Jun 23, 2015

हनीमून के भूगोल का सिलेबस (पटना २०)


‘का भईया, किससे बतिया रहे थे? लग रहा है कहीं जाने का प्लान बन रहा है?’ मेरे फ़ोन रखते ही बीरेंदर ने पूछा। वो बात और है कि यही बात किसी ने बीरेंदर से पूछा होता तो उसका जवाब होता - ‘जब सब सुनिए लिए हैं त फिर काहे ला पूछ रहे हैं?’
'हाँ कुछ दोस्तों के साथ सुंदरबन जाने का प्लान बन तो रहा था पर कुछ फाइनल नहीं हो पा रहा. एक ट्रेवल एजेंट से बात कर रहा था. वो कुछ ज्यादा ही महंगा बता रहा है. बोला सीजन नहीं है और कम आदमी हुए तो भी दस आदमी का पे करना पड़ेगा' मैंने कहा।
‘ई गजब हिसाब त पहिला बार सुन रहे हैं! हमको आइडिआ त नहीं है पर साथे का पढ़ा एक ठो लरका ट्रेभेल एजेंसी खोला है. कहिये त बात करें?.’ बैरीकूल के जान पहचान और जुगाड़ पहले भी काम आ चुके थे, तो मना करने का कोई कारण था नहीं.

ट्रेवेल एजेंसी एक पुराने ऑफिस बिल्डिंग के बेसमेंट में थी. जहां से हम अंदर गए वहाँ ढेर सारी बाइकें बेतरतीब तरीके से पार्क की गयी थी। बिल्डिंग को थामे खम्भे पर पान के पीक की परतें और पास जमा किया गया कचरा। बैरीकूल को लगा कि मुझे थोड़ा अजीब लग रहा होगा कि ये कैसी जगह पर 'ट्रेभेल एजेंसी' है ! उसने कहा – ‘थोड़ा जादे गंदगी है, का कीजिएगा कुकुर ही नहीं यहाँ आदमी भी खंभा देख के उसी का इस्तेमाल करते हैं। आछे भैया, कभी आपके दिमाग में आया है कि ये खंभा भी कभी तो एक दम फरेस... चूना-पालिस मारके एकदम चकाचक रहा होगा। अइसा कौन आदमी होगा जो पहली बार मुंह उठा के थूका होगा? माने अभी तो गंदा है तो लग रहा है कि जगहे है थूकने का. लेकिन जब चमक रहा होगा त एक दम सर्र से कोई थूक के लाल कर दिया होगा... माने उसको मजा आया होगा का? चमचमाती दीवार देख थूकने वाला जीव मचल जाता होगा थूकने के लिए कि उसको बुरा लगता होगा थूक कर?‘

'यार तुम भी क्या सोचने को कह रहे हो? मुझे कैसे पता होगा' मैंने हँसते हुए कहा।

एक छोटे से चाय की दूकान के बगल से सीढ़ियां नीचे गयी थी. चाय की दुकान के नाम पर एक कोयले का चूल्हा, एक लकड़ी की आलमारी जिसमें प्लास्टिक के तीनं-चार डब्बे रखे थे। चूल्हे को हवा देने के लिए एक टेबल फैन। एक प्लास्टिक की बड़ी बाल्टी जो शायद ट्रक के मोबिल का डब्बा था जिसकी छपाई उतर गयी थी। गिलास धोने से आस पास का फर्श गीला हो गया था। चाय के कप और कुल्हड़ फेंकने के लिए भी एक डब्बा रखा था लेकिन कप-कुल्हड़ उस डब्बे से ज्यादा बाहर फर्श पर बिखरे थे। हमें उसी रास्ते जाना था. बैरी कूल ने बताया था कि – “चाय की पसंद अपनी-अपनी होती है। कोई जादे शक्कर वाला चासनी जैसा पसंद करता है, त कोई जादे दुध वाला रबड़ी जैसा... आ जैसे-जैसे ‘बड़े आदमी' बनते जाते हैं – ‘ब्लैक टी' की तरफ बढते जाते हैं. चीनी और दूध दोनों की मात्रा कम करते जाते हैं. ज्यादा बड़े लोग बिना शक्कर बस ब्लैक ही ‘परेफर’ करते हैं. वैसे ही कप का भी है... कोई शीशा वाला गिलास, कोई कुल्हड़.  आ प्लास्टिक वाला त माने नरक है। आजकल वैसे 'हाई क्लास' फैसन में फिर कुल्हड़ आ रहा है. 'हाई क्लास' माने  'आई लभ कुल्हड वाली चाय' वाला क्लास। जैसे आदमी साल में एक बार चार जामुन- एक करेला खाके  सोचता है अब डायबिटीज नहीं होगा, बहुते फायदा करता है. वैसे ही साल में एक दो बार कार से उतर कुल्हड़ में पी के पर्यावरण से लेकर सेहत सब…।'

ट्रेवेल एजेंसी के अंदर शीशे का एक केबिन था जैसे पुराने पीसीओ होते थे. दीवारों पर कोनों से उखड़ते, टेप से फिर चिपका दिये गए, धुल की एक हलकी परत ओढ़े, स्विट्ज़रलैंड, एफ़िल टावर, सिडनी और स्टेचू ऑफ़ लिबर्टी जैसे पोस्टर लगे थे. आईएटीए का एक सेर्टिफिकेशन, हज की कुछ तस्वीरें, एक पीला हो चूका सफ़ेद कम्प्यूटर, एक बड़ा सा चाइनीज मोबाइल, एक रजिस्टर जिन पर अनगिनत बार घिस घिस कर कलम चलाने का प्रयास किया गया था, जिसके उपर एक 'लिखी-फेंको' वाली कलम रखी थी और पानी की एक बोतल।

बीरेंदर ने अपने चिर परिचित अंदाज में कहा - ‘का हो चिंटूपुत्र-मांझा, कटाई कैसी चल रही है आजकल? बकरे आ रहे हैं कि नहीं? सुने रोजे बक़रईद मन रहा है?’
‘आओ आओ बीरेंदर दीखबे नहीं करते हो आजकल।’ ट्रैवल एजेंट ने सर उठाते हुए कहा।
‘का निहार रहे थे बे एतना ध्यान से कम्प्यूटर में? हमको त डाउट हो गया तुम ट्रेभेल एजेंसी खोले हो कि साइबर कैफे? आ सुने हैं आजकल भीजा-ऊजा भी लगवाने लगे हो? एक ठो हमरा भी लगवा दो कि खाली फोटवे देखते रहेंगे हम?’
‘तुमको भिजा थोरे लगेगा बीरेंदर, तुम्हरा तो ओबामा किहाँ से सीधे लेटेरे आएगा।‘
‘...बैठा जाय, खारा काहें हैं? चाय पीयेंगे? की ठंढा मांगा दें?’ ट्रेवेल एजेंट ने मेरी तरफ देखते हुए कहा। मैं चुपचाप चीजों को घूरते हुए ऐसे खड़ा था जैसे एडमिशन के लिए किसी बच्चे को स्कूल लाया गया हो.
‘काम मंदे चल रहा है बीरेंदर. का बताएं’
‘मंदा चल रहा है आ हीरो हौंडा उरा रहे हो?… हमेशा रोइतहि रहेगा. ई बता सुंदरबन का का हिसाब चल रहा है चार से पाँच आदमी के जाना है’

‘अरे बैइठिये ना पहिले। बात करे परतौ, हमलोग उधर भेजते नहीं है जादे। कउन जा रहा है?’ पटना की अपनी एक अलग ही भाषा है। हिन्दी-भोजपुरी-मगही-मैथिली कई भाषाओं का सम्मिश्रण। बोलते-बोलते अक्सर लोग एक से दूसरे पर ‘स्विच’ भी कर जाते हैं।
‘भैया को जाना है’  बीरेंदर ने मेरी तरफ इशारा किया. ‘आ बात कौंची करे परतौ रे? हमको तू पैंतरा सिखाएगा? माने तू अपना मलाई खायेगा और जिससे बात करेगा उ बचलका घी खायेगा? काम मंदा चल रहा है तो हमी को लूट के राजा हो जाएगा, नहीं?’
‘बीरेंदर यार, तुम्हें कहना पड़ेगा? उधर का आइडिया ही नहीं है तो का करें... एक तो तुम्हें सब सच बता रहे हैं’
‘अच्छा करो बात’

ट्रेवेल एजेंट अपना मोबाइल उठा कर बात करने चला गया।

‘इसके लिए भी हमको लगता है कि मिस्सडे काल मारेगा। एक नंबर के लीचर है। ...जानते हैं भैया, मांझवा का असली नाम सतप्रकास आ इसके पिताजी का नाम चिंटू. आप कभी सुने हैं कि पिताजी के नाम चिंटू आ बेटा के नाम सतप्रकास ? मतलब अइसा लगता है की उल्टा रखा गया नाम. बचपन में कोई पूछता होगा कि बेटा  तुम्हारा नाम क्या है तो बोलता होगा - सत्य प्रकाश। और तुम्हारे पिताजी का - श्री चिंटू ! दू चार ठो और श्री भी लगा दे तो चिंटू कभी भारी हो सकता है? पूछने वाला कन्फरम करने लगे - चिंटू बेटा फिर से बताओ? तो मंझवा बोलता होगा नहीं नहीं मेरा नाम चिंटू नहीं वो तो पिताजी...’

‘पूरा नाम सत्य प्रकाश मांझी?’ मैंने हँसते हुए पूछा।

‘आरे नहीं। मांझा तो इसका नाम स्कूल में धरा गया। वो ऐसे कि ई काटने में उस्ताद है. माने एकदम वल्ड चैम्पियन मांझा. धड़ से काट देता है एक दम. आ आज भी देखिये एतना न महीन कटाई की गाहक के बुझाएगा ही नहीं’ बात स्कूल के दिनों की चली और तब तक मंझवा वापस आए।

‘लिया जाय’ पोटेंशियल कस्टमर के लिए चाय मंगाई गयी थी. और फोन पर बात कर मंझवा ने बताया कि ‘बरी महंगा बता रहा है. ओतना पैसा देके काहे जाएंगे आप. कुछो नहीं है सुंदड़बन में’

ये पहला मौका नहीं था जब पटना में किसी ने मेरे खर्च की चिंता की थी। अक्सर जब रास्ता पूछता कि कितनी दूर होगा तो एक से पूछो तो चार उत्सुक लोग बताने आगे बढ़ आते। जैसे मिठाई बंट रही हो। जब पूछता कि रिक्शा या ऑटो मिल जाएगा? तो अक्सर जवाब होता  - ‘अरे काहे रेक्सा करेंगे, टहलते टहलते निकल जाइए एगारह नंबर का गारी से। हिहें पर तो है.’  तीन किलोमीटर तक के तो पैसे बचवा ही देते लोग। ये उत्सुकता और बेवजह की शुभचिंतकी हमेशा सुखद लगती।

सतप्रकास ने कहा – ‘भैया, एतना पैसा में त हम आपको ग्रुप टूर पर दुबई भेज देंगे, आ दुबई का फोटो जब आप फेसबुक पर डालेंगे त सोचिये केतना लाइक आएगा। आपका फ्रेंडलिस्ट में गर्दा उर जाएगा. एक बार आइडिया दीजिये अपना दोस्त सब के भी। सुंदड़बन में कुछो नहीं है‘
‘जाना तो सुंदरबन ही है नहीं तो कोई जरूरी भी नहीं है कि कहीं जाना ही है। खैर कोई बात नहीं... ’ मैंने कहा।
‘माने भैया को सुंदरबन जाना है त तू दुबई भेजने लगा? तुम्हरा काटने का आदत नहिये गया... ई साला चहवो तीता बना दिया है’ बीरेंदर ने मुंह बनाते हुए चाय का ग्लास रख दिया।
‘देखिये भइया हमलोग के भी त मार्केट के हिसाब से चलना पड़ता है। लोग जो पसंद करेंगे हमलोग वही भेजेंगे। मेरे पास पहली बार कोई आया है सुंदड़बन के लिए। डिमांडे नहीं है’
‘बात सही है। लेकिन अब फेसबुक पर फोटो डालने के लिए घूमने नहीं नू जाएँगे? कह रहे हैं सुंदरबन आ तू भेज रहा है दुबई। डाक्टर के हियाँ सर दर्द दिखाने आए त उ बताने लगा कि लिबरे चेक करा लीजिये फ़ेल मार गया होगा। तू चार बाई चार का डिब्बा में अकेले बईठ के फेसबूक टूर पैकेज बना रहा था क्या जब हम लोग आए?’

‘अरे उ बात नहीं है। आ भैया दुबई काहे नहीं जाएंगे? माने आपे बताइये कोई देखबों नहीं करता है अब दार्जिलिंग, शिमला, ऊटी का फोटो। कम से कम अंडमान-केरल हो तो कुछ लाइक आ भी जाय। ओतने पैसे में दुबई-बैंकॉक नहीं जाएगा कोई? उहे जमाना नहीं है बीरेंदर कि सिमला-मनाली से आगे दिमागे न जाये? अब लोग आते हैं भेनिस, संटोरिनी आ सेसेल्स के लिए... ई सब जगह अब फैसन में आ गया है। हनीमून के भूगोल का सिलेबस जो है उ सिमला-ऊटी-कस्मीर से आगे बर्ह गया है। आ अडवेंचर के लिए जाना है त लद्दाख जाइए।’

‘कौंची बोला रे? मालूम भी है तुमको नक्सा में कहाँ है ई सब? कि इसको भी झाड़खण्डे में दिखा देता है? आ अपना अनुभव के लिए जाना है कि दिखाने के लिए? तुम ससुर पाहिले एक थो इनक्रेडिबल इंडिया का फोटो लगाओ हीहां फिर बाद में संतोरियाना. देस का नक्सा  देखना आया नहीं आ यूरेसिआ के मैप पढ़ाने लगा हमको। जलडमरूमध्य बुझाया नहीं कभी आ भूगोल फेसबुकमध्ये बुझने चले हैं’

सत्यप्रकाश कुछ बोला नहीं हंसने लगा।

‘अरे भाई हमें हनीमून पर नहीं जाना है ना ही फेसबुक पर फोटो डालनी है. खैर कोई बात नहीं  मार्केट का डिमांड-सप्लाई बताने के लिए धन्यवाद। दुबई जाना हुआ तो जरूर बताएँगे आपको’ - मैंने कहा.

बीरेंदर ने आगे कहा – ‘छोड़िये! हम पहिलही बोले कि हम लोग पैंतरा में पड़ने नहीं आए हैं। लेकिन तू अइसा अइसा जगह का नाम बताया आज। हनीमून के भूगोल में परकाण्ड पीएचडीये दिला दें का तुमको? नालंदा भी फिर खुलिए गया है। एक ठो बर्हिया चाहो नहीं पिलाया आ भूगोल पढ़ाने बईठ गया। तुम्हारा सब भूगोल का कच्छा में हम भी साथे थे... सब देखे हैं…’  हम चलने लगे तो बात भूगोल की कक्षा की ओर चली गयी…

‘जानते हैं भैया, भूगोल में हमलोग के हर परीच्छा में भारत का मानचित्र बनाने आता था। माने उ सवाल फिक्से समझिए। आ आधे से जादा लरका दु रुपया का सिक्का लेके जाता था आ नहीं त नक्सा वाला कोम्पस बोक्स। तबो सब अखण्डे भारत बना के आता था। नेपाल, भूटान, बांग्लादेश आ साथ में पाकिस्तानो भारते में दिखा देता था। नक्सा के बाद उसमें जगह दिखाना होता था…  मंझावा के त था कि जो भी दिखाना हो सब झारखण्डे में दिखा आता था। माने सवाल में आधा त खनिजे उत्पादन का जगह दिखाने आता था। त इ अइसा झारखंड फैन कि बंबईओ दिखाने आए त झारखण्डे में। एतने इसको पता था भूगोल। आ अब देखिये केतना भारी-भारी जगह का नाम ले रहा है! एक्को नाम नहीं सुना होगा जब पर्हता था… अभियो से पर्ह लो बे अपने देस में झारखण्ड के अलावे भी बहुत जगह है’

‘केचाईन मत करो बीरेंदर। झाड़खंड वाला हम नहीं थे उ राजेसवा करता था।’

‘अबे जाओ ! चपटु सर बोले नहीं बोले थे तुमको कि जब नकसवे सही नहीं है तो “दिखाये तो सहिये हैं सर” का कर रहा है? जब नकसवे सही नहीं बना है त जगह कौंची का ठीके दिखाया हैं? आ महाद्वीप के महाद्विप लिख देगा त महा हाथी हो जाएगा भी तुम्ही को बोले थे। अब भले तुम पीएचडी कर लिए हो हनीमून भूगोल में’

‘कौन कौन बात याद रखते हो बीरेंदर तुम भी !’ - मंझवा ने कहा.

इसके बाद एएन कॉलेज में हुई मार पीट की बात चली... वो फिर कभी :)

‘वहाँ से चले तो बीरेंदर ने बताया... अब सब कुछ फेसबुके से डिसाइड होता है। माने देखिये... वैसे जानते हैं भैया उ पुरुवा है न जिससे मिलाये थे उस दिन। उ छोर दिया फेसबुक। हम पूछे त बोला... “जानते हो नसा हो गया था। ओहि में लगे रहिते थे। एक दिन गुस्साके डिलीट कर दिये। जानते हो मेरे बाबूजी पहले खूब चाय पीते थे... उस जमाने से जब चाय पहिले पहिल फैसन में आया था। एक दिन छोर दिये... उसके बाद जहां भी जाते हैं। सब कहता है - ई चाय नहीं पीते हैं... त पेरा (पेड़ा) मांगा देता है। अब पेरा  मिलने लगा त उनको मन भी होता चाय पीने का त नहीं पीते... आ उनका चाय छूटिए गया। उहे हुआ फेसबुक छोरने पर... एतना न फैसन में हो गया है कि अब न रहो फेसबुक पर त लोग कहता है कि कैसे नहीं हो? माने अइसा है जैसे.. कौनो असंभव वाला कम कर दिये. हमको स्पेसल लगता है। फेसबूक पर तो सब है ही त जे है से कि जो नहीं है उहे न स्पेसल हुआ’  :)

(पटना सीरीज)

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~Abhishek Ojha~