Mar 29, 2015

तत् त्वं असि

तत् त्वं असि- You are that! - तुम वही हो। - छंदोग्य उपनिषद। 

अगर शीर्षक देख आपको लग रहा हो कि यहाँ वेदान्त चर्चा होने वाली है तो आप बिल्कुल ही निराश होंगे। आगे बिंदास पढ़िए ये 'फैशन के दौर में गारंटी नहीं टाइप' पोस्ट चेतावनी है. 

हुआ कुछ यूं कि... 
कई दिनों से मुंबई के एक नंबर से फोन आ रहा था। भारतीय समय अनुसार शाम ५.५५ से ६ बजे के बीच। मेरे यहाँ सुबह-सुबह ठीक उसी समय पर जब मैं नहा रहा होता हूँ और फ़ोन मूकावस्था में पड़ा रहता है ! अधिकतर लोगों की तरह मेरी भी सप्ताह के पाँच दिनों की लगभग बंधी-बंधाई समय सारणी होती है, निर्धारित समय पर उठना, तैयार होना, रोज उसी ट्रेन से ऑफिस... खैर... इस चक्कर में कई दिनों तक इस अनजान कॉलर से बात हो नहीं पा रही थी। मुंबई के एक लैंडलाइन नंबर से उसी समय कॉल आता रहा। मैं वापस संपर्क करने की कोशिश करता तो कोई जवाब नहीं मिलता। लैंडलाइन का नंबर, ६ बजे शाम का समय... लगा जरूर किसी ऑफिस का नंबर होगा। आजकल चाहने वाले संपर्क करने का 'अल्टरनेट' तरीका ढूंढ ही लेते हैं, आज के जमाने में कौन ही दूर है किसी से अगर दिलों की बीच दूरी ना हो तो*… तो मुझे बात न हो पाने की कुछ ख़ास चिंता तो नहीं थी पर थोड़ी उत्सुकता जरूर थी और थोड़ा बुरा भी लगने लगा था बार-बार कॉल न ले पाने पर।  

फिर अंततः मैंने एक दिन बाथरूम से निकल लपक कर फोन उठा ही लिया। 
एक मोहतरमा की मधुर आवाज आई - "अभिषेक ओझा से बात हो सकती है ?"
मैंने कहा "जी हाँ मैं ही हूँ कहिए !"
"सर, आप 'अभिषेक ओझा' बोल रहे हैं?"

सर ? और इतना बल देकर मेरा नाम? नाम पर इतना ज़ोर दिया गया था कि मैं भी एक पल को सोच में पड़ गया... ऐसा क्या मशहूर हो गया मैं ! हाल फिलहाल में कुछ गड़बड़ तो की नहीं मैंने... और बिना मुझे पता हुए ही पता नहीं प्रसिद्ध होने वाला ऐसा कौन सा काम हो गया है मेरे नाम पर... मोहतरमा की आवाज भी जिंदगी में पहली दफा ही सुनाई दी थी, ऐसे में... 

खैर, मैंने कहा - "हाँ, हाँ मैं अभिषेक ओझा ही बोल रहा हूँ। आप कौन? "
"सर, मैं मुंबई से बोल रही हूँ... $#%^ बैंक से।"

बैंक शब्द सुनते ही सब एक्साईटमेंट फुस्स...  बैंक शब्द सुनते ही आधी बात तो वैसे ही समझ आ जाती है. 

"जी, बोलिए?" बे-मन...  माने एकदम्मे बेमन से कहा मैंने। 
"सर आपने हमारे बैंक से २००६ में लोन लिया था... और... "
"एक मिनट, एक मिनट... मैंने कोई लोन नहीं लिया। आप गलत अभिषेक ओझा से बात कर रही हैं !" 
इससे पहले की मैं और कुछ कहता बीच में ही उन्होने कहा - 
"नहीं सर, मैं बिल्कुल सही अभिषेक ओझा से बात कर रही हूँ।" इतने इत्मीनान से मेरी सहीयत पैट तो शायद मैं खुद न बोल पाऊं! उन्हें शायद ऐसे सही लोगों से बात करने की आदत हो या फिर मेरे आवाज में एक्साइटमेंट का स्तर उठ कर गिर जाने से उनको मेरे सही होने का प्रमाण मिल गया हो। 
"वेट... यू मीन टु से, मैं नहीं जानता पर आप जानती हैं कि मैं कौन हूँ? देखिये आपने गलत नंबर पर फोन किया है। मुझे ऑफिस जाना है. मैं फोन रख रहा हूँ" 

'मैं कौन हूँ' सवाल पर वैसे ही अनगिनत ऋषि-महर्षि-बुद्ध-योगी अपना जीवन लगा गए हैं, पर इस तरह? और वैसे भी सुबह सुबह इस ये सोचने की मेरी कोई मंशा थी नहीं. 

"नहीं सर, आप भूल गए होंगे। मुझे पता है मैंने बिल्कुल सही अभिषेक ओझा को ही फोन किया है। आप ने अभी कहा न आप अभिषेक ओझा है?" इतनी कॉन्फिडेंसनियता वो भी किसी और के बारे में… विरले देखने को मिलती होगी।

"व्हाट? मैं भूल गया हूँ कि मैं कौन हूँ? कमाल है ! आपको पता भी है आप कह क्या रही हैं? मैंने हँसते हुए कहा… और सच पूछिए तो जिंदगी में पहली बार किसी ने कहा होगा 'तुम भूल गए हो, तुम कौन हो' बड़ी शाश्वत सी पंक्ति है। एकदम वेदान्त के स्तर की। शायद मैं कभी कभार खोया-खोया भी रहता हूँ. दरअसल हम सभी कभी होते-होते अचानक वहां नहीं होते हैं ! जब हमारे साथ रहे लोगों को लगता है कि ये अभी यहीं तो था पर एक पल को कहीं और चला गया,  कुछ और सोचने लगा, बात सुना ही नहीं… उन्हें अजीब सा लग जाता है कि इसके अन्दर वही इंसान है या एक पल को इसके अंदर कोई और समा गया था या किसी और बात में ही वो लीन हो गया था.  …पर 'मैं भूल गया हूँ कि मैं कौन हूँ?' ये मैं कतई नहीं मान सकता। 


"सर, आप समझ नहीं रहे हैं। ये बताइये आप पहले मुंबई में रहते थे न?" उन्होंने मामला आगे बढ़ाया।
"क्या नहीं समझ रहा मैं? कब की बात कर रही हैं आप? मुंबई आता जाता रहा हूँ लेकिन मुंबई में रहा कभी नहीं ।"
"सर याद कीजिये आप २००६ में मुंबई में रहते थे। आप भूल गए होंगे" फिर भूल गए होंगे? ! मानता हूँ वक़्त के साथ बहुत कुछ पीछे छूटता जाता है पर ये? सच में भूल सकता है कोई? व्हाट? डज ईट ईवन मेक सेंस कि मैं मुंबई में रहता था और भूल गया !

"हा हा, आप कह रही हैं कि मैं २००६ में मुंबई में रहता था और ये बात आपको पता है और मैं भूल गया? अब भूल गया तो भूल गया याद करने से कहाँ याद आ जाएगा। अरे.… आपको जो पूछना है या बताना है वो कहिये।  मैं ओनेस्टली जवाब दूंगा। आप ये बार-बार मेरी याददाश्त पर सवाल क्यों कर रही हैं?"
"यस सर"
"क्या यस सर? जी नहीं, २००६ में मैं मुंबई में नहीं था. तब मैं कॉलेज में था। और मुझे ये साबित करने की कोई जरुरत नहीं लगती। आप को बस बता सकता हूँ कि मैं कोई और हूँ। आप गलत इंसान से बात कर रही हैं. बाय"
"सर प्लीज एक मिनट, आपका डेट ऑफ बर्थ क्या है?"
"आपके पास क्या लिखा हुआ है? मैं क्यों बताऊँ आपको? अभी आपको मेरा नाम और फ़ोन नंबर मिला है कल आप फ़ोन कर कहेंगी कि आपका डेट ऑफ़ बर्थ ये है न? तो?"
"सर, सॉरी सर. प्लीज नाराज मत होइए.... आपका डेट ऑफ बर्थ १९६९.. "
"जी नहीं, उस समय मैं पैदा नहीं हुआ था। और मैं अपना डेट ऑफ बर्थ आपको नहीं बताऊंगा,  पर आप निश्चिंत रहिए न तो मैंने कोई लोन लिया न मैं २००६ में मुंबई में था ना मैं १९६९ में पैसा हुआ। पर हाँ अभिषेक ओझा मेरा नाम है. और आपको जब कभी सही अभिषेक ओझा से काम हो तो फोन कीजिएगा। आपने सही ही कहा मैं सही अभिषेक ओझा  ही हूँ! लेकिन अभी आप गलत अभिषेक ओझा से बात कर रही हैं."
"ओह ! सॉरी सर" पता नहीं सही-गलत की व्याख्या का क्या समझा उन्होंने, मैं कौन सा कुछ समझ कर बोल रहा था। 
मैंने कहा - "कोई बात नहीं, बाय"

और इस तरह मुझे पता चला कि.... मैं गलत अभिषेक ओझा नहीं हुँ. मैं सही अभिषेक ओझा हूँ.



--
~Abhishek Ojha~ 

पुनश्च:
१.एक ज़माना था जब इस तरह के पोस्ट  को ही ब्लॉगिंग कहा जाता था. फिर फेसबुक इस पोस्ट-प्रजाति को खा गया.  तख्ती-ब्लॉगवाणी-चिटठा चर्चा- टिपण्णी युग में सक्रिय रहे लोग जानते हैं कि हिंदी में इस तरह ब्लॉग फेसबुक की माँ हुई. एक जमाना था जब हर बात से एक पोस्ट निकलती थी. फिर धीरे धीरे ब्लॉगर सीरियस होते हुए विलुप्त सुषुप्त होने लगे. तख्ती जेनेरेशन के कुछ ब्लॉगर फेसबुक पर जरूर जेनेरेशन गैप टाइप फील करते होंगे ! :)
२.  तख्ती की तुलना में हिंदी लिखना अब बहुत आसान हो गया है. अंक लिखना भी. मैं आठवीं में था जब सर्दियों की धुप वाली छत पर एक रविवार को मोहल्ले के दोस्तों के बीच एक छोटा सा चैलेन्ज हो गया था कि हिंदी अंकों में बिना रुके १०० तक गिनती नहीं लिख सकता कोई. पढ़ लेने की बात और है. पेन पेपर लाया गया…  १६० पार कर गया था मैं. लगा था सो ईजी ! अब क्या ! अब तो फ्लो में लिखता ही जाऊँगा… पहली गलती के पहले किसी को पता भी नहीं चला था कि पहली के पहले ही १४9 लिख आया था:)

.... अब भी पुराने हार्ड डिस्क में 'हिंदी' फोल्डर में 'तख्ती' पड़ा हुआ है, २००६ का डाउनलोड. अब वो फोल्डर शायद कभी न खुले !


*- क्या हम कुछ प्रकाशवर्ष की दूरी तय कर सकते हैं?
हाँ ! कुछ सालों में शायद...
- अगर वहाँ हम एक दर्पण रख आयें तो क्या हम अपना बीते दिन देख पाएंगे?
हाँ !
- हम कोई भी दूरी तय कर पाएंगे?
शायद हाँ..
.... अपनों के बीच आ गयी दूरी का पता नहीं !  (खलल दिमाग का)


8 comments:

  1. भला हो तुम्हारा. हम तो भूल ही गए थे कि ब्लॉग्गिंग कैसे किया करते थे. नास्टैल्जिया के रंगों में पेज देख रहे हैं तुम्हारा और अपने पुराने दिन याद आ रहे हैं. क्या क्या तो लिखा करते थे उन दिनों. कुछ पर भी लिख देते थे. सोचने में सिर दर्द कौन मोल ले...ये तो हमारे रीडर्स का काम होता था. अच्छे दिन थे. वैसे तुम्हारा पोस्ट तो डरते डरते ही पढ़ने आये थे कि फिर मैथ का कोई खूंख्वार फार्मूला मारे होगे फिलोसफी में लपेट कर.
    तुम्हारा वो प्रेमपत्र क्लासिक था लेकिन. चिट्ठाजगत का सबसे अव्सम चिट्ठी :) :)

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  2. पूजा का कहना सही है. मैं तो उस प्रेमपत्र को विश्व का सर्वाधिक प्रेम में पगा प्रेमपत्र कह कर उद्धृत करता रहा हूँ!
    और, ठीक आपके जैसी ही स्थिति से विवेक रस्तोगी (हिंदी ब्लॉगर हैं) भी गुजर चुके हैं और अपना अनुभव भी ब्लॉग में दर्ज कर चुके हैं. :)

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    1. धन्यवाद. धन्यवाद। आप दोनों को अब भी याद है वो लभ-लेटर :)

      इस ब्लॉग को पढ़ने वाले किसी से भी बात छिड़ती है तो बैरीकूल और प्रेमपत्र दोनों में से एक का नाम जरूर आता है.

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  3. aur tumhare dost "BarryCool" ke kya haal chal hain? Not sure, if I remember the name correctly but you know who I am talking about ;)

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    1. मस्त :)
      जल्दी ही उनका हाल चाल भी पोस्ट करता हूँ :)

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  4. याद तो हमको भी है गुरु वो प्रेम पत्र.. :)

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  5. रोचक प्रस्तुति ....

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  6. Shukra hai khuda ka hum sahi wali Abhishek Ojha ka post padh rhe hain :D Waise is tarah ke phone call is maamle me acche hote hain hain ki jab hum jaldbaji me naa hon to unse ghanton gapiyaan sakte hain ;) aap ka bhi poora din us call ke baare sochte hue zaroor guzra hoga.

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