Sep 8, 2013

संयोग

 

एक वाइनरी में अलग अलग तरह की वाइन के बारे में सुनते हुए अनुराग बस ये सोच रहा था कि आज जो कुछ हुआ वो महज संयोग तो नहीं हो सकता। वैसे अनुराग शराब नहीं पीता पर शराब ही नहीं दुनिया के किसी भी चीज के बारे में जानने का उसको नशा है। बात कैसी भी हो रही हो उसके पास हमेशा कुछ नया कहने को होता है। बीच-बीच में वो अपने दोस्तों को कुछ न कुछ नयी जानकारी देता ही रहता है। इतना कि उसके दोस्त उसे 'एनसाइक्लोपेडिया' कहते हैं। 


खासकर ऐसी जगहों पर तो वो इन बातों में खो सा जाता है। आश्चर्य था कि आधे घंटे से उसने कुछ नहीं कहा ! आज वो कहीं और ही खोया हुआ है। उसके कानों से कुछ शब्द टकराते तो उसे अंदाजा होता कि यहाँ क्या चल रहा है। थोड़ी देर बाद बिना किसी से कुछ कहे वो उठ कर अंगूर के बागान में टहलने चला गया। आज उसे वो सभी याद आ रहे हैं जिनसे जीवन में पता नहीं कैसे मिलना हो गया! वो अपने खुद के जीवन के बारे में सोच आश्चर्यचकित सा हो रहा है। एक दार्शनिक के से विचार उसके दिमाग में चले जा रहे हैं - दुनिया के किस-किस कोने में जन्मे, कहीं से कहीं होते हुए कैसे 'अनजान' लोगों से जीवन के रास्ते टकराए और जीवन की दिशा बदलती गयी। इतने ही सालों में कितनी जगहें और कितने लोगों से मिलना हुआ  - कितने अच्छे लोग। जहां कोई और भी मिल सकता था उसे वही लोग क्यूँ मिले? जैसे लॉटरी में हर बार उसका वही नंबर लगा हो जो लगना चाहिए था। वो पीछे मुड़ कर देखे तो क्या ऐसा नहीं है कि वो इन्हीं सब के लिए ही तो बना था ! चुन-चुन कर तराशे हुए ऐसे लोग मिले जैसे उसकी किस्मत बड़ी फुर्सत से किसी ने बैठ कर लिखी हो। कुछ चेहरे अब तक कितने साफ दिखाई देते हैं... वहीं कुछ के पीछे के इंसानी नाम तक याद नहीं। और कुछ जिनके नाम तो याद हैं पर और कुछ भी याद नहीं !  एक समय जो सब कुछ थे आज बस हल्की यादें हैं...  जैसे किसी पुराने गड्ढे को साल दर साल बरसात धीरे धीरे भर कर लगभग समतल कर गयी हो। स्कूल के दिन के दोस्तों के चेहरे धुंधले पड़ गए हैं। फेसबुक के जमाने में भी किसी से संपर्क नहीं रहा। उसका बचपन रहा भी तो ऐसा जहां अब भी किसी को फेसबुक नहीं पता ! कहाँ से  चला और किन-किन मोड़ों से होते हुए कहाँ तक आया है वो । और अब जो जीवन में हैं ये भी तो बस संयोग से आते गए... कुछ सालों बाद क्या ये भी वैसे हीं धुंधले हो जाएँगे? कभी तो स्थिर नहीं रहा उसका जीवन... कितना तेज और बदलता रहा है - सब कुछ !  कभी रुककर कुछ देखने का वक़्त ही न मिला हो जैसे !


आज जो हुआ ये तो निश्चय संयोग ही था। पर शायद कुछ भी एक बार घटित हो जाये उसके बाद जब हम पीछे मूड कर देखते हैं तो लगता है कि नहीं ये महज संयोग नहीं हो सकता। ये तो नियति ही रही होगी।


इन दिनो अनुराग अपने कुछ दोस्तों के साथ यूएस-कनाडा के सीमावर्ती इलाके में छुट्टियाँ बीताने आया है। आज होटल वापस आते हुए अनुराग ने जीपीएस बंद कर दिया। गाँवो से होकर जाने वाला एक दूसरा रास्ता निकाल लिया था उसने। अगर एक जैसी ही जगहें हों तो उसे घूमना बेकार लगने लगता है। जिस रास्ते गया उसी रास्ते से वापस तो वो आ ही नहीं सकता था। कल ही तो वो कह रहा था कि यायावरी में बुरे अनुभव भी होने चाहिए बस दो चार जगहें देखने और तस्वीरें खीचने को घूमना नहीं कहते।  अनुभव याद रहते हैं... जगहें और तस्वीरें तो बस कहने और दिखाने के लिए होती हैं। अंजान रास्ते से गुजरते हुए उसने अचानक एक हरे भरे फार्म के सामने गाड़ी रोक दी और कहा चलो देख कर आते हैं। आनाकानी करने के बावजूद उस 'प्राइवेट प्रॉपर्टी'  पर सभी उसके पीछे आ ही गए। यूँ भटकते हुए अनायास ही कहीं रुक जाने को संयोग ही तो कहेंगे? या सचमुच ऐसा है  कि जहां जहां जाना लिखा है, जिनसे मिलना लिखा है... वहाँ हम चले ही जाते हैं? और कुछ हो जाता है जीवन के रैंडमनेस में खूबसूरत पैटर्न सा।


घास के मैदान में अपनी मशीन दौड़ाते हुए एक बुजुर्ग सबसे पहले मिले। पर ऐसे मिले जैसे वर्षों से उन्हें जानते हों। उन्होने अपने फार्म की जानकारी बड़े गर्व और प्यार से दी। फिर उनकी पत्नी भी मिल गयीं। दोनों उम्र के सत्तर वर्ष पार कर चुके हैं... पता चला वो किसी जमाने में मशहूर ठीकेदार और शिकारी थे और उनकी पत्नी शिक्षिका। उन्होने अपने फार्म और घर की एक एक चीज ऐसे दिखायी जैसे कोई म्यूजियम की गाइड रहीं हो। एक घंटे से ज्यादा का वक़्त कैसे निकला किसी को कुछ पता ही नहीं चला।


सब कुछ पर्फेक्ट ! इतना अच्छा जैसे सपना हो। इतनी गर्मजोशी से उनका मिलना। एक एक बात प्यार से बताना... कैसे सब कुछ उन्होने खुद अपने हाथों से बनाया। टाइल, पर्दे, दीवार, हीटिंग सिस्टम ... सबकुछ उन्होने खुद डिज़ाइन  किया। सब कुछ अविश्वसनीय सा लगा। कितनी तो नयी बातें पता चली। उनके घर का तीन तरफ से मिट्टी में होना। सब कुछ अत्याधुनिक के साथ साथ प्राकृतिक भी। सेव और ब्लूबेरी के बागान, भेड़ें, तालाब, बतखें, मछलियाँ... घर में शिकारी बंदूक, अलास्का में शिकार किए हुए भालू के साथ पत्रिका में छपी तस्वीर और दीवारों पर ढेर सारे शिकार किए हुए जानवर ।

सभी को बहुत अच्छा लगा.। सबने यही कहा - ये होती है जिंदगी !  कितने अच्छे लोग हैं ।


अनुराग के लिए सब कुछ इतना रोचक था कि वो खुद बीच बीच में बताता जा रहा था कि इसका क्या मतलब है। पर सब कुछ ही बदल गया जब एक कोने में लगे पत्थर और उन पर पड़े फूलों पर नजर गयी... पूछने पर पता चला उनके एकलौते बेटे... 25 साल पहले प्लेन क्रैश... उनका इस दुनिया में अब कोई नहीं... इस अंजान जगह में ये विशाल फार्म और...


उसके बाद उन्होने और क्या-क्या बताया... उसे याद नहीं। वो सुन ही कहाँ पाया कुछ। डिज़ाइन वाली बात में से बस एक ही लाइन उसके कानो में गूँजती रही... "हमने ये इसलिए ऐसा बनाया कि व्हील चेयर आसानी से आ जा सके "!


वो सोचता रहा... क्या ऐसा नहीं है कि इन सबके होते हुए भी जो खालीपन है वो कहीं ज्यादा गहरा है? क्या ये इसलिए इतने प्यार से सब कुछ बता रहे थे क्योंकि इन्हें बात करने को लोग ही नहीं मिलते? क्या सब कुछ होने और कुछ न होने में इतना महीन अंतर है?  ये सब कुछ क्या वो खालीपन दूर करने को है जो भरा ही नहीं जा सकता ? क्या हर पूर्णता में खालीपन होता ही है? उसे याद आ रही हैं उसके दोस्त की माँ... उनके पास भी सब कुछ है। बेटे ऐसे जो कोई भी सपना देखता है। दुनिया जीत सी ली हो उन्होने.... वो अनुराग से घंटो बात करती हैं... बस बड़ी हवेली में अकेली रहती हैं।  अजीब दर्द दिखता हैं उसे उनकी बातों में ! जीवन की  हर उपलब्धि बताते हुए एक अजीब खालीपन... बेटों की सफलता वाली पत्रिकाओं की कतरन दिखाते हुए गर्व और खालीपन का जो मिश्रण होता है उसे पता नहीं क्या कहते हैं !


अनुराग को उत्तर नहीं मिल पा रहा क्यूँ मिलना हुआ इस दंपत्ति से. उसे इतना पता है कि कुछ भी यूँ ही तो नहीं होता संयोग हो या नियति.. फिलहाल वो इतना जानता है कि जिनका नाम भी नहीं पता उन्हें वो इस जन्म भुला नहीं पाएगा ।


'इतने सेंटी क्यूँ हो बे? हुआ क्या तुम्हें?" जब ये आवाज कानो में पड़ी तो अनुराग ने बस इतना कहा - "नहीं, कुछ नहीं। चलो"।


उसे पता है वो बुद्ध नहीं हो सकता... दो चार दिन में... ये बातें वैसे ही समतल हो जाएंगी जैसे हर साल की बरसात से कुछ सालों में गड्ढे... !

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~Abhishek Ojha~

12 comments:

  1. औरों के अध्यायों में अपने जीवन का अर्थ ढूढ़ने वालों को बड़ा देर से पता चलता है कि उनका भी अपना अध्याय है उसी पुस्तक में।

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  2. ओह अनुराग ! सेंटी सब नहीं हो सकते बे।
    क्या बढ़िया लिखा है। वाह।

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  3. जीवन में क्या मिलेगा और किसके लिए हम टकटकी लगाये रह जाएंगे यह हमारे वश में नहीं है। वश में है तो अच्छे से अच्छे के लिए प्रयास करना लेकिन जो भी मिल जाय उसे भगवान का दिया मानकर संतोषपूर्वक ग्रहण कर लेना।

    आपकी यह पोस्ट भावुक करती है।

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  4. कुछ डेजा वू सा कुछ नोस्टालजिया सा

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  5. यहाँ भी कुछ कुछ odd man out वाली बात, तो ’संयोग’ पोस्ट की तारीख पर गौर किया - संयोग :)

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  6. अच्छा है अनुरागों का होना, बुद्ध ऐसा ही कोई कभी हुआ होगा।
    सेंटी होना अच्छा है, बहुत ही अच्छा।

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  7. जहां जहां जाना लिखा है, जिनसे मिलना लिखा है... वहाँ हम चले ही जाते हैं? और कुछ हो जाता है जीवन के रैंडमनेस में खूबसूरत पैटर्न सा।

    अनुराग जैसा ही महसूस करते हैं हम जैसे ज्यादा तर लोग सिर्फ ये अनुभूती के खड्डे जल्दी ही समतल हो जाते हैं।

    बहुत दिनों बाद आपके ब्लॉग पर आई और सेंटी अनुराग ने सेंटी कर दिया।

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  8. जहां जहां जाना लिखा है, जिनसे मिलना लिखा है... वहाँ हम चले ही जाते हैं? और कुछ हो जाता है जीवन के रैंडमनेस में खूबसूरत पैटर्न सा।

    अनुराग जैसा ही महसूस करते हैं हम जैसे ज्यादा तर लोग सिर्फ ये अनुभूती के खड्डे जल्दी ही समतल हो जाते हैं।

    बहुत दिनों बाद आपके ब्लॉग पर आई और सेंटी अनुराग ने सेंटी कर दिया।

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  9. Nice and detailed blog. Kindly increase your font size as reading becomes slightly difficult. देखने में दिक्कत आती है.

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  10. बुद्ध होने की संभावना और न हो पाने की वास्तविकता के बीच की स्थिति का भी अपना आनंद है।

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  11. मन का एक कोना अक्सर खाली-खाली रहता है। उसी एक कोने में प्राण अटक कर रह जाते हैं। बुद्ध नहीं हो पाते हम।

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