Jun 24, 2012

वो सवाल !

 

याद है तुम्हे बचपन के वो सवाल?

वो धूर्त व्यापारी - जो कीमत बढ़ाकर छूट दे देता था.
छूट को बट्टा भी कहते थे न? - अब बस 'डिस्काउंट' कहते हैं.
…हर बार पेट्रोल की कीमतें बढ़कर घटते देख - उसकी याद आती है.

और वो खम्बा?

जब भी किताब पलटा - उसका दो बट्टे तीन हिस्सा पानी में ही डूबा रहा.
हवा में - एक बट्टा तीन.
तब ख्याल आया था - अगर पानी खम्बे के ऊपर चला गया तो?
कितना हिस्सा हवा में रहेगा?
बचपन से ही उटपटांग सोचता था !

और जब नया-नया जोड़ना सीखा था
तब किसी ने कहा था – बुद्धू ! जहाँ भी 'कुल' दिखे उसे जोड़ देना होता है.
सवाल में बस 'कुल' शब्द ढूँढना - कुल माने जोड़, शेष माने घटाव.

बिन समझे शायद पहली बार सवाल हल तभी किया था.
पहला भरोसा भी.
उस समय सबसे ज्यादा अंक लाना ही तो सबकुछ होता था !

पता है तुम्हे? गणित के सवाल कभी भारी नहीं होते.
सवाल बनाने वाले अंकों पर भी ध्यान देते हैं.
बड़े अंक देखते ही लगता कि कुछ गलत हो रहा है.
एक बार रुक जाता.
आज भी कुछ उलझता देख लगता है - कुछ तो गडबड है !

और वो गाय ?

खूंटे में बंधी दिन भर चरती रहती.
हरी घास के लिए जहाँ तक जा सकती - जाती.
रस्सी में तनाव से वृत्त बन जाता.
कितना खूबसूरत था न?
एक क्षेत्रफल के सूत्र से गाय का भाग्य पन्ने पर लिख देना - कितना चर पाएगी !

तब ख्याल आया था - अगर खूंटे से खुलाकर भाग गयी तो?
तब कितना चरेगी?
तब तो सवाल ही नहीं बन पायेगा?
फिर तो वो पूरा खेत ही चर सकती है !
पूरी 'सरेह' भी ! - उसकी मर्जी.

तुम्हे सोचता हूँ तो उसकी याद आती है -

रिश्ते की रस्सी कभी बंधी ही नहीं ना दुसरी तरफ..
कोई तनाव हो भी तो कैसे ?
खींच लूं चाहे जितना…
कोई फर्क तो पड़ेगा नहीं ! - ये बात तो तभी समझ आ गयी थी.
पर एक तरफ से बंधी रस्सी की बेवसी अब समझ आई.
 
बिन केन्द्र के.. वृत्त बने भी तो कैसे ?! Smile 

#रैंडम, #ना गद्य - ना पद्य !

~Abhishek Ojha~

Jun 17, 2012

सदालाल सिंह (पटना १३)

 

उस दिन शाम को जब मैं चाय पीने गया  तो बीरेंदर उर्फ बैरीकूल फोन पर बात करता हुआ कुछ चिंतित सा दिखा. मैंने पुछा – ‘क्या हुआ बिरेंदर? सब ठीक है?’

‘हाँ भईया. आइये. सब ठीके है. ऊ एक ठो मैटर हो गया है' - बैरीकूल ने कहा.

‘चचा ! ई सोनुआ का घर तो पटना एके में पड़ता है न?’ - बिरेंदर ने पास ही फल और जूस की दुकान वाले चचा से पूछा.

‘हाँ त इहे फ्रेजरे रोडवा नु क्रास करना है. एके में होगा' चचा ने खिडकी से जूस बढाते हुए कहा. चचा की दोतरफा दूकान है. खिडकी से बाहर गली में भी बेचते हैं और अंदर कॉम्प्लेक्स में तो बेचते ही हैं.

‘पटना एके?’ - मैंने पूछा.

‘अरे ऊ पटना-एक पिन कोड का बात था. हमलोग कोई जगह केतना दूर है इसके लिए पिन कोड से भी देखते हैं. जानते हैं… नया वाला पोस्ट मैन्वो सब को एतना पता नहीं होता है जेतना चचा को पता है. कौन-कौन घर किस पिन कोड का एरिया में पड़ेगा सब मालूम है इनको’ बिरेंदर ने चचा को खुश किया तो मैं वापस ‘मैटर’ पर आया –‘अरे वाह. वैसे तुम कह रहे थे कि कुछ मैटर हो गया है?’

‘हाँ ऊ एक ठो कांड हुआ है. लरका-लरकी का चक्कर है… अब का कीजियेगा उमरे अईसा होता है. अब सब अपना छोटूआ जैसा त होता नहीं है. का छोटू? बिरेंदर ने कुछ सुनाने के मूड से चाय वाले छोटू की तरफ इशारा किया.

‘बिरेंदर भईया, सादा लाल सिंग !’ छोटू ने सड़क पर जाते हुए एक सज्जन की तरफ आँख से इशारा किया. शायद उसे अपनी कहानी भी नहीं सुननी थी तो बिरेंदर को कहीं और उलझा दिया.

सदा लाल सिंह को देख बिरेंदर बहुत प्रसन्न हुआ. उन्हें सुनाते हुए कहा – ‘अबे सादा-लाल नहीं, सदालाल. नाम का बैंडे बजा दिया तुम तो. लाल लाल होता है उसमें सादा रंगीन का होगा बे?’ फिर तेज आवाज में बोला – ‘ऐ सदालाल ! आओ हिंया तनी.’ सदा लाल सिंह निकल जाने के मूड में थे लेकिन बिरेंदर दौड कर पकड़ लाया – ‘अरे मरदे आओ. दू मिनट में जो तुम्हारा तूफ़ान मेल छूट जाएगा ऊ हमको पूरा मालूम है. वैसे एक बात है तूफ़ान तो हईये हो… नाम तुम्हारा अईसही थोड़े है सदालाल.’

‘सदालाल मने बुझे कि नहीं भईया? सदा माने आलवेज तो सदालाल माने आलवेज रेड. माने इनका जो स्टेटस है ऊ हमेसा लाले रहता है.’ बिरेंदर ने मुझे उनके नाम का अर्थ समझाया.

‘अरे हट रे… सिंघासन खाली कर..’ बिरेंदर ने वहाँ खड़ी मोटरसाइकिल पर बैठे लड़कों को उठाते हुए कहा.

‘देखो बिरेंदर अब जादे बोल रहा है तुम?’ – सदालाल सिंह ने कहा तो बिरेंदर ने बात घुमाई ‘ऐ छोटुआ, ब्रिजकिसोरजी के तरफ से चाय दे तीन ठो त. ईस्पेसल.’

‘ब्रिजकिसोरजी?’

‘अरे यहीं त पूरा पटना मार खा जाता है! इनका असली नाम त ब्रिजकिसोरे है. ऊ त हमलोग प्यार मोहब्बत में नाम रखे हैं - सदालाल. एतना बीजीए रहते हैं कि का करें ! पहिले इनका नाम रखे थे - स्टेटस लाल. हमेशा लाल स्टेटस लगा के रखते हैं थोबडा प. लेकिन ऊ नाम ओतना मजा नहीं दे रहा था. त सदा लाल सिंग रख दिए. अब ‘सदालाल सिंग’ में जो बात है ऊ का बताएं आपको. नामे से अफसर लगते हैं. पर्सनिलिटी त खैर हईये है इनका ! देखिये देखिये… अभी नहीं… जब चलेंगे तब देखिएगा…. … जो तनी बाएं मार के दाहिने पैर घुमा देते हैं न…  चाल नहीं कतल है… कतल ! और सकल त देखिये रहे हैं… ललाटे लाल बत्ती है इनका - भक् भक् बरते चलते हैं !’ बिरेंदर ने जो परिचय दिया, सदा लाल सिंग कुछ बोल नहीं पाए. छोटू तब तक चाय लेकर आया और बात शायरी पर आ गयी.

‘सदालाल कुछ नया सुनाओ यार, आजकल लिख रहे हो कि नहीं?’ - बिरेंदर ने पूछा तो सदालाल जी मुस्कुराते हुए बोले ‘नहीं यार… अब कहा लिख पाते हैं. फिर कभी सुनायेंगे अभी चलने दो’ सदालाल बची चाय पास पड़े ईंट के टुकडो के ढेर पर फ़ेंक कर तेजी में निकल लिए. और बिरेंदर ने मुझे असली बात बतायी -

‘जानते हैं भईया, ई सदलालवा हमको एतना पकाया है कि का बताएं आप से. हम तो गजल-उजल शायरी ई सब में पूरे गोल… आ ई साला आके जो परस्तिस, तसब्बुर जैसा शब्द हमको सुनाता था. हमको लगता था कि बहुते बड़का शायर है. ऊ त बाद में पता चला कि कइसे इधर का उधर करता है. एक दिन दू लाइन सुनाया हमको – “किस्सा हम लिखेंगे दिले बेकरार का, खत में सजा के फुल  हम प्यार का.” हमको लगा कहीं तो सुने हैं… गलती कर दिया ऊ राग में गा दिया. नहीं त हमसे नहीं धराता. लेकिन जब धर लिए कि सब गाना का उठाके हमको सुना रहा है… उसके बाद से तो… देखे नहीं कईसे भागा है आज. साला सुनता पंकज उदास को भी नहीं है आ बात करेगा मेहदी हसन का. पहली बार नुसरत फ़तेह अली खान जैसा नाम हम इसी का मुंह से सुने.  पता नहीं का मजा आता है साले फेकने में. हमको जब कुछो बुझाईबे नहीं करता है तो मेरा सामने फेक के ही का उखाड लेगा. पर उस दिन के बाद से ही ई बीजी बन गया.’

‘अरे कोई  बात नहीं बिरेंदर छोडो क्या करना है.  कब तक बेवकूफ बनाता’ मैंने बैरी को शांत करने के लिए कहा.  छोटू चाय के ग्लास उठाने आया तो बोला ‘बरी गडमी है ! नहीं भईया?’

बैरी ने गुस्सा उगला – ‘कवंची का गर्मी है रे ! जादे रजेसी लगा है तो एक ठो लगवा दे एसी तोराके…  अबे गर्मी में गर्मी नहीं होगा त सीतलहरी चलेगा रे? मौसम बैज्ञानिक के सार… भाग नहीं त पीटा जाएगा दू-चार हाथ'

‘चलो बीरेंदर कहीं घूम के आते हैं… क्या तुम भी ! सदालाल जैसे लोगों पर गुस्सा होते हैं क्या? दया भाव रखो ऐसे लोगों पर तो' – मैंने बैरीकूल को कूल करने की कोशिश की.

बाइक स्टार्ट करते-करते बीरेंदर फिर बोला – ‘जानते हैं भईया जो जेतना गर्मी गर्मी चिल्ला रहा है न, अगर कल को पटना में गलती से बरफ पड़ गया न… त इहे सब आदमीया आपको जीने नहीं देगा कि मौसम का माँ-बहन हो गया !’

‘मैटर’ और छोटुआ का इश्क  पटना १४ में Smile

(पटना सीरीज)

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~Abhishek Ojha~

PS: ऐसे-ऐसे ब्लॉग परिचय हैं कि... मैंने सोचा अपना भी कुछ धाँसू परिचय होना चाहिए। हमने ये लिखा -

"आप हैं न काम के न धाम के. शिक्षा के नाम पर भरपूर टाइम पास करते रहे। कोई प्रकाशित कृतियाँ नहीं। किसी पुरस्कार-सम्मान का सवाल ही नहीं उठता। संप्रति बकबक बहुत करते हैं।" :)

(इसमें सुधार के लिए फेसबुक मित्रों का धन्यवाद.)