Apr 26, 2009

छुट्टी कथा: १३८ पहियों पर लदा अजूबा !

'अरे छोटू वो मशीन देखे?'
'कौन मशीन?'
'अरे! जर्मनी से ट्रांफार्मर आया है... इतना बड़ा है कि उसे ले जाने के लिए १३८ पहियों की गाडी आई है, जगह-जगह पेड़ काटे जा रहे हैं. और पुराने पूल कहीं टूट ना जाए इसलिए उनकी जगह नए पूल बनाए जा रहे हैं ! तुम्हारी किस्मत अच्छी है जो इस समय गाँव आये हो तुम भी देख लोगे, लोग दूर-दूर से बस और ट्रेन से आ रहे हैं देखने !'

हमारे पड़ोस वाले चाचा जब बात किस्मत पर ले आये तो हमने भी सोचा चलो देखे आते हैं... हमारे गाँव के बजरंग बली के मंदिर के पास वो गाडी रुकी. भारी भीड़ के बीच सुना मशीन की पूजा की गयी और एक नेताजी ने कुछ भाषण भी दिया... ये मनोरम दृश्य तो छुट गया. पर हम अगले दिन सुबह-सुबह ये अजूबा देख आये. जितना हाइप था वैसा तो कुछ नहीं निकला. पर पहले आप भी इसे देख लीजिये और अपनी किस्मत को धन्यवाद दीजिये. फिर नीचे जानकारी पढियेगा :-)




हमने जो अवलोकन किया वो इस प्रकार है. हमने देखते ही सीमेंस कंपनी का टूटा हुआ नाम पहचान लिया (पहले चित्र में दाहिनी तरफ, पुणे में हमारे ऑफिस के बाजू में ही सीमेंस का ऑफिस है) और फिर अपनी आदत अनुसार साथ गयी अपनी भतीजी को सीमेंस के बारे में, फिर मशीन डिजाइन पर लेक्चर दिया गया. और फिर ये गौर किया गया की ये मशीन तो जर्मनी की ही है पर १३८ की जगह १२८ चक्के थे और वो भी ३२-३२ पहियों की चार ट्रोलियों को जोड़कर तैयार किया गया था. फिर ये तय हुआ की इसे खीचने के लिए जो अलग से ट्रकनुमा इंजन जोड़ा जाता होगा १० पहिये उसके भी गिने गए होंगे १३८ पूरा करने में. और इन चार ट्रोलियों पर पर एमएच का नंबर देखकर ये फैसला लिया गया की ये मुंबई से आ रहा है. एक जगह और मुंबई पोर्ट दिखा मिल गया (आखिरी तस्वीर). पर लोगों के अनुसार वो जल मार्ग से (गंगा नदी) लाया गया तो शायद फिर वहां से कलकत्ता ले जाया गया होगा.

अब अवलोकन तो पूरा हो गया पर विवरण के बावजूद ये पहेली की तरह लगा की ये आखिर है क्या? फिर विवरण वाली तस्वीर ((आखिरी) की जानकारी को वहीँ गूगल मोबाइल के हवाले किया गया और जो जानकारी मिली वो ये है: पॉवर ग्रिड कारपोरेशन इंडिया लिमिटेड के बलिया भिवाड़ी-विद्युत् वितरण प्रोजेक्ट 2500 MW HVDC (2500 MW high-voltage, direct current electric power transmission system) के तहत सीमेंस कंपनी द्बारा तैयार यह बईपोल टर्मिनल पूर्वी भारत से पश्चिमी भारत तक बिजली वितरण में इस्तेमाल होगा. इसकी विस्तृत जानकारी इस लिंक पर उपलब्ध है. दुनिया भर में ऐसे अन्य ग्रिडों की जानकारी इस लिंक पर उपलब्ध है. जय हो टेक्नोलोजी !

हाँ इस परियोजना में सुना है पीडबल्यूडी के इंजीनियरों और ठेकेदारों की चांदी हो गयी है... और जरुरत बिना जरुरत करोडों के रास्ते बनाए जा रहे हैं ! अब विकास से करोडो का फायदा ऐसे ही तो लोगों तक पहुचता है. बलिया के लोग आस लगाए बैठे हैं की २४ घंटे बिजली रहेगी... मुझे ये संभव होता नहीं दिख रहा. पर जो भी हो लोग उत्सुकता से इस अजूबे को देखने रहे थे... रांची में भारी अभियांत्रिकी निगम (एचइसी) ऐसी बड़ी-बड़ी मशीनें बनाता है और महीनो तक वो स्टेशन पर पड़ी रहती है. हम बचपन में देख कर हैरान तो जरूर होते थे पर कभी इतनी उत्सुकता से लोग देखने जमा नहीं होते थे.
~Abhishek Ojha~

Apr 22, 2009

छुट्टी कथा: दिल्ली में... ना भूख ना प्यास

रात को ९ बजे दिल्ली... बाहर निकलते ही भईया मिल गए फिर १.३०-२ घंटे लगे होंगे नॉएडा पहुचने में. फिर जो बातों का सिलसिला चला तो कब सुबह के ४ बजे पता ही नहीं चला. ३ घंटे की नींद और फिर वही... तीन भाई और अनगिनत बातें... ना भूख न प्यास ! [तीन नालायक :-)]

ना भूख ना प्यास: वो तो भला हो एक सज्जन का जो किसी काम के सिलसिले में मिलने आ गए उनके लिए मिठाई की व्यवस्था की गयी और घर पे कुछ संतरे पड़े थे. वर्ना नए साल का पहला दिन (२७ मार्च) खाली पेट ही निकल जाता. शाम को ४ बजे भईया को डॉक्टर के पास जाना था तो सब उधर ही निकल लिए फिर बाजार. रात को ८-९ बजे लौटे. इस बीच हमारी मित्र मंडली के बीसियों फोन आये तो हमने सोचा की उनसे ना मिला गया तो... खैर रात को ९ बजे स्नान करके और बड़े भाइयों को कुछ खाने की हिदायत देकर ११ बजे मैं पीवीआर साकेत पहुचा. उसी दिन एक मित्र  ने सिविल सेवा की परीक्षा का साक्षात्कार दिया था. जब तक रास्ते में था फोन पर उनके साक्षात्कार की चर्चा चली. रास्ते में कैब से उतरा तो एक ऑटो वाले ने जो मदद की... लगा इंसानियत अभी जिन्दा है. यात्रा में मिले अच्छे-बुरे लोगों की चर्चा आखिरी पोस्ट में.

ये दोस्ती: वहां कॉलेज के ५ दोस्त जमा हुए २४ घंटे की भूख के बाद जम के खाया गया. और फिर सुबह के ५ कब और कैसे बज गए पता ही नहीं चला. ये कुछ ऐसे दोस्त हैं जो दोस्ती की परिभाषा हैं... इनसे दोस्ती को परिभाषित किया जा सकता है. ये उन दिनों के दोस्त हैं जिन दिनों परीक्षा में एक किताब के दस टुकडे कर के पढ़े जाते. किसी एक के चेक बुक से १० लोगों का मेस बिल भरा जाता. एक का परफ्यूम पूरे २० लोग लगाते और 'जरा दिखाओ कैसा है' यही देखने में ख़त्म हो जाता. पार्टी-शार्टी में एक के कपडे पांच लोग पहनते. कमरों में कभी ताला नहीं लगता... अपने कमरे को छोड़कर कोई कहीं भी पाया जा सकता था. अगर एक दुसरे को पढाया नहीं गया होता तो शायद कोई पास नहीं हुआ होता. वो दोस्त जिन्हें सुबह के ४ बजे कह दो कि भूख लगी है तो बाइक से जीटी रोड का हर एक ढाबा स्कैन कर दिया… कहाँ क्या मिलेगा. भूख तो दूर कि बात बस कह दो कि चाय पीने का मन है ! अनगिनत यादें... अनगिनत बातें. कुछ डाउनलोड की गयी फिल्में भी इधर से उधर की गयी. क्या-क्या लिखा जाय ! अगर वे ना होते तो शायद जिंदगी कुछ और होती, मैं वो ना होता जो हूँ… क्या होता पता नहीं ! इन दो सालों से कम वक्त में ही कितना कुछ बदल रहा है… सुबह ६ बजे मैं फिर नॉएडा के लिए निकल गया.

अटेंडेंट कुरियर सर्विस: नॉएडा पहुँच कर फिर बतरस...  पुराना कंप्यूटर घर ले जाने के लिए पैक किया गया. और फिर शाम को स्टेशन, आज का दिन भी बिना खाए पीये निकल गया. ना बनाने की सुध न बाहर जाने की फिकर, ऑर्डर करने तक का नहीं सूझा ... 'थोडी देर में चलते हैं' करते-करते शाम हो गयी. स्टेशन पर एक दुसरे को खा लेने की नसीहत जरुर दी गयी. स्वतंत्रता सेनानी एक्सप्रेस में एक नयी बात पता चली कोच के अटेंडेंट कुरियर कंपनी की तरह भी काम करते हैं. अब कितनी जायज-नाजायज चीजें भी वो ट्रासपोर्ट करते होंगे ये तो अपने को नहीं पता. पर जितना हमने देखा ये काम बड़े सहज तरीके से होता हैं. आप एक प्लेटफोर्म टिकट लेकर दिल्ली में सामान अटेंडेंट तक पंहुचा दीजिये और फिर अगले दिन निर्धारित स्टेशन पर आपका कोई आदमी आकर सामान ले जायेगा !

दिल्ली में बारिश और ट्रेन लगभग एक साथ ही चालु हुए...पिछले दो रातों को मिलकर ४ घंटे की नींद और भाग-दौड़ के बाद रात के ९ बजे जो नींद आई तो अगले दिन सुबह ११ बजे बनारस में किसी ने उठाया. उठने के बाद पता चला की ट्रेन में बड़े मजेदार लोग हैं, और सोने के पीछे एक मजेदार पोस्ट चली गयी :-)

एयर होस्टेस सुपर हिट: पिछली पोस्ट पर जेट एयरवेज की तीनों एयर होस्टेस हिट हो गयी. हवाई जहाज से कहीं पहुँचने पर दोस्तों का बाई डिफॉल्ट पहला सवाल एक ही होता है 'एयर होस्टेस कैसी थी?' यही नहीं जो छोड़ने आया था उसको फोन किया तो उसने भी यही पूछा. मुझे लगा की ये हमउम्र दोस्तों तक ही सीमित होगा पर पिछले पोस्ट पर अगर कुछ बिका तो एयर होस्टेस. अब आपने कहा की सब सच-सच लिखना है तो लिखे देते हैं. हमने तो इस बार यही जवाब दिया ‘जहाज में जाते ही पैसा वसूल हो गया, आज पहली बार यकीन हुआ की एयर होस्टेस अच्छी होती हैं ! वर्ना अब तक तो... '
इसके बाद कुछ अच्छी के लिए कुछ शब्द भी इस्तेमाल होते हैं वो सब तो आप जानते ही होंगे ... [उदहारण के लिए एक शब्द 'ग़दर-ए-गर्दिश' वैसे तो इन शब्दों की डिक्शनरी बहुत बड़ी है :)].

और हाँ हम इतने लेट से एयरपोर्ट पहुचे थे की आखिरी लाइन में सीट मिली थी. यूँ तो हम किताब बहुत एकाग्र होकर पढ़ते हैं और उस दिन भी आँखें किताब पर गड़ी रही लेकिन कान तो पूरे रास्ते उन तीनों की बात ही सुनते आये... अब किसी की व्यक्तिगत बातें तो ब्लॉग पर सार्वजनिक नहीं की जा सकती ना. वैसे लडकियां आपस में बड़ी रोचक बातें करती हैं... चाहे एयर होस्टेस ही क्यों ना हों !

~Abhishek Ojha~

(जारी...)

Apr 20, 2009

अथ श्री छुट्टी कथा: पुणे से दिल्ली तक

पिछली पोस्ट पर मुझसे छुट्टी का हिसाब माँगा गया.  १७ पोस्ट तो शायद नहीं हो पाए पर लेखा जोखा तो अब देना ही पड़ेगा. आज दिल्ली तक की डायरी.

और मिल गयी छुट्टी: हमारे ऑफिस में साल में एक बार लगातार एक सप्ताह (५ कार्य दिवस) की छुट्टी लेना अनिवार्य है. अगर दिसम्बर तक लगातार एक सप्ताह की छुट्टी ना ली जाय तो आपको जबरदस्ती घर भेजा जायेगा. ऐसे ब्लाक लीव के नियम बनाने वालों को भगवान लम्बी उम्र दे :-) २७ मार्च को गुडी पडवा की छुट्टी से लम्बा सप्ताहांत वैसे ही था और इधर १० अप्रैल को गुड फ्राइडे. तो एक सप्ताह में ब्लाक लीव और दुसरे सप्ताह में ४ दिन की छुट्टी... इस तरह जो ९ दिन की छुट्टी मैंने ली वो १७ दिन की हो गयी. एक तो मैं छुट्टी ऐसे समय पर लेता हूँ जब ऑफिस में कोई और ना ले रहा हो. साधारणतया सब लोग एक ही साथ छुट्टी लेना चाहते हैं जैसे होली, दिवाली इत्यादि. हमारी दो की टीम में से एक को ऑफिस में रहना जरूरी है और जब अजित की तरह का होनहार कलिग हो तो फिर काहे की चिंता :-)  इस तरह थोडी सी ओप्टिमाइजेशन लगाने पर हमारी छुट्टी मान्य हो गयी.

जो होता है अच्छे के लिए: कम से कम एक महिना पहले तो बताना ही पड़ता है छुट्टी के लिए. पर हम तो दो महिना पहले ही बता के बैठे थे... तो टिकट भी करा लिया. पर इस बीच लम्बे सप्ताहांत में ऑफिस के लोगों ने गोवा जाने की योजना बनाई. पर हमारे मन ने गोवा की चकाचौंध के आगे घर जाने को ज्यादा तरजीह दी और हमने अपनी योजना नहीं बदली. पर अच्छी यात्रा  के लक्षण पहले ही दिखने लगे... हमने बड़ा सस्ता टिकट कराया था पुणे से दिल्ली का जेटलाइट में. १० दिन पहले पता चला की फ्लाईट ही रद्द हो गयी ! जय हो ! उन्होंने कहा की आप अपना पैसा वापस ले लीजिये. मैंने कहा 'वाह भाई ! आपने कह दिया और मैं पैसे ले लूं और अब उससे ४ गुना पैसा देकर मैं टिकट लूं? मैं वापस नहीं लेता आप मुझे किसी तरह २६ की रात में दिल्ली पहुचाओ !' शायद पहली बार पैसे को ना कहा होगा मैंने. अब बेचारे क्या करते उसी टिकट को अपडेट कर मुझे उसी दिन शाम को जेट एयरवेज का टिकट मिल गया.

ऑफिस से निकलने में देर हो गयी और हमारे रूम पार्टनर की बाइक से दौड़ते-हांफते ६.३० बजे एयरपोर्ट पहुचे तो पता चला की ७ बजे और उसके बाद की सारी फ्लाईट रद्द ! उफ़ ! पर फिर कमाल... गौर से देखा तो ७ बजे की एक फ्लाईट रद्द नहीं हुई थी. और हम एक बार फिर लकी... अब ३ एयर होस्टेस में कौन कैसी थी ये आपको नहीं बता रहा बेकार में पोस्ट लम्बी हो जायेगी :-)

भूख लगी हो तो कुछ भी अच्छा लगता है: नयी-नयी ब्लैक स्वान खरीदी गयी थी तो थोडी देर पढने की कोशिश की गयी. पर दिन में लंच करने का भी समय नहीं मिल पाया था और भूख बड़े जोर की लगी थी. हम खाने पर टूट पड़े... हमारे बगल की सीट वाले महानुभाव उस समय तो चुप थे पर अभी मैंने शुरू ही किया था की खाने को गालियाँ देने लगे. 'कितना बेकार खाना है !' अब हमने भी हामी भर ही दी और ना चाहते हुए भी थोडा छोड़ना ही पडा. अरे ये भी कोई तरीका होता है? हाय न  हेल्लो... सीधे खाना बेकार है ! आप को एक सलाह देता हूँ अगर कोई भूखा खा रहा हो तो जब तक वो पूरा खा न ले खाने की बुराई कभी मत कीजियेगा बहुत बद्दुआ लगेगी.

हम असभ्य लोग: खैर यहाँ तक तो ठीक था. पर दिल्ली पहुचते-पहुचते एक बार फिर मन किया की दो-चार लोगों को थपडियाया जाय. जब भी फ्लाईट उतरती है... उतरने के पहले ही लोग फोन चालु करने लगते हैं. क्यों भाई २ मिनट में कौन सा पहाड़ टूट जायेगा? अभी हाल ही में प्रोफेसर रघुनाथन की ये किताब पढ़ी थी और  एक बार फिर भरोसा हुआ… हम भारतीय बड़े अनसिविलाइज्ड होते हैं.

~Abhishek Ojha~

(जारी... 'दिल्ली में... ना भूख ना प्यास')

Apr 14, 2009

क्षीणे पुण्ये ऑफिसम् विशन्ति !

मैंने छुट्टी क्या ले ली जिसे देखो वही परेशान:

१७ दिन?

कहाँ जा रहे हो?

क्यों?

कोई 'यूँही' इतने दिनों के लिए घर जाता है क्या? कोई तो काम होगा?

और इतने दिनों तक ऑफिस का काम?

इतने दिन तो कोई अपनी शादी में भी छुट्टी नहीं लेता ! (चलो ये तो कन्फर्म हुआ की मैं शादी करने नहीं गया था !)

फिलहाल सबको संशय में डाले... हम आनंद मनाते हुए नेट-वेट से दूर छुट्टी मना आये. और जब लौट के आये तो लोगों ने पूछा: 'कैसी रही छुट्टी?' अब क्या बताएं हमें तो लगा 'धत ! ये भी कोई छुट्टी हुई शुरू होने के पहले ही ख़त्म हो गयी.' लगा जैसे कभी का कुछ किया हुआ पुण्य शेष था जिसके क्षीण होते ही हम ऑफिस में आ गिरे*. 

इधर जाने के पहले ब्लॉगजगत से छुट्टी मान्य तो हो गयी पर एक चेतावनी भी दी गयी 'पिछला रिकॉर्ड बड़ा ख़राब है जरा ध्यान रखो ! ' अब जब पुण्य क्षीण हो गया और हम फिर से अपने लोक में आ गए तो इस ब्लॉग रूपी माया का ध्यान आना भी स्वाभाविक ही है. तो हम फिर से हाजिर हैं. वैसे तो हम कुछ यूँ गायब रहते हैं कि अगर आने जाने की सूचना पोस्ट से देने लगे तो सूचना वाले पोस्ट ही सबसे ज्यादा हो जायेंगे. वापस आकर ज्ञान भैया की एक पोस्ट पढ़ी तो सच में लगा की बहुत बड़ा पुण्य करने से आदमी दरोगा होता होगा. सरकारी नौकरी, रॉब, उपरी कमाई और छुट्टी मिले सो अलग. यहाँ तो सब जानने वाले १७ दिन में ही मुर्छाने लगे... इस मंदी में १७ दिन? और कहाँ घर वालों के साथ मुझे भी लगा ही नहीं कैसे ख़त्म भी हो गए ये सारे दिन.

खैर… फिलहाल इस मायाजाल (ब्लॉग) में थोडा रेगुलर रहने की इच्छा है. इस बीच कई रोचक बातें हुई जो ठेली जायेंगी. इन १७ दिनों के कुछ अनुभव भी होंगे. अभी बस यह तस्वीर... इन १७ दिनों में सोचा तो बहुत कुछ पढने/देखने को था पर इन दोनों किताबों (तस्वीर वाली) और कुछ फिल्मों से ज्यादा नहीं हो सका. दोनों किताबें बेजोड़ हैं... लगता था गणित ही अब्सट्रैक्ट होता है पर उपनिषद् ने दिमाग का दही कर दिया. पारिवारिक आनंद, ब्लैक स्वान, ब्रह्म और आत्मा-परमात्मा के बीच सालों बाद एक मेला भी देख आया. डिटेल धीरे-धीरे…  अभी के लिए इतना ही.

Black Swan and upanishad

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* ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति। (वे उस विशाल स्वर्ग लोक को भोगने के कारण क्षीण पुण्य होने पर फिर से मृत्यु लोक पहुँचते हैं।) ॥श्रीमद्भगवद्गीता ९- २१॥