May 24, 2009

और भी गिफ्ट है ज़माने में इक डायरी के सिवा !

आज ये डायरी मिली - एज अ गिफ्ट ! मेरे मित्र के मम्मी-पापा की तरफ से. उन्हें पता चला कि 'ब्लागर' हैं और इसके बिस्तर पर कम से कम एक किताब हमेशा पायी जाती है. (भले पढ़े या न पढें !) अब ऐसे आदमी को क्या गिफ्ट दिया जाय? ऐसे आदमी के लिए विकल्प कितने कम होते हैं: डायरी, पेन, पेन स्टैंड. लेकिन सबकी तरह अंकल-आंटी को भी सबसे अच्छा वाला विकल्प ही पसंद आया: डायरी !

अब दुविधा ये है कि इसका किया क्या जाय? वैसे तो बचपन से सबसे ज्यादा चीज गिफ्ट मिली तो वो यही है. पर अब तक कभी दुविधा नहीं हुई... सबको भर डालता था. सब फोर्मुलों से भर दिए जाते उसके बाद भी जो बचते उसमें संस्कृत की लाईने. एक बार एक महाभारत सदृश रजिस्टर वाया भईया प्राप्त हुआ कुछ २ हजार से ज्यादा पन्ने होंगे. अब दीखता है तो यकीन नहीं आता. नौवी-दसवी की पुस्तकों का हल तैयार करने में क्या मजा आता था ! अपनी सुपर हिट फोर्मुलों की डायरी दुसरे लड़कों को देने में जितना भाव खाया होगा उतना भाव तो वो मोहल्ले की ब्यूटी क्वीन '...' भी नहीं खाती होगी. अब लगता है उस उम्र में पन्नों का ऐसा दुरूपयोग ! प्रेमपत्र लिखे होते तो नाम बदल कर ब्लॉग पर भी ठेले जाते लेकिन सवालों के हल का क्या करें? जिंदगी का एक क्रिएटिव हिस्सा बेकार चला गया. वो तो ठीक लेकिन इस डायरी का ?

अब तो न कागज न कलम बस लैप्पी बाबा पर खटर-पटर... किसी ने नंबर भी बोला तो नोटपैड ही खोलने की आदत हो गयी है. ये लिखते-लिखते अपनी हैण्ड राइटिंग देख रहा हूँ... बिलकुल गाँधी छाप. अब इस लिखावट में डायरी की सुन्दरता और ज्यादा बिगाड़ने का मन नहीं हो रहा. क्या मेरी लिखावट इतनी घटिया ? पुरानी डायरी खोलकर कन्फर्म करना पड़ेगा. पर इतना तो तय है कोई फोरेंसिक वाला भी पुराने और नए को देखकर चक्कर में पड़ जाएगा… इसी की लिखावट है क्या?

एक मित्र हैं, आजकल जर्मनी में. अगले महीने आ रही हैं (अरे बस मित्र हैं और कुछ नहीं. आप भी न `रही है' देखते ही... लगाने लगे अटकलें !). बात हो रही थी तो उन्होंने बताया कि आज उन्होंने खूब शॉपिंग की. और मेरे लिए क्या लाना है ये भी उन्होंने सोच लिया है. मतलब ये तो साफ़ है जहाँ से सबके लिए खरीदारी की गयी वहां पर मुझे दिया जाने वाला गिफ्ट नहीं मिला. वैसे तो सरप्राइज़ है पर प्रबल 'संभावना' बनती है डायरी की. अब आईपीएल के बाद सम्भावना ही कहेंगे आखिरी ओवर में ३०-३५ रन बनाने हो तो भी कमेंटेटर 'संभावना' ही कहते हैं. आखिरी गेंद पे रन ८-१० की जरुरत हो तो भी... संभावना !

एक उपाय सूझ रहा है तबादले की परंपरा... जैसे मिली वैसे ही किसी और को दे दो. पर कोई 'स्पेशल गिफ्ट' दे तो फिर वो भी अच्छा नहीं लगता. अब बहनजी की तरह तो हैं नहीं... जो धकाधक तबादला कर दें. क्यों न कुछ यादें लिखी जाय कुछ पर्सनल बातें?

'नहीं कोई पढ़ लेगा'

'ब्लॉग पर लिखने में तो नहीं सोचते?'

'कहाँ यार ब्लॉग पर वैसी बाते कहाँ लिखता हूँ...'

ये भी अजीब है !

वही बचपन वाले बात की तरह... कोई आंटी किसी दोस्त को बोलती:

'एक ये लड़का है. कितना पढता है... कभी टाइम बर्बाद नहीं करता. और एक तुम हो !'

'नहीं आंटी कहाँ? मैं तो बस १-२ घंटे से ज्यादा कभी नहीं पढता'

'देखो सुना कुछ तुमने... १-२ घंटे में... और एक तुम हो, कभी ध्यान से पढा करो'

सही गलत जो भी हो लेकिन बाहर से सीरियस और अन्दर जो लड्डू फूटते की... वाह ! आनंद ही आनंद ! पर अब क्या झूठ बोला जाय जो भी बातें होती है घुमा-फिरा कर ब्लॉग पर देर-सवेर आ ही जाती हैं !

सवाल वहीं का वहीं... क्या लिखूं इसमें ? और लोगों को कैसे बताया जाय कि मुझ जैसे लोगों को डायरी असमंजस में डाल देती हैं, किताबें हो तो फिर भी ठीक है. ‘और भी चीजें हैं दुनिया में गिफ्ट देने को इक डायरी के सिवा !’

वैसे एक सवाल आ रहा है दिमाग में हर कवि सम्मलेन में कवियों को स्मृति चिन्ह, शॉल और एक चेक दिया जाता है. चेक और स्मृति चिन्ह तो ठीक पर इतने सारे शॉल का वो क्या करते हैं ! जो प्रसिद्द कवि हैं वो? साल में सैकडो मिलते होंगे उन्हें तो !

*वैसे आप भी अगर मुझे डायरी गिफ्ट करने वाले हैं तो बता दूं... बस एक्सचेंज ऑफर हैं. ये नहीं की कुछ दिया ही नहीं :)

**ये उसी डायरी के शुरूआती पन्ने हैं !

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~Abhishek Ojha~

May 13, 2009

घूस दे दूँ क्या?

‘आपका क्या ख्याल है घूस दे दूँ क्या?’

अगर आपसे कोई अधेड़ अजनबी ऐसा सवाल पूछे तो आप क्या कहेंगे?

छुट्टी के बाद घर से वापस आ रहा था. रात का समय… बलिया (यूपी) से बक्सर (बिहार) (तकरीबन ३० किलोमीटर) जाने के लिए टैक्सी पकड़नी थी. जल्दी-जल्दी रिक्शे से उतरा ताकि आखिरी टैक्सी छूट ना जाए. गर्मी का दिन... उतरते ही पानी निकाला ही था की आवाज सुनाई दी:

'बोतल का ही पानी पीते हो, नहीं? इंसान भी कितना शौकीन हो गया है !'

सच कहूं तो बहुत गुस्सा आया… अरे मैं बोतल का पानी पियूँ या गड्ढे का तुम्हे क्या पड़ी है? लेकिन फिर उनकी उम्र देखकर मुस्कुरा दिया. 'नहीं… वो छुट्टे नहीं थे तो एक बोतल पानी ले लिया'.

फिर बातचीत चालु हुई. पहले तो पानी का बोतलीकरण और फिर बेचने वालो को गाली... फिर बाद में बाकी बातें... अंकलजी रिटायर्ड फौजी थे और एक साक्षात्कार के लिए पटना जा रहे थे. कोई सीआईएसऍफ़/सीआरपीऍफ़ या फिर किसी बैंक में सेक्युरिटी के लिए कोई पोस्ट थी. इन सबका उन्होंने जिक्र किया था तो ठीक-ठीक याद नहीं किस वाली नौकरी के लिए जा रहे थे. रिटायर्ड फौजी… लेकिन बेटे पढने वाले हैं तो पेंशन पर गुजारा नहीं हो रहा तो काम करना जरूरी है ! आधे भारत की यही कहानी है. ये आधे खुशहाल में आते हैं बाकी आधों के लिए तो कपडे मकान का संघर्ष है. रोटी शायद अब सबको मिल जाती है. और जो बाकी बचे वो थोड़े आराम की जिंदगी जीते हैं. अब ये मत पूछियेगा कि आधे-आधे हो ही गए तो ये बाकी वाले कहाँ से आ गए? ये जो बाकी हैं इन्हें मैं भारत नहीं इंडिया मानता हूँ.

बच्चों की पढाई और नौकरी की बात करते रहे फिर मेरे बारे में भी कुछ पूछा. ‘पुणे में काम मिल सकता है क्या? ५-६ हजार में किसी के यहाँ खाना बनाने का भी...?’ फिर अचानक ही बोल पड़े:

‘तुम्हारा क्या ख्याल है दे दूं घूस? बिना घूस के तो नौकरी मिलेगी नहीं. ’

'मैं क्या बताऊँ… आप अनुभवी हैं. पर ऐसा नहीं है… बिना घूस के भी काम होता है, अगर आप योग्य हैं तो आपको क्यों नहीं मिलेगी नौकरी? आपको इतने सालों का अनुभव है. ऐसे छोटे काम के लिए क्यों परेशान हो रहे हैं, हो जाएगा आपका.’

‘अरे योग्य तो सभी हैं. चार में से एक का होना है. और उनमें से ऐसा कोई नहीं जो योग्य नहीं इस पोस्ट के लिए. सभी ओवर क्वालिफाइड ही हैं. बस एक ही बात बची है पूरी प्रक्रिया में जो १ लाख देगा उसको रख लेंगे. मेरे पास तो साक्षात्कार का लेटर आने के पहले ही दलाल आ गया था. और वो तो चैलेन्ज करके गया है कि बिना पैसे के होना संभव ही नहीं है ! मैं नहीं दूंगा तो कोई और देगा…’

'पर मान लीजिये पैसा भी ले ले और नौकरी भी नहीं लगी तो?' इसके अलावा और कोई तर्क बचा नहीं था मेरे पास. ईमानदारी से भूखो मरने की सलाह उनकी समस्या और 'सभी ओवर क्वालिफाइड ही हैं' वाली बात सुनकर मैं नहीं दे पाया.

'नहीं ऐसा बहुत कम होता है. उनका एक दिन का काम तो है नहीं... प्रोफेशनल लोग हैं. काम होने के बाद आधा पैसा लेते हैं.'

अब क्या बोलता मैं?... मैंने बस इतना ही कहा 'अगर आप योग्य हैं तो नौकरी आपको मिलनी ही चाहिए. और इन सबके चक्कर में ना पड़े तो ही बेहतर है'

अंकलजी ने बस इतना ही कहा... 'तुमने दुनिया देखी कहाँ है? मैं पटना जा रहा हूँ... और वो भी ऐसे पोस्ट के लिए जिस पर कई सालों से बिना घूस के कोई नहीं रखा गया... तुम्हे क्या पता कैसे दुनिया चल रही है... फौज और पारा मिलिट्री में नॉन-ऑफिसर की बहाली कैसे होती है ! मैंने दुनिया देखी है... २० वर्ष के फौज की नौकरी के आधार पर कह रहा हूँ ! '

पता नहीं उनकी नौकरी का क्या हुआ !

पिछ्ली पोस्ट में अन्न मसूर था. जिसे काली दाल भी कहते हैं.

~Abhishek Ojha~

May 5, 2009

छुट्टी कथा: एक दिवसीय किसान

मार्च का महिना कटाई-मड़ाई का सीजन होता है तो हम भी खेती-बाड़ी का हाल देखे आये.  वैसे तो ट्रैक्टर से अनाज निकलने का काम कई सालों से हो रहा है पर नजदीक से देखने का मेरा पहला अनुभव था. इससे पहले थ्रेसर ही देखा था. पता चला पहले जो काम रातभर में भी नहीं हो पाता था अब वो घंटे-दो घंटे में हो जाता है. पहले लोग पछुआ हवा का इंतज़ार करते थे, करते तो अभी भी हैं पर अब वो कोई बहुत बड़ा फैक्टर नहीं रहा. मतलब ये कि कोई भी हवा चल रही हो उसमें मौजूद नमी का कुछ ख़ास असर अनाज निकलने की प्रक्रिया पर नहीं होता. सुना है अब हार्वेस्टर से यह काम और आसान हो गया है. खड़ी फसल से ही अनाज निकाल लिया जाता है. (पर फिलहाल शायद केवल गेंहू के लिए ही ये मशीन इस्तेमाल हो रही है कम ऊंचाई वाली फसल के लिए नहीं) बस भूसे का नुकसान होता है. पर कई लाभ हैं इसके... कटाई और फिर मड़ाई में दो स्तरों पर अनाज के रूप में दी जाने वाली फीस से काफी कम लागत पर काम हो जाता है (काटने वाले से लेकर मजदूर और ट्रैक्टर मालिक सभी अनाज में से एक हिस्सा लेते हैं). समय की बचत होती है वो अलग.

सुना है पहले यह काम बैलों से होता था एक महीने से ज्यादा समय लगता था. थ्रेसर से कुछ सप्ताह और अब दिनों से बात घंटो पर आ रही है. पर कई ऐसे किसान हैं जो अभी भी थ्रेसर पर अडे हुए हैं. और अभी भी थ्रेसरों की विक्री जारी है. पुराने थ्रेसर के खरीदार भी हैं मार्केट में. इसका सबसे बड़ा कारण है किसानों का दिन प्रतिदिन छोटा होना. जनसँख्या बढती जा रही है और बंटवारा होता जा रहा है. छोटे किसानों के पास २० साल पहले जीतनी जमीन होती थी उसकी तुलना में चौथाई से भी कम जमीन है. कैसी बिडम्बना है... तब बैल अब हार्वेस्टर !

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मज़बूरी में कई किसान एक साथ मिलकर हार्वेस्टर बुलाते हैं. पर कैश पेमेंट करना अभी भी सबके बस की बात नहीं ! लिहाजा उन्हें पुराने तरकीब से ही काम करना पड़ता है.  पूर्वी उत्तर प्रदेश के बदतर हो रहे हालात ने मजदूरों को बाहर जाने पर मजबूर किया है और खेती में काम करने वाले मजदूरों की भारी कमी है. मेरे बड़े पिताजी सेवानिवृत शिक्षक हैं और हमारे घर तो पूरी तरह मजदूर आश्रित रामभरोसे ही खेती होती है. खेती से जुडी उनकी भावनाएं अगर ना होती तो कब के खेत बटाई या फिर लगान पर दे दिए गए होते.

ट्रैक्टर से हो रही दंवरी (मड़ाई) देखकर कई सुधार दिमाग में घूम रहे थे लेकिन फोटो खीचते समय दिमाग में आया कि किसको सुझाया जाय. वैसे भी साधारणता एक ब्लॉगर के विचार टिपण्णी कमाने के अलावा और किसी काम के नहीं होते ! अब फोटो तो ब्लॉग पर डालने के लिए ही खीच रहा था. तो एक ब्लॉगर की हैसियत से चुप ही रहा.

क्या आप बता सकते हैं ऊपर कि तस्वीर में कौन सा अनाज है? अगर इसे पहेली माना जाय तो अशोक जी को छोड़कर बाकी लोगों के लिए ही :-)

~Abhishek Ojha~