Nov 12, 2009

कुछ चीजें कभी नहीं बदलती?

[दिमाग में चलने वाली रैंडम बाते हैं... अपने रिस्क पर पढें :)]

६.३० घंटे में शाम के चार बजे से सुबह के ५.३० बज जायेंगे. यूँ तो ऐसा पहली बार नहीं हुआ लेकिन पता नहीं क्यों ये बात मुझे पांचवी सदी में ले गयी... अब मन है जहाँ मर्जी ले जाए ! वीजा की जरुरत तो है नहीं. मैं सोच रहा हूँ आखिर जिस इंसान ने पहली बार इस बात का अनुभव किया होगा उसे कैसा लगा होगा?  सब युद्धिष्ठिर का दोष है वाली पोस्ट याद आती है… आगे सोचने से पहले मैं मुस्कुरा देता हूँ.

अटलांटिक में  एक बड़ी सी जहाज मुझे छोटी दिखाई दे रही है. DSC00381एक ही पल में मुझे अपने पिछले ३० दिन याद आ रहे हैं. टाइम्स स्कवैर... चकाचौंध और ग्लैमर... घर से निकलते ही भूल जाता कि क्या करने आया था ! इंसान का दिमाग वही वस्तु रोज देखता है पर अचानक एक दिन उसी वस्तु को दार्शनिक दृष्टि से देखने लगता है. 'दार्शनिक दृष्टि' से एक कहानी याद आई... जिसमें देर रात तक इन्तजार करती एक गरीब माँ का बेरोजगार बेटा आगे परोसे गए खाने में रोटी को दार्शनिक दृष्टि से देखता है, उसे पता है उसकी माँ ने खाना नहीं खाया. कहानी का नाम याद नहीं लेखक का नाम भी याद नहीं आ रहा... लेकिन ये लाइन याद है. जो बातें दिल को छू लेती हैं वो शायद दिमाग की जगह दिल में स्टोर हो जाती हैं.  इस हिसाब से हमारे देश में दार्शनिकों की कोई कमी नहीं है. इस साल १० प्रतिशत और बढ़ गए.

फिलहाल मैं पांचवी सदी में था... इंसान एक छोटे से दीये पर इतरा रहा है अब क्या बचा है आविष्कार करने को ! इधर आज मैं फिर ऊपर से यूरोप देख रहा हूँ, शायद रात में पहली बार. अंधकार के समुद्र में सोने के द्वीप लग रहे हैं. एक दीये से द्वीप तक ! … जेब में पड़ा इलेक्ट्रोनिक गजट याद आता है अब तो कॉपी किताब भी कहने सुनने की चीज हो जायेगी. मेरे दोस्त मुझे एक काल्पनिक सफलता पर किन्डल गिफ्ट करने की बात करते हैं... अभी मैं कह दूं कि मैं काठ की पटरी पर पढ़ा हूँ तो सामने वाले अंकल सोच में पड़ जायेंगे... कहीं ये बेंजामिन बटन का हीरो तो नहीं जो बुड्ढा पैदा  होकर जवान हो रहा है वरना 'काठ की पटरी'? वो तो बाप-दादा के जमाने की बात हुआ करती थी. एक किन्डल जैसी चीज लेकर बच्चें स्कूल जाने लगे तो  ऊपर वाली लाइन में  'जिल्द लगी नोटबुक' से 'काठ की पटरी' को रिप्लेस करने में कितने दिन लगेंगे?

चीजें कितनी तेजी से बदलती हैं... वैसे अगर सोचे तो मानव सभ्यता का इतिहास है ही कितना पुराना. और हम इतिहास का उदहारण देते हैं... क्या अच्छा है क्या बुरा ! चार दिनों के इतिहास पर कह देते हैं कि डेमोक्रेसी अच्छी है, कैपिटलिज्म अच्छा है. सोसलिज्म, कम्युनिज्म... वगैरह. अबे मनुष्य ! अभी हुए ही कितने दिन जब तू नंगा घुमा करता था? इन चंद  दिनों के इतिहास पर हमारे फैसले निर्धारित होने चाहिए या उन्मुक्त तार्किक मानव सोच पर? पांचवी सदी के उस मशाल से लेकर आज के इस स्वर्णिम जगमगाते द्वीपों तक हर मिनट तो चीजें बदली हैं. दो साल पहले ग्रेजुएट हुए मेरे मित्र गोदान लेकर आये हैं और मैं सोच रहा हूँ कि स्कूल में बच्चे शिडनी शेल्डन पढ़ते हैं. तो क्या हम अभी ही आउटडेटेड हो गए हैं? हम जितना सोचते हैं चीजें उससे कहीं अधिक तेजी से बदलती हैं. अभी कल को ही बैंक ठुके पड़े थे... अभी रिकॉर्ड प्रोफिट ! कौन सा इतिहास देखूं मैं? और इतिहास देखकर क्या सीखूं? जो फलाने कह गए है वही सत्य है कि जाप करने वाले जरा अपना भी दिमाग लगा लो. इस 'हाईली रैंडम' इतिहास में हर क्षण तो बदलाव हो रहा है. और आप मानव सभ्यता के शुरुआत के एक इंसान की बात को लेकर बैठ गए... क्या कहा वो इंसान नहीं था (थे)? छोडो भाई आपसे बात करना ही बेकार है.

सामने बैठे अंकल-आंटी (भारतीय मूल के बुजुर्गनुमा) को बियर पर चियर्स करते देखता हूँ. मेरे दोस्त मेरे मन की बात समझ कह रहे हैं 'तुम बिजनेस क्लास में चलना डिजर्व नहीं करते !'  ओरेंज जूस और दो टके की काफ़ी ! खैर... ये बात फिर कभी. एक पुरनिये के बारे में सुना है उनके यहाँ दूध की नदी टाईप की कोई चीज बहा करती और उन्हें दूध ही अच्छा नहीं लगता था. शायद इसे किस्मत कहते हैं.  शायद ये उस जमाने की बात है जब दूध और ‘नंबर ऑफ़ गाय' सम्पन्नता का प्रतीक हुआ करते थे. अब शायद 'ब्रांड ऑफ़ दारु' और 'नंबर ऑफ़ कार' से रिप्लेस हो गया हो. फिलहाल मैं डिजर्व नहीं करता इस बार का कोई ग़म नहीं अभी तक ओरेंज जूस का साइड इफेक्ट नहीं मिला :)

खैर बदलाव की बात… दो दिन पहले की बात याद आ रही है. रात को १ बजे सेंट्रल पार्क के पास एप्पल स्टोर से वापस आते समय... एक बनी-ठनी लड़की.... 'हाय गाईज ! वान्ना पार्टी?' हुर्र ! एक मिनट में बदलाव वाली बात उड़ जाती है दिमाग से… कुछ चीजें तो कभी नहीं बदलती ! मानव सभ्यता की हर कहानी में ये बात तो आजतक ऐसे ही चली आई हैं. तो क्या मैं चार दिनों के इतिहास को मान लूं कि ये ऐसा ही चलता रहेगा. फिलहाल यही दृश्य मुझे फिर पांचवी सदी में ले गया. यह दिखाने की कुछ बातें तब भी ऐसी ही थी !

... सब युद्धिष्ठिर का दोष है मन तो भटकता  ही रहेगा... फिलहाल एक कॉफी इंजेक्ट की जाय.


~Abhishek Ojha~


1. तकरीबन ढाई महीने पहले फ्रैंकफर्ट एयरपोर्ट पर बैठा सुषुप्तावस्था में खलील जिब्रान पढ़ रहा था, उसी में एक पन्ने पर यह लिखा था. साथ में उस  पन्ने पर यह भी लिखा मिला 'ईरानी बंदी है'. शायद किसी की तरफ इशारा रहा हो अपने दोस्त को दिखाते हुए !
2. शिव भैया उन चुनिन्दा लोगों में से हैं जिनकी बाते कई मौको पर याद आती हैं और मैं बिना किसी बात के मुस्कुरा उठता हूँ, मैंने उनसे एक बार कहा था कि अगर ऐसा ही होता रहा तो लोग समझेंगे कि मेरे दिमाग के कील-कांटे ढीले पड़ रहे हैं ! उनकी तबियत ठीक होने का बेसब्री से इंतज़ार है.
3. ये तस्वीर मलेसिया और हाँग-काँग के बीच स्थित किसी 'बीच' की है.