Jul 12, 2011

तुमने जो देखा-सुना…

 

…सच था मगर, कितना था सच ये किसको पता.

ये गाना तो आपने भी सुना ही होगा? कुछ गानों के बस कुछ खास शब्द ही याद रह जाते हैं. फिर वो गाना हमारे लिए वहीँ से शुरू होता है और वहीँ खत्म !  जैसे कोई कहानी-कविता-उपन्यास पढ़ने के बाद केवल कुछ पंक्तियाँ ही याद रह जाती है. कुछ वाक्यों का शब्द विन्यास दिल को छूते हुए दिमाग के किसी कोने में जा बसता है. ये पंक्ति भी मेरे लिए कुछ ऐसी ही है. अक्सर ये दिमाग के किसी कोने में रिवाइंड हो जाती है.

सुना तो अक्सर सच नहीं ही होता है देखा भी हमेशा सच हो जरूरी नहीं होता. वैसे आँखों का क्या दोष ! सच-झूठ का वर्गीकरण तो दिमाग को करना होता है. और इस चक्कर में अक्सर बात क्या से क्या हो जाती है और फिर नए रूप में उसमें वर्षों के विश्वास को पल भर में तहस-नहस कर देने की गजब की क्षमता आ जाती है. हम इंसानों को भगवान ने एक प्रतिभा खुले हाथों से बांटी है और वो है किसी की बात सुनकर किसी अन्य को सुनाने से पहले उसमें मिर्च-मसाला मिलाकर बात को परिवर्तित कर देने की कला.  कुछ यूँ कि हाइड्रोजन और ऑक्सिजन से मिलकर बनी निर्मल जल की तरह की बात में भी चट से कार्बन, नाईट्रोजन का तड़का लगा के आरडीएक्स तैयार ! और फिर दे मारा धीरे से… बूम… !

आधे-अधूरे सच या झूठ से बनते-बिगडते रिश्ते देखे हैं मैंने. जब आप किसी बात की उत्पति से लेकर उसके बतंगड बन जाने तक हर मोड पर साथ होते हैं तो पता चलता है कि कितनी क्षमता होती है इस प्रक्रिया पूरे में.  गजब की ऊष्माक्षेपी अभिक्रिया होती है.

[एक अनावश्यक चेतावनी: आगे बात का बतंगड होने की संभावना है Laughing out loud]

अब क्या करें… बात जब निकली थी तब तो प्राकृतिक लौह अयस्क थी लेकिन उन तक पंहुचते-पंहुचते कब और कैसे परिष्कृत होकर गोली बन गयी पता ही नहीं चला. सुना है पहले लोग अखबार में विज्ञापन देख जब वीपीपी से सामान मंगवाते थे तब अक्सर खोलने पर भूसा निकल आता था ! बातों के बदलते स्वरुप देख मुझे तो भरोसा हो चला है कि भेजने वाले सही सामान ही भेजते होंगे.  इतने हाथों में इधर-उधर होते हुए लोगों के अनुमान और बातें ही उसे भूसे में परिवर्तित कर देती होंगी. अब मैंने गिफ्ट भेजा वो नाराज हो गयीं कि मैंने भूसा भेज दिया. अब उन्हें मुझपर भरोसा ही नहीं तो मैं क्या करूँ. एक मैं हूँ कि वो सच में भूसा भी भेज दें तो मैं हीरा मान लूं… विषयान्तर? ओके. बैक टू भूसा… सॉरी ‘बात’.

हाँ तो बात जब मेरे यहाँ से चली तब तो एक सरल हल होने वाले समीकरण जैसी थी. सिंपल ! वास्तविक हल थे ! इतना ईजी की पांचवे दर्जे का बच्चा भी हल कर ले… लेकिन उसमें किसी ने कुछ जोड़ दिया. और उन तक पंहुचते-पंहुचते अब उसका हल कॉम्प्लेक्स हो गया है. उसमें एक तो लोगों के जोड़े काल्पनिक हिस्सा आ गया है और जो वास्तविक वाला हिस्सा भी उन्हें दिख रहा है वो भी तो वो नहीं जो मैंने कहा था. लेकिन उन्हें एक तो गणित से मतलब नहीं ऊपर से जो सीधे-सीधे हल दिख रहा है उससे आगे वो क्यों सोचें? !  ये ससुर गणित भी न… कहाँ से उदहारण ले आया मैं ! पर ये उदाहरण है बड़ा सटीक.

तो दरअसल हुआ कुछ यूँ कि बात जब मेरे यहाँ से चली तो इलेक्ट्रोन की तरह थी. लेकिन लोगों ने उसके लिए मैग्नेटिक फिल्ड की तरह काम किया. ओह ! ये उदहारण भी…

ऐसे समझते हैं -  बातें सदिश राशि की तरह होती हैं. एक ही बात अगर मैं किसी से सीधे कहूँ और वही बात कहीं से घूम कर आयें तो दोनों का मतलब अलग-अलग होता है.  दूरी और विस्थापन की तरह?  …ये भी सही उदहारण नहीं है.

वैसे उदहारण की जरुरत नहीं है. सीधी सी बात है…

‘तुमने जो देखा-सुना सच था मगर, कितना था सच ये किसको पता.’

…  वैसे गलती उनकी भी नहीं है उन तक जो पंहुचा वही तो सुना उन्होंने. बस भरोसे का सीमेंट कहीं कम पड़ गया शायद.

खैर…   मुझे तो लगता है कि भरोसा कुछ ऐसा होना चाहिए कि ‘वो’ धक्का भी दें तो भी यकीं नहीं होना चाहिए कि ‘वो’ ही धक्का दे रहे हैं !

जो मैं कहना चाहता था समझ में आया? नहीं ? बातें होती ही ऐसी हैं. जिस फोर्मैट में कहना चाहो उस फोर्मैट में नहीं  निकलती है !

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सोच रहा हूँ कि इसे किसी विदेशी कवि की कविता के अनुवाद वाले फोर्मैट में लिख देता तो हिट हो जाता. नहीं?  आजकल बहुत चलन में है… Smile 

~Abhishek Ojha~

इस पोस्ट में आये शब्द: १. आरडीएक्स २. ऊष्माक्षेपी अभिक्रिया (exothermic reaction) ३. लौह अयस्क (iron ore) ४. कॉम्प्लेक्स हल (complex solution) ५. मैग्नेटिक फिल्ड में इलेक्ट्रोन ६. सदिश (vector). और ७. भूसा तो सबको मालूम ही है. 

Jul 2, 2011

मन्ना हटा

  प्राकृतिक खूबसूरती की बात ही कुछ और होती है ! आप मानते हैं न? मैं भी मानता हूँ लेकिन मैं ये भी मानता हूँ कि ना तो सभी प्राकृतिक चीजें खूबसूरत होती हैं और ना ही जो खूबसूरत है वो प्राकृतिक भी होता ही है. वैसे तो ‘खूबसूरत’ बड़ा व्यापक शब्द है और खबसूरती देखने वालो की नज़रों में... नहीं… नज़रों में तो नहीं होती. नजरें तो दर्पण और कैमरे की तरह जो होता है वही देखती हैं. जैसा है वैसे का  वैसा दिखा देती है. कोई मिलावट नहीं. अगर खूबसूरती देखने वालो के नज़रों में होती तो खूबसूरती सबके लिए एक सी होती. मुझे लगता है खूबसूरती देखने वालो के दिमाग, दिल या फिर दिलो-दिमाग जैसी किसी जगह में होती होगी. वैसे तो ये प्यार-मुहब्बत वाला दिल भी कौन सा अंग है ये बता पाना मुश्किल है. तो इंसान का वो दिलो-दिमाग क्या देखकर खूबसूरती का फैसला करता है ये बता पाना तो... पर एक बात तो है कुछ भी उचित अनुपात में सम्पूर्ण सा हो तो उसे ज्यादा लोग खूबसूरत करार देते हैं. पर इस अनुपातीय सम्पूर्णता के हिसाब से अगर कुछ बिल्कुल दोषरहित दिखे तो उसके प्राकृतिक से ज्यादा कृत्रिम होने का संदेह हो जाता है. मुझे तो लगता है कि कुछ परफेक्ट दिखे तो उसके प्राकृतिक होने की सम्भावना कम ही है. बिन फोटोशॉप के कौन बनाता है जी पत्रिकाओं के कवर? भले कवर पर विश्वसुंदरी की ही तस्वीर क्यों ना हो ! कहने का मतलब ये कि आजकल जब कुछ परफेक्ट दिखे तो उसके कृत्रिम होने पर संदेह हो ही जाता है. साथ ही जो पूर्ण कृत्रिम ही है वो भी खूबसूरत होता है. प्राकृतिक खूबसूरती को टक्कर देने के स्तर तक खूबसूरत. 

ऐसी ही एक कृत्रिम खूबसूरती की ओर मैं अक्सर देखता हूँ – मानव के प्रकृति पर विजय और कृत्रिम खूबसूरती का अद्भुत नमूना. मैं बात कर रहा हूँ मैनहट्टन की. कंक्रीट, स्टील और ग्लास के manhattanइस जंगल की अपनी खूबसूरती है. मैं कुछ प्राकृतिक जगहों को इस कदर खूबसूरत मानता हूँ कि मैंने इसे कभी उस नजर से देखा ही नहीं. पर वो खूबसूरती ही क्या जो आपके पूर्वाग्रह के बाँध को तोड़ आपकी नज़रों को अपनी ओर खींच ना ले.

... मैं हडसन पार पश्चिम से इसे देख रहा हूँ. आसमान में कभी कम कभी ज्यादा बादल तो कभी बिल्कुल नीला आकाश. शाम का समय और नीचे उफनती हडसन. इन सबसे परावर्तित होती किरणें. विभिन्न प्राकृतिक और कृत्रिम रंगों के अलग-अलग समय पर अलग-अलग मिश्रण कुछ नए से रंग बना देते हैं. इमारतों पर इन रंगों के मिश्रण और उन रंगों के चढ़ाव-उतराव (ग्रेडीएन्ट) को अगर नजरें देख पाएं तो दिलो-दिमाग के उस हिस्से को छूती हैं जहाँ से खूबसूरती परिभाषित होती है. खासकर सिंदूरी ढलती शाम के समय नीले ग्लास के भवनों पर ये विविध परावर्तन कभी-कभी गजब का रंग मिश्रण तैयार कर देते हैं. जैसे-जैसे शाम ढलती है ये रंग बदलता जाता है. रात को जगमग करता शहर, महीने के कुछ दिनों में चाँद और सामने नदी. उफनती हुई नदी जो कभी बिल्कुल शांत सी भी दिखती है. और कभी कभी पूरा शहर बादलों में ढँक सा जाता है - सब कुछ. गगनचुम्बी इमारतें तब नहीं दिखतीं... एक ही समय पर जल, आकाश, भूमिगत - हर तरह का छोटा-बड़ा परिवहन आँखों के सामने होता है. और मैं सोचता हूँ कि मनुष्य के प्रकृति पर विजय का कौन सा नमूना नहीं दीखता यहाँ से?

Upper_and_Middle_Manhattan

इस शहर से मुझे प्यार नहीं था. भीड़ भी कभी अच्छी नहीं लगती. पर धीरे-धीरे... वैसे तो कहीं भी कुछ दिन रहो तो वो जगह अच्छी लगने लगती है. [इस मामले में मुंबई मेरे लिए एक अपवाद रहा है. वैसे फुटकर ही रहना हुआ है मुंबई में. थोक के भाव से कभी दिन बिताये नहीं वहाँ]. पर प्यार नहीं होते हुए भी मैनहट्टन को दूर से यूँ देखना मुझे आकर्षित करता रहा. फिर सडको पर चलते हुए मुस्कुराने को कुछ ना कुछ मिलता रहता है. चाहे वो पब्लिक आर्ट हो या विचित्रतम कुत्ते, और उससे भी विचित्र इंसानी फैशन. ... फिर कुछ दिनों के बाद कुछ भी अजीब नहीं लगता - कुछ भी.

यूँ तो हर जगह एक दूसरे से अलग होती है. वैसे ही ये भी है. हर जगह की तरह इसकी भी अपनी विचित्रता है, अपनी खूबसूरती है. इस शहर का सबसे ज्यादा कुछ मुझे पसंद है तो वो दृश्य जिसका मैंने वर्णन किया. उसके अलावा विविधता और आजादी की सीमा. मुझे लगता है कि ये शहर कई मामलों में आजादी की सीमा तय करता है. जैसे मुझे अभी अचानक ख्याल आया कि कपड़ों की लम्बाई और महिला सशक्तिकरण के परस्पर संबंध पर कोई अध्ययन क्यों नहीं किया गया? संसार में कहीं बुरखे और घूँघट की लम्बाई कम पड़ती है तो कहीं धुप में पीठ पर पड़ा एक धागा भी ज्यादा होता है ! विषयान्तर?... ओके. बैक टू मैनहट्टन...

विविधता... पता नहीं इस स्केल पर संसार में किस नंबर पर आता है लेकिन मुझे यहाँ हर दूसरा आदमी संसार के किसी अन्य कोने से आया लगता है. हर चहरे पर अलग कहानी कहने को होती है. और हर आदमी एक अलग संस्कृति लेकर चलता नजर आता है. हर व्यक्ति आपस में किसी अनजान भाषा में ही बात करता नजर आता है. मैनहट्टन की सड़कों पर दो लोग अंग्रेजी में बात कर रहे हों इसकी संभावना बहुत कम ही होती है. वैसे किसी एक समय पर मौजूद लोगों में यहाँ कितने प्रतिशत पर्यटक होते हैं ये आंकड़ा मुझे मिला नहीं.

  इस छोटे से क्षेत्र को देखकर कई विचार मन में भटकने लगते हैं. इस छोटी सी जगह में कैसे कैसे लोग रहते हैं. इसका सकल घरेलु उत्पाद कितने देशो के सकल घरेलु उत्पाद से बड़ा होगा? फोर्चून ५०० में से कितनी कंपनियों का मुख्यालय होगा यहां? कितने लोग यहाँ आये, गए और कितने हैं. हम इंसानों ने जीवन को कितना जटिल नहीं बना दिया है? और भी बहुत सारे भटकते विचार...

ये शहर अकेलापन महसूस करने की फुर्सत नहीं देता... आप कैसी भी सोच रखते हों आपके लिए कुछ ना कुछ है इस शहर में. हमारे सोच की सीमा तक जाने वाली कई चीजें. शायद ये ऐसी अकेली जगह नहीं है... पर मुझे कुछ जगहें इतनी पसंद हैं कि हर बात पर मैं उनसे इसकी तुलना करता था हूँ... फिर धीरे-धीरे पता नहीं कब से मुझे ये जगह कुछ अच्छी सी लगने लगी है....

अब रुकता हूँ वर्ना पोस्ट की लम्बाई मैनहट्टन से बड़ी हो जायेगी Smile वैसे मन हो तो ये विडियो भी देख आइये.  नहीं तो कोई बात नहीं !

*’मन्ना-हटा’ मैनहट्टन  का तत्सम है Smile 

~Abhishek Ojha~