घिसा पीटा दिलासा दिया - डोंट वरी... सब ठीक हो जाएगा.</div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
<br /></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
'विल यू गो अगेन टु इंडिया?' मैंने पूछा</div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
</div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
'<i>आई डोंट नो ! लाइफ हैज़ बीन सो अनप्रेडिकटेबल सो फार। आई वांट टू... मेबी वंस माई डाटर ग्रोज अप' </i></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
<br /></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
आइरिन ने मुझसे पूछा - '<i>यू? </i><i>विल यू कम अगेन टू ग्रीस?' हाउ डू यू लइक इट?'</i></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
<i><br /></i></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
<i>'वंडरफुल सो फार. अबाउट कमिंग अगेन... आई डोंट नो. प्रॉबब्ली नॉट बट देन… हु नोस ! फ्यू इयर्स बैक आई वुड हैव नेवर इमेजिनड आई विल एवर कम टु ग्रीस!' </i></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
<br /></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
<i>"यू लूक वेरी काम ऐंड फिल्ड। लेट मी गेस समथींग, यू हैव नेवर बीन इन लव? ऐंड यू हैव नेवर बीन विथ समवन रियली स्टुपिड?" </i></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
<i><br /></i></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
<i>"वॉट मेक्स यू थिंक दैट?"</i></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
<br /></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
<i>'लव बिकौज…अटैचमेन्ट्स माई फ्रेंड ! दे रूईन एव्रिथिंग -अ मेजर पार्ट ऑफ़ यू. ऐंड… यू हैव नो आइडिया अबाउट फूलिश ऐंड ओब्स्टिनेट पीपल माई फ्रेंड !'</i></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
<i><br /></i></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
मैंने बस मुस्कुरा दिया... एक शब्द का उत्तर सुझा नहीं और फिर बात लम्बी हो जाती ! </div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
<br /></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
...</div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
दुनिया के हर कोने में लोगों की <span style="font-size: 12.8px;">कहानी एक जैसी ही होती है। बस कहने और सुनने वाले होने चाहिए। …खोना, पाना, गलतियाँ, संघर्ष, प्यार, सुख, दुःख, जीना सीखना... आइरिन की कई बातें ऐसी लगी जैसे पहले भी कई लोगों के मुंह से सुनी हो। वैसे लोगों के दुःख की बातें भी होती हैं जिन्हें देखकर हमें लगता है - 'इन्हें भला क्या दुख होगा !' प्यार मुहब्बत किसी को इतना कैसे तोड़ सकता है. लगता है जिन्हें कोई दुःख नहीं अचानक वही सबसे अधिक दुखी दिख जाते हैं ! अधुरे... </span></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
<span style="font-size: 12.8px;"><br /></span></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
<span style="font-size: 12.8px;">आइरिन से मिलकर मुझे बहुत अच्छा लगा।</span><span style="font-size: 12.8px;"> बहादुर ! किसी ने कह दिया तो भारत तक चली जाने वाली -गंगा में डुबकी लगा आने वाली. रोमानियन को मदुरै में पा लेने वाली. </span><span style="font-size: 12.8px;">कई बार </span><span style="font-size: 12.8px;">मैं लोगों के दुःख सुन अक्सर अपने अंदर खुद से </span><span style="font-size: 12.8px;">कह देता हूँ - जिसके पास होता है वही रोता है - </span><span style="font-size: 12.8px;">'हसीन</span><span style="font-size: 12.8px;"> दुःख' </span><span style="font-size: 12.8px;">- पर आइरीन से मिल लगा वो मेरी नासमझी है ! </span></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
<span style="font-size: 12.8px;"><br /></span></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
<span style="font-size: 12.8px;">खैर… मुस्कुरा के बात ख़त्म करते हैं नहीं तो बात फिर लम्बी हो जायेगी :)</span></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
<span style="font-size: 12.8px;"><br /></span></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
मेरे पास आइरिन का कोई संपर्क नहीं, न उसके पास मेरा। अच्छी मुलाकातों को '<i>इट वाज अ प्लेजर मीटिंग यू' </i>पर ही खत्म हो जानी चाहिए। - <i style="background-color: transparent; font-size: 12.8px;">…अटैचमेन्ट्स माई फ्रेंड ! </i></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
<br /></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
<br /></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
-- </div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
~Abhishek Ojha~ </div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
<br /></div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
किसी अपने ने कहा - इतनी जगहें गए... ग्रीस ही क्यों? उसी यात्रा पर और भी जगहें थी?</div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
पता नहीं ! वैसे ही जैसे पुणे, बैंगलोर, मुंबई, दिल्ली… ये सब भी तो गया. कई बार… और पटना? एक बार ! :)</div>
<div style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif; font-size: 12.8px;">
<br /></div>
</div>
<div class="blogger-post-footer"><a href="http://www.aojha.in">Abhishek Ojha</a></div>Abhishek Ojhahttp://www.blogger.com/profile/12513762898738044716noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-8813075190326884926.post-43523141873483421202015-09-17T21:37:00.001-04:002015-09-18T15:34:30.871-04:00चाइनीज शॉट (यूनान -१)<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
'<i>डोंत वरी, यू कैंत क्लिक अ बैद शॉत हियर। ऑल सीनिक ग्रीक पोस्तकार्द्स कम फ्रॉम दिस प्लेस</i>' - मैंनफ्रेड ने मुसकुराते हुए कहा. मैनफ्रेड से मेरी मुलाक़ात वहीँ थोड़ी देर पहले हुई थी। पर्यटकों, सेल्फ़ी-स्टिक्स और सैकड़ों ट्राईपॉड़ों से खचाखच भरी जगह पर. जहाँ अनजान लोग एक दूसरे को देखते हुए अक्सर मुस्कुरा देते हैं ताकि <i>ऑक्वर्ड</i> न लगे.<br />
<br />
<i>सनसेट पॉइंट </i>- भीड़ सूर्यास्त का इंतज़ार कर रही थी. लोग कहते हैं सूर्यास्त देखने के लिए दुनिया के सबसे अच्छे जगहों में से वो एक है. आबादी 14-15 हजार पर वहाँ हर साल कई लाख पर्यटक आते हैं। दिन अभी काफी बचा था पर भीड़ अभी से ही अच्छी हो चली थी. दुनिया के अलग-अलग हिस्सों से आये लोग. सबकी अपनी भाषा और <i>अपनी-अपनी अंग्रेजी</i>।<br />
<br />
वहां आते हुए रास्ते में मुझसे एक चीनी लड़की ने बड़ी हड़बड़ी में पुछा - '<i>वेयर इज सनसेट</i>? आर यू गोइंग फॉर सनसेट?' सनसेट को तो पश्चिम में ही होना चाहिए। कायदे से मुझे कहना चाहिए था - '<i>कीप लुकिंग ऐट वेस्ट</i>' पर मैंने बताया - 'कीप वाकिंग स्ट्रेट एंड इन अबाउट एट टू टेन मिनट्स यू विल<i> रीच सनसेट</i>'.<br />
<br />
खैर… सनसेट पॉइंट पर मैनफ्रेड की वेशभूषा देख मुझे ह्वेनसांग की याद आई. बचपन में इतिहास की किताब में बनी उनकी फोटो। पीठ पर बैगपैक और सर पर तवा लिए.<br />
<br />
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhtVso3K_IAkw4t6z-_wuyGiqP6x2GUX-nNhGE6WLE26t-blJzwNTSqFVE28Tp8cHPyCtLkfYn7quSFrnuqwt3tVWoH3a0hbgaejM8gJg6ei11WPA_BcLU15zS4yiV-Y0w0A_9FoiVgR7W8/s1600/Hwen+Thsang.gif" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhtVso3K_IAkw4t6z-_wuyGiqP6x2GUX-nNhGE6WLE26t-blJzwNTSqFVE28Tp8cHPyCtLkfYn7quSFrnuqwt3tVWoH3a0hbgaejM8gJg6ei11WPA_BcLU15zS4yiV-Y0w0A_9FoiVgR7W8/s320/Hwen+Thsang.gif" width="166" /></a>
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhLHnvLGqx5d0iAn_C1yBhkBahI6Dg66aGpnBKLE3K7MmX2S_JSeRw0_bKb1p83h5u6HLBqoQ3aVi4dctLbDJBZFtwW7rTbn_waSY6vn1nc2JtnrehpaShFTe2Oq9qKW3zg5lPI99HFTrli/s1600/Traveller.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhLHnvLGqx5d0iAn_C1yBhkBahI6Dg66aGpnBKLE3K7MmX2S_JSeRw0_bKb1p83h5u6HLBqoQ3aVi4dctLbDJBZFtwW7rTbn_waSY6vn1nc2JtnrehpaShFTe2Oq9qKW3zg5lPI99HFTrli/s320/Traveller.jpg" width="255" /></a>
<br />
<br />
स्कूल के दिनों में कभी समझ नहीं आया कि ह्वेनसांग के सिर पर वो तवा दरअसल छतरी थी. <br />
<br />
<a href="https://clicksofyayavar.wordpress.com/2013/11/18/serene-beauty-acadia-national-park/" target="_blank">ऐसी जगहों </a>पर मैं भी ट्राईपॉड और लेंस फिल्टर लेकर जाता हूँ. पर यहाँ न तो ट्राइपॉड था न फिल्टर। मैं सोच रहा था कि <i>सनसेट</i> की तो क्या ही अच्छी फोटो आएगी ! खैर दुनिया का कोई भी कोना हो बोली के इतर भी एक भाषा होती है जो सभी समझते हैं. उसी भाषा से ये बात समझ आधुनिक ह्वेनसांग, मैनफ्रेड ने मुझसे कहा - <i>'डोंत वरी, यू कैंत क्लिक अ बैद शॉत हियर।' </i><br />
<br />
इस के बाद मैनफ्रेड से थोड़ी बात चीत हुई. मैं शायद ही कभी आगे बढ़ कर खुद किसी से बात करता हूँ पर अगर कोई करने लगे तो अच्छा लगता है. मैनफ़्रेड आराम से यात्रा करने वाले यात्री हैं और अक्सर ग्रीस आते हैं. वो कहीं भी जाते हैं तो कम से कम १५ दिन रुकते हैं. स्थानीय लोगों के बीच रहते हैं उनसे मिलते जुलते हैं. आराम से घूमते हैं. उन्होंने कहा - "<i>आई डोंट वांत तू तेक अनदर वैकेशन तू रिकवर आफ्टर माय वैकेशन। आई कीप इत रिलैक्स्ड।</i>" उन्हें <i>व्यू पॉइंट्स</i> कवर करने और फोटो खींचने की जल्दी नहीं होती। तीसरी बार वो वहाँ आए थे. मैंने उनसे पूछा - "क्या-क्या है यहाँ देखने लायक?" उन्होंने एक भी व्यू पॉइंट और शॉपिंग की जगह या रेस्टोरेंट नहीं बताया। उनके अनुभव अलग थे. बातें अलग थी। गाँवों के नाम बताये उन्होने. वाइनरी बतायी। खेत देख के आओ. लोगों से मिलो। <i>टूरिस्ट्स, रेस्टोरेंट्स, क्रुजेज? -</i><i>दिस इस नो ग्रीस ! </i><br />
<br />
पहला सवाल जो मेरे दिमाग में आया वो ये कि - कोई घूमने क्यों जाता है ?<br />
<br />
मुझे याद आया उसी दिन सुबह होटल में बैठे एक दंपत्ति से मेरी बात हुई थी. उन्होंने मुझसे कहा - 'एक सप्ताह थोड़ा ज्यादा ही है यहाँ के लिए. दो दिन<i>बहुत </i>है.' उन्होंने ही मुझे दिखाया था एक सनसेट की फोटो और कहा था '<i>यू मस्ट सी सनसेट हियर, इट्स मेस्मेराईज़िंग</i> '. उनके फोटो का कैप्शन था - '<i>हेवेन ऑन अर्थ'.</i> मुझे लगा '<i>हेवेन ऑन अर्थ</i>' के लिए दो दिन <i>बहुत</i> कैसे हो सकते है? हेवेन से भी बोर?<br />
<br />
<i>'आर दे रियली लुकिंग ऐट हेवेन?' </i>मैनफ्रेड ने कहा. मैंने सोचा - बात तो सही है. हो गया घूमना-फिरना, खींच ली फोटो, शेयर कर दी. चलो अब घर ! <i>लाइक्स से अभिभूत होने के जमाने में किसे पड़ी है अनुभव की?</i><br />
<br />
वैसे कई लोगों के साथ वैसा भी हो जाता है कि... एक थीं कोई. वो गयी तीर्थ करने। जाने से पहले उनके आचार के मर्तबानों को धूप दिखाना था, जो वो पड़ोसी के यहाँ छोड़ गयी। पर उनके मन में यही हुट-हूटी रही कि... आचार खराब तो नहीं हो जाएँगे? कहते हैं जब वो द्वारका पहुंची तो लोग उन्हें द्वारिकाधीश दिखाते रह गए। पर उन्हें हर तरफ सिर्फ अचार के मर्तबान ही दिखते रहे। वैसे ही अब पर्यटकों को सिर्फ <i>लाइक्स </i>और <i>कमेंट्स</i> दिखते हैं - द्वारिकाधीश दिखें न दिखें। कैप्शन होना चाहिए - <i>फीलिंग स्पिरिचुयल ऐट</i>...<br />
<br />
पिछले दिनों मैं एक कार्यक्रम में भारतीय दूतावास गया था। वहाँ मेरे आगे बैठी लड़की पूरे समय फोन में यही ढूंढती रही कि टैग कैसे हो दूतावास! फिर वो ट्वीटर पर गयी तो उसे दूतावास का हैंडल नहीं मिला। क्या लिखना है वो तो पहले से लिख चुकी थी। कुछ देखने और सुनने की जरूरत थी नहीं। बीच में लोग ताली बजाते तो वो भी बजा देती। शायद कर पाते हों लोग इतनी <i>मल्टी टास्किंग</i> हमसे तो न हो पाता। [हां, ये ऑब्जर्व जरूर कर रहा था :)]<br />
<br />
खैर... मुझे याद आया जब पिछले साल मैं और मेरे एक दोस्त <a href="https://en.wikipedia.org/wiki/Colorado_Plateau" target="_blank">कोलोराडो प्लेटो</a> के <i>कैन्यन्स</i> और रेगिस्तान में दो सप्ताह घूमते रहे थे. लोग पूछते हैं <i>इतने दिन तुमने किया क्या?</i> <i>है क्या इतना देखने लायक? </i>और हम सोचते रहते हैं - <i>फिर जाएँगे कभी</i> ! हम किसी एक जगह पर जितनी देर बैठते उतनी देर में <i>पर्यटक बस</i> लोगों को पूरा नेशनल पार्क दिखा लाती ! लोग <i>व्यू पॉइंट्स</i> पर उतरते भरतनाट्यम और कुचिपुड़ी जैसी अलग-अलग मुद्राएं बनाते - <i>खीचिक-खीचिक</i> कर आठ दस फोटो खींचते और चले जाते. मै उन्हें<i>चाइनीज शॉट</i> कहता हूँ। सूर्यास्त देखने की जगह सूरज खाते हुए <i>लील्यो ताहि मधुर फल जानी</i>* पोज और <i>एफिल टावर चुटकी में </i>भर लेने में ही लोग लगे रह जाते हैं। मुझे नहीं लगता वो देखते भी हैं कि क्या है वहाँ. सब कुछ तो है इन्टरनेट पर क्यों देखें या पढ़ें वहां रूककर? देखने के लिए थोड़े न गए हैं ! मुझे नहीं लगता उनके अनुभव <i>कैप्शन</i> और <i>स्टेटस </i>सोचने से बहुत अधिक होते होंगे। वो <i>आँख भर </i>नहीं <i>कैमरा भर</i> देखते हैं। मुझसे भी किसी ने मेरे एक ट्रिप की फोटो देख कहा था - "क्या देखूँ इसमें? <i>वालपेपर </i>लग रही हैं सारी <i>पिक्स</i> ! तुम तो हो नहीं इसमें।"<br />
<br />
सूर्यास्त हुआ. खूबसूरत था. इतना कि उसके कुछ दिनों बाद मैंने किसी से कहा - "पिछले कुछ दिनों से मैं सनसेट <i>रेजिस्ट</i> नहीं कर पा रहा. मुझे <i>ओबसेशन</i> सा हो गया है." … सूर्यास्त देखने के लिए खड़ी समुद्री नावों और जहाजों ने भोपूं बजाया। लोग <i>सेल्फ़ी </i>और तस्वीरें लेने में व्यस्त रहे. जल्दी-जल्दी। कहीं '<i>गोल्डेन मूमेंट</i>' चला न जाये। मुझे पता है उनके <i>स्टेटस</i> और <i>कैप्शन</i> जरूर <i>सिरीन</i> रहे होंगे भले वहां <i>हांव-हांव</i> मची थी.<br />
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लोग बहुत खुश दिखे। अच्छी तस्वीरें आई. मैनफ्रेड ने सही कहा था इतनी खूबसूरत जगह है कि ख़राब फोटो नहीं आ सकती। फिर मैंने किसी को कहते सुना - '<i>इट्स ओवररेटेड ! सन, सी, माउंटेंस व्हॉट इज सो वंडरफुल अबाउट ईट? इट इज सो क्राउडेड!</i>' बात सच थी. सूरज रोज उगता है रोज अस्त होता है. समुद्र, पहाड़ - है थोड़ा खूबसूरत पर ऐसा भी क्या है जो इतना हो-हल्ला? जैसे बादशाह के अद्भुत कपड़े के लिए सभी वाह-वाह कर रहे हों और किसी ने कह दिया हो कि - <i>नंगा है !</i><br />
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भीड़ आई थी धीरे-धीरे पर छँटी बड़ी तेजी से. अभी ठीक से सूर्य अस्त भी नहीं हुआ था कि अधिकतर लोग निकल लिए. बैठने की जगह भी खाली होने लगी। जब सब जाने लगे - मैनफ्रेड बैठ लिए. हम भी बैठ गए. सोचा थोड़ी देर में जाएँगे जब रास्ते खाली हो जाएंगे। मैनफ्रेड ने कहा… '<i>वेत, </i><i>अनतिल मिडनाईट। </i><i>इफ यू रियली वांत तू फील समथींग वंदरफूल '.</i> उन्होंने तस्वीर नहीं खींची। उन्होंने बताया कि बहुत अच्छी तस्वीरें ली हैं उन्होंने उस जगह की। पर आज वो सिर्फ देखने आये थे. हम कुछ गिने-चुने लोग देर तक बैठे रहे। मुझे याद आया रात के दो बजे <a href="http://www.nps.gov/arch/index.htm" target="_blank">आर्चेस नेशनल पार्क</a> में <a href="https://en.wikipedia.org/wiki/Delicate_Arch" target="_blank">डेलिकेट आर्च </a>के पास सिर्फ छह लोग बैठे रहे थे - धुप्प अंधेरी रात, मिल्की वे, डेलिकेट आर्च. फिर रात को सिर पर फ्लैश लाइट लगाए <a href="http://www.nps.gov/arch/planyourvisit/longtrails.htm" target="_blank">नीचे उतरना</a>.... वो अब तक के सबसे अच्छे अनुभवों में से एक है।<br />
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लाखों पर्यटकों के लिए एक-दो दिन किसी भी जगह के लिए<i>बहुत </i>होता है - <i>हेवेन्ली कैप्शन </i>और तस्वीरों के लिए. फेसबूक पर कमेन्ट का रिप्लाई होता है - '<i>इट वाज अ ड्रीम वकेशन ! सैड दैट इट एंडेड टू सून :(</i>' और मन में होता है - दो दिन ही काफी थे। एक सप्ताह बेकार गए! कहीं और भी चले गए होते इतने दिन में। मुझे मैनफ्रेड की बात जमी। मैं दो शाम और गया वहाँ। देर रात तक बैठा रहा।<br />
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मुझसे जब कोई पूछता है कैसी जगह है? कितने दिन के लिए जाना चाहिए? मुझे नहीं समझ आता मैं क्या जवाब दूँ।<br />
वापस आने पर किसी ने पूछा - विल<i> यू गो अगेन ?! </i>देख तो लिया ! अगर सिर्फ जगहें <i>'कवर' </i>करना लक्ष्य हो तो फिर क्यों दुबारा जाऊंगा? अगर अनुभव करना हो तो बिलकुल। फिर से... बार-बार. डिपेंड करता है - <i>'चाइनीज शॉट' या 'मैनफ्रेडीय'।</i><br />
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मुझे लगता है कि लोग कहीं इसलिए जाने लगे हैं क्योंकि... फैंटेसी है। एल्बम बनाना है। शेयर करना है। <i>इंटरनेट का पर्यटन पर प्रभाव </i>विषय पर रिसर्च करने की जरुरत नहीं है. फिर लोग अपने यात्रा के असली अनुभव बताने से डरते हैं। कहीं लोग ये न समझे कि... उस बादशाह के कपड़े की तरह जो दरअसल नंगा था ! कितने लोगों के <i>निगेटिव </i>यात्रा अनुभव (या विस्तृत?) आपने फेसबुक पर पढ़ा है?<br />
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सबका यात्रा करने का अपना तरीका होता है- अपने कारण। सबकी अलग-अलग पसंद होती हैं। पर <i>लाइक्स/कमेंट्स </i>के जमाने में अनुभव के लिए कौन यात्रा करता है? <i>यात्री बढ़े हैं - यात्रा से अनुभवी होने वाले घटे हैं</i> - ह्वेनसांग नहीं होते अब। ट्वीट/फेसबुक के त्वरित जमाने में किसे फुर्सत है विस्तार से लिखने की और किसे फुर्सत है आपका लिखा पढ़ने की?<br />
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मुझसे अक्सर लोग पूछते हैं <i>इज इट वर्थ टू विजिट न्यू यॉर्क फॉर वन वीकेंड? </i><br />
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मुझे नहीं पता क्या जवाब दूँ मैं। मैं इस शहर में घंटों पैदल चला हूँ... मीलों। मुझे सच में नहीं पता<i>वर्थ</i> क्या है ! शायद मुझे सारे प्रसिद्द जगहों से ज्यादा अच्छा सेंट्रल पार्क में एक पानी बेचने वाले से बात करना लगा ! मैंने पिछले पांच साल में दर्जनों दोस्तों को न्यूयॉर्क का <i>वीकेंड ट्रिप</i> कराया है. अन ऑफिसियल गाइड ! ऐसी जगहें हैं जहाँ पर बार-बार <i>सिर्फ इसलिए गया</i> क्योंकि किसी को <i>घुमाना </i>होता है. नहीं तो दुबारा तो कभी नहीं जाता।<i>एक दिन भी काफी है - सालों भी कम है।</i> घूमते रहो तो हर बार कुछ नया दिखता है। जैसे मेरी माँ ने हजारो बार मानस पढ़ा है, हर बार उन्हे लगता है कुछ नया मिला ! मैनफ़्रेडिय घूमना वैसे ही है। चाइनीज शॉट है - मानस का पाठ हुआ प्रसाद लेने के समय पहुंचे, जय-जय किया, निकल लिए.<br />
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मैं कह देता हूँ - <i>डीपेंड्स।</i><br />
लोग कहते हैं - न्यू यॉर्क के बारे में तो बहुत सुना है। और कह रहे हो <i>डीपेंड्स ?</i><br />
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मैनफ़्रेडिय घूमना हो तो - "पैदल घुमो - सड़कों पर। स्टेचू ऑफ़ लिबर्टी, म्यूजियम्स, स्टोर्स, ब्रूकलिन ब्रिज और एम्पायर स्टेट <i>ही</i> न्यू यॉर्क नहीं है.".<br />
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.... या है शायद... इतना कह सकता हूँ कि समय लगता है इस शहर से प्यार होने में। पर <i>ऐडपटेबल</i> शहर है। शायद वो सबसे जरूरी है किसी जगह के लिए - कुछ समय रहो तो हर अगला दिन पिछले से बेहतर लगे. सबके लिए कुछ न कुछ है इस शहर में। कई लोग आते हैं जिन्हें पहले भीड़-भाड़, चमक धमक, मौसम, भाग-दौड़, लोग पसंद नहीं आते। पर धीरे-धीरे मैंने देखा है उन्हें अच्छा लगने लगता है। क्योंकि उनके लायक जो है शहर का वो हिस्सा उन्हें दिख जाता है. सबकुछ है इस शहर में. पर वो शायद <i>मैनफ़्रेडीय नजरिया </i>है। मैनफ्रेड जगहों के बारे में लिख सकते हैं। यात्राओं से सीख सकते हैं। अनुभव बटोर सकते हैं. पर जिन्हें <i>चाइनीज शॉट </i>के लिए घूमना हो - उनके लिए दो दिन बहुत है और न्यूयॉर्क तो उनके लिए पर्फेक्ट है !<br />
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मुझे खुशी है मैं मैनफ्रेड से मिला।<br />
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अज्ञेय याद आए -<br />
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मैंने <i>आँख भर </i>देखा। (<i>सिर्फ कैमरा भर नहीं !</i>)<br />
दिया मन को दिलासा-पुन: आऊँगा।<br />
(भले ही बरस-दिन-अनगिन युगों के बाद!)<br />
क्षितिज ने पलक-सी खोली,<br />
तमक कर दामिनी बोली-<br />
'अरे यायावर! रहेगा याद?'<br />
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<table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto; text-align: center;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjbUmuIkhwvrk36FzwBbM_fq9vr7vLPMW3xQ8Orzi3w06bbI5jwZOcp7LcrBY1c7EwqFFN_oMOroMohMzkpXQ4uqM-8Aqrf_qrGqq5WVhmQHB3Al_gm-f0jzKUV7_CuyJ1J695gSkebUovi/s1600/Santorini.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="266" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjbUmuIkhwvrk36FzwBbM_fq9vr7vLPMW3xQ8Orzi3w06bbI5jwZOcp7LcrBY1c7EwqFFN_oMOroMohMzkpXQ4uqM-8Aqrf_qrGqq5WVhmQHB3Al_gm-f0jzKUV7_CuyJ1J695gSkebUovi/s400/Santorini.jpg" width="400" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">और ये रही बिन फिल्टर ट्राइपॉड बिना शॉट…</td></tr>
</tbody></table>
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~Abhishek Ojha~<br />
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यूनान डायरी... पटना की तुलना में बहुत कम दिन रहना हुआ यूनान में। पर लिखने का मन है 8-10 पोस्ट। जो मैंने देखा। भाषा, लोग, जगहें, खँडहर, माइथोलॉजी, भूत, वर्तमान...<br />
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<i>पटना और यूनान </i>- सहस्त्राब्दियों पुराने खंडहरों को देख कर लगा यहाँ पाटलिपुत्र से आए आचार्यों ने जरूर कभी मंत्रोचर किया होगा। खैर... बाकी अगली पोस्ट्स में।<br />
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बाई दी वे - यूनान को हिन्दी में <i>ग्रीस</i> कहते हैं :)<br />
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*<i>लिल्यो ताही मधुर फल जानूँ पोज</i>- <a href="http://shiv-gyan.blogspot.com/" target="_blank">शिव भैया</a> ने बहुत पहले एक पोस्ट में ये बात लिखी थी। वो इतनी पसंद आई थी कि लोगों को सूरज लीलते हुए देख वही याद आता है :)</div>
<div class="blogger-post-footer"><a href="http://www.aojha.in">Abhishek Ojha</a></div>Abhishek Ojhahttp://www.blogger.com/profile/12513762898738044716noreply@blogger.com4