May 28, 2011

मॉडल बनाम मॉडल

 

लोग भी गजब के स्वयं-विरोधाभासी व्यक्तव्य देते हैं. कई बार मुझे लगता है कि अगर लोगों से बातचीत करना भी गणित के सवालों की तरह होता तो चुपचाप सुनने की जगह एक 'उल्टा टी'* उनके चेहरों पर चिपका कर 'हेंस प्रूव्ड़' कह देता.

इस सप्ताह एक कॉन्फ्रेंस में जाना हुआ. सूट-टाई पहनकर भारी-भारी शब्द फेंकने (मौके की नजाकत देखते हुए फेंकना  बोलने-सुनने से बेहतर शब्द लग रहा  है) वाले लोग. ऐसे कॉन्फ्रेंस में गज़ब का खेल होता है. गंभीर मुद्रा बनाकर भारी-भारी शब्दों को यूं फेंकना होता है कि सामने वाला कुछ रोक ही ना पाये. जब तक कोई एक शब्द रोकने की कोशिश करे अगला फेंक दो. सामने वाला भी थोड़ी देर में डर कर  झुक लेता है: निकाल जाने दो ऊपर से. लेकिन उसके बाद अगर निद्रा देवी  के आशीर्वाद से जो बच गए वो गंभीर मुद्रा तो ऐसी बनाते हैं जैसे सब कुछ समझ रहे हों. मैं तो कहता हूँ कि ऐसे कॉन्फ्रेंसों में इस्तेमाल होने वाले शब्दों के वजन पर भी शोध किया जा सकता है. मुझे लगता है कि अगर इंसानी समझ के लिए शब्दों का औसत वजन 100 ग्राम  हो तो कम से कम औसतन 2 किलो के शब्द तो ऐसे कॉन्फ्रेंस में इस्तेमाल होते ही हैं. मजे की बात तो तब होती है जब लोग उनपर चर्चा भी करते हैं और आपको पता चलता है कि वो जो बोल रहे हैं उसका असली बात से कोई लेना देना ही नही. बिन समझे भी लोग गज़ब के आत्मविश्वास के साथ बोल लेते हैं.

एक सज्जन दो-चार एकाध क्विंटल वजन वाले समीकरण की स्लाइड दिखाने के बाद बोले "10-15 साल पहले क्या ये संभव था कि हम ऐसे तरीकों से चीजों को देख पाते ? हम खरतों को टाल तो नहीं सकते पर हमने उन्हें देखने का नया तरीका निकाला है। और इससे हमें आत्मविश्वास तो मिलेगा ही". अब अपना-अपना नजरिया है. वो होंगे वालस्ट्रीट के डॉन. मैंने तो अपने पड़ोसी से कहा कि क्या हरबार यही भविष्य देख लेने के 'आत्मविश्वास का भ्रम' नहीं डुबा देता है? हमारे कॉन्फ्रेंसीय पड़ोसी जेनेवा से कॉन्फ्रेंस अटेंड करने आये थे. फटाफट मेरी ये बात भी डायरी में लिख डाले. बड़े जोश में डायरी में लिख रहे थे. हमने तो सोचा कि फ्री में एक अच्छी सी डायरी और खूबसूरत कलम मिली है तो कुछ अच्छा उपयोग करेंगे क्यों वजनी समीकरण लिख के बर्बाद करें. वैसे मेरा तो मन ये भी हुआ कि अपने पड़ोसी से पूछ लूं  “ऐसे कांफेरेंस के लिए जब कोई कंपनी जेनेवा से न्यूयोर्क बिजनेस क्लास और फाइव स्टार का बजट निकाल रही है वो क्यों दिवालिया नहीं होगी?” लेकिन इडस्ट्री के मुलभुत सिद्धांतों पर सवाल नहीं उठा सकता Smile 2011-01-27-Traps

मुझे लगता है कि ‘सर्वज्ञ होने के भ्रम से उपजा आत्मविश्वास’ बहुत घातक होता है. जिसे भी लगता है कि मुझे सबकुछ आ गया… वो तो गया काम से. क्या सफल होने के बाद लुढकने वाले अक्सर इसी भ्रम के शिकार नहीं होते? यहाँ मुझे उन महाशय की कही गयी बात में ही विरोधाभास दिखा. फिर जब उन्होंने अपने नए मॉडल की बात की और दिखाया कि कैसे उनका मॉडल उन्ही के पुराने मॉडलों से कई गुना बेहतर है तो मेरा सर चकराया. लोग भी नए वाले से जुड़े सवाल ही पूछ रहे थे. मेरा तो मन हुआ पूछ लूं “मान लिया कि नया वाला बहुत अच्छा है पर ये बताओ कि अब तक क्या मॉडल के नाम पर कचरा बेचते थे?”

ये होता है अपने ही बात में विरोधाभास. अब कुछ लोगों को ज्ञानी होने का ही घमंड होता है. कुछ को संस्कारी होने का. ज्ञानी और संस्कारी के साथ घमंड का सम्बन्ध ! डेडली कॉम्बो नहीं है? वैसे ही है जैसे कोई कह रहा हो कि ‘साले मैं बहुत विनम्र इंसान हूँ, मान लो नहीं तो सर फोड दूँगा !’ सोचिये कोई कह रहा हो  ‘अबे हम तुम्हारे जैसे नहीं हैं. हम विद्वान हैं. चार संस्कृत के श्लोक ठोके और साथ में दो ग्रीक फिलोसोफर के भी ठोक दिए अब हमारी बात मान लो… नहीं तो अब तुम भी ठोक दिए जाओगे.’

एकाध क्विंटल के समीकरण और संस्कृत-ग्रीक की दार्शनिकता सर्वज्ञ होने का भ्रम पैदा करे उससे बेहतर तो अज्ञान बने रहकर और फूंक-फूंक कर कदम रखने में ही बुद्धिमता नहीं है? सुना है जहाँ घर-घर में लोगों को पता है कि भ्रूण हत्या क्या है उन्हीं जगहों पर लिंग अनुपात ठुका हुआ है?

वैसे ही पिछले वीकेंड एक ‘इन्टरनेट मित्र’ मिले. न्यूयोर्क में अपने एक सीनियर के यहाँ रुके हुए थे. मुझ मिले तो अपने सीनियर के बारे में उन्होंने बोलना चालु किया: ‘उसकी वाइफ *** $^$%^…, उसके यहाँ कोई आये तो उसे अच्छा नहीं लगता. &*(& है. ’ मैंने से कहा तो ज्यादा नहीं लेकिन सोचा जरूर कि वो भी अपनी कोई अच्छी इमेज तो नहीं छोड़ गए !

अब ऐसे ही २ टन मेकप और ४ गैलन परफ्यूम में नहाई हुई लड़की किसी और लड़की को दिखाकर कहे कि देखो उसने कितना मेकप किया है, तो ? मैं तो बस गारंटी ले सकता हूँ कि मैं ऐसी लड़की से मिला हूँ और अगर अतिशय परफ्यूम से फेफड़ों को कुछ होता तो मैं आज ये पोस्ट नहीं लिख रहा होता. (गनीमत है मेरे ब्लॉग की बातें उस तक नहीं पंहुचाती और वो तो नहीं ही पहुचेगी यहां तक).

कुछ ऐसे लोगों से मिलना भी हुआ है जिनका ऐश्वर्य और सम्पदा देख कर बड़े अटकलबाज भी उनकी संपत्ति का अंदाजा नहीं लगा सकते. और जब वे ही पूछ लेते हैं कि लोग भ्रष्ट क्यों होते हैं? ऐसा सवाल कि आप को डाउट हो जाए कि ‘भ्रष्ट माने? एक्सक्यूज मी? यू मीन करप्ट?’

जब कोई खर्राटे मार रहा हो और सहसा कहे कि मैं सो नहीं रहा तो फिर भी समझ में आता है. लेकिन अगर कोई आपसे बात करते-करते कहे कि वो पिछले तीन घंटों से नींद में है. तो डाउट तो हो ही जाएगा कि नींद से उसका मतलब क्या है !

कई लोग एक साथ रोते हैं कि तनख्वाह भी कम है और टैक्स भी ज्यादा भरना पड़ रहा है !  फेसबुक और ट्विट्टर पर लोग लिखते हैं कि वो ऑनलाइन नहीं आ पा रहे.

लोगों के खुद की बातों में ही गजब की विसंगति हैं. अरे जब  आपके एक-एक अणु-परमाणु ये साबित कर रहे हैं कि आप आरडीएक्स यानी 1,3,5-Trinitroperhydro-1,3,5-triazine हो तो आप क्यों कहने में लगे हुए हैं कि नहीं मैं फिटकरी यानी potassium aluminum sulfate dodecahydrate हूँ. आप ऐसा कहेंगे तो लोग आपको फिटकरी नहीं माने लेंगे. हाँ ये हो सकता है कि इश्किया फिल्म वाला सल्फेट जरूर मानने लगेंगे Smile

लो ! इस बीच ‘मॉडल बनाम मॉडल’ वाली बात तो रह ही गयी. उस कॉन्फ्रेंस के बाद मॉडल बेचने वाली टीम आई. और फिर एक नयी बात पता चली. वास्तव में मॉडल बेचने के लिए अच्छे मॉडल होने जरूरी हैं. भले वो बिकने वाले मॉडल हों या उन्हें बेचने वाली मॉडल Smile  ऐसा भी हो सकता है कि मीटिंग में आपसे कोई पूछ ना ले कि मॉडल भी देखोगे या मॉडल ही देखते रहोगे?  यहाँ एक मॉडल गणितीय/वित्तीय वाले हैं और दूसरे तो आप भली-भाँती जानते ही हैं. ऐसा ही यमक अलंकार का उदहारण मेरे फेसबुक पर भी इस रूप में है:

All you need is a good 'model' to sell a not so good 'model' Smile

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~Abhishek Ojha~

*’उल्टा टी’: विरोधाभास (कोंट्राडिक्शन) का गणितीय प्रतीक. contradiction_falsum

May 9, 2011

तुम नहीं समझोगी !

 

[छुट्टी का दिन... और कई दोनों के बाद अच्छा मौसम. एक बार फिर खूब भटका... जब पैरों ने साथ छोड़ना चाहा तो ट्रेन का टिकट लेकर बैठ गया... आखिरी स्टेशन तक के लिए... आज हाथ में कोई किताब भी नहीं थी. पीछे बैठे एक जोड़े का वार्तालाप दिमाग में रिकॉर्ड हुआ... उसका रीप्ले:  ]

'तुम्हें कहना भी नहीं आता और कोई तुम्हारा मौन तक समझ ले ? वाह ! ये अच्छा है !  तुम कुछ भी ना करो और सामने वाला सबकुछ करे ?'

'अरे तुम्हें तो पता है जब सॉरी और थैंक यू बोलने की जगह भी स्माइल करने वाला इंसान हो तो... '

'क्या?'

'छोडो... तुम्हे समझ में नहीं आएगा.'

'ऐसे कैसे चलेगा? कुछ करो. वरना तुम्हारा कुछ नहीं हो सकता? '

'अरे जाओ, कोई तो होगी जो मौन समझेगी और सुनेगी. कुछ बोलना मुझे तो बनावटी लगता है. और बनावटी बातें नहीं करनी मुझे. हर रिश्ते में बातें कहने की जरूरत नहीं होती...'

'जैसे? '

'तुमने अपने पापा को कितनी बार कहा है कि तुम उन्हें मिस करती हो? खैर... छोडो तुम नहीं समझोगी.'

‘अरे ! ये क्या बात हुई. मैं तो अपने पापा को बोलती हूँ !’

‘हाँ, मुझे लगा था तभी तो मैंने कहा कि तुम नहीं समझोगी. खैर बॉटम लाइन इज मुझसे तो ना हो पायेगा. और अगर मैं ऐसा किसी को कहता भी हूँ तो इसका मतलब है कि वो बनावटी है. वो प्योर नहीं है !'

'अरे तो फिर तुम जो किसी को कहना चाहते हो, वो पता कैसे चलेगा ?'

'ये तो नहीं पता, पर कोई बीमार हो तो मुझे सहानुभूति दिखाना नहीं आता. ये भी नहीं कहना आता कि अपना खयाल रखना, किसी को सान्तवना देना नहीं आता और किसी को कम्प्लीमेंट तो आज तक नहीं दे पाया. डे-वे मनाना उस दिन मेसेज भेजना.. और... खैर छोडो तुम क्या समझोगी. अगर कभी ऐसा कुछ किया हो तो समझ लेना वो दिल से नहीं निकला होगा. जो दिल को छू जाए वो कभी मेरी जुबान से निकल ही नहीं पाता. तुम्ही बताओ भावनाओं को शब्दों में कैसे ढाला जा सकता है ? अगर कुछ बोल दिया जाय तो वो आर्टिफिसियल नहीं हो जाता?. बस अगर मुस्कान देखकर कोई समझ ले तो ठीक. क्योंकि चेहरे पर  कैसे भाव होते हैं ये तो भी मुझे नहीं पता. और... कुछ आदतें तो इस जन्म ना बदल पाएंगी. इसलिए कोशिश करना भी बेकार है. ऐसा नहीं है कि आदतें बदल नहीं सकती लेकिन भगवान इंसान के व्यक्तित्व में कुछ ऐसे मजबूत खम्बे गाड़ देते हैं कि उन्हें तोड़ने में १०० साल से ज्यादा लगना होता है और हम तो उससे पहले ही निपट लेते हैं'.

'तुम पागल हो.'

'तुम्हे पता है ये बात अगर कोई लड़की कहे तो लड़के ऐज कम्प्लीमेंट ले लेते हैं.'

'तुम असली पागल हो. '

' ओके. तुम्हे पता है थैंक यू तो मैं बोलूँगा नहीं. '

'उफ़ ! ... एनीवे, आई नो यू. तो तुमसे मैं एक्सपेक्ट भी नहीं करती. बट समटाइम्स आई फील सॉरी फॉर यू. लगता है कि... छोडो तुम कुछ कह क्यों नहीं सकते... इट्स लाइक... हम्म... छोडो तुम नहीं समझोगे.'

'अच्छा? चलो कोई तो है जिसे लगता है कि मैं भी कुछ नहीं समझ सकता. पसंद आया मुझे तुम्हारा ये कहना.'

'अरे लेकिन जरा सोचो... केवल फीलिंग्स से कहाँ कुछ होता है. मैं मानती हूँ कि फीलिंग्स बोली नहीं जा सकती लेकिन किसी और को कैसे पता चल जायेगा? ये सोचा है कभी तुमने? नॉट एवरीवन इज लाइक योर मदर, ओके. तुम कह भी न पाओ और लोग समझ भी लें, ये अच्छा है. लोग इतने भी समझदार नहीं होते मिस्टर कि तुम्हे देख कर तुम्हारे मन की सुन लें !'

'अरे मैं तो अपनी कमजोरी बता रहा था. दरअसल ऐसा नहीं है कि मैं बोलना नहीं चाहता, लेकिन रियलिटी ये है कि बोल ही नहीं सकता. वैसे पूरी दुनिया को मेरा मौन समझने की जरुरत भी नहीं है. जिसे समझना है वो समझ ले यही काफी है...'

'तुम्हारे परम्यूटेशन तुम्ही समझो. '

'एक्जेक्टली ! मैंने तुम्हे बताया था ना जीएच हार्डी ने मैथ्स के प्योर होने के बारे में क्या कहा था? शत प्रतिशत अनुपयोगी होना ही उसकी खूबसूरती है. सोचो जरा... जब कुछ एकदम ही अनुपयोगी हो तो उसका गलत इस्तेमाल हो ही कैसे सकता है? जैसे ही इस्तेमाल होना चालु हुआ ना सिर्फ उसकी शुद्धता चली जाती है वो कुरु.. हम्म... ‘डल और अगली’ हो जाता है.'

'वैसे मुझे कुरूप भी समझ में आता है. ट्रांसलेट करने की जरुरत नहीं है. ओके ?'

'हा हा. हाँ तो मैं कह रहा था कि वैसे ही अगर फीलिंग कह दी जाए तो उसमें मिलावट सी आ जाती है. दैट्स नॉट समथिंग अब्सोल्यूट... देखो अगर कुछ कह दिया जाय तो वो बस उन शब्दों की सीमा में सिमट कर रह जाता है. लेकिन अगर ना कहा जाय तो असीमित, अनंत सा होता है... अगर कोई सुन सके तो ऐसा मौन अद्भुत है, ऐसा मौन तो चीखता भी है बस सुनने वाले होने चाहिए !... छोडो तुम नहीं समझोगी.'

'हर बात के अंत में ये डिस्क्लेमर लगाना जरूरी है कि मैं नहीं समझूंगी ? देखो एडवर्टिजमेंट का जमाना है. किसे फुर्सत है तुम्हारी भावनाएं पढ़ने का ? जब मार्केट ऊपर हो तो स्टॉकस एक्जेक्यूट करके प्रोफिट बुक करना सीखो, नहीं तो धरे ही रह जायेंगे. अच्छा ये बताओ अगर कोई तुम्हारे मौन के चक्कर में कोई इंतज़ार ही करता रह गया तो ? और मान लो अगर वो भी तुम्हारी तरह सोचता हो तो ? तुम्हे तो अपनी भावनाओं में मिलावट पसंद नहीं, ठीक वैसे ही अगर कोई और भी अपना मौन तुम्हारे लिए लेकर बैठा हो तो ?'

'अरे यार छोडो... देखो कितने लोगों से मैं कुछ भी कह देता हूँ. फ्रेंड सर्कल तो तुम्हे पता ही है ऊँगली के पोरों में सिमट आता है. फिर उस सर्कल में लोग धीरे-धीरे आते हैं. जो मुझे जानते हैं... समझते हैं, हाँ तुम जैसे कुछ वाइल्ड कार्ड एंट्री वाले जरूर हैं. पर जहाँ तक मुझे पता है, उसमें ऐसा कोई नहीं है जो मेरी तरह कुछ ना कह पाए.'

'ऐसा तुम्हे लगता है ! छोडो तुम क्या समझोगे. होपलेस केस हो. पूरी कहानी सुना दोगे लेकिन जो कहना चाहिये वो नहीं कहोगे. नहीं कह पाने के लिए भी एक थियोरी जरूर बना डालोगे. लेकिन... छोड़ो... रहने ही दो तुम। '

....

[सुना आज मदर्स डे भी था. 'माँ'... इसके बारे में मेरी मान्यता भी उस लड़के सी ही है। शब्दों  में कुछ कह देने से महता कम सी हो जाएगी. कुछ बातें पूर्ण होती हैं... मुझ जैसे के लिए मौन ही उसे वर्णित कर सकता है, शब्दों की क्या औकात !]

~Abhishek Ojha~