Jul 26, 2010

कलियुग केवल नाम अधारा

नाम तो धांसू होना ही चाहिए चाहे किसी रेसिपी का हो या जगह का. इंसान का तो फिर भी ठीक है... अपना बस चलता तो लोग रखते फिर एक से बढ़कर एक नाम. हमारे एक दोस्त ने दसवीं में अपना नाम पप्पू से बदल कर अक्षय कुमार कर लिया ! अब ये बात अलग है कि उनको इस बात पर दोस्तों ने इतना परेशान किया... अगर फिर मौका मिलता तो वो अब अपना नाम रवीना टंडन भी कर लेते लेकिन अक्षय कुमार तो नहीं ही रहने देते. जो भी हो  नाम रखने के पहले खोज-बीन तो खूब होती ही है.

अब रेसिपी के तो बस नाम होने चाहिए पोटाचियो घूघूरियानो या चिकन आलाफूस की तरह… भले ही स्वाद कुछ भी हो. आप कहेंगे केवल नाम से क्या होता है? अरे भाई जब सीमेंट बिक सकता है 'विश्वास है, इसमें कुछ खास है' कह देने पर*. और देखने वाले ढूँढते ही रह जाते हैं इसमें क्या खास था सीमेंट वाला? तो वैसे ही लगभग हर मामले में है. पहले एक अच्छा नाम सोचो... बस. बाकी बाद में. अरे तुलसी बाबा उस जमाने में कह गए थे ‘कलियुग केवल नाम अधारा, सुमिरि-सुमिरि नर उतरहिं पारा’.

कंपनी खोलनी है. आइडिया नहीं है किस चीज की कंपनी. खुलेगी भी या नहीं... लेकिन पहले एक अच्छा नाम तो सोचते हैं ! अपना तो कल पढ़ाई में भी नाम का धाक चल गया.

हाँ बे क्या कर रहे हो?
ऐसे ही कुछ पढ़ रहा था.
क्या?
गार्च
ये क्या होता है?
जनरलाइज्ड ऑटोरेग्रेसिव कंडीशनल हेटेरोस्टेकाड्स्टिसिटि.
अरे @#$%, क्या नाम है ! फिर से बोल.
भाग... !
अबे नहीं, किसी को डराना हो तो मस्त नाम है... मैं भी याद कर लेता हूँ. जैसे वो है न मुंछे हो तो नत्थूलाल की तरह और बीमारी हो तो लिम्फोसर्कोमा ऑफ... उसी टाइप्स का ये भी है जनरलाइज्ड... क्या था आगे?

कहने का मतलब ये कि नाम फोकसबाजी वाला होना चाहिए बाकी और कुछ हो न हो.

वैसे कई बार ये झाम चल नहीं पाता. अभी कुछ दिनों पहले मैं घर जा रहा था तो ब्लूमबर्ग पत्रिका भी ले गया. अब अपने को तो मुफ्त में मिलती है और सोचा चलो थोड़ा तो इंप्रेसन बनेगा ही आजू-बाजू वालों पे. जब ट्रेन में 10 घंटे गुजर गए तो हमारे बगल में बैठे भाई साब ने पत्रिका पलटी. पत्रिका के पिछले कवर पर किसी विदेशी घड़ी का विज्ञापन था.

'मस्त घड़ी है, नहीं?' कितने की होगी? देखो तो लिखा है कहीं?'
'नहीं ये तो नहीं लिखा !'

एक मिनट में उन्होने पत्रिका उलट पलट कर रख दी... 'कुछ खास नहीं है... चित्र ही नहीं हैं. बस कागज अच्छा दिया है... इससे अच्छी तो अपनी वो भारत की सबसे ज्यादा बिकने वाली पत्रिकवा होती है. क्या पढ़ते हो ये सब? कुछ अच्छा भी पढ़ लिया करो.'

मैं मुस्कुरा कर रह गया. एक बार ऐसे ही हुआ जब अपने कॉलेज की टी-शर्ट पहने ट्रेन में जा रहा था और एक अंकल जी ने बोला ‘…मन लगा कर पढ़ा होता तो अभी कुछ कमा रहे होते !’. ऐसे कई किस्से हैं... बस बात का मूल यही है कि कई बार ये नाम वाला झाम उल्टा पड़ जाता है. और अब तो ना मैं कभी ऐसी-वैसी टी-शर्ट पहनता हूँ और ना ही ऐसी-वैसी पत्रिका ले जाऊँगा.

वैसे कुछ नाम क्लासिक हैं हर जगह और हमेशा चलते हैं... जैसे 'सरकारी नौकरी' ! बाकी सेक्टर  में बूम डूम आते रहते हैं सरकारी वालों का बूम-बूम-बूम ही रहता है. प्राइवेट वालों का तो बिल्लेसुर बकरीहा** वाला हाल है. उनका राज वही जानते हैं बेचारे. बैंक वालों का तो मार्केट वैसे ही डाउन है, हाल ही में पता चला कि बीपी स्पिल के बाद तेल वाले भी अब अपना सेक्टर बताने से डर रहे हैं. लड़की वाले भाग ना जाय :). अब बताइये एवरग्रीन तो सरकारी वाले ही हुए न?    

खैर... आउट ऑफ कांटेक्स्ट... पता नहीं क्यों मुझे याद आ रहा है 'एस्क्यूज मी, माईसेल्फ़ बदरी शंकर... '. समझ गए न? नहीं तो यहाँ देख आइये.

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~Abhishek Ojha~

*जेके सीमेंट का विज्ञापन तो देख ही होगा आपने.
** निराला की ये किताब कल ही ख़त्म की है, आजकल थोड़ा पढ़ना हो पा रहा है. किताबें किसकी अनुशंसा पर खरीदी गयी हैं... उनका नाम और धन्यवाद देकर आभार कम नहीं करना चाहता.

Jul 19, 2010

आई = आई+२

हमारे एक दोस्त हैं और जबसे मैं उन्हें जानता हूँ उनकी शादी 'दो साल बाद' होने वाली है. जब भी पूछो 'कब हो रही है?' जवाब होता है 'दो साल बाद'. वैसे एक बार उन्होने कहा फरवरी में होगी... पर जब फिर से उन्होने एक बार २ साल बाद वाली बात कह दी तो हमने ये मान लिया कि महिना भले तय हो गया हो इनकी शादी तो दो साल बाद ही होगी.  वो अभी भी २ साल बाद वाली बात पर अडिग हैं... इस बीच हमने इसे 'आई=आई+२' नाम दे दिया. मतलब वर्तमान को दो से बढ़ाते जाओ.

प्रोग्रामिंग से परिचय रखने वाले इस कथन का मतलब बखूबी जानते हैं. बहुत ज्यादा इस्तेमाल होने वाला कथन है. ऐसे कथन को प्रोग्रामिंग में रोकना होता है... किसी भी एक Loopशर्त पर. रोकना है तो शर्त तो रखनी ही पड़ती है. अगर बोल-चाल की भाषा में कहूँ तो कहा जायेगा कि आई को दो से तब तक बढ़ाते रहो जब तक कुछ 'ऐसा' नहीं हो जाता. अगर गलती से 'ऐसा' हो जाने वाली शर्त लगाना भूल गए तो प्रोग्राम अनंत समय तक चलता  रहेगा !  वैसे ही जैसे हमारे दोस्त की शादी दो साल बाद होनी है. किस दिन से दो साल बाद ये तो बताया नहीं उन्होने. ऐसा ही एक अनंत तक चलने वाला लूप पहले भी फंसा था. अब क्या करें थोड़ी बहुत जो प्रोग्रामिंग की उसमें लूप में अक्सर फंस ही गया, और याद भी वही रह गया :)

प्रोग्रामिंग के अभ्यास करते समय कई बार ऐसे अनंत तक चलने वाले फंदों में फँसना हुआ है. हर बार यही लगता: 'ओह फिर शर्त लगाना भूल गया !  या फिर गलत या उल्टी शर्त लगा दी.' देखने में बहुत स्वाभाविक गलती लगती है लेकिन प्रोग्रामिंग करने वाले ही बता पायेंगे कि कितनी आसानी से हर बार ये गलती हो ही जाती है.
व्हाइल (<शर्त >){
आई= आई+२;
}

प्रोग्राम लिखते समय यही बात कागज पर लिखी हुई रहती है लेकिन कोड़ में अक्सर उल्टी शर्त लग जाती है या फिर शर्त लगाना ही भूल गए और फंस गए इनफाइनाइट लूप में ! 
प्रोग्रामिंग वाले मामले में प्रोग्राम को रोक देने या फिर डब्बे* को ही फिर से चालू कर देने का विकल्प होता है. लेकिन यही विकल्प हमारे पास हमेशा कहाँ होता है ? बिना ठोस समय सीमा के कोई भी बात कह देना या योजना बना लेना बहुत आसान है. लेकिन उसे पूरा करने के लिए जो समर्पण चाहिए वो अक्सर आई = आई+२ वाले फंदे में उलझ कर रह जाता है. वक्त अपनी गति से चलता जाता है. और हम सोचे गए काम को और आगे ठेलते जाते हैं कभी २ से कभी ४ से. कितनी भी धुन पक्की हो एक बार अगर नहीं हो पाया तो बहाने तो हमेशा ही तैयार रहते हैं. आपके कितने काम हैं जो एक साल के भीतर पूरे होने वाले थे (हैं)?

अब ऐसा ही कुछ-कुछ अपने साथ भी हो रहा है. घुमा फिरा कर हमारी कंपनी ने इस बार तथाकथित हमेशा के लिए न्यूयॉर्क ऑफिस भेज दिया. (वैसे मिनटो में निकाल बाहर करने वाले या खुद ही लूट जाने वाले उद्योग से जुड़े लोग जब 'परमानेंट' शब्द इस्तेमाल करते हैं तो... इस उद्योग में काले सूट पहने और ब्लैकबेरी पर अंगुली नचाते लोग जब आधे घंटे में दस-बीस साल बाद की योजना बना  कर कमरे से बाहर निकलते हैं और सामने टीवी पर दिखता है... कंपनी दिवालिया हो गयी ! खैर... अभी बात आई=आई+२ की)... कुछ लोगों ने पूछा कब तक रहोगे? तो कइयों ने बड़े दावे से कहा  'लौट नहीं पाओगे ! ' कइयों ने पूछा कि ऐसा क्या है जो यहाँ रहकर नहीं कर पाओगे? वैसे तो हमें अटल बिहारी वाजपई की तरह सबकी बात ठीक ही लगी. पर अपने हर बात पर चर्चा हो जाती है... तिल का ताड़...टाइप्स. वैसे यहाँ से लौट कर गए कई लोगों के साथ एक... वेल... उन्हें लगता है कि उन्होने बड़ा भारी काम किया है... कुछ त्याग-व्याग टाइप का.... और उनके हिसाब से किसी और के लिए ये संभव नहीं है. खैर इस पर कोई टिपण्णी नहीं. हाँ कई लोग हैं जो साथ काम करते थे और वापस जाकर बहुत खुश हैं.

जो भी हो हमने इसी बहस के बीच दस हजार रुपये की शर्त लगा दी... दो साल में लौट जाने की. अब ये दो साल 'आई=आई+२' ना हो जाये इसलिये ये पोस्ट ठेल दी. तो अपना आई+२ होता है जुलाई २०१२. अगर नहीं लौटा तो इस तर्क पर दस हजार तो नहीं बचने वाले... तो दो साल बाद की जगह २०१२ पढ़ा जाय.

फिलहाल तो दिसंबर में आता हूँ [इस या अगले में ये तो वक्त जाने ;)]! वैसे फंदा-वंदा अपनी जगह... हमें तो थोड़ा फंडा मारना था तो पोस्ट लिख दी.

और भाइयों, बहनो, दोस्तों, दोस्तनियों, हमारी कोई चाहने वाली टाइप, चाचा-चाचियों वॉटएवर-ववॉटएवर और टिपण्णी के बदले टिपण्णी की अभिलाषा रखने वालों  (शॉर्ट में कहने का मतलब ये कि यह पढ़ कर टाइम खराब हमारे कोई शुभचिंतक ही करेंगे वरना किसे फुर्सत है!) एक बार और क्लियर कर दूँ ये ब्रेन-ड्रेन उरेन-ड्रेन नहीं है, अपने पास इतना ब्रेन नहीं है कि ड्रेन की समस्या हो. उस हिसाब से तो जितना दूर ही रहे तो बढ़िया है :) खैर हमें जानने वाले हमारी असलियत जानते हैं उन्हें इस डिसक्लेमर की जरूरत नहीं है.  

~Abhishek Ojha~

(...अगर लूप-वूप में फँसे तो पीड़ीजी हैं न प्रोग्रामिंग समझाने के लिए. सुना है 'जी' लगाने पे बहुत खुश रहते हैं आजकल. 'कहते हैं पीडीजी बोलो जी'... )

*डब्बा माने कंप्यूटर

Jul 12, 2010

सी-थ्रीफाइव पोटाचियो घूघूरियानों (भाग 2)

पिछली पोस्ट को लिखे इतने दिन हो गए कि मैं खुद ही भूल गया कौन सी रेसिपी सोची थी भाग दो के लिए. दिल्ली में कुछ ५-६०० रुपये का गन्ने का जूस याद तो है लेकिन उसका धांसू वाला नाम याद नहीं आ रहा. अब जब नाम ही याद नहीं तो फिर गन्ना गन्ना हो जायेगा और भंटा भंटा...  फिर काहे का आकर्षण. बिन नाम सब सून... !

खैर अब भाग एक था तो भाग दो भी लिखना ही पड़ेगा. आजकल तो फ्लॉप मूवी हो तो भी सिकवेल बनने लगे हैं मेरी पोस्ट पर तो फिर भी कुछ टिपण्णी आई थी. खैर बात थी नाम की. अब नाम में तो सब कुछ रखा ही है लेकिन कई चीजें ऐसी है जो बकायदा काम करती हैं उन्हें किसी नाम की जरूरत नहीं होती. अब जुगाड़ से चलने वाली हर चीज का नाम तो होता नहीं है. लेकिन जितना काम उनसे होता है उतना नाम वाले क्या कर पायेंगे !  आज अपने कुछ बेनामी तंत्रों से आपका परिचय करा देता हूँ.

हुआ यूँ कि हमारे गैस का रेगुलेटर खराब हो गया. अब पिछली बार गैस ख़त्म हुई थी तो08052010471 पोटाचियो घूघूरियानों का आविष्कार हुआ था. इस बार सिर्फ दूध गरम करने के लिए नया रेगुलेटर तो हम लाने से रहे तो थोड़ा इधर-उधर करने पर पता चला कि रेगुलेटर तो दबा के रखने से काम कर रहा है. अब कितनी देर हाथ से दबा के रखा जाय... अपने फ़्लैट पर कोई ऐसी वजन वाली छोटी वस्तु है नहीं जो रेगुलेटर के ऊपर आ सके. दिमाग की बत्ती  जली और हमने दो बर्तनों में पानी भरकर ये तंत्र तैयार किया जो २ महीने चला. इसका नामकरण नहीं हो पाया !

ऐसे ही एक बार किचन के बेसिन का पाइप फट गया. पता चला सोसाइटी में शिकायत 08052010472 लिखवानी पड़ेगी और ठीक तो शनिवार को ही हो पाता. वो भी पूरे दिन घर पर उपस्थित रहना पड़ता. ठीक करने वाला शनिवार को कभी भी आ सकता था और अगर हम घर पर नहीं रहे तो वो वापस चला जाता. अव्वल तो ये घर पर उपस्थित रहने वाला 'नेसेसरी बट नॉट साफिसिएंट कंडीशन' हमें कुछ पसंद नहीं आया. दूसरे शनिवार तक कैसे काम चलता? फ्लैट पर गिने-चुने सामान... एक प्लास्टिक की बोतल मिली और फिर काट कर बिन पेंदी की बोतल से जो अस्थायी व्यवस्था हुई वो एक साल से बिना किसी शिकायत के चल रही है.

अब लिखते-लिखते सोचता हूँ तो दिखता है कि गीजर का पाइप भी तो दो साल से टूटा 13052010476 हुआ है और वैसे ही चल रहा है ! बिना किसी समस्या के. ये अजीबो-गरीब सिस्टम भी बड़ा मस्त काम करता है. भारी-भरकम नलके से धीर-धीरे पानी आता था, जब से ये पाइप टूटा तब से सीधा इसी से धारा प्रवाहित होती है. ठीक करा के धीरे-धीरे टाइम खराब करने से अच्छा है फटाफट स्नान. वैसे भी रोज भागते-भागते ऑफिस पहुचने वाले ही एक-एक मिनट का मूल्य समझ सकते हैं !

अगल-बगल देखता हूँ तो हर वस्तु जिसका जो उपयोग होना चाहिए उससे कहीं अधिक 08052010473 और अच्छा उपयोग किसी और काम में हो रहा है. कुछ अनुपयोगी वस्तुओं को भी काम पर लगा दिया गया है. पर्दा कैसे टंगा है से लेकर कुर्सी, टेबल, एक्सटैन्शन कॉर्ड सबका कुछ और भी (ही) उपयोग हो रहा है. ये कॉफी मग में पड़ा बेलन मिक्सी और सिलबट्टे से अच्छा काम करते हैं. अदरख, इलायची, धनिया, मिर्च सबको बेरहमी से कुचल दिया जाता हैं इसमें. और ये वाइन की बोतल से रोटी बेलने का आइडिया तब आया था जब बेलन के अभाव में चार शीशे के ग्लास रोटी बेलने के प्रयास में तोड़ दिये गए थे. और जब आइडिया आ गया तो क्या रोटी, क्या समोसा सब बेल डाला गया.

अब ये सब तो ठीक... ऐसा ही जुगाड़ तंत्र अपने काम में भी चलता है. गनीमत है अपनी नौकरी में बस काम से मतलब होता है. कैसे हो रहा है इससे किसी को मतलब नहीं है. एक दिन मेरे बॉस बड़े खुश हुए तो कहा डोक्यूमेंट कर दो ये काम कैसे हो रहा है... अब तिकड़म और जुगाड़ का डोक्यूमेंटेशन और नामकरण होने लगा तब तो... खैर बिना नामकरण और डोक्यूमेंटेशन के ही सब कुछ चल रहा है. ठीक वैसे ही जैसे इन तस्वीरों में सब कुछ सही सलामत चल रहा है. ऐसे तंत्र हर जगह चल जाते हैं हर क्षेत्र में ! आप जहाँ भी जिस क्षेत्र में भी काम करते हों... ऐसे तिकड़म लगाया कीजिये कभी कुछ नहीं रुकेगा.

अब आपका मन हो इनमें से किसी यंत्र को 'पोटाचियो घूघूरियानों' टाइप धांसू नाम देने का तो दे दीजिये.

~Abhishek Ojha~

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ये जिस फ़्लैट की तस्वीरें हैं वो अब छूट चुका... पुणे भी... फिलहाल अनिश्चित काल के लिए न्यूयॉर्क में हूँ. अनिश्चितकाल क्यों? ये अगली पोस्ट का विषय होगा.