Dec 7, 2010

फंडा बाबा

बहुत समय पहले की बात नहीं है. फंडा बाबा नामक एक प्रसिद्द बाबा हुए. कुछ ही समय में उनकी फंडई के चर्चे दूर दूर तक फैले गए. हर व्यक्ति को हर प्रकार की चर्चा और समस्या पर उनके पास देने के लिए प्रचुर मात्रा में फंडा होता. फंडों के धनी इस बाबा के कई शिष्य हुए. इन शिष्यों में अग्रणी थे यथा नाम तथा गुण वाले जेलसीचंद सेठ. अन्य मनुष्यों की तरह जेलसीचंद को भी ये भ्रम था कि सिर्फ उनकी कमाई मेहनत की कमाई है, अन्य तो बिन परिश्रम ही धनार्जन करते हैं. जेलसीचंद अपने अच्छे गुणों से जितना खुश रहते उससे कई गुना दूसरों के गुणों से दुखी. सभी मनुष्य उन्हें दुर्गुणों से ग्रसित दिखते. उन्हें इस बात की चिंता हमेशा सताती कि उनके नौकर-चाकर और स्वजन उनके पैसों पर सुख-चैन की जिंदगी जी रहे हैं. सभी मनुष्य आलस को प्राप्त हो चुके हैं और फिर भी धन संग्रह में सभी मुझसे आगे हैं. मैं सर्वश्रेष्ठ और अन्य सभी दुर्गुणों से पीड़ित हैं. ऐसा सोचते हुए भी जेलसीचंद सभी मनुष्यों से ईर्ष्या करते.  सुखीचंद की अप्सरा सदृश प्रेमिका ने ईर्ष्या की अग्नि में घी डालने का काम किया था. ऐसी विरोधाभासी मनोभावना से ग्रसित जेलसीचंद को फंडा बाबा के सानिध्य में रहकर अतिशय सुख की प्राप्ति होना स्वाभाविक ही था.

फंडा बाबा अविराम फंडों से नित्य जेलसीचंद के ज्ञानचक्षु खोलने की कोशिश करते. एक दिन एक फंडा बाबा के मुख से निकला एक फंडा जो कुछ इस तरह था ‘सभी भगवान की संतान हैं सभी के व्यवहार भगवान ने निर्धारित कर रखे हैं फिर तुम क्यों व्यर्थ सुखीचंद से इर्ष्या करते हो. उसका आलसयुक्त राजसी व्यवहार और प्रचुर पैतृक धन, प्रभु की इच्छा और उसके परिवेश से मिलकर तैयार हुए हैं. तुम क्यों व्यर्थ ईर्ष्या करते हो’, जेलसीचंद ने इस फंडे की गाँठ बाँध ली. फिर क्या था जेलसीचंद में चमत्कारिक परिवर्तन आने लगे. अब वो किसी से भी ईर्ष्या नहीं करते.  सबी के साथ प्रेमपूर्वक रहने लगे.

कुछ दिनों के बाद जब फंडा बाबा की एक फंडासभा से जेलसीचंद निशब्द बिन किसी फंडे की आस लिए उठ खड़े हुए तो फंडाबाबा के ललाट पर चिंता का त्रिपुंड बन आया. कुछ ही babaपल बाद फंडा बाबा ने सन्देश भेज जेलसीचंद को अपने आश्रम बुला लिया. मनुष्यों के सुख-चैन और आलस के किसी भी प्रश्न का जेलसीचंद पर कोई असर नहीं हुआ. बाबा के सारे प्रश्नों को मुस्कुराते हुए प्रभु की इच्छा मान गए जेलसीचंद. बाबा ने आखिरी वार किया… उर्वसी सदृश सुखीचंद की प्रेमिका !

परमज्ञानी जेलसीचंद मुस्कुराते हुए झेल गए. चलने को हुए और एक बार पीछे मुड कर देखा… ‘बाबा आज मुझे एक और फंडा मिल गया. फंडा वाले भी फंड की खोज में हैं. इस जगत में चर अचर स्थावर जंगम जो भी प्राणी हैं सभी फंडामय प्रतीत होते हुए भी वास्तव में फंडमय हैं.’ फंडा बाबा ने जेलसीचंद के चरण पकड़ लिए. बोले: ‘बाबा आज से दशांश आपका बस आप फंडा देने का विचार त्याग दें…'. 

फंडाबाबा की गुरु-शिष्य परम्परा को जीवित रखते हुए कालांतर में जेलसीनन्द ही चीयरफुलानंद, च्रिफुलानंद जैसे नामों से प्रसिद्द हुए.

च्रिफुलानंद की जय !

~Abhishek Ojha~ [फंडा बाबा की गुरु-शिष्य परंपरा के (n-1)वें गुरु आप nवें हो सकते हैं Winking smile]

Nov 25, 2010

खिली-कम-ग़मगीन तबियत

हमारे एक मित्र ने कभी कैरम पर खूब शोध किया था. खूब सारे समीकरण लिख डाले और एक कंप्यूटर गेम भी बना डाला था. फिर एक दिन वो बड़े शान से खेलने बैठे. अब शान के हकदार भी थे. उन्हें सबकुछ तो पता ही था कहाँ, कैसे, कितने कोण पर और कितना बल लगाकर मारना है. पर जब खेलना शुरू किया तो... फुर्र !

अभी ऐसे ही कुछ दिनों पहले एक पिकनिक में सामना हुआ ‘कॉर्नहोल’ के खेल से. हल्का फुल्का खेल देखकर मैंने भी हाथ आजमाया और थोड़ी देर में अनुमान लगा लिया कि कैसे फेंकने पर थैले ठीक जगह जा पाते है. पर हमारे एक मित्र बार-बार कहते रहे “‘पाराबोलिक ट्राजेक्ट्री’ बनाओ. तुम ठीक जगह फ़ेंक तो पा रहे हो लेकिन..”. ये.. वो... पचास फंडे. जब खुद खेलने आये तो वही... फुर्र ! कहने का मतलब ये कि सैद्धांतिक ज्ञान और व्यवहारिक में बहुत फर्क है. ऐसे होता है... वैसे होता है... कह देने वाले और जैसे होता है वैसे करने वाले हमेशा एक नहीं होते. अब एक इंजीनियर डायग्राम और मॉडल बनाता है पर काम तो एक कारीगर ही करता है. सीनसी के जमाने में जब सब कुछ ऑटोमेटेड हो तब किसी मजदूर का हाथ कितना साफ़ होता होगा ये तो मुझे नहीं पता पर लेथ मशीन पर तो हाथ की सफाई वाला व्यक्ति एक केवल सैद्धांतिक पक्ष के विद्वान से बेहतर होगा इसमें कोई संशय नहीं.

फिलहाल बात कुछ यूँ हुई कि पिछले कुछ दिनों से गुलामी के इस गाने की तरह हमारी तबियत ज़रा सी खिली और जरा सी ग़मगीन टाइप की रहने लगी. [पहले सुन आइये ये गाना. मानता हूँ कि मुन्नी और शीला आंटी के जवानी-कम-बदनामी के दिन हैं फिर भी ये गाना अच्छा लगेगा. (डिस्क्लेमर: ऐसा मुझे लगता है)].

फिलहाल खिली-कम-ग़मगीन तबियत में हमने जो लाइनें अपने स्टेटस के तौर पर लिखी वो लोगों को रोमांटिक लगी और मैं कुछ कुछ सेंटी सा लगा. मुझे पता नहीं था कि इसे ही रोमांटिक कहते हैं. लगता था रोमांटिक होना कुछ होती होगी तोप सी चीज. लेकिन ‘हाउ रोमाटिक, सो रोमाटिक’ टाइप की बातों पर थोड़ी शंका सी होने लगी कि कहीं सच में इसे ही तो रोमांटिक होना नहीं कहते. लोगों के पक्के यकीन का क्या कहा जाय बिन कुछ पूछे शुभकामना भी दे गए*. मैं बस यही कह पाया कि जैसे समुद्र में सर्फिंग करने वाले को उसके पीछे का विज्ञान नहीं पता होता और जैसे कैरम खेलने के लिए उसके गणितीय मॉडल नहीं समझने होते. वैसे ही ‘बकवास’ करने के लिए प्यार में नहीं पड़ना होता. खैर... खुले दिल से सधन्यवाद शुभकामनायें स्वीकार करता हूँ मैं. जितनी मिली सब ली.

वैसे ऐवें एक ख़याल आ गया... दूर से देखना भी कितना सुहावना होता है न. वास्तविकता से कितना दूर. उदाहरणों की कमी तो है नहीं पर आजकल बंद कमरे मैं बैठा होता हूँ तो बाहर अक्सर खिली धुप दिखती है. लगता है वाह क्या मौसम है... और बाहर का पारा... शून्य या नीचे.

भूमिका खत्म.

... कुछ यूँ हुई बकवास फेसबुक पर. (अंगेरेजी में लिखी थी तो वैसे ही कॉपी पेस्ट कर दी, अनुवाद में कुछ का मजा चला जाए शायद? …आदतन कुछ लाइनों पर गणित का प्रभाव हो सकता है):

1. It is sad that the process of 'missing someone' can't be measured or quantified otherwise it would have been easier for me to tell you how much I exceeded the 'too much' limit.
2. I can definitely say that speed of time is not constant. I can feel the rate when you aren't around.
3. I know that I don't know... but I know that you know what it means.
4. To me you are now... what right eye twitching is. It can be symptom of a disease but feels like a good omen.abstrusegoose
5. Tough One: You can convince whole world that we are friends... but can you convince yourself?
6. If you are being loved by people from different 'dimensions'. Sooner or later there is bound to be some conflict of interest among them.
7. When you are with me every moment is anbujh muhurat, when you are away even anbujh is insignificant...
[those who don't know... according to Hindu astrology there are three and half anbujh muhurats or most auspicious days akshaya tritiya, vijayadashami, chaitra shukla pratipada and diwali evening. Planetary positions etc doesn't matter during these three and half days.] anyways... 'Happy Diwali' to all of you. :) [दिवाली के दिन]
8. (Short term?) Separations are positively skewed towards discovering and maturing true relationships. (धनात्मक और ऋणात्मक स्क्यु सांख्यिकी के सिद्धांत होते हैं)
9. The paradox: What do you do when the only person who can extinguish the fire is the one who ignited it !
10. An example of relationship paradox of 'Just friends': both online in invisible mode waiting for each other to come online... (लुक्का-छिपी खेलने वाले शायद कुछ समझे. वैसे कुछ लोग मेसेज-मेसेज भी खेलते हैं. और हमें एक मेसेज टाइप करने में आज भी... पुरनियों से थोडा ही कम समय लगता होगा:)
11. The change is not one sided: You made me realize how beautiful the world is and that is how I stopped caring about science and started loving arts. But then I realized that slowly you have started loving the equations which I used to care once.
Now, I understand the logic behind it !
12. Theorem of convergence: At broader level you maybe confused but as you shift your thinking to arbitrarily small memorable moments of past it converges quickly to 'someone'.
Corollary: This theorem of convergence is not necessary but sufficient condition to say 'Yes'. ;) (ये थोडा गणितीय है. वैसे रियल अनालिसिस में बे सिर पैर की बातें ही होती हैं. बस नाम में ही रियल होता है.)
13. I didn't realize when my heart, which was like a callable bond issued by me to you, became a puttable bond :) 
[which means... I had the privilege to call back. But now you have the option to put it back]

इस आखिरी पर मेरे दोस्त ने सलाह दी कि व्याख्या हटा दूं और जिस लड़की को समझ में आ जाए... खैर अब आपका और टाइम खराब नहीं करता आप खुद भी थोडा दिमाग लगाइए क्या कहा होगा उसने.

वैसे मैं कितना भी सैद्धांतिक कह लूं, डाउट तो रहेगा ही. वैसे पूरी पोस्ट ही सफाई देने सा हो गया क्या? तो चलिए सच्चाई ही बता देता हूँ. किसी ने पूछा कि इन लाइनों में ‘यू’ कौन है? अब क्या बताऊँ... बिडम्बना ये है कि जो ‘यू’ है उसने भी यही सवाल पूछ लिया कि “अभिषेक ये ‘यू’ है कौन?” Wilted rose

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*हिंदी ब्लोग्गर हो जाने का एक फायदा वैसे ये है कि ईमेल और कमेन्ट से अब डाउट नहीं होता. एक आपको छोड़ दें तो कमेन्ट करने वाले कितना सीरियस होते हैं ये तो आप भी जानते हैं.

कार्टून ऐंवे… Smile

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~Abhishek Ojha~

Oct 24, 2010

दास्तान-ए-'चौपट वीकेंड'

‘सोच रहा हूँ मेरे बारे में अगर कोई कुछ पूछे तो उसे तेरे पास फॉरवर्ड कर दूंगा. तुझे तो सब कुछ पता ही है मेरे बारे में.’

‘क्या पता है?’coffeeday

‘हम्म... सब कुछ तो नहीं, पर तू मेरी नॉन-बायस्ड कंसिस्टेंट एस्टिमेटर टाइप्स है.'

'क्या? इसमें भी मैं तुम्हारे लिए... ऊँह ! बड़े आए. रहने दो नहीं चाहिए तुम्हारा कम्प्लीमेंट. पता नहीं कम्प्लीमेंट दे रहे हो या गाली. कुछ भी बोलते हो'

'छोड़ो तुम्हें समझ में नहीं आएगा... उस लड़की को देखो परेशान लग रही है. बिजनेस स्टैट्स की बूक लेकर बैठी है. पढ़ा के आऊँ उसे? ये सड़ी सी किताब है... कुछ नहीं होता है इसमें. और इसके सिलेबस में जो होगा वो तो...'

'हाँ तुमने तो बचपन में ही पढ़ लिया होगा... पर ये बताओ हम… नहीं तुम यहाँ उसे पढ़ाने आए हो?

'पढ़ाने तो नहीं आया पर अगर पढ़ाने से किसी की मुसीबत कम हो जाय तो इसमें बुराई क्या है?'

'चुप रहो तुम. और अगर पढ़ने वाली लड़की हो तो ज्यादा ही अच्छा है, नहीं?'

'पढ़ने वाला कोई भी हो बस उसे थोड़ा समझ में आना चाहिए, तुम्हें तो समझ में आता नहीं कुछ.'

'इक्सक्यूज मी? मैं भी पढ़ी-लिखी हूँ. '

'अच्छा? टॉपर तो नहीं थी?'

(...मुस्कुराते हुए) 'एक्चुअल्ली एक पेपर में थी.'

'टीचर को तुमसे प्यार तो नहीं हो गया था?'

'गिरिईईजेश !'

... एक अलग ही मुद्रा, आँखों में एक अलग सा भाव और ध्वनि तरंगों के खास आरोह-अवरोह पर वो चार अक्षर का नाम बोलकर जब अगले कुछ सेकेंड तक उसी मुद्रा में एकटक देखते हुए मौन रहती तो फिर पिछली बात वहीं रुक जाती. ‘थोड़ा ज्यादा हो गया’ या ‘तुम्हें हो क्या गया है?’ कहने का उसका ये अपना तरीका था. और गिरिजेश, जिसे कभी किसी ने इस नाम से पुकारा ही नहीं था, के कानों को ये बहुत ही सुखद लगता. अपना नाम कभी-कभार सुनने की आदत, कहने का तरीका, बड़ी-बड़ी आँखे या उसके चेहरे के भाव इनमें से कौन ज्यादा प्रभावी था उसे नहीं पता. लेकिन नोक-झोंक की ये सीमा उसे बहुत पसंद थी.

'ठीक है मान लिया, लेकिन किसी को अपने कॉलेज का नाम मत बताना. और अगर कभी गलती से बता भी दिया तो ये मत बता देना कि तुम टॉपर थी. एड्मिशन नहीं कराएंगे लोग वहाँ. वैसे तुम्हारे कॉलेज का नाम क्या था?'

'था नहीं है, बुद्धू. एआईपीकेसीटीइ.'

'पूरा?'

'हा हा... नहीं बताती. पूरा नाम चार सेठों के नाम पर है. लेकिन तुम मेरे कॉलेज को कुछ नहीं बोलोगे.'

'सर वी आर क्लोजिंग टु क्लीन, यू विल हैव टू मुव आउटसाइड. ' सुबह 3 बजे के लगभग रात भर खुलने वाले उस कॉफी शॉप में एक लड़का आकर टोकता. इसका मतलब ये होता कि अब बाहर बैठो और फिर कुछ ऑर्डर करो. सुबह के तीन बज रहे होते लेकिन अगल बगल के कॉलेज के लड़के-लड़कियों से खचाखच भरी होती जगह.

'ओके, वन अज़टेक प्लीज. '

'एनिथिंग फॉर यू मैंम?'

'नहीं इन्हें कुछ नहीं चाहिए... '

'नहीं नहीं, मुझे भी चाहिए... हम्म... अ वाटर बॉटल प्लीज.'

....

'चाइए.  वो भी पानी... जो मैं बोलूं बस उसका उल्टा करना होता है तुम्हें. पता है तुम्हें कितना पोल्यूशन. ...छोड़ो लैक्चर देने का मेरा वैसे ही मूड नहीं है.'

'सारे संसार का ठेका मैंने नहीं ले रखा है, तुम हो ना लेने के लिए'

'खैर... तुम्हें सोना नहीं है? तुम्हें तो कोई काम होता नहीं है. और तुम्हारे चक्कर में पूरी रात... मेरा पूरा वीकेंड चौपट हो जाता है.'

... फिर वही मुद्रा... वही बड़ी-बड़ी आँखे... निशब्द... एकटक. ओह !

'मुझे नींद आ रही है. चलो छोड़ दो मुझे... नहीं रहने दो. मैं खुद ही जा रही हूँ. कोई भी लिफ्ट दे देगा. नहीं जाना तुम्हारी सड़ी बाइक से. '

'ठीक है जाओ, बाय.'

'गिरिईईजेश !'

और वो फिर चुप हो जाता. हल्की मुस्कान... पर चुप.

'...तुम्हारी गलती नहीं है मैं ही पागल हूँ, आई ही क्यों मैं? मिलेगी कोई तुम्हें... तुम्हारे जैसी ही पागल. बाल देखे हैं अपने एक दिन कैंची लाकर काट दूँगी. कैसे तो लगते हो... लंबे बालों में. ' ये बोलते-बोलते उसका मुँह हल्का टेढ़ा होता और बात अंत तक आते-आते थोड़ी बनावटी लगने लगती.

'हाँ गलती तो तुम्हारी है ही... मैंने कब कहा मेरी गलती है. क्यों आई? किसी के साथ भी ऐसे...?'

'गिरिईईजेश !'.... (...पाँच सेकेंड...) 'क्या कहा तुमने अभी? और किसके साथ देखा है तुमने मुझे?'

'ओ ओ ओ. सॉरी. रोना मत प्लीज. बैठो कॉफी आने दो. थोड़ी देर में चलते हैं. मुझे भी कुछ काम है कल जल्दी उठना है.'

'हाँ जो मर्जी आए बोल दो. और समझाने में तो तुम आम को अमरूद भी साबित कर दो. अपने आपको महात्मा तो समझते ही हो.'

'थैंक यू.'

'गिरिईईजेश !'

यहाँ पर आवृत्ति थोड़ी बदलती. थोड़ी तेज. इसका मतलब होता अब सही में जाना चाहिए.

...

'वो देखो कितनी अच्छी है. '

'ऊँह, एक टन मेकअप... अरे मैं तो तुम्हारी जैसी हो रही हूँ... ऐसा तुम्ही बोलते हो न. एक टन मेकअप !'

'इसमें मुँह टेढ़ा करने वाली कौन सी बात है? उसकी मर्जी मेकअप करे ना करे. मुझे अच्छी लगी मैंने कह दिया. और तुम तो जैसे मेकअप करती ही नहीं हो !'

'जी नहीं... नहीं करती मैं. और कभी करती भी हूँ तो बहुत कम. और ऐसा क्या अच्छा है उसमें? थोड़े और कम कपड़े पहन लेती तो तुम्हें और अच्छी लग जाती...'

'बता दूँ क्या अच्छा है? बाद में कुछ मत बोलना?'

गिरिईईजेश !

….

और इस तरह एक वीकेंड चौपट हो जाता. कभी-कभी उनके कुछ वीकेंड उन वीकेण्ड्स की याद में चौपट हो जाते हैं !

~Abhishek Ojha~

मैं कहूँ कि सब कोरी कल्पना है तो आप मानोगे? मत मानो :)

Oct 3, 2010

टाइम ट्रेवेल कराती एक किताब

ये पोस्ट पुस्तक समीक्षा नहीं है... वरन एक पुस्तक पढ़ने का व्यक्तिगत अनुभव भर है. बस जैसे पुस्तक उठा ली गयी और फिर खत्म होने पर ही रखी गयी वैसे ही अब पोस्ट लिखना चालु कर दिया है तो... इस टटकी पढ़ी पुस्तक से जो बातें याद आएगी लिख दी जायेंगी. जिन्होंने ये किताब पढ़ने की सलाह दी थी उन्होंने ही इस पोस्ट लिखने की भी बात कही. योगदान है उनका इस ब्लॉग को जिन्दा रखने में, मुझे एक दुनिया से दूसरी दुनिया ले जाते रहने में. मेरी दिनचर्या को थोडा और व्यस्त करने में. और जब कांटेक्ट लिस्ट में  ऐसा कोई नंबर ना मिले जिसे परेशान किया जाए ऐसे में एक ऐसा नंबर रखने के लिए जिस पर जाकर अंगूठा रुकने में ज्यादा सोचता नहीं. भुक-भुकाते इन्टरनेट कनेक्शन पर हमसे चैट करने वाले ये हमारे बुरधुधुर मित्र हैं.  जिंदगी में पढाई अभी चालु आहे... तो  इन दिनों रोज ५० पन्ने (वित्तीय गणित) पढ़ने का अपना लक्ष्य रहता है. पहले उसे पूरा करना और ये स्वार्थ कि १०-२० पन्ने ज्यादा पढ़ लूं ताकि उपन्यासों का जो जखीरा जमा कर रखा है वो भी पढ़े जाए. पर कई और इक्वेशन लक्ष्यों पर आगे बढ़ने नहीं देते.  दिनचर्या को एक दिन का  विराम सा देकर ये किताब उठा ली गयी... तो अब बातें 'कोहबर की शर्त' की.

 
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किताब पर अगर एक लाइन कहूँ तो... ' सुबह से शाम हो गयी, किताब खोलने के बाद मैं अपनी जगह से तब उठा जब किताब का आखिरी पन्ना आ गया और आँखे तब-तब हटी जब-जब ये लगा कि पुस्तक पर बुँदे टपक जायेंगी.' आधी पुस्तक पढ़ने के बाद (सिनेमा जहाँ ख़त्म हो जाता है) आगे पढ़ने के लिए हिम्मत जुटानी पड़ती है. दुखों का अंतहीन सिलसिला... पर गर्मी के दिनों का खुली धुप वाला एक शनिवार, सामने बहती हडसन, हडसन पार मैनहट्टन और इस पार सेहत बनाने के लिए टहलते-दौड़ते लोग (इस दौडने वालों के व्यू में लडकियां भी शामिल कर ली जाएँ) का संयोग-माहौल बना. ये व्यू और पुस्तक में Kohbar ki Shart वर्णित संसार बार-बार एक दुनिया से दूसरी दुनिया में ले जाते रहे.  व्यू का इंतना तेज परिवर्तन स्लॉटरहाउस ५  में बिली पिलग्रिम के साथ ही होता पढ़ा है मैंने (हाल ही में) और अनुभव संभवतः पहली बार.

मुझे टाइम ट्रवेल करा लाई ये किताब.

'लगभग' आधी पुस्तक वही है जो 'नदिया के पार' में दिखाई गयी है. पर पुस्तकें हमेशा ही ज्यादा प्रभावी होती हैं विशेषकर जगहों और चरित्रों के वर्णन में. फिर फिल्म के स्क्रिप्ट की अपनी सीमाएं होती हैं. पूरी तरह परिवेश और दृश्यों को दिखाना उनका लक्ष्य भी नहीं होता. पर जहाँ फिल्म में सुखांत होता है वहीँ से पुस्तक में दुखारम्भ होता है.  एक के बाद एक... सुख के क्षण फिर तलाशने पर भी नहीं मिलते. पुस्तक के प्रभाव पर मैं शायद थोडा पक्षपाती हो जाऊं क्योंकि  मेरा अनुभव कहता है कि अगर कुछ भी पढते हुए यदि उससे जुड़ाव हो जाए. लगे कि कहीं ना कहीं हमने भी ऐसा महसूस किया है. कुछ पढते समय अगर पात्रों के साथ-साथ चलना हो पाता है तो वैसा कुछ सच में बहुत अच्छा लगता है. वैसी ही पुस्तकें हमें अच्छी भी लगती हैं. हमारी पसंद की पुस्तकें (और लोग, गाने इत्यादि ) बहुत कुछ हमारे स्वयं के बारे में भी तो बता देते हैं !

कुछ पंक्तियाँ भले कितनी ही साधारण क्यों न हो वो हमेशा के लिए याद रह जाती है क्योंकि उसमें अपनी या अपने आस-पास की बात दिखती है. ये कहानी मेरे गाँव की है. वहाँ चलती हैं जहाँ मेरी जिन्दगी का बड़ा हिस्सा गुजरा है. वो हिस्सा जिसे बचपन कहते हैं.. उसी गाँव में मैंने प्राथमिक शिक्षा पायी है जो पुस्तक में नायिका का भी गाँव है. और  मैं घर जाने के लिए आज भी उसी स्टेशन पर उतरता हूँ  जिसका वर्णन पहले पन्ने पर है. पुस्तक पढते हुए मैं उसमें आये हर रास्ते पर चल पाया. एक-एक दृश्य देखा हुआ मिला. एक एक चरित्र में किसी न किसी की छवि दिखती गयी. खेती के तरीके अब भी लगभग वही हैं. उन खेतों में आज भी भदई बोना जुए का खेल ही है... नावों और बैलों को छोड़कर आज भी सबकुछ लगभग वैसा ही है. अब जो बदल भी गया वो बचपन में देखा है.  पुस्तक में आया बरगद का पेंड आज भी वैसे ही खड़ा है. मेरे बड़े पिताजी की ससुराल बलिहार के एक मिश्र घराने में ही है और चौबे छपरा-बलिहार के रास्ते सरेह के मेढ़ों  और पगडण्डियों से होते हुए एक बार मैं भी पैदल गया हूँ. हमारे जमाने में सड़कें और बसें हो गयी थी पर मेरे बचपन में बूढ़े-बुजुर्ग लोगों को ये सब घूम कर जाने वाला रास्ता लगता - 'ऐ ओतना दूर घूम के के जाई !' जब तक वो घुमायेगा तब तक तो हम पहुँच जाएंगे...  और लोग पैदल ही निकल लेते. साईकिल भी नहीं.  एक बार पैदल आने के बाद मैंने कई बार सवाल किया है - 'बलिहार वाले रोज रेवती स्टेशन से पैदल जाते थे इतनी दूर? रोज?' और बरसात में?. सुन कर आश्चर्य होता कि लोग शादियों में, नाच-नौटंकी देखने तो कितनी दूर तक पैदल चले जाते. साइकिललक्जरी थी. कितने किस्से सुने हैं दहेज़ में दूल्हे का रेले साइकिल आ ओमेगा घडी के लिए नाराज होते.

बलिया शहर अर्थात कचहरी इत्यादि में काम करने वालों के लिए रेवती जैसे इन टीसनों (स्टेशन) के अलावा कोई और उपाय नहीं था.. स्टेशन से गाँव कितना भी दूर हो !  उस जमाने में दूरी ऐसे नापी जाती सुना है मैंने - बूढ़ा बरगद प्रेत की जगह पेंड जैसा दिखने लगा मतलब अब गाँव आने वाला है ! मोटे-मोटे खम्भे के दुवार वाला फलाने का पक्का मकान आता तब लोग सुस्ता लेते, फलाने कुंवे पर या किसी के बगीचे के पास दूसरा पड़ाव और सरेह में निर्धारित जगह से लेकर कुछ दुरी तक किसी न किसी की आत्मा भटकती. कई कुंवे और बगीचों के नाम भी किसी भूतों के नाम पर होते. 'अकलुवा बो के बारी' के सैकड़ों पेड़ों और बसवारी से होते मैं खुद स्कूल जाता था. कोई अकलुवा बो बगीचे के कुंवे में डूब मरी थी तब से उसका बगीचे और कुंवे पर उसकी आत्मा का राज हो न हो नाम तो था ही. अब वो बगीचा नहीं रहा एक एक करके सारे पेंड कटते गए .. पर पुस्तक पढ़ते हुए उन रास्तों से फिर जाना हो गया. पोस्ट लिखते हुए भी पुस्तक की जगह मैं अपने बचपन में ही चला जा रहा हूँ.

पुस्तक में आये बीस-बिगहवा खेत की कहानियां सुनी है मैंने. करइल माटी के खेतों में बिना खाद पानी इफरात में होने वाले चना-मटर उखाड़ कर खाते बचपन गुजरा। और बाल धोने के लिए उन खेतों की करइल माटी दूर-दूर के गाँव के लोगों को साइकिल पर ले जाते देखा है मैंने. वही करइल माटी जिसके ढेले पुस्तक में बारिश के बाद छितरा जाते हैं. बैद जी चौबे छपरा नहीं पड़ोस के अन्य गाँव के थे जिनकी ख्याति हमने बचपन में सुनी थी. जगहें तो वही थी पर पुस्तक में आये कुछ चरित्र भी किन से प्रभावित थे ये भी हमें पूछने पर पता चला.

आंचलिक शब्दों, दृश्यों और पात्रों से जुडने की जरुरत नहीं थी. अपनी भाषा, अपने पात्र, अपना गाँव।

पुस्तक में कई यादगार क्षण आते हैं चाहे वो थोड़े ढीले चरित्र के काका का चतित्र परिवर्तन हो, होली का वर्णन या फिर नदी पार करने वाले दृश्यों का जीवंत वर्णन. गाँव में हो रही नौटंकी और खेत के दृश्य. और फिर बचपन-किशोर के पड़ाव का मासूम वार्तालाप. पढते समय पाठक अपने आपको कहीं न कहीं आस पास बैठा पाता है. सरेह में चलते चन्दन-गुंजा के साथ और नदी पार करते उन नावों पर...

सब कुछ सही चल रहे माहौल हंसती-खेलती भोली मासूम जिंदगीयों में अचानक ही चरित्रों के मन में द्वंद्व और जीवन में असहनीय दुखो का जब सिलसिला चालु होता है तो आँखे कई बार नम हो आती हैं. किताब बंद कर आँख बचानी पड़ती है. कई बार पढते-पढते मन करता है कि ऐसा क्यों नहीं हो गया… पर किसी की गलती भी नहीं दिखती. सभी अपनी जगह पर सही दिखते हैं. लेकिन एक घर में  त्रिभुज के तीन बिंदु की तरह जुड़े मगर अलग भी. क्या बिडम्बना है सभी एक दूसरे का भला चाहने वाले और फिर भी चीजें उलटी पड़ती जाती हैं - नियति की कठोरता.

पैराडॉक्स जिसका नाम है जिंदगी. हर कुछ पन्नों के बाद लगता है चलो थोड़ी संतुलित हुई कहानी…पर  दुर्भाग्य का सिलसिला थमता ही नहीं और सब कुछ उल्टा होता चला जाता है. किताब कई जगह थोड़ी निराशावादी लगती है. लगता है कुछ भी करो जिंदगी मैं जो होना होता है वही होता है - यथार्थ का चित्रण. तो कई बार ठीक इसका उल्टा... चन्दन के दिमाग की हलचलें और उसकी दृढ़ता. कई डाइमेंशन में ले जाती है कहानी. ग्रामीण जीवन के कई पहलुओं का सटीक चित्रण तो है ही.

एक ही  बार में समाप्त हो जाने वाली किताब निश्चय ही मोटी नहीं है (कीमत भी सिर्फ ५० रुपये). पर सोचे गए स्तर से कहीं ज्यादा दुःख पढने को मिल जाता है. पुस्तक पढते-पढते जब लगता है कि परिवेश, जगहों के नाम सब सही हैं और सारे चरित्र भी बिल्कुल वास्तविक से तो फिर कहानी भी सच सी लगने लगती है.  मन को याद दिलाना पड़ता है कि नहीं ये सिर्फ कहानी है... वैसे कितनों को ही ऐसे समझौते करने पड़ते हैं जिंदगी में.  मैं अपने आपको समझाने की कोशिश करता हूँ… सबकी परिणति शायद इतनी बुरी नहीं होती. कुसमय का शिकार भी कितने ही लोग होते हैं. पर अभी भी मन ये मानने को तैयार नहीं कि ये सभी एक साथ किसी की जिंदगी में हो जाते हों. वैसे इन सभी घटनाओं के एक साथ एक व्यक्ति के जीवन में हो जाने की सम्भावना शून्य भी तो नहीं !

डूबते-उतराते, इस दुनिया से उस दुनिया आते-जाते गंगा-सोना की धार दिमाग में और हडसन की धार सामने... एक शनिवार का दिन कुछ यूँ बीता.

~Abhishek Ojha~

पोस्टोपरांत अपडेट: मेरे एक दोस्त ने सवाल लिख भेजा है "आपका ब्लॉग पढने वालों में से कितने जानते होंगे कि 'कोहबर' का मतलब क्या होता है?". मुझे लगता है... लगभग सभी?


Sep 13, 2010

आखिरी मुलाकात

ज़्यूरिक लेक… गर्मियों की शाम… दूर दिखता आल्पस और पानी में तैरते सफ़ेद बत्तख. एक के हाथ में चॉकलेट और दूसरे के हाथ में बत्तखों को खिलाने का चारा. आते ही ये सामान आपस में एक्सचेंज हो जाता. लैब से दोनों साइकिलें उठा सीधा यहीं आते. जगह ही ऐसी है और फिर जहाँ उसके दिमाग का तापमान पूरे दिन पर्शियल डिफ़्रेंशियल इक्वेशनस में घुसे रहने से बढ़ जाता तो ऋचा कहती कि गले में मेढक फंस गया हो जैसी बोली सुन के मेरे तो कान पक जाते हैं. वैसे यहाँ भी घुमा फिरा के उनकी बातें उन इक्वेशनस में ही अटक जाती...

कई दिनों से ऋचा के शादी की बात चल रही है… इस मुद्दे पर भी आजकल दोनों खूब बाते करते. एक दूसरे को भरपूर चिढाते… zurich lake

‘सुन कल मैं इंडिया जा रही हूँ, टिकट नहीं कराया ना अभी तक तुने?’

‘जैसे मैं नहीं आऊंगा तो शादी ही नहीं करोगी !’

‘सच में नहीं करुँगी, तुझे क्या लगता है… अच्छा तू बता मैं ना आऊं तेरी शादी में तो?’

‘तू कैसे नहीं आएगी, बिना तेरे अप्रूव किये मेरी शादी होगी कैसे?’

‘तुने तो अप्रूव किया नहीं… तो मैं भी ना कर रही… अच्छा अपना पुराना आईडिया कैसा रहेगा? ये अटेंड करने का लफड़ा ही खतम कर देते हैं चल हम दोनों एक-दूसरे से ही शादी कर लेते हैं'

……

… इसके बाद दोनों चुप हो गए. ऐसा नहीं था कि ये बात पहली बार कह दी हो किसी ने… अक्सर ये बात दिन में चार दफा तो आ ही जाती. कोई भी कह देता. …‘कब कर रहे हो शादी?’. और दोनों हंस देते ‘हद है ! किसी को भरोसा ही नहीं होता हम दोस्त हैं !’.  पर चुप्पी पहली बार छाई थी दोनों के बीच में… किसी ने कुछ नहीं कहा… कुछ भी नहीं. थोड़ी देर बाद ऋचा ने कुछ कहा था शायद. उसे ठीक-ठीक याद नहीं. फिर दोनों साइकिलें उठा चले गए.

…नहीं गया वो और शायद ऋचा की शादी भी हो गयी हो… अब भी वो बैठता है लेक के किनारे, रोज शाम हाथ में एक किताब लिए हुए. अक्सर बोर होते हुए मोबाइल में ऋचा पर अंगूठा थम जाता है. कई बार हरे बटन पर जाकर रुक गया… उसे भी पता है कि ये नंबर अब तक नहीं चलता होगा. उसकी मानें तो आज तक उसे नहीं पता ऋचा की शादी हुई या नहीं. दोनों बेस्ट-फ्रेंड थे (हैं?).

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~Abhishek Ojha~

(ऐंवे ही ठेल दी आज ये पढते-पढते पक गया तो बीच में. बड़े पैराडॉक्स हैं जिंदगी में. वही दीखता है पर वही नहीं होता.  एक उदहारण… मेरा फेसबुक स्टेटस: Abhishek Ojha is reading so much these days that he is not getting time to read what he wants to read.)

तस्वीर: ज़्यूरिक लेक, 04-जुलाई-2005.

Sep 8, 2010

कोई लड़की बोर ही नहीं होती !

ज्यादा भूमिका नहीं. छुट्टी का दिन… शरारत सूझी और मैंने चैट स्टेटस लगा दिया "कोई बोर हो रहा है क्या?" और फिर जो संदेशों का सिलसिला चालू हुआ वो कुछ ऐसा था:
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वैभव: ये बताओ जो बोर हो रहा हो उसका मनोरंजन करोगे?
अभिषेक: हाँ 
वैभव: मतलब एकदम निठल्ले हो क्या?
अभिषेक: हाँ
वैभव: आजकल वालस्ट्रीट में कोई काम नहीं हो रहा क्या?
अभिषेक: अबे जाओ, मैंने छुट्टी के दिन स्टेटस लगाया था कि कोई लड़की बोर
हो रही होगी. पहले तू भाग यहाँ से.
वैभव: फिर स्टेटस तो सही करो.
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नया स्टेटस: "कोई लड़की बोर हो रहा है क्या?" [जल्दी में रहा को रही करना भूल गया]
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मनु: हो रही यार रहा नहीं [इतने में डिस्कनेक्ट हो गया]
मनु:  फरार हो गए! दाल में काला है ;)
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नया स्टेटस: "कोई लड़की बोर हो रही है क्या?"
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अमित: एनवायसी में कमी है क्या बोर लड़कियों की? :)  तुम्हारे होते हुए
भी बोर नहीं हो रहीं ?
अभिषेक: एनवायसी में नहीं इन्टरनेट पर चाहिए :)
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रचना: मैं आज तुम्हे मैसेज करने ही वाली थी, लेकिन अब तुम उन्ही से बात
करो जो बोर हो रहीं है. मैं चली.
अभिषेक: अरे रुको, सुनो तो.
रचना: बाय, बेस्ट ऑफ लक... एन्जॉय टाकिंग टू योर बोरड गर्ल.
अभिषेक: यु देयर?
………
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संजय: ये धंधा कब चालु किया ? ;)
अभिषेक: रिसेसन है तो साइड बिजनेस करना पड़ता है :) [ये रिसेसन वाली सलाह भी किसी के मैसेज से ही मिली थी]
संजय: वैसे धांसू आईडिया है. लगे रहो. आई होप यू गेट सम रिटर्न.
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प्रियंका: (मेरी एमबीए क्लास की एक स्टूडेंट): सर, आप तो ऐसे ना थे, आपको
अमेरिका जाते ही क्या हो गया?
अभिषेक: अरे तुम छोडो, अब तुम्हे क्या बताऊँ एक शिक्षक की कुछ मर्यादा होती है :)
प्रियंका: अरे सर, आप तो छुपे रुस्तम निकले. पहले पता होता तो हम आपको
बताते... अब शिक्षक की मर्यादा होती है छात्राओं कि तो नहीं  होती न ? :)
अभिषेक: हे हे.
प्रियंका: बेस्ट ऑफ लक सर.
अभिषेक: थैंक्स :)
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सौरभ: हाँ बे हो रही है बोर, मेरी गर्लफ्रेंड. क्या करेगा बता?
अभिषेक: उसीको बताऊंगा, बात करा उससे. आज लड़कों से बात नहीं करनी.
सौरभ: हाँ बेटा, कर ले बात. वो तो २४ घंटे बोर ही रहती है. मैं उसकी
बोरियत से चट गया हूँ और तुझे बोर हो रही लड़की चाहिए. संभल जा बेटा. सही
में मिल गयी न तो स्टेटस चेंज करने लायक भी नहीं बचोगे :)
तू बात करा, फिर देख.
.......
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राजू: भाई दो बोर हो रही हों तो कृपया एक इधर भेजें.
अभिषेक: जी बिल्कुल. पर लगता है ये लडकियां बोर ही नहीं होती. फ्री का
मनोरंजन उपलब्ध है तब भी नहीं !
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चिंटू: लड़का हो रहा है, चलेगा?
अभिषेक: किसे लड़का हो रहा है? :)
चिंटू: अरे भाग. मैं कह रहा हूँ कि लड़का बोर हो रहा है चलेगा क्या?
अभिषेक: नहीं, तुम क्राइटेरिया सैटिस्फाई नहीं करते. सॉरी.
चिंटू: एक दिन की छुट्टी में ऐसे ऐसे आईडिया आते हैं तुझे... इससे अच्छा
तो स्लीपिंग पिल लेकर सो जाया कर.
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अविराज: ये स्टेटस तो बहुत सही है सर, एलओएल :D
अभिषेक: कॉपी मत करना, कॉपीराईट प्रोटेक्टेड है. केस कर दूँगा :)
अविराज: सर, किसका कॉपीराईट है बोरड लड़की का या स्टेटस का :)
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पीयूष: ये सही है भैया, लड़की बोर हो तो हम आपको बताएं... वाह जी.
अभिषेक: ऐसा करो तो बहुत अच्छा, नहीं तो जो खुद बताएगी उसका मनोरंजन करने
का सौभाग्य तो मिलेगा ही :)
पीयूष: :)
अभिषेक: कोई बोर हो रही हो तो रेफर करना मत भूलना. :)
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हेम: अबे क्लास में बैठा हूँ और पूरी क्लास ही बोर हो रही हैं, लडकियां
भी है २० के आस पास. बोल क्या करना है.
अभिषेक: अबे यार ये तो बड़ी प्रॉब्लम है. मैं तो एक का टाइम पास बन
सकता हूँ. २० का मुश्किल है. :)
हेम: किसी काम के नहीं हो तुम. मुझे लगा कुछ आईडिया होगा तेरे पास.
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ऋचा: अभिषेक? ये तुम्ही हो? क्या हो गया है तुम्हे?
अभिषेक: अरे इसमें होना जाना क्या है? कोई बोर हो रही हो तो उसका मनोरंजन
कर दूँगा थोडा. तुम्हे तो पता है मेरी हेल्प करने की आदत है :)
ऋचा: अच्छा जैसे मैं ही सबसे बड़ी बेवकूफ हूँ दुनिया में.  चेंज कर लो
स्टेटस नहीं तो जो एक दो से बात होती है न वो भी बंद हो जायेगी :)
अभिषेक: अरे ऐसा न बोलो. ऐसा क्या है इसमें ?
ऋचा: अब ये तो तब समझाना जब बात होनी बंद हो जायेगी :)
देखो डराओ मत. समझा तो लूँगा ही मैं. लेकिन ये बताओ इसमें प्रॉब्लम क्या है?
कुछ नहीं. टीटवायएल, बाय.
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सुमित: समझ नहीं आया?
अभिषेक: क्या?
सुमित: लड़की, बोर नहीं होगी क्या इन बातों से.
अभिषेक: इसमें समझना क्या है? कोई बोर हो रही होगी तो मेसेज करेगी. मैं
थोडा मनोरंजन कर दूँगा :)
सुमित: अमेरिका जाके बहके से लगते हैं जनाब ;), खाली लड़कियों का लड़कों का नहीं?
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chat statusअब तक इतना तो पता चल ही गया था कि लडको का मनोरंजन तो इस स्टेटस से ही हो गया :)  कोई बोर होती तो  नहीं मिली पर स्टेटस सुपरहिट हो गया. एकदम मुन्नीबाई के माफिक. और दूसरी बात ये कि आज कल लगता है लडकियां बोर नहीं होती. क्योंकि इस दौरान २० से अधिक बोर होते हुए लड़कों का मेसेज आया और कुल ४ लड़कियों का. एक और बात कोई लड़की किसी दूसरी बोर हो रही लड़की का मनोरंजन होता नहीं देख सकती क्या? वैसे छोटे से प्रयोग से निष्कर्ष नहीं निकल सकता. खैर… कोई बोर हो रही हो तो किसका पता देना है ये तो आप जानते ही हैं.

~Abhishek Ojha~

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इस ऊपर के चैट लॉग में कई ब्लॉगजगत के मित्र भी हैं. वो तो अपनी बात समझ ही जायेंगे. बाकी मैंने असली नाम और लिंक नहीं दिया है. कहीं किसी को बुरा लगा तो बेचारे मेरी पोस्ट के चक्कर में वो भी बदनाम हो जायेंगे. वैसे बदनामी का मार्केट तो मुन्नी ने सही कर रखा है पर बुरा मानने वाली बात का क्या? कौन कब किस बात का बुरा मान जाय !

Aug 23, 2010

नंगे गायब !

…‘४.३० बजे मैडिसन पार्क… नंगे के पास मिलते हैं.’

४.२५ पर पार्क पंहुच कर देखता हूँ… नंगा ही गायब है ! पार्क के बीच में और दूसरी तरफ भी जाकर देखता हूँ यहाँ से भी नंगे गायब हैं. ऊपर की तरफ देखता हूँ तो हर ईमारत से भी नंगे गायब हैं. मेरी ही तरह कुछ और लोगों की निगाहें भी नंगों को ढूंढती सी दिख रही है. लेकिन कोई किसी से कुछ पूछ नहीं रहा. लोग एक बार वहाँ देखते हैं जहाँ नंगा खड़ा रहता था फिर ऊपर नजर उठाते हैं जहाँ गगनचुम्बी इमारतों की छत के बिलकुल किनारे पर नंगे खड़े दिखते थे फिर लोग आगे बढ़ जाते हैं… एक साथ सारे नंगे गायब !

जब से यहाँ आया हूँ ऑफिस आते-जाते नंगा मुझे रोज दीखता रहा है. बड़े अजीब ख्याल आते नंगों को देखकर. पर हमेशा चहरे पर मुस्कान आ ही जाती थी. मैं ही क्यों अक्सर नंगे के पास से गुजरने वाले सभी लोगों के चेहरे पर मुस्कान होती. लोग अजीबो-गरीब मुद्राएं बना कर नंगे के साथ फोटो खिचवाते और कुछ लड़कियों की फोटो खिचवाने की मुद्रा देखकर तो कई बार लगता कि काश नंगे सी किस्मत अपनी भी होती. उस समय यह ख्याल नहीं रहता कि नंगा हो चौराहे पर खड़ा है वो ! पर इसमें मेरी गलती क्या है इंसान हूँ औरों के सुख दीख ही जाते हैं… भले ही वो नंगे क्यों ना हो. एक दिन सुबह-सुबह पांच बजे ऑफिस जाना हुआ… अँधेरे में खड़-बड सुन नजर उठाई तो दिखा कि बड़ी तन्मयता से तिपाई पर कैमरा लगाए एक सज्जन नंगे की फोटो खींचने के लिए खड़े हैं. शायद सही  मोमेंट के इंतज़ार में. ऐसे काम के लिए इतनी सुबह… और नंगा चुप खड़ा… मैं फिर मुस्कुराता निकल गया था.

`ये देश भी रंग-रंगीला परजातंतर ही है’ नंगे के साथ किसी को खुराफात करते देख मेरे दिमाग में आया था और मैं फिर मुस्कुराता हुआ निकल गया था.

एक दिन दिमाग में आया जैसे नंगा कह रहा हो अरे रुको देखते जाओ तुम भी मेरी ही तरह हो क्यों शर्माते हो? ऊँचाई पर खड़ा नंगा जैसे कह रहा हो ‘तुम सब नंगे हो तुम्हारी नंगई देख मैंने अपने कपडे फ़ेंक दिए. इतनी ऊंचाई से सब दीखता है रे…’ सिग्नल हरा हुआ तो मुझे लगा कि सब लोग नंगे कि ये बात सुनकर भाग रहे हैं. और मैं फिर मुस्कुराता हुआ Madison Park Statue निकल गया.

एक दिन ‘बसन हीन नहिं सोह सुरारी, सब भूषन भूषित बर नारी’ याद आया तुलसी बाबा मिलते तो पूछता ‘बाबा यहाँ तो नर है इसके बारे में क्या?’. शायद बाबा कहते ‘बच्चा नर कभी नहीं सोहता नंगा हो या सूट में’. मुझे लगा जैसे नंगा मेरे सूट पर हँस रहा हो और मैं फिर मुस्कुराता हुआ निकल गया.

१५ अगस्त के दिन हुए समारोह में किसी ने नंगे को काला पोलिथिन पहना दिया था. उस दिन ऊपर नजर उठाई तो जैसे छत पर खड़ा नंगा कह रहा हो… ‘कहाँ-कहाँ ढकते चलोगे? मैं तो हर जगह हूँ. मुझे ना देखना हो तो आँखें बंद कर लो… और तुम नंगों पहले ये बताओ पन्द्रह अगस्त के लिए आये हो या प्रीति जिंटा को देखने? इस हमाम में सभी नंगे हैं बेटा!’  … हम्म अबे सभी नहीं ‘लगभग’ सभी.  वहाँ मौजूद लगभग सभी लोगों की तरह मैं भी अपने आपको अपने बनाए ‘लगभग’ सभी वाले समूह से बाहर कर लेता हूँ. और ये सोचते हुए… मैं एक बार फिर मुस्कुराता हुआ निकल गया.

‘नंगे के पास बुलाया था तुमने, वो तो है ही नहीं?’ जिनसे मिलने गया था उनकी आवाज सुन मैं नंगों से जुडी सोच की दुनिया से वापस लौट आया. ‘हाँ सभी गायब हैं !'. फिर पता चला कुल ३१ नंगे थे. अब ब्लोगरी और मॉडर्न आर्ट पर क्यों और कैसे जैसे सवाल मैं नहीं उठाता तो उन नंगों के होने पर मैंने कभी दिमाग नहीं लगाया. वो किसलिए हैं इनका क्या मतलब है… वैसे सारे नंगे एक से ही थे. दूर से थोड़े अलग दिखते पर पास आने पर पता चलता कि ये भी हूबहू वैसा ही है. सभी एक से… खैर नंगों पर ना सोचते हुए  भी सोचना पड़ता था. और कुछ नहीं तो आते-जाते मुस्कुराने का एक बहाना देते थे [ब्लोगरों की तरह ;)]. अब नंगे नहीं हैं तो आते-जाते याद तो आयेंगे ही !

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१. नंगे एंटनी गोर्मली के आर्ट थे. जिनके बारे में जानकारी यहाँ मिल जायेगी. अब देखिये इसी साईट से ली गयी इस फोटो में किसी ने एक नंगे को अपना कुत्ता पकड़ा दिया है. 

२. प्रीति जिंटा को देख हमें महसूस हुआ कि घंटो मुस्कुराया जा सकता है… बिना थके. और मैं यहीं सोच कर मुस्कुराता घर लौट गया.

Madison Park Statue 2Preity Zinta at India day parade

 

 

 

 

 

 

 

३. प्रीति जिंटा पर और कुछ नहीं… किसी ने भीड़ में से कहा… ‘अबे बहुत खबसूरत है बे!’. … वैसे खबसूरत का शाब्दिक अर्थ बताएगा कोई?

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~Abhishek Ojha~

Jul 26, 2010

कलियुग केवल नाम अधारा

नाम तो धांसू होना ही चाहिए चाहे किसी रेसिपी का हो या जगह का. इंसान का तो फिर भी ठीक है... अपना बस चलता तो लोग रखते फिर एक से बढ़कर एक नाम. हमारे एक दोस्त ने दसवीं में अपना नाम पप्पू से बदल कर अक्षय कुमार कर लिया ! अब ये बात अलग है कि उनको इस बात पर दोस्तों ने इतना परेशान किया... अगर फिर मौका मिलता तो वो अब अपना नाम रवीना टंडन भी कर लेते लेकिन अक्षय कुमार तो नहीं ही रहने देते. जो भी हो  नाम रखने के पहले खोज-बीन तो खूब होती ही है.

अब रेसिपी के तो बस नाम होने चाहिए पोटाचियो घूघूरियानो या चिकन आलाफूस की तरह… भले ही स्वाद कुछ भी हो. आप कहेंगे केवल नाम से क्या होता है? अरे भाई जब सीमेंट बिक सकता है 'विश्वास है, इसमें कुछ खास है' कह देने पर*. और देखने वाले ढूँढते ही रह जाते हैं इसमें क्या खास था सीमेंट वाला? तो वैसे ही लगभग हर मामले में है. पहले एक अच्छा नाम सोचो... बस. बाकी बाद में. अरे तुलसी बाबा उस जमाने में कह गए थे ‘कलियुग केवल नाम अधारा, सुमिरि-सुमिरि नर उतरहिं पारा’.

कंपनी खोलनी है. आइडिया नहीं है किस चीज की कंपनी. खुलेगी भी या नहीं... लेकिन पहले एक अच्छा नाम तो सोचते हैं ! अपना तो कल पढ़ाई में भी नाम का धाक चल गया.

हाँ बे क्या कर रहे हो?
ऐसे ही कुछ पढ़ रहा था.
क्या?
गार्च
ये क्या होता है?
जनरलाइज्ड ऑटोरेग्रेसिव कंडीशनल हेटेरोस्टेकाड्स्टिसिटि.
अरे @#$%, क्या नाम है ! फिर से बोल.
भाग... !
अबे नहीं, किसी को डराना हो तो मस्त नाम है... मैं भी याद कर लेता हूँ. जैसे वो है न मुंछे हो तो नत्थूलाल की तरह और बीमारी हो तो लिम्फोसर्कोमा ऑफ... उसी टाइप्स का ये भी है जनरलाइज्ड... क्या था आगे?

कहने का मतलब ये कि नाम फोकसबाजी वाला होना चाहिए बाकी और कुछ हो न हो.

वैसे कई बार ये झाम चल नहीं पाता. अभी कुछ दिनों पहले मैं घर जा रहा था तो ब्लूमबर्ग पत्रिका भी ले गया. अब अपने को तो मुफ्त में मिलती है और सोचा चलो थोड़ा तो इंप्रेसन बनेगा ही आजू-बाजू वालों पे. जब ट्रेन में 10 घंटे गुजर गए तो हमारे बगल में बैठे भाई साब ने पत्रिका पलटी. पत्रिका के पिछले कवर पर किसी विदेशी घड़ी का विज्ञापन था.

'मस्त घड़ी है, नहीं?' कितने की होगी? देखो तो लिखा है कहीं?'
'नहीं ये तो नहीं लिखा !'

एक मिनट में उन्होने पत्रिका उलट पलट कर रख दी... 'कुछ खास नहीं है... चित्र ही नहीं हैं. बस कागज अच्छा दिया है... इससे अच्छी तो अपनी वो भारत की सबसे ज्यादा बिकने वाली पत्रिकवा होती है. क्या पढ़ते हो ये सब? कुछ अच्छा भी पढ़ लिया करो.'

मैं मुस्कुरा कर रह गया. एक बार ऐसे ही हुआ जब अपने कॉलेज की टी-शर्ट पहने ट्रेन में जा रहा था और एक अंकल जी ने बोला ‘…मन लगा कर पढ़ा होता तो अभी कुछ कमा रहे होते !’. ऐसे कई किस्से हैं... बस बात का मूल यही है कि कई बार ये नाम वाला झाम उल्टा पड़ जाता है. और अब तो ना मैं कभी ऐसी-वैसी टी-शर्ट पहनता हूँ और ना ही ऐसी-वैसी पत्रिका ले जाऊँगा.

वैसे कुछ नाम क्लासिक हैं हर जगह और हमेशा चलते हैं... जैसे 'सरकारी नौकरी' ! बाकी सेक्टर  में बूम डूम आते रहते हैं सरकारी वालों का बूम-बूम-बूम ही रहता है. प्राइवेट वालों का तो बिल्लेसुर बकरीहा** वाला हाल है. उनका राज वही जानते हैं बेचारे. बैंक वालों का तो मार्केट वैसे ही डाउन है, हाल ही में पता चला कि बीपी स्पिल के बाद तेल वाले भी अब अपना सेक्टर बताने से डर रहे हैं. लड़की वाले भाग ना जाय :). अब बताइये एवरग्रीन तो सरकारी वाले ही हुए न?    

खैर... आउट ऑफ कांटेक्स्ट... पता नहीं क्यों मुझे याद आ रहा है 'एस्क्यूज मी, माईसेल्फ़ बदरी शंकर... '. समझ गए न? नहीं तो यहाँ देख आइये.

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~Abhishek Ojha~

*जेके सीमेंट का विज्ञापन तो देख ही होगा आपने.
** निराला की ये किताब कल ही ख़त्म की है, आजकल थोड़ा पढ़ना हो पा रहा है. किताबें किसकी अनुशंसा पर खरीदी गयी हैं... उनका नाम और धन्यवाद देकर आभार कम नहीं करना चाहता.

Jul 19, 2010

आई = आई+२

हमारे एक दोस्त हैं और जबसे मैं उन्हें जानता हूँ उनकी शादी 'दो साल बाद' होने वाली है. जब भी पूछो 'कब हो रही है?' जवाब होता है 'दो साल बाद'. वैसे एक बार उन्होने कहा फरवरी में होगी... पर जब फिर से उन्होने एक बार २ साल बाद वाली बात कह दी तो हमने ये मान लिया कि महिना भले तय हो गया हो इनकी शादी तो दो साल बाद ही होगी.  वो अभी भी २ साल बाद वाली बात पर अडिग हैं... इस बीच हमने इसे 'आई=आई+२' नाम दे दिया. मतलब वर्तमान को दो से बढ़ाते जाओ.

प्रोग्रामिंग से परिचय रखने वाले इस कथन का मतलब बखूबी जानते हैं. बहुत ज्यादा इस्तेमाल होने वाला कथन है. ऐसे कथन को प्रोग्रामिंग में रोकना होता है... किसी भी एक Loopशर्त पर. रोकना है तो शर्त तो रखनी ही पड़ती है. अगर बोल-चाल की भाषा में कहूँ तो कहा जायेगा कि आई को दो से तब तक बढ़ाते रहो जब तक कुछ 'ऐसा' नहीं हो जाता. अगर गलती से 'ऐसा' हो जाने वाली शर्त लगाना भूल गए तो प्रोग्राम अनंत समय तक चलता  रहेगा !  वैसे ही जैसे हमारे दोस्त की शादी दो साल बाद होनी है. किस दिन से दो साल बाद ये तो बताया नहीं उन्होने. ऐसा ही एक अनंत तक चलने वाला लूप पहले भी फंसा था. अब क्या करें थोड़ी बहुत जो प्रोग्रामिंग की उसमें लूप में अक्सर फंस ही गया, और याद भी वही रह गया :)

प्रोग्रामिंग के अभ्यास करते समय कई बार ऐसे अनंत तक चलने वाले फंदों में फँसना हुआ है. हर बार यही लगता: 'ओह फिर शर्त लगाना भूल गया !  या फिर गलत या उल्टी शर्त लगा दी.' देखने में बहुत स्वाभाविक गलती लगती है लेकिन प्रोग्रामिंग करने वाले ही बता पायेंगे कि कितनी आसानी से हर बार ये गलती हो ही जाती है.
व्हाइल (<शर्त >){
आई= आई+२;
}

प्रोग्राम लिखते समय यही बात कागज पर लिखी हुई रहती है लेकिन कोड़ में अक्सर उल्टी शर्त लग जाती है या फिर शर्त लगाना ही भूल गए और फंस गए इनफाइनाइट लूप में ! 
प्रोग्रामिंग वाले मामले में प्रोग्राम को रोक देने या फिर डब्बे* को ही फिर से चालू कर देने का विकल्प होता है. लेकिन यही विकल्प हमारे पास हमेशा कहाँ होता है ? बिना ठोस समय सीमा के कोई भी बात कह देना या योजना बना लेना बहुत आसान है. लेकिन उसे पूरा करने के लिए जो समर्पण चाहिए वो अक्सर आई = आई+२ वाले फंदे में उलझ कर रह जाता है. वक्त अपनी गति से चलता जाता है. और हम सोचे गए काम को और आगे ठेलते जाते हैं कभी २ से कभी ४ से. कितनी भी धुन पक्की हो एक बार अगर नहीं हो पाया तो बहाने तो हमेशा ही तैयार रहते हैं. आपके कितने काम हैं जो एक साल के भीतर पूरे होने वाले थे (हैं)?

अब ऐसा ही कुछ-कुछ अपने साथ भी हो रहा है. घुमा फिरा कर हमारी कंपनी ने इस बार तथाकथित हमेशा के लिए न्यूयॉर्क ऑफिस भेज दिया. (वैसे मिनटो में निकाल बाहर करने वाले या खुद ही लूट जाने वाले उद्योग से जुड़े लोग जब 'परमानेंट' शब्द इस्तेमाल करते हैं तो... इस उद्योग में काले सूट पहने और ब्लैकबेरी पर अंगुली नचाते लोग जब आधे घंटे में दस-बीस साल बाद की योजना बना  कर कमरे से बाहर निकलते हैं और सामने टीवी पर दिखता है... कंपनी दिवालिया हो गयी ! खैर... अभी बात आई=आई+२ की)... कुछ लोगों ने पूछा कब तक रहोगे? तो कइयों ने बड़े दावे से कहा  'लौट नहीं पाओगे ! ' कइयों ने पूछा कि ऐसा क्या है जो यहाँ रहकर नहीं कर पाओगे? वैसे तो हमें अटल बिहारी वाजपई की तरह सबकी बात ठीक ही लगी. पर अपने हर बात पर चर्चा हो जाती है... तिल का ताड़...टाइप्स. वैसे यहाँ से लौट कर गए कई लोगों के साथ एक... वेल... उन्हें लगता है कि उन्होने बड़ा भारी काम किया है... कुछ त्याग-व्याग टाइप का.... और उनके हिसाब से किसी और के लिए ये संभव नहीं है. खैर इस पर कोई टिपण्णी नहीं. हाँ कई लोग हैं जो साथ काम करते थे और वापस जाकर बहुत खुश हैं.

जो भी हो हमने इसी बहस के बीच दस हजार रुपये की शर्त लगा दी... दो साल में लौट जाने की. अब ये दो साल 'आई=आई+२' ना हो जाये इसलिये ये पोस्ट ठेल दी. तो अपना आई+२ होता है जुलाई २०१२. अगर नहीं लौटा तो इस तर्क पर दस हजार तो नहीं बचने वाले... तो दो साल बाद की जगह २०१२ पढ़ा जाय.

फिलहाल तो दिसंबर में आता हूँ [इस या अगले में ये तो वक्त जाने ;)]! वैसे फंदा-वंदा अपनी जगह... हमें तो थोड़ा फंडा मारना था तो पोस्ट लिख दी.

और भाइयों, बहनो, दोस्तों, दोस्तनियों, हमारी कोई चाहने वाली टाइप, चाचा-चाचियों वॉटएवर-ववॉटएवर और टिपण्णी के बदले टिपण्णी की अभिलाषा रखने वालों  (शॉर्ट में कहने का मतलब ये कि यह पढ़ कर टाइम खराब हमारे कोई शुभचिंतक ही करेंगे वरना किसे फुर्सत है!) एक बार और क्लियर कर दूँ ये ब्रेन-ड्रेन उरेन-ड्रेन नहीं है, अपने पास इतना ब्रेन नहीं है कि ड्रेन की समस्या हो. उस हिसाब से तो जितना दूर ही रहे तो बढ़िया है :) खैर हमें जानने वाले हमारी असलियत जानते हैं उन्हें इस डिसक्लेमर की जरूरत नहीं है.  

~Abhishek Ojha~

(...अगर लूप-वूप में फँसे तो पीड़ीजी हैं न प्रोग्रामिंग समझाने के लिए. सुना है 'जी' लगाने पे बहुत खुश रहते हैं आजकल. 'कहते हैं पीडीजी बोलो जी'... )

*डब्बा माने कंप्यूटर

Jul 12, 2010

सी-थ्रीफाइव पोटाचियो घूघूरियानों (भाग 2)

पिछली पोस्ट को लिखे इतने दिन हो गए कि मैं खुद ही भूल गया कौन सी रेसिपी सोची थी भाग दो के लिए. दिल्ली में कुछ ५-६०० रुपये का गन्ने का जूस याद तो है लेकिन उसका धांसू वाला नाम याद नहीं आ रहा. अब जब नाम ही याद नहीं तो फिर गन्ना गन्ना हो जायेगा और भंटा भंटा...  फिर काहे का आकर्षण. बिन नाम सब सून... !

खैर अब भाग एक था तो भाग दो भी लिखना ही पड़ेगा. आजकल तो फ्लॉप मूवी हो तो भी सिकवेल बनने लगे हैं मेरी पोस्ट पर तो फिर भी कुछ टिपण्णी आई थी. खैर बात थी नाम की. अब नाम में तो सब कुछ रखा ही है लेकिन कई चीजें ऐसी है जो बकायदा काम करती हैं उन्हें किसी नाम की जरूरत नहीं होती. अब जुगाड़ से चलने वाली हर चीज का नाम तो होता नहीं है. लेकिन जितना काम उनसे होता है उतना नाम वाले क्या कर पायेंगे !  आज अपने कुछ बेनामी तंत्रों से आपका परिचय करा देता हूँ.

हुआ यूँ कि हमारे गैस का रेगुलेटर खराब हो गया. अब पिछली बार गैस ख़त्म हुई थी तो08052010471 पोटाचियो घूघूरियानों का आविष्कार हुआ था. इस बार सिर्फ दूध गरम करने के लिए नया रेगुलेटर तो हम लाने से रहे तो थोड़ा इधर-उधर करने पर पता चला कि रेगुलेटर तो दबा के रखने से काम कर रहा है. अब कितनी देर हाथ से दबा के रखा जाय... अपने फ़्लैट पर कोई ऐसी वजन वाली छोटी वस्तु है नहीं जो रेगुलेटर के ऊपर आ सके. दिमाग की बत्ती  जली और हमने दो बर्तनों में पानी भरकर ये तंत्र तैयार किया जो २ महीने चला. इसका नामकरण नहीं हो पाया !

ऐसे ही एक बार किचन के बेसिन का पाइप फट गया. पता चला सोसाइटी में शिकायत 08052010472 लिखवानी पड़ेगी और ठीक तो शनिवार को ही हो पाता. वो भी पूरे दिन घर पर उपस्थित रहना पड़ता. ठीक करने वाला शनिवार को कभी भी आ सकता था और अगर हम घर पर नहीं रहे तो वो वापस चला जाता. अव्वल तो ये घर पर उपस्थित रहने वाला 'नेसेसरी बट नॉट साफिसिएंट कंडीशन' हमें कुछ पसंद नहीं आया. दूसरे शनिवार तक कैसे काम चलता? फ्लैट पर गिने-चुने सामान... एक प्लास्टिक की बोतल मिली और फिर काट कर बिन पेंदी की बोतल से जो अस्थायी व्यवस्था हुई वो एक साल से बिना किसी शिकायत के चल रही है.

अब लिखते-लिखते सोचता हूँ तो दिखता है कि गीजर का पाइप भी तो दो साल से टूटा 13052010476 हुआ है और वैसे ही चल रहा है ! बिना किसी समस्या के. ये अजीबो-गरीब सिस्टम भी बड़ा मस्त काम करता है. भारी-भरकम नलके से धीर-धीरे पानी आता था, जब से ये पाइप टूटा तब से सीधा इसी से धारा प्रवाहित होती है. ठीक करा के धीरे-धीरे टाइम खराब करने से अच्छा है फटाफट स्नान. वैसे भी रोज भागते-भागते ऑफिस पहुचने वाले ही एक-एक मिनट का मूल्य समझ सकते हैं !

अगल-बगल देखता हूँ तो हर वस्तु जिसका जो उपयोग होना चाहिए उससे कहीं अधिक 08052010473 और अच्छा उपयोग किसी और काम में हो रहा है. कुछ अनुपयोगी वस्तुओं को भी काम पर लगा दिया गया है. पर्दा कैसे टंगा है से लेकर कुर्सी, टेबल, एक्सटैन्शन कॉर्ड सबका कुछ और भी (ही) उपयोग हो रहा है. ये कॉफी मग में पड़ा बेलन मिक्सी और सिलबट्टे से अच्छा काम करते हैं. अदरख, इलायची, धनिया, मिर्च सबको बेरहमी से कुचल दिया जाता हैं इसमें. और ये वाइन की बोतल से रोटी बेलने का आइडिया तब आया था जब बेलन के अभाव में चार शीशे के ग्लास रोटी बेलने के प्रयास में तोड़ दिये गए थे. और जब आइडिया आ गया तो क्या रोटी, क्या समोसा सब बेल डाला गया.

अब ये सब तो ठीक... ऐसा ही जुगाड़ तंत्र अपने काम में भी चलता है. गनीमत है अपनी नौकरी में बस काम से मतलब होता है. कैसे हो रहा है इससे किसी को मतलब नहीं है. एक दिन मेरे बॉस बड़े खुश हुए तो कहा डोक्यूमेंट कर दो ये काम कैसे हो रहा है... अब तिकड़म और जुगाड़ का डोक्यूमेंटेशन और नामकरण होने लगा तब तो... खैर बिना नामकरण और डोक्यूमेंटेशन के ही सब कुछ चल रहा है. ठीक वैसे ही जैसे इन तस्वीरों में सब कुछ सही सलामत चल रहा है. ऐसे तंत्र हर जगह चल जाते हैं हर क्षेत्र में ! आप जहाँ भी जिस क्षेत्र में भी काम करते हों... ऐसे तिकड़म लगाया कीजिये कभी कुछ नहीं रुकेगा.

अब आपका मन हो इनमें से किसी यंत्र को 'पोटाचियो घूघूरियानों' टाइप धांसू नाम देने का तो दे दीजिये.

~Abhishek Ojha~

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ये जिस फ़्लैट की तस्वीरें हैं वो अब छूट चुका... पुणे भी... फिलहाल अनिश्चित काल के लिए न्यूयॉर्क में हूँ. अनिश्चितकाल क्यों? ये अगली पोस्ट का विषय होगा.

May 18, 2010

सी-थ्रीफाइव पोटाचियो घूघूरियानों (भाग 1)

हेडनोट: शीर्षक एक खुराफात जनित अद्द्भुत फ्यूजन रेसिपी का प्रस्तावित नाम है.

कुछ दिनों पहले अपने बॉस के बॉस के साथ एक पाँच सितारा भोज में जब उनके खास अनुरोध पर तैयार किया गया एक विकराल सा नाम धारण किए हुए व्यंजन जब चार बैरे लेकर आए तो हमें लगा कुछ तो बात होगी इसमें. एक सूट बूट वाले सज्जन ने 2 मिनट तक समझाया भी उस अद्भुत व्यंजन के बारे में. मुझे तो यकीन हो चला कि पंचतंत्र वाले भारुंड पक्षी की तरह का कोई अमृत-फल है इसमें. अब शाकाहारी इंसान दैवीय फल और घास फूस की ही तो कल्पना कर सकता है... चीता की तो नहिए करेगा? खैर... जब हमनेभंटा चखा तो ससुर भंटा निकला. अरे वही जिसे आजकल लोग एग प्लांट कहते हैं. आप जो भी कहते हों हमें तो भंटा नाम ही पसंद है. घर लौकर बताया... 'आज ल मेरीडियन से भंटा खाके आया हूँ कितने का मत पूछना'. पहली प्रतिक्रिया... 'तुम साले गंवार ही रहोगे ! अपरिसिएट करना सीखो'

फिर एक दिन टोसकाना में कुछ इटालियन रैसिपि मिली किसी जेट विमान के नाम की तरह. नाम में क्या रखा है टाइप्स सोच के एक बार फिर नाम भूल गया. पर जब स्वाद भी याद करने लायक नहीं मिला तो लगा... 'जो भी कुछ रखा है नाम में ही है... बाकी जो थोड़ा बहुत रखा है वो कीमत में'. अगर नहीं रखा होता तो फिर क्यों सबने निपट आलू टमाटर को बढ़िया आइटम कह दिया?... खैर हमने भी सहमति में सर हिला ही दिया. वैसे पुणे में शनिवार की रात... हमारी उम्र के अधिकतर लोगों के पैसे तो क्राउड़ ही वसूल करा देती है. खैर... इस पर फिर कभी.

कुछ दिनों बाद हमारा गैस ख़त्म... अरे भाई गैस रखा है यही क्या कम है? 'सप्ताह के दो दिन अगर बढ़िया मुहूर्त और मन रहा तो कुछ बना लिया' वाले मामले में बैकअप सिलिंडर रखने का सवाल ही नहीं उठता है. अधपकी दाल फेंक दी गयी [अब अरहर की ही थी लेकिन क्या कर सकते थे? :) वैसे सुना है इस अक्षय तृतीया के दिन सोने को अरहर की दाल की खरीदारी ने तेजी से रिपलेस किया है. सच है क्या?]. उबला आलू और हरा मटर जीरा संग थोड़ी देर भुना गया था. उसे वैसे ही छोड़ बाहर खाने चले गए. अब आधी रात को एक अतिथि-कम-मित्र आ गए अब इस ग्लोबल जमाने में देर-सवेर टाइप की कोई चीज तो होती नहीं. रात को दो ही जगहें बचती हैं जहाँ खाने को कुछ मिल सकता है. एक स्टेशन और दूसरी एक जगह है जहाँ थोड़े ज्यादा ही शरीफ लोग जाते हैं. तो फिर? काली मिर्च और नमक छिड़ककर हमने परोस दिया. (यहाँ छिड़कना कुछ सभ्य शब्द नहीं लग रहा... वैसे किया यही था पर स्टाइल में कहूँ तो उसे आवश्यकतानुसार काली मिर्च, नमक, अदरख और धनिया से सजाकर गरमागरम परोसा था... सॉरी गैस नहीं थी तो आखिरी वाली बात गलत है, पर इतना तो चलता ही है. जैसे कल गोवा-तवा-भिंडी-फ्राई ऑर्डर किया तो उसमें भिंडी मिली ही नहीं !).

'ये क्या है बे?'

'अरे वो आज एक इटालियन रैस्टौरेंट गया था तो वहीं से पैक करा लाया'

'बढ़िया आइटम है... क्या नाम था?'

'सी-थ्रीफाइव पोटाचियो घूघूरियानों'... और एक बार फिर लगा नाम में ही सब कुछ रखा है. इस बार मेरा मन किया बोल दूँ... 'साले गंवार ही रहोगे'. पर यहाँ तो मामला उल्टा था. खैर... हर शुक्रवार को हम अपने ऑफिस वालों के साथ बाहर खाने जाते हैं और धीरे-धीरे कितना महंगा महंगा होता है ये समझ ख़त्म हो रही है. और अब शायद अपना गंवारपन इस बात से चला गया है कि 'ये इतना महंगा क्यों है'. पर अब भंटा को भंटा नहीं तो क्या आम कहेंगे ? :)

नसीम तालेब कहते हैं: 'You will be civilized the day you can spend time doing nothing, learning nothing, & improving nothing, without feeling slightest guilt.' और मैं श्री गिरिजेश राव के ब्लॉग पर बड़ो की बात एक बार फिर पढ़ के आता हूँ.

फूटनोट: मेरे फ्लैट का नंबर है 'सी-तीन. पाँच सौ दो' लेकिन स्टाइल में 'सी-थ्री फाइव-ओ-टू' कहना पड़ता है. बाकी आलू और हरे मटर को पोटैटो और घूघूरी तो आपने डिकोड कर ही लिया होगा. 

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'…अच्छा तो तुम्हें ये भी आता है? एक कुशल गृहणी के सारे गुण है तुममें :)'

'तुम्हें ऐसा क्यों लगता है कि ये काम सिर्फ लड़कियों को ही करना चाहिए? '

'सॉरी आई डिड्न्ट नो दैट यू आर ए फ़ेमिनिस्ट... '

'अरे सुनो तो... '

'नहीं रहने दो... ' ये एक नयी बात और देखने को मिली.

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(जारी...)

~Abhishek Ojha~

Apr 19, 2010

मुझे वो (भी) चाहिए...

'अबे सुन, जरा अपनी बाइक दे दे आज... ऐसा कर ले के मेरे घर ही आ जा '

'आके ले जा... वैसे तेरी गाड़ी खराब हो गयी क्या?'

'नहीं आज मौसम थोड़ा अलग सा हो रहा है तो मैडम को ड्राइव पे जाने का मन है... तुझे काम हो तो मेरी गाड़ी ले जा.'

'हाँ ये अच्छा आइडिया है वैसे भी 'वो' छोटी गाड़ी में बैठती नहीं है... तेरी गाड़ी लेकर जाता हूँ आज. शायद आज आ जाये... ही ही ही...'

... यही हाल दिखता है आजकल मुझे अपने इर्द-गिर्द. कार वाले को बाइक पसंद है और बाइक वाले को कार. कैसी बिडम्बना है. छोटी गाड़ी वाले को जो पसंद है वो बड़ी गाड़ी वाले को पसंद करती है. बड़े गाड़ी वाले की मैडम कहती हैं एक अच्छी बाइक नहीं ले सकते थे, ये कोई उम्र है कार में बैठने की?...  और उसे खुद लगता है जो है इसकी भी क्या जरूरत थी.

सरकारी नौकरी में चले गए लोगों को लगता है वो अगर प्राइवेट सेक्टर में रहे होते तो आज ना सिर्फ सीईओ होते बल्कि स्टीव जोब्स जैसों की जगह उन्हीं का नाम होता. और प्राइवेट सैक्टर वाले तो खैर... 'सालों ने देश बर्बाद कर रखा है, मैं होता तो दिखा देता कैसे बदला जाता है सिस्टम दो दिनों में... सब के सब साले करप्ट हैं! ...'

.....

खैर... और भी स्नैपशॉट हैं इस बीमारी के... 'तुम्हारे जितनी मेरी सैलरी होती तो आज पार्किंग में एक और नयी गाड़ी खड़ी होती. ...अबे ये बता फ़ाइनेंस में जाने के लिए क्या पढ़ूँ? सुना है हमारे अभी के पैकेज से दोगुना तो बोनस ही मिल जाता है !'  इस ड़ाल से उस ड़ाल उछलते रहने की ये एक अलग ही माया है. बगल वाले के घर के पिछवाड़े में उगे एक बबूल और अरंडी के पेंड भी अपने बगीचे से ज्यादा हरे भरे लगते हैं ! (वैसे अब पेंड की बात ही कौन करता है 'उसकी बालकनी में चार गमले हैं' और एक हम हैं... टाइप का जमाना है). अपने पास जो है वो चाहिए या नहीं इसमें दुविधा हो सकती है लेकिन दूसरे के पास जो है वो जरूर चाहिए. सामने वाले का काम रोचक लगता है अपना पकाऊ !

'ये कर के ही क्या उखाड़ लोगे? कभी सोचा है जीवन में क्या करना है? यही करते रहोगे क्या जीवन भर? पैसा तो तुमसे अधिक एक कॉलेज कैंटीन में चाय बेचने वाला कमा लेता है...'. मैंने थोड़ी देर बाद कहा 'तुम्हें पता है तुम अभी जिससे ये कह रहे थे वो भारत के टॉप 1-2 परसेंट सैलरिड लोगो में आएगा.'

'तो? जो वो करता है उसका वास्तविक जिंदगी से कोई मतलब भी है? सैलरी... हुह... मेरे गाँव चलना कभी एक सिपाही का बंगला दिखाउंगा तुम्हें...'

'अभी भी मौका है छोड़ो ये सब... चलो दरोगा बनते हैं बुलेट से चलेंगे, रोब होगा rangbaaj-daroga इलाक़े में अपना... ये जो कर रहे हो इसका कोई फायदा नहीं... अमरीका जाके फ़रारी  से भी चलोगे तो एक बुलेट वाले से कम भाव रहेगा... वैसे मुझे पता है तुम वहाँ भी सबवे से ऊपर नहीं उठ पाओगे'

'पहले किसी दरोगा से पूछ लें? कहीं उसे भी ये ना लग रहा हो कि जीवन खराब लिया हो उसने अपना... ढंग से पढ़ा लिखा होता तो आज तुम्हारी तरह किसी सो कॉल्ड मल्टीनेशनल में काम कर रहा होता'

'पागल हो क्या? चल तुझे इसी वीकेंड तुझे एक सिपाही का बंगला दिखा के लाता हूँ...'

'अबे लेकिन अभी तक तो बात पैसे की नहीं थी? जीवन में कुछ मिनिगफूल करने की बात थी ...'

.....

ओह ! किसी को खेती नहीं करनी, किसी को नौकरी, कोई बीजनेस से ही परेशान है. मजे की बात ये है कि कई नौकरी वालों को लगता है कि अगर वो खेती कर रहे होते तो कायाकल्प कर देते... जो अभी खेती कर रहे हैं वो तो जैसे निरे मूर्ख ही हैं !

अक्सर बच्चे कहते हैं... 'अगर उसकी तरह पढ़ता तो फिर उससे ज्यादा नंबर ला कर दिखा देता, मैं तो पढ़ता ही नहीं'. अरे क्यों नहीं पढ़ रहे हो बे... पढ़ाई के अलावा और क्या-क्या करते हो बताना जरा?

खैर... ड्राइव करने में कितना मजा आता है ये उससे पूछ के देखना जरा जो रात-रात भर गाड़ी चलाता है. कुछ दिनों पहले एक बस की खिड़की से झुग्गी-झोपड़ी देखते हुए किसी ने मुझसे कहा 'हाउ क्यूट न? कितने प्यारे-प्यारे घर हैं'

'... हाँ बड़े क्यूट है... जाओ रह के आओ 4 दिन... फिर अच्छे से पता चलेगा क्यूटनेस क्या होता है.' मोहतरमा बुरा मान गयी और बाजू की सीट से उठकर चली गयीं.

.....

... अरे जो कर रहे हो वो भी इतना पकाऊ नहीं है  जितना तुम सोच रहे हो... और जिसके बारे में सोच रहे हो वो तो उतना रोचक नहीं ही है जितना तुम्हें दिख रहा है... अभी जहाँ हो वो जरा ढंग से कर के तो देखो. इससे आगे मैं तो ये भी कहना चाहता हूँ कि तुम वहाँ जाकर भी ऐसी ही बाते करोगे... लेकिन छोड़ो बुरा मान जाओगे.

...और हाँ मैडम को मौसम और बाइक के कंबिनेशन ने बीमार कर दिया और बड़ी गाड़ी पसंद करने वाली को दरअसल गाड़ी नहीं किसी और में कुछ और ही बात पसंद है ! योर परसेप्शन इस नोट ऑल्वेज़ द रियलिटी...

~Abhishek Ojha~

पोस्ट लिखने के बाद सोचा किसी दरोगा की बुलेट पर बैठी फोटो लगा दी जाय. गूगल किया तो पहले पता चला कि दरोगा फारसी शब्द है. और फोटू तो ऐसी धांसू मिल गयी कि... किसी को भी दरोगा बनने के लिए इन्सपायर कर दे :)

Mar 10, 2010

फुरसत ढूँढने में व्यस्त !

व्यस्त होना भी अजीब है... 'व्यस्त/बीजी' मुझे बड़ा ही डांवाडोल अस्पष्ट सा शब्द लगता है.. अपरिभाषित सा. अपनी बात करूँ तो... अक्सर मैं और मुझे जानने वाले बाकी लोग भी मुझे बहुत व्यस्त मानते हैं... कितनी सारी किताबें पढने के लिए बची हैं, खरीदी जाने वाली किताबों की फेहरिस्त लंबी होती जा रही है. 50 से ज्यादा फिल्में पड़ी हैं देखने को. चाहते हुए भी खुद खाना नहीं बना पाता... खैर खाना तक तो ठीक... दाढ़ी? किसी ने पूछ लिया 'फ्रेंच रख रहे हो क्या?' मैंने कहा 'नहीं टाइम नहीं मिलता !' गनीमत है भगवान ने ही फ्रेंच दे दिया, साप्ताहिक कार्यक्रम... तीन दिन क्लीन, तीन दिन फ्रेंच. बड़े अरमान से आईपॉड लिया था. ऐसी चुन के बनाई गयी प्लेलिस्ट कि किसी ने चेतावनी दे डाली 'किसी लड़की को ये प्लेलिस्ट मत दिखा देना, इसी पर लट्टू हो जायेगी'. और इस अतिशयोक्ति वाली लिस्ट से भरा आईपॉड इंटरनेट ब्राउज़िंग की मशीन बन कर रह गया है !

बड़ा गुस्सा आता है जब कोई कहता है 'टाइम मैनेजेमेंट सीखो'. सब बकवास लगता है... 'तुम क्या जानो, क्या होता है व्यस्त होना !'. अपने अलावा सभी लोग बेकार ही लगते हैं. 

लेकिन कुछ हाल की छोटी घटनाओं ने बहुत कुछ सिखाया. अब सीखना तो छोटी बातों से ही होता है बड़ी बातों का क्या भरोसा सीखने लायक ही ना बचें ! अभी कल की बात है, काम वाले बाई से कहा:


'बर्तन थोडा ठीक से साफ़ कर दिया कीजिये, मैं जब भी कुछ बनाता हूँ मुझे बर्तन फिर से साफ़ करना पड़ता है'.
'भैया आपको कहा था ना तार वाली घिसनी लाने को, इससे साफ़ नहीं होता !'
'लेकिन मैं तो इसी से कर लेता हूँ... '
'आपकी तरह फुर्सत नहीं है न, मुझे और भी घरों में काम करना होता है !'

वेल...! बड़े दिनों बाद किसी को अपने लिए फुर्सत शब्द इस्तेमाल करते देखा... अच्छा लगा. बड़ा बीजी होने का तमगा लिए फैंटम बना घूमता हूँ. जहाँ मर्जी आये बोल दिया टाइम नहीं है, थोडा बीजी चल रहा हूँ आजकल. जब अपने आपको लेकर मन में एक धारणा बनी हुई हो और ऐसे में कोई सामने वाला उसे धत्ता बताकर निकल जाये और आप अपनी औकात में आ जायें... मुझे ऐसे लोग अच्छे लगते हैं. बनावटी नहीं.

  ... बाकी चीजों की तरह ही व्यस्त होना भी एक सापेक्ष अवधारणा (रिलेटिव कांसेप्ट) है. एक वरीयता (प्रिओरिटी) होती है हमारे कामों में. कौन काम किस काम के लिए व्यस्तता बनेगा. ये तो फैसला करना पड़ेगा न? अब देखिये व्यस्त होने का सीधे-सीधे मतलब हमारे पास कुछ काम है जिसमें हम व्यस्त हैं. और यह तभी एहसास होता है जब कोई और काम आ जाता है.  वर्ना तो क्यों ही व्यस्त हुए, जितना निर्धारित समय उतना काम ! नए वाले काम की वरीयता कम है तभी तो पिछले वाले को रोककर इसे नहीं कर रहे? यहाँ पिछला काम नए के लिए व्यस्त होने का कारण बना. मतलब ये कि अगर कोई आपसे कहे कि वो व्यस्त है और आपको टरका दे तो समझ लो इसका सीधा और एक ही मतलब है... और भी जरूरी काम है जमाने में आपके सिवा.

अब मैं कितना भी व्यस्त रहूँ कुछ लोग जिंदगी में ऐसे हैं जिनका फ़ोन आ जाए तो उठाना ही पड़ेगा. मेरे एक दोस्त हैं वालस्ट्रीट में ट्रेडिंग करते हैं और कभी-कभी पूरे दिन स्क्रीन के सामने से सर नहीं हटाते. अब ऐसे हालत में भी किसी 'उन दिनों के' दोस्त का फ़ोन आ जाता है: 'अबे ऑनलाइन हो क्या एक टिकट बुक कराना है !' तो सब कुछ छोड़ कराते ही हैं, अब फ़ोन रखना बंद कर दें तो अलग बात है. लेकिन कुछ लोगो का फ़ोन बजे और ना उठाओ या फिर मना कर दो ऐसा कहाँ संभव है... है न प्रिओरिटी ! अपना एक डायलॉग ...व्यस्त तो मैं हमेशा ही रहता हूँ पर तुम्हारे लिए तो हमेशा ही समय है मेरे पास.

वैसे ही कई बार 'कुछ बातें' (यहाँ 'कुछ लोग' कहना भी उचित ही होगा) इस तरह दिमाग पर कब्ज़ा कर लेती हैं कि हम उन्हें छोड़कर कुछ और सोच ही नहीं पाते. (कहीं ऐसा तो नहीं कि इस कथन में उम्र के हिसाब से 'कुछ लोग' की जगह 'कुछ बातें' लेती जाती हैं?) हर दुसरे क्षण वही/उन्हीं की बातें दिमाग में आती हैं. गयी व्यस्तता तेल बेचने.  फिर भी काम होते ही रहते हैं. तो इस हिसाब से साधारण दिनों में... जब ऐसी अवस्था न हो, हमारे पास वक्त बचना चाहिए? मानो न मानो... तर्क है !

किसी से झगडा हो गया तो? झगडा हो जाए तो कोई बात नहीं लेकिन अगर दिमाग में कीड़ा हो कि मेरी तो किसी से अनबन ही नहीं हो सकती. और... फिर हो जाये तो? सब वैसे का वैसा पड़ा रहे और आप हैं कि सोचे जा रहे हैं. फिर गयी व्यस्तता तेल बेचने. ऐसे लोग हैं जमाने में जो मानकर चलते हैं कि उनका किसी से झगड़ा नहीं हो सकता (जब तक पहली बार ना हो जाये...). और अगर बीमार हो गए तो? दो दिन बाद फिर काम तो पटरी पर आ ही जाएगा. इसका मतलब कहीं न कहीं तो गुंजाइस है जहाँ से समय खींचा जा सकता है.

व्यस्तता के मायने बदलते रहते हैं. मैं इस सप्ताह करने वाले काम की लिस्ट टाइप करता हूँ... एक साल पीछे जाकर देखता हूँ तो लगता है इतने काम करने में शायद छः महीने लग जाते. अब खुद लिख रहा हूँ एक सप्ताह में हो जाएगा. वैसे व्यस्तता खुद भी मोल रखी है... 'बिंग पोलाईट सक्स समटाइम्स'. इस टाइटल पर एक पोस्ट पेंडिंग है.

वैसे एक बात है हमें अक्सर बीते हुए समय से ज्यादा व्यस्तता दिखती है. 'वो भी क्या दिन थे' ऐसी लाइन लगती है जो हर समय में फिट हो जाए. पर किसी और परिपेक्ष्य से तुलना करें तो वास्तव में आज के दिन भी फुर्सत वाले ही हैं. ये बात अलग है कि ये शायद आज की जगह कल महसूस हो ! यहाँ भी फर्क इस बात से पड़ता है कि व्यस्तता किस फ्रेम से नापी जा रही है. यूँ तो व्यस्त होना अच्छी बात है खाली होने से बेहतर, पर व्यस्त होने का मतलब ये तो नहीं कि फुर्सत के क्षण ढूंढने में ही व्यस्त हो जाएँ ! भाई इंसान हैं... कुछ भी कर सकते हैं बीजी होने के लिए. लिखते-लिखते इस कथन के बाद तो व्यस्तता सच में अपरिभाषित लगने लगी है मुझे.

...अब हर बात में अच्छाई निकलना अपनी आदत है. अनबन से लेकर बीमारी तक वाली घटनाओ से सीखना... शायद इसे पोजिटिव थिंकिंग कहते हैं.

खैर रोज नयी चीजें सीखने को मिल रही है. किसी से अनबन हुई और दो 13022010455दिन 'लगभग' सब कुछ छोड़ बस दिमाग निचोड़ा... और दुनिया वैसी की वैसी ही चलती रही ! खुद के साथ बुरा भी हो तो 'क्या लर्निंग एक्सपिरियन्स था!'. उन्हें ये ईमेल लिखा था, ड्राफ्ट में ही रह गया. कुछ बातें दिमाग से उस ड्राफ्ट तक जाने में फ़िल्टर हो गयी, कुछ वहाँ से यहाँ आने में. ये जो बचा है वो कौन सी विधा है?

"व्यस्त रहता था मैं अपनी दुनिया में...

एक झटके के बाद...
दिमाग निचोड़ डाला, इतना कि कड़वा हो गया.
अब तुम्हारे हाथ में है... क्या निचोड़ता रहूँ इसे ?

मुझे पता है, मैं और मेरा दिमाग. तुम्हे क्या फर्क पड़ता है?

बस एक सलाह है,  
कभी अपने फ्रेम से निकलकर तो सोचो,
वैसे ये तो है...
मैं तो आम की जगह पेड़ समझाउंगा, 
पर क्या तुमने कभी समझने की कोशिश की?

वैसे भी क्या है अपनी दोस्ती? मानो तो देव नहीं तो पत्थर.
मैंने तो देव मान लिया ... और तुमने भी शायद पहले पत्थर ही माना था.
पर देव मानने के लिए मुझे काफिर तो ना मानो. 
एक रास्ता सुझाऊँ -
एक इंसान ही मान लो काफी है. वैसे सुना है आजकल ये प्रजाति मिलती नहीं है.

व्यस्त तो अब भी रहता हूँ... पर अब निचोड़ के सार के साथ...
व्यस्त होना बस एक बहाना है और कुछ नहीं !"

~Abhishek Ojha~

*पोस्ट में आधे पात्र और घटनाएँ काल्पनिक हैं, कौन आधे? ये तो वो पात्र पढ़ेंगे तो ही जान पायेंगे. आज ना कल पढ़ेंगे तो जरूर ! इस थिंकिंग मोड में चले गए व्यक्ति की तस्वीर गोवा में ली गयी थी.

Feb 17, 2010

क्या एक ट्रिगर ही काफी है मौत के लिए ?

मैं बात कर रहा हूँ रिश्तों के एक झटके में मर जाने की. ये थोड़ा कठिन मसला लगता है, यहाँ अगर मौत हो भी गयी तो वापस जिंदगी डाली जा सकती है. क्या कहा आपने गाँठ पड़ जायेगी? नहीं ! मैं रहीम बाबा के 'टूटे से फिर ना जुड़े, जुड़े गाँठ पड़ जाए'  से पूर्णतया सहमत नहीं हूँ. कम से कम एक झटके में सब ख़त्म तो नहीं हो सकता. अगर किसी गलतफहमी से चटक के टूट भी गया तो सच्चाई सामने आने पर क्या और और मजबूत नहीं हो सकता? अब ऐसा मसला है तो मन तो भटकेगा... खूब भटकेगा. कुछ बातें याद आ रही है...

संस्मरण 1: स्कूल के दिन... एक बच्चा (या किशोर?)

'मुझे तुमसे फिर कभी बात नहीं करनी !'.

अगर उस समय 'बेस्ट फ्रेंड' जैसा कोई चयन होता तो Abhishek Ojhaशायद उसका ही नाम आता, गर्लफ्रेंड का फंडा तब शायद इतने जोरों पर नहीं हुआ करता था. पर एक बार उसने ऐसा कहा और फिर कभी बात नहीं हुई. ये बात उसने क्यों कही थी अब तो ढंग से याद भी नहीं. वो बात जो अब याद भी नहीं वैसी किसी बात के लिए... ! एक झटके में ही सब ख़त्म हो गया था.

संस्मरण 2: कॉलेज तृतीय वर्ष... मुझे याद है एक बहुत अच्छे दोस्त के बारे में कुछ बुरा-भला कहा था मैंने. जब 4-6 लोग बैठे हों और कोई बात निकले तो दूर तलक चली ही जाती है. ये बात भी पीठ पीछे अपने दोस्त तक पंहुची और फिर गोल घूमकर मुझ तक आ गयी. मुझे एक बार फिर एक झटके में ही सब ख़त्म होता दिखा. 'भाई मैंने ऐसा कहा तो था... पर...'. इससे आगे उसने मुझे बोलने नहीं दिया. 'मैं तुम्हें 3 सालों से जानता हूँ वो ज्यादा विश्वसनीय है या कोई आकर तुम्हारे बारे में कुछ कह दे? या तुम कहीं किसी संदर्भ में यूँ ही कुछ कह दो उससे ये निर्धारित होगा कि तुम कैसे इंसान हो?'. ऐसी समझदारी हो तो फिर क्या डरना ! कुछ भी ख़त्म नहीं हुआ... बल्कि दोस्ती पुनः परिभाषित हुई.

संस्मरण 3,4,5...: 'ओह! तो ये बात थी!' ...ये कई बार हुआ. कई लोगों के साथ अलग-अलग संदर्भ में. एक स्पष्टीकरण के बाद कई बार रिश्ते बेहतर हुए, कई बार बिगड़े तो कई बार वैसे के वैसे ही रहे. परिणाम जो भी रहा हो एक-दूसरे की बात तो सुनी गयी खुले दिमाग से.

संस्मरण 0: अब एकदम अलग सी बात याद आ रही है. दसवी का एक छात्र. ये वो उम्र होती है जिसमें कुछ लोगों को परीक्षा में एक अंक भी कम पाना मंजूर नहीं होता और अक्सर हर परीक्षा के बाद वास्तविकता से समझौता करना पड़ता है. प्री-बोर्ड... गणित का पेपर... एक रैखिक समीकरणों के समूह को हल करने का सरल सवाल. हड़बड़ी में 35 कि जगह 15 लिख दिया और फिर जूझता रहा. अंततः दो पन्नों में सचित्र ये समझा आया कि सवाल का हल संभव नहीं है ! परीक्षा कक्ष से बाहर निकलते ही... 15,35 ! ओह ! ओह ! (आज की बात होती तो... फSSSS*!.. तीन चार बार ज़ोर से) उस समय की हालत तो बस सोची जा सकती है... उसके बाद कई परीक्षाओं में ऐसी गलतियाँ होती रही. पर कोई उस कदर याद नहीं. जब भी याद आता है एक कसक, एक टीस उठती है मन में. शिक्षक के पास गया तो पता चला प्री-बोर्ड का पेपर कोई और चेक करेगा... वो भी बोर्ड स्टाइल में. उसकी मर्जी चाहे तो पढ़े. वैसे उसे क्या पड़ी है जो दो पन्ने पढ़े और ढूँढे कि कहीं 35 की जगह 15 हुआ है. और वैसे भी साफ़-साफ़ गलत है... आधे पन्ने के सवाल के लिए 2 पन्ने? सन्न रह गया था मैं... शून्य मिलेगा ! एक बार फिर सीधे-सीधे गलत था मैं. 100 नंबर आने का अरमान तो ख़त्म हो गया पर इंसानी आदत... एक आस बनी रही... कुछ नंबर तो मिल ही जाएँगे. और एक ख्वाहिश बची रही अगर गलती से भी ध्यान से पढ़ लिया तो सामने वाला 'वाह' कह उठेगा. वैसे भी कोई कैसे शून्य दे सकता है... समीकरण पर पूरी महाभारत तो लिख आया हूँ ! अंततः उस सवाल में शून्य ही मिला... हमारी महाभारत सामने वाले सुनते कहाँ हैं?

मुझे इन सारे संस्मरणों में एक जैसी बात दिखती है. रिश्तों को जिंदा रखने की बात... संस्मरण 0 में मुझे असली दर्शन दिखता है. माफ कीजिएगा अजीब से उदाहरण हैं ये... लेकिन अब क्या करें ज़िदगी भर जिस कुएं में पड़ा रहा उदाहरण तो वही से आयेंगे न.

संस्मरण 0 की कई बातें दिमाग में घूम रही हैं. अभी भी लगता है 'क्यों अंक ठीक से नहीं पढ़े?'... वैसे सच कहूँ तो इस बात पर अब ध्यान नहीं जाता. ये गलती तो लगता है कि होनी ही थी. शायद इसलिये कि वो गलती खुद की थी. अपनी भूल/गलती कभी गलती लगती ही नहीं. अपने शिक्षक ने देखा होता तो क्या होता? मेरे दो पन्ने अगर सामने वाले शिक्षक ने पढ़ लिए होते तो? मतलब ये कि अगर सामने वाले हमारी तरह सोचने लग जायें या हमारी बात सुनने की कोशिश करें तो कितने अरमान पूरे हो जायें. कितने दिल टूटने बच जायें.

खैर इनसे ज्यादा दिमाग में वो चल रहा है जो उन दो पन्नों में लिखा था. अगर दो रैखिक समीकरण हैं तो तीन स्थितियाँ बनती हैं. कोई हल नहीं, solution of linear system of equations अनंत हल या फिर एक अद्वितीय हल. समीकरण से बनने वाली रेखाएँ या तो समानांतर होती हैं या एक बिन्दु पर एक दूसरे से मिलती हैं या दोनों रेखाएँ समान ही होती है... अर्थात हर बिन्दु पर मिलती है. मेरे संस्मरण 1 में रेखाएँ कभी मिली ही नहीं... रिश्तों के समीकरण समानांतर ही रहे. संस्मरण 2 में रिश्तों के समीकरण एक ही थे एक दूसरे की हर बात समझते रहे कुछ भी हो जाये विवाद की गुंजाइस ही नहीं... बिल्कुल पर्फेक्ट. बाकी 3,4,5,... में एक हल निकला भले ही रिश्तों के समीकरण उसके बाद फैल गए हों (डाइवर्ज हो गए हों). आपस के विवाद कहीं न कहीं इन तीनों जैसे ही तो होते हैं. आपने एक गलती की... फिर लगता है कि अब कुछ भी संभव नहीं... सब ख़त्म.

एक गलती/गलतफहमी के बाद हम अपने दिमाग के पन्ने रंग डालते हैं 35 की जगह 15 मानकर. अभी भी सब कुछ वैसा ही होता है जैसा पहले हुआ करता था लेकिन अब हमें सब कुछ उल्टा दिखता है. सामने वाला पहले जैसा था उससे बिल्कुल अलग दिखने लगता है. उसकी हर बात अब जो कभी अपनी तरह दिखती थी अब समानांतर रेखा की तरह दिखने लगती है. वो हर बात जो अच्छी लगती थी अब दिखावा लगने लगती है. और फिर सामने वाला भी उन रंगे पन्नो को बोर्ड स्टाइल में ही तो देखता है... एक पूर्वाग्रह के साथ. और फिर जैसे मुझे 100 अंक नहीं मिले, रिश्ते भी परफेक्ट नहीं रह पाते. अगर एक बार सामने वाले के फ्रेम में जाकर सोच लें, थोड़ा समय देकर ये ढूँढ लाये कि कहाँ 35 का 15 हुआ है तो फिर... परफेक्ट मार्क्स के अरमान तो वैसे ही उस गलती के बाद नहीं रह जाते हाँ एक सुकून जरूर मिलता है. और साथ में एक अरमान कि अगर सामने वाला ढंग से पढ़ ले तो शायद 'वाह' कर उठे.

वैसे ये ट्रिगर बड़े क्षणिक होते हैं... अक्सर परीक्षा कक्ष से निकलते ही, कई बार कुछ दिन बाद, फिर से सवाल पढ़ने पर, कई बार उत्तर पुस्तिका देखने पर पता चलता है... पर जैसे ही पता चलता है... ओह ! सब ख़त्म हो गया !  (वॉट द फ* हैव आई डन?, माफ कीजिएगा आजकल यही वाली लिने फैशन में है). लेकिन तीर से निकले बाण, मुँह से निकली बोली वाले स्टाइल में ही... आजकल एक माऊस क्लिक से भेजे गए ईमेल और सेंड बटन से भेजे गए एसएमएस... गया तो गया.

अब ऐसे हालात में बस जरूरत है रंगे हुए पन्ने जो उल्टी राह दिखाते हैं, में से उस बात को ढूँढ निकालना जिससे गलतफहमी की शुरुआत हुई. एक ट्रिगर से रिश्ते मरने लगे तो बुरा लगता है पर अगर हम किसी को संस्मरण 2 वाले लोगों के वर्ग में सोचते हो और वो किसी मोड पर समानांतर हो निकल जाये तो फिर ज्यादा दुख होता है.

निष्कर्ष: कुल मिलकर अगर रिश्ते एक ट्रिगर से मरने लगे तो बेहतर है कि उन्हें हल करने कि कोशिश की जाय. जरूरी नहीं की गाँठ पड़ ही जाये. सामने वाले की बात सुनकर उसके बाद भले ही अपनी राह निकल लें. वैसे भी हम सब को एक निर्धारित K वर्ष की जिंदगी मिली है जो हर क्षण (K-X) होती जा रही है. इस क्षय हो रही जिंदगी और बम-धमाको की दुनिया में X कब K हो जाये कोई नहीं जानता ! फिर काहे को टेंशन पालना?  वरना एक कसक, एक टीस उठती रहेगी मन में... इससे तो बेहतर है कि सच्चाई जानकर अपने समानांतर रास्ते चुन लिए जाय.

मैं सोच रहा हूँ अपने छोटे से वृत्त में से गुजरने वाले रिश्तों को संस्मरण 2 की तरह बनाया जाय... अगर वो संभव नहीं तो हल करने की कोशिश की जाय... दूसरे एक्सिस का सहयोग मिले न मिले.

... यकीन मानिए किसी के बारे में सोची गयी बातें और वास्तविकता में बहुत फर्क है !

अपडेट 1: Google Buzzअभी मेरे सोने का वक्त हुआ है और पोस्ट ठेलने से पहले वैसा ही एक ट्रिगर मिला जिसने ये पोस्ट लिखवा डाली. जय हो गूगल के बज़ बाबा की.  इतनी कम उम्र में इतने कहर ढा रहे हैं. आप खुद देखिये.

अपडेट 2: 7 तारीख को कुछ घंटो के लिए एक शादी के सिलसिले में लखनऊ जाना हुआ. लखनऊ शहर से ज्यादा तो एयरपोर्ट पर ही रहा इसलिये किसी को बताना सही नहीं लगा, लखनऊ वालों रिश्ता तोड़ने का मन हो रहा हो तो पोस्ट एक बार फिर पढ़ लो :) ना समझ में आए तो फिर... अब ऐसी सजा पर भी नाराज हैं तो कहिए? सोमवार को 3 दिन गोवा में बिताकर लौटा हूँ, पुणे में रहने के कारण मेरे जानने वालों के खूब फोन आए ये पता करने को कि जिंदा हूँ या नहीं ! सोमवार से तीन दिन के लिए रूडकी-देहरादून जा रहा हूँ. और अपडेट दूँ क्या...? फोकट में लिखे जा रहा हूँ... क्या फर्क पड़ता है !  मैं हैप्पी हूँ आप भी रहिए, हैप्पी रहने के लिए कारण जरूरी है क्या? !

~Abhishek Ojha~

Jan 18, 2010

अंदर जाओ वरना अंदर कर दूंगा !

पिछले दिनो जब कानपुर-लखनऊ गया तो बड़े मजेदार अनुभव हुए. कानपुर सुबह-सुबह पंहुच गया तो ट्रैफिक का मजा नहीं ले पाया. हाँ लखनऊ में जरूर कुछ आशीर्वचन सुनते-सुनाते लोग मिले. मेरे एक दोस्त ने कानपुर में कभी गाड़ी नहीं चलाई. कहते गाड़ी चलाना तो सीख लिया, गाली देना नहीं सीख पाया औरlucknow कानपुर में गाड़ी चलाने के लिए वो ज्यादा जरूरी होता है ! लखनऊ में मेरा कभी रहना नहीं हुआ. जब भी गया 2-4 घंटे के लिए ही. तो लखनऊ के बारे में कही गयी मेरी हर बात 2-4 घंटो के अनुभव पर ही आधारित होगी तो उसे  उसी रूप में लिया भी जाना चाहिए. हाँ वहाँ के रहने वाले एक व्यक्ति ने जब खुद कहा कि मुझे आज तक लखनऊ में तहज़ीब दिखी नहीं... कहाँ मिलती है, कैसी होती है? तो लगा अपना अनुभव कुछ गलत भी नहीं है. खैर तहज़ीब की तलाश तो हमने की भी नहीं हम तो किसी और की तलाश में ही लगे रहे.

महाराष्ट्र में रहने के बाद मुझे लगने लगा था कि सड़क पर नेताओं की तस्वीर इससे ज्यादा कहीं और देखने को नहीं मिलेगी. पर वो (घिसी-पीटी) अवधारणा ही क्या जिसका तोड़ न मिले ! नए आविष्कारों से पुरानी मान्यताएँ तो टूटती ही रहनी चाहिए. तो ये अवधारणा भी टूट ही गयी. हर बिजली के खंभे और हर दो खंभो के बीच कम से कम एक होर्डिंग पर बहनजी की तस्वीर और किसी 'सर्वजन' के बारे में लिखा पाया. लोनावाला के मगनलाल चिक्की वाले की बड़ी याद आई. अगर आपको नहीं पता तो बता दूँ लोनावाला में चिक्की की खूब दुकाने हैं और हर दुकान 'असली मगनलाल' की ही है. एक बार लोनावाला के एक रेस्तरां से फोन पर मैंने रास्ता बताया: 'फ़्लाइओवर से लेफ्ट लेके आजा, हम लोग आरिजिनल मगनलाल की चिक्की दुकान के सामने वाले रेस्टौरेंट में बैठे हैं' . दो मिनट बाद वापस फोन आया: '!#$%^&@! यहाँ तो हर दुकान ही वही है !'. अब वैसे ही लखनऊ में कोई ऐसी तस्वीर या 'सर्वजन' उपसर्ग-प्रत्यय लगे किसी जगह या कहीं लिखी किसी लाइन का उद्धरण दे तो फिर आप तो ढूँढते ही रह जाओगे.

पुणे में रहकर एक और अवधारणा बन गयी है कि पार्क का मतलब आईटी या बायोटेक पार्क होता है, लखनऊ में लंबे-चौड़े पत्थर के हाथी पार्क. एक और अवधारणा टूटी. खैर आज महात्मा बुद्ध होते तो पता नहीं कितने हैप्पी होते वहाँ अपनी प्रतिमा देखकर ! मेरी अभी की अवधारणा तो यही कहती है कि कम से कम उन्हें तो अपनी लीगेसी की चिंता नहीं रही होगी. अगर नाम और लोकप्रियता मूर्तियों और भवनों से निर्धारित होते तो शायद खण्डहरों में जाकर इंसान दार्शनिक की तरह नहीं सोचता. हर खंडहर देखकर मैं तो अक्सर यही सोचता हूँ कि बनाने वाले ने क्या कभी सोचा होगा... एक दिन इसकी ऐसी हालत होगी?

लखनऊ से बाहर जाते ही दो बातें तो साफ़ हुई. पहली ये कि 'सर्वजन' कोई बहुत बड़ी सख्शियत है. तभी तो उत्तर प्रदेश सरकार सब कुछ इसी 'सर्वजन' के लिए करती है. दूसरी बात ये कि 'सर्वजन' जो कोई भी है वो रहता/रहती तो लखनऊ में ही है. क्योंकि उत्तर प्रदेश में सड़के और बिजली तो लखनऊ के बाहर बहुत कम ही निकल पाती है. बस सर्विस और पार्क तो खैर छोड़ ही दीजिये. वैसे बिजली का तो मुझे लगता है उन तस्वीर लगे खंभो में ही उलझ कर रह जाती है और लखनऊ से बाहर निकल ही नहीं पाती. बहुत कोशिश की कि इस 'सर्वजन' का पता मिल जाये... एक क्षणिक मुलाक़ात ही सही. लेकिन पता चल नहीं पाया कि आखिर ये सर्वजन है कौन?

सुबह-सुबह मेरे मित्र मुझसे मिलने आए तो उनको होटल में बैठाकर अपने ब्लॉगर भाइयों से एक त्वरित मुलाक़ात करने के बाद वापस आया तो पता चला मेरे दोस्त 2-3 कॉफी पीकर बाहर निकल गए थे. फिलहाल वो सड़क के उस पार खड़े थे. हम एक दूसरे को देख तो पा रहे थे पर बात फोन के जरिये हो रही थी. समस्या ये थी कि प्रांत की मुख्यमंत्री साहिबा उसी सड़क से किसी रैली में जाने वाली थी और पुलिस के इरादे से लग रहा था कि उन्हें किसी परिंदे को पर ना मारने जैसी कोई हिदायत दी गयी थी. मुख्य सड़क से मिलने वाली हर छोटी सड़क पर लोगों को 'जैसे थे' वाली अवस्था में ही रोक रखा गया था. अब 'जैसे थे' मतलब बिल्कुल जैसे थे वैसे ही रहिए. जब तक काफिला ना निकाल जाये किसी रियायत की कोई उम्मीद मुझे तो नहीं दिखी. इससे पहले मुझे लगता था कि देश के इस हिस्से में लोग बड़ी फुर्सत में रहते हैं. पर उस समय जिस तरह से लोग एक कदम चल पाने में भी असमर्थ हो गए थे तब ये अवधारणा भी वहाँ खड़े लोगो के चेहरे और उन पर आ रही भावनाओं ने गलत कर दिया. एक और अवधारणा टूटी ! मैं सोच रहा था कि 2 घंटे में मुझे निकलना है, सामने मेरे दोस्त हैं और हममें से कोई भी सड़क पार नहीं कर सकता. काश ! मैं 'सर्वजन' को जानता, उत्तर प्रदेश सरकार सब कुछ उसी के लिए तो करती है. शायद जान-पहचान कुछ काम आता उस वक्त. फिलहाल मैं फोन कान में लगाये होटल के सामने फूटपाथ पर टहल रहा था तो मुझे एक पुलिस वाले ने वापस बुलाया:

'ऐसे नवाबी अंदाज में नहीं दौड़ के आओ !'. 'यहाँ क्या कर रहे हो?'

'इसी होटल में रुका हूँ, और सामने वो मेरा दोस्त है उसके सड़क क्रॉस कर इधर आने का इंतज़ार कर रहा हूँ.'

'अंदर रुके हुए हो तो अंदर चले जाओ वरना अंदर कर दूंगा !'

थोड़ी बहस के बाद उसके बड़े साहब ने आकर समझाया, तब तक मैंने भी अपनी औकात में आते हुए सोचा कि अंदर होने से अच्छा है कि अंदर ही चला जाय. वैसे भी शायद वो अपनी ड्यूटी और अपना फर्ज निभा रहा था.

मुझे ये स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं कि मैं धीरे-धीरे उस वर्ग का हो गया हूँ जिसे देश की राजनीति में कोई रुचि नहीं... पर जब खुद के साथ ऐसा हो रहा हो या फिर जब बिहार से परिवर्तन की बात सुनने को मिले... तो दिमाग में कुछ नयी अवधारणाएँ बनती है, कुछ पूरानी अवधारणाएँ टूटती भी हैं ! सुना उस दिन रैली में बसो में भरकर एक दिन के खाने पर हजारों लोग आए थे. शायद ये सुनने कि 'सर्वजन' के लिए बहुत काम हो रहा है (होगा/होता रहेगा). पर ये 'सर्वजन' है कौन? शायद उन्हें मिल जाय !

यूपी-बिहार से मुंबई-पुणे आने-जाने वाली रेलों में आरक्षण मिलना बहुत कठिन होता है. और मैं सोच रहा था कि उनमें यात्रा करने वाले कितने प्रतिशत मराठी होते हैं? खैर... मानव आज भी पाषाण युग से औद्योगिक युग की तरफ बढ़ रहा है... हाथी पार्क से आईटी पार्क की ओर !

आते समय कैब में दो बातें और हुई. मेरी कंपनी की एचआर ने (अंग्रेजी में) कहा कि ऐसी बातें मत डिस्कस करो वरना संभव है चालक गाड़ी किसी थाने पे लगा दे और तुम अंदर कर दिये जाओ. दूसरी बात... मेरे एक कलीग ने कहा 'अगले साल से मैं तो नहीं आऊँगा आईआईटी कानपुर प्लेसमेंट के लिए, तुम्हें बहुत लगाव है तो अकेले आना...'.  वैसे मेरी कंपनी से इस साल भी तीन ग्रुप में से केवल मेरा ग्रुप ही जा पाया रिकरुटमेंट के लिए... कानपुर ! वैसे ये कोई पैमाना तो नहीं है पर कहीं आगे की जगह पीछे तो नहीं जा रहा सर्वजन प्रदेश?

~Abhishek Ojha~

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वैसे संभवतः फ़रवरी में एक दिन के लिए एक दोस्त की शादी में फिर लखनऊ जाना है, इस पोस्ट के लिए कहीं अंदर तो नहीं कर दिया जाऊँगा :) और दूसरे आप इतनी लंबी पोस्ट पढ़ गए क्या?