Jan 31, 2008

देवासुर संग्राम और पोलीथिन की थैलियों को मिले अमरत्व की कहानी !

कलयुग में दिन दुनी रात चौगुनी वाली कहावत चरितार्थ करने वाली कोई निर्जीव चीज़ है तो वो है 'पोलीथिन की थैलियाँ' . हमने इस विषय पर बहुत शोध किया कि आख़िर इन्हे ये वरदान कब मिला?

अंततः उत्तर मिल ही गया!

बात देवासुर संग्राम के समय की है. निस्तेज देवताओं को विष्णु भगवान ने सुझाव दिया कि असुरों से दोस्ती कर लो और समुद्र मंथन करके अमृत का पान करो... समुद्र मंथन हुआ और उसमें से कई वस्तुएं निकली और अंत में धन्वन्तरिजी अमृत लेकर भी आये... और उसे बांटने के लिए भगवान विष्णु को विश्वमोहिनी का रूप धारण करना पड़ा. और जैसा की जगजाहिर है... राहू नामक असुर देवताओं की पंक्ति में जा बैठा और अमृतपान करने लगा.

विश्वमोहिनी को देख कर तो ब्रह्मा और महेश का मन भी डोल रहा था फिर राहू का तो कहना ही क्या? हाथ में अमृत और पिलानेवाली स्वयं मोहिनी... पर अभी अमृत कंठ तक गया ही था कि चंद्रमा और सूर्य ने चिल्लाना शुरू कर दिया... भगवान तो ठहरे भगवान तुरत सुदर्शन लिया और कर दिए दो टुकडे...
कंठ का अमृत... आधा ऊपर... आधा नीचे... एक बूंद जमीन पर भी टपक गया. ऊपर नीचे का मामला तो ठीक...एक राहू और एक केतु... लेकिन उस बूंद का क्या? राहू का रक्त, अमृत, सुदर्शन का तेज और राहू के मन में उपजा हुआ काम सब का संगम था उस बूंद में... पृथ्वी से स्पर्श होते ही एक नए पदार्थ कि उत्पति हो गई. अब भगवान ने सोचा कि इस नई मुसीबत का क्या करें?

देवाताओं का तेज तो वापस आ ही गया था... बगल में बैठे पवनदेव बोल पड़े 'अरे इसमें क्या रखा है, मैं तो इसे अभी उड़ा दूंगा... भटकता रहेगा ब्रह्माण्ड में'. वरुणदेव को भी जोश आ गया... बोले 'मैं तो इसे अपने अन्दर समाहित कर लूँगा'.
भगवान ने सोचा चलो ये भी अच्छा सुझाव है. पर वो तो ठहरे दीनदयाल, पालनहारी... उन्होंने सोचा कि देवताओं को तो बहुत कुछ मिल गया, असुरों ने भी अमृत चख ही लिया, मानव जाति को भी तो कुछ मिलना चाहिए! और साथ में पवन और वरुण देव का घमंड भी भांप गए. उन्होंने घोषणा की...
'हे पवनदेव! आपकी इच्छा पूर्ण होगी और मानवजाति को भी मैं आज एक नई वस्तु प्रदान करता हूँ. यह अमृतयुक्त, कभी नष्ट नहीं होने वाला पदार्थ मानवजाति को प्राप्त हो, यह दिनोदिन बढोत्तरी करे... और हे पवनदेव आप अपने बल से इसे पूरी पृथ्वी पर उडाते रहे, हे पवनदेव और वरुण देव आपने इस देवासुर सभा में अपने घमंड का प्रदर्शन किया है इसलिए जब तक मैं कल्कि अवतार नहीं धारण कर लेता यह वस्तु आप दोनों को प्रदूषित करती रहेगी'.

वही वस्तु आगे चलकर प्लास्टिक की थैलियों के रूप में विकसित हुई और हर जगह जल और हवा के प्रदुषण का कारण बन रही है.

अब तो पवनदेव और वरुणदेव के साथ मुझे भी भगवान के अवतार का ही इंतज़ार है... अब तो वही रक्षा कर सकते हैं.


~Abhishek Ojha~

Jan 28, 2008

दहेज़ विरोधी होने का मतलब ये तो नहीं कि मैं भी दहेज़ ना लूँ !

क्यों? है ना अच्छा विचार ! एक बार दहेज़ ले लो... फ़िर उठा लो झंडा दहेज़ विरोध का ! वैसे दहेज़ प्रथा के समर्थन में कई तर्क सुन चुका हूँ, शायद आपको कुछ अजीब लगे लेकिन तथाकथित बड़े-बड़े बुद्धिजीवियों से मैंने ये तर्क सुने हैं...

जैसे... 'दहेज़ से अर्थव्यवस्था को बहुत फायदा होता है... अब गाड़ियों को ही ले लो, साल भर कार और बाइक के शोरूम वाले बैठ के झक मारते हैं और शादियों का मौसम आते ही शोरूम में गाड़ियों की कमी पड़ जाती है... इसी प्रकार कई प्रकार के जवाहरात, फ्रीज़ और टीवी की विक्री उन दिनों में बढ़ जाती है. 'कंज्यूमर बेस्ड इकोनोमी' के लिए तो जरूरी है कि लोग पैसे खर्च करें... '. ब्लैक मनी को व्हाइट मनी बनाने में भी काफ़ी हद तक दहेज़ प्रथा मदद करती है.

एक और बहुत ही अच्छा तर्क मुझे सुनने को मिला... हाल ही मेरे एक मित्र से.. उन्होंने कहा कि मैं तो भाई दहेज़ लेने के बिल्कुल ख़िलाफ़ हूँ पर मेरा मानना ये है कि पिता कि संपत्ति पर बेटे और बेटी को समान हक़ होना चाहिए और मैं चाहूँगा कि मेरी होने वाले ससुर को... जो भी उन्हें देना हो... मुझे नहीं अपनी बेटी के नाम दे, अगर रुढिवादी विचार वाले माँ बाप अपनी बेटी को उसका हक नहीं देना चाहते तो मैं ऐसे घर में शादी नहीं कर सकता.
चलो ये भी अच्छा तर्क है।

और ऐसे रोल मोडलों की भी तो कोई कमी नहीं है... जब DLF के कुशल पाल सिंह अपने ससुर का धंधा चमका सकते हैं ... तो हमें भी उनको आदर्श मानते हुए... कम से कम कोशिश तो करनी ही चाहिये।

खैर, इन बातों में मैं ये तो भूल ही गया कि लिखना क्या था ! हाँ तो अभी कल कि बात है मैंने ओरकुट पर एक मित्र को देखा कि उन्होंने 'आई एम् अगेन्स्ट डोरी' कम्युनिटी ज्वाइन कर रखी है. मित्र तो नहीं कहेंगे क्योंकि मैं पहली बार उनसे ओरकुट पे ही मिला था और उम्र में भी वो मुझसे काफ़ी बड़े हैं, और आजतक मैं उनसे ऑफलाइन मिल भी नहीं पाया।

हाँ, तो ये सज्जन बड़े ही ऊँचे विचार वाले हैं और समय-समय पर देशभक्ति और अच्छे विचारों से भरे हुए मेल्स फोरवर्ड करते रहते हैं. आपको ये भी बता दूँ की ये एक इज्जतदार घर से हैं और इनका गाँव हमारे गाँव के पड़ोस में पड़ता है. इनकी शादी जब कुछ ३-४ साल पहले हुई थी तब मैं छुट्टियों में घर गया हुआ था और हमारे गाँव में ये आम चर्चा थी कि.... क्या शादी हुई है ! ... कुछ १० लाख नकद और बाकी पता नहीं क्या-क्या मिला था उनको. वैसे तो उन्होंने ओरकुट पे ढेर सारी कम्युनिटी ज्वाइन कर रखी है, पर गलती से मुझे ये कम्युनिटी दिख गई... और फिर ये उत्तम विचार मेरे दिमाग में आ गया...

क्यों है ना उत्तम विचार?

~Abhishek Ojha~

Jan 24, 2008

७.१ डालर का अभी तक का सबसे बड़ा फ्रौड़... ।

बहुत दिनों से सोच रहा था कि इनवेस्टमेंट बैंकिंग के बारे में लिखूंगा... अपना ६ महीने का अनुभव... और इस इंडस्ट्री के बारे में मेरा थोडा-बहुत ज्ञान... । पर आज कुछ ऐसा पढ़ लिया... कि लिखना ही पड़ा। इनवेस्टमेंट बैंकिंग का मेरा पसंदीदा हिस्सा... फ्रोड़ !! इतने नियम, इतनी पाबंदियाँ... फिर भी ऐसे-ऐसे कारनामे कि बड़ी-बड़ी कंपनियाँ सड़क पर आ जाएँ... ट्रेडरों ने कितनी कंपनियाँ डूबा दी... खैर बाकी कहानियाँ फुरसत में लिखी जायेंगी... पहले आज कि कहानी....

फ़्रांस के बैंक Societe Generale को ७.१ अरब डालर का नुकसान हुआ है... केवल एक आदमी के कारण. आप ये ख़बर यहाँ और यहाँ पढ़ सकते हैं... है ना बड़ी ख़बर... पर मजे कि बात ये हैं कि इनवेस्टमेंट बैंकिंग से जुड़े हुए लोगो को ये कुछ ज्यादा अजीब नहीं लगा... जैसा कि लीमैन के चेयरमैन ने कहा ... 'मैं स्तम्भित नहीं हूँ, आजकल मुझे कुछ भी अजीब नहीं लगता... ' ।

अभी तक निक लिसन के कारनामे मुझे सबसे ज्यादा पसंद थे.... जिन्होंने अकेले ही बियरिंगस बैंक को दिवालिया कर दिया था... अब लगता है कि ये कहानी उसको पीछे छोड़ देगी। ऐसी बहुत सी कहानियाँ हैं और मैंने बहुत कुछ सोच रखा है, इनवेस्टमेंट बैंकिंग की जिंदगी के बारे में लिखने के लिए... पर समय का अभाव.... आज ऐसी खबर मिल गयी तो शुरुआत करनी पड़ गयी... ।
हिन्दी में ये खबर आप यहाँ पढ़ सकते हैं।
वैसे २० सबसे बडे ट्रेडिंग फ्रौड़ के बारे में यहाँ पढ़ सकते हैं।


~Abhishek Ojha~

Jan 22, 2008

विविधभारती और गानों की पसंद... ।

मोबाइल पर गाने सुनना मेरी आदत नहीं है। पर मेरे मोबाइल में कुछ गाने पड़े जरूर हैं। जब नया-नया मोबाइल लिया था तो कई सारे सॉफ्टवेयर, गेम्स, गाने और विडियो सब कुछ डाला था। पर एक सप्ताह के बाद सारा उत्साह ठंडा पड़ गया.... । अभी कल की ही बात है मेरे एक मित्र मेरे मोबाइल से खेल रहे थे... अचानक उन्होने पूछा

'अबे तुम भी विविध-भारती सुनते थे क्या?'
'क्यों?'
'विविध भारती के बिना ये गाने पसंद करना तो दूर, हमारी-तुम्हारी उम्र के लोगों के सुने हुए भी नहीं होते हैं... ! और साले तुम तो हद किये हुए हो, ये ब्लैक ऎंड व्हाइट विडियो तक रखे हो... लता, किशोर, रफी और मुकेश तक फिर भी ठीक है... यहाँ हेमंत कुमार और मन्ना डे भी दिख रहा है...'

'पूरा देखोगे तो के एल सहगल भी मिल जाएगा.... '

मेरे दोस्त के बात में सच्चाई तो थी फिर भी मैंने कहा:

'अरे भाई ऐसा कुछ नहीं है, अच्छे गाने तो सबको पसंद आते हैं... और मैंने जो भी गाना रखा है सब फेमस गाने हैं ! इसका विविध भारती से क्या लेना देना? '

'देखो भाई दो ही बाते हो सकती हैं, या तो तुम्हारे घर में पुराने गानों का बहुत बड़ा कलेक्सन है, या तुम विविध भारती सुनते थे, मुझे तो विविध भारती वाली बात ही सही लगती है... । और तुम जिन्हें अच्छे गाने कह रहे हो, कहीं बजा दो तो लोग पीटने लगेंगे... अच्छी पसंद के लिए अच्छे गाने सुनने को भी तो मिलने चाहिये, जा के किसी से पूछो ये गाने किसी ने सुने ही नहीं होंगे... ।'

'अच्छा चलो मान लिया... सुनता तो था।'

रात के १० बज रहे थे... मेरे मित्र ने उसी मोबाइल पर छायागीत बजा दिया... छायागीत बजता रह और विविधभारती पर चर्चा चलती रही... हवामहल, हेल्लो फरमाइस, बाइस्कोप की बातें,.... कमल शर्मा, लोकेंद्र शर्मा, यूनुस खान, निम्मी मिश्र, ममता सिंह ... और फिर आमीन सायानी... । आमीन सायानी का एक ही कार्यक्रम सुना है... 'संगीत के सितारे' वो भी विविधभारती के स्थानीय केन्द्र से आता था। पर एक कार्यक्रम तो बहुत होता है... एक एपिसोड भी उस आवाज़ को याद रखने के लिए काफी होता।

खैर चर्चा तो ख़त्म हो गयी पर उसके बाद मुझे ध्यान आया... और अगर आपने भी यहाँ तक पढा है तो एक बात ध्यान देने वाली है की पूरी चर्चा में 'थे' का ही इस्तेमाल हुआ है.... विविधभारती सुनते 'थे'... सुनते 'हो' क्यों नहीं? मैंने तो खूब सुना... डांट भी खाई, पर कल लगा कि अगर नहीं सुना होता तो बहुत कुछ खो दिया होता... खैर, मैंने तो २००२ में सुनना छोड़ दिया था... उसके बाद समय ही नहीं मिला कभी... मनोरंजन का मतलब बदल गया... समय का भी अभाव हो गया... पर क्या अब कोई विविधभारती सुनता ही नहीं? क्या कोई ये नहीं पूछता कि... विविधभारती सुनते हो क्या?


~Abhishek Ojha~

Jan 21, 2008

वो लोग ही कुछ और होते हैं ... (भाग II)

कुछ बातें, कुछ लोग, कुछ घटनाएं, कुछ यादें... ऐसी होती हैं जो हमेशा के लिए याद रह जाती हैं..... मैंने पहले एक ऐसी ही याद का वर्णन किया था... इस बार यह एक आदमी है - साधारण इंसान... साधारण काम... पर शायद इतना साधारण जो हम असाधारण लोग नहीं करते हैं। बात बर्ष २००५ की है... मैं अपने गर्मी की छुट्टियों में इन्टर्नशिप के लिए स्विटजरलैंड गया हुआ था । मैं एक प्रोफेसर के घर पर रुका हुआ था... प्रोफेसर साहब की बात फिर कभी.

अनजान देश - पहले दिन ऑफिस जाने के लिए मैंने बस और ट्रेन के टाइम टेबल का प्रिंट आउट लिया और निकल पड़ा ... ।  बस में बैठा तो देखा कि लोग बस में आते और एक कागज निकाल कर एक छोटी सी मशीन में ड़ाल देते ... एक हलकी सी खीच-खीच की आवाज़ आती... फिर लोग जाकर अपनी जगह पर बैठ जाते। मैं भी एक खाली सीट देखकर बैठ गया ... मुझसे किसी ने कुछ पूछा नहीं ना  ही मुझे कोई ऐसा आदमी दिखा जिसे पैसे दिए जाएँ। मैं थोडी देर वैसे ही बैठा रहा फिर सामने की सीट पर बैठे एक आदमी से पूछा:

-Excuse me, can you please tell me how to pay!

--You can pay to the driver, but only when bus stops... You cant pay while he is driving... are you new here?

-Yes, this is my first day here.

-- oh, okay. so where are You from?

- India, I am here for just three months, an intern at university.

-- That's terrific ! I am from UK. I have been to India for work couple of times - Ahmadabad and Delhi. Swiss is a pretty country, isn't it? Do You know that You will have to catch a train after this bus to reach the university?

- Yeah, I have schedule with me.

-- okay, where are you staying? why are you staying so far?

- Actually, I am staying with my guide at his home.

-- Okay. No problem. come with me, you can pay to the driver. Take a monthly pass. You must have observed people with passes... that machine is to validate the tickets.

......

बातें होती रही, मेरे पास केवल १०० फ्रैंक के नोट थे और बस का किराया ३.२०. पैसे उन्होने ही दिए. रेलवे स्टेशन आया... मैंने उन्हें थैंक यू बोला और ट्रेन के लिए टिकट काउंटर पर पंहुचा.  पता चला कि वो मेरे पीछे-पीछे काउंटर तक आ गए (वैसे ज़माना ऐसा है कि ऐसे शुभचिंतकों से डर भी लगने लगे)... मुझे जर्मन नहीं आती थी और काउंटर वाले को अंग्रेजी नहीं ।  उन्होने अनुवादक का काम किया और टिकट के अलावा और भी अनेकों जानकारी दे दी... कौन सा पास मेरे लिए अच्छा रहेगा, कौन सा सस्ता पड़ेगा, कौन-कौन सी घूमने की जगहें है, कौन से सुपर मार्केट में भारतीय खाना मिलेगा और कहाँ पर भारतीय दुकाने हैं... इत्यादी इत्यादी... फिर उन्होने मेरे प्रोफेसर का नंबर लिया और चले गए। आपको यहाँ ये भी बता दूं कि मेरे चक्कर में उनकी ट्रेन छुट गयी... और वो अगली ट्रेन से ही जा पाए। नंबर लेने का मतलब मुझे तब समझ आया जब मुझे कई भारतीय लोगो के फ़ोन आये... कब कहाँ क्रिकेट मैच है और कहाँ पर कौन से भारतीय सम्मेलन हो रहे हैं... सारी जानकारी मिल जाती थी ।

खैर अगले दिन फिर उनसे बस में ही मुलाकात हो गयी, एक ही दिन में मैंने पास भी ले लिया था, मैंने उन्हें फिर से थैंक यू कहा, और उनके पैसे वापस देने लगा। उन्होने इंकार कर दिया और जो बात कही उसी के चलते मैं ये पोस्ट लिख रहा हूँ... ।

अगर तुम मुझे वापस ही करना चाहते हो तो उनकी मदद करना जो तुम्हारी तरह अंजान जगहों पे जाते हैं ऐसे मौक़े बहुत मिलेंगे तुम्हे

अगले साल गर्मियों में मैं फिर से इंटर्नशिप करने गया ... वही बस... और फिर से एक दिन मुलाक़ात हो गयी... बहुत सारी बातें हुई... जिसका एक हिस्सा ये भी था....

-Hi, do You remember me, I am doing my second internship at same place and I am staying again with my professor...

-- oh Hi, good to see You again, BTW where is Your professor's house? come some time with him on dinner at my home... we will talk....

फिर पता चला कि उन्होने खुद मेरे प्रोफेसर से बात की और हम उनके घर भी गए, खाना भी खाया.... और बहुत सारी रोचक बातें भी हुई.... मेरी तरफ से मेरे प्रोफेसर ने भी उनको धन्यवाद दिया ... उस साधारण आदमी का नाम है... Steven Mike, शायद फिर कभी मुलाकात हो जाये. ।

~Abhishek Ojha~

Jan 18, 2008

व्हाट'स् योर हॉबी?

जुलाई २००२, हाल प्रांगण, आई आई टी कानपुर
चल खोल... ।
इतना सुनते ही बिना रुके फटाफट आवाज़ आती थीमेरा नाम 'एक्स' है... मेरे बाप का नाम ... 'वाय' ... भारतीय प्रोद्योगिकी संस्थान द्वारा आयोजित संयुक्त प्रवेश परीक्षा में मेरा अखिल भारतीय स्थान 'ज़ेड' हैमैं यहाँ '' विभाग में नामांकन के लिए आया हूँमैं 'बी' शहर से आया हूँमेरे शौक हैं... ।

हिन्दी में ये सब बोलना कईयों के लिए तो बहुत मुश्किल का काम था, पर एक बार रटने के बाद लोग बोल ही लेते थेसबसे ज्यादा दिक्कत दक्षिण भारतीयों को और वो भी डिपार्टमेन्ट का नाम बोलने में... कंप्यूटर साइंस को संगणक विज्ञान और मेकनिकल को यांत्रिकी अभियांत्रिकी, इलेक्ट्रिकल को विद्युत तक तो ठीक है पर धातु विज्ञान एवं धातुकर्म अभियांत्रिकी में लोग अटक जाते थे और फिर हर एक गलती पर गाली खाओ... । और फिर तर्क तो हो ही जाता था की ये गलत है... हिन्दी में ये नहीं कुछ और बोलते हैं ... ।

खैर यहाँ तक तो हो जाता था... पर बात आई होब्बिस की... । बहुत सोचने पर भी कुछ समझ में नहीं आता था ... और सामने वाले को तो बस गाली देने का बहाना चाहिऐफिर सुनाई पड़ा ... कुछ लोग बोल रहे थे ... हमारा शौक है खाना खाना ! कुछ ने कहा गाना गाना.... वगैरह वगैरहगाना तो हम कह नहीं सकते थे... सो खाना पर ट्राई किया... सामने वाले ने तुरत कहा अबे किसका सुनके बोल रहा है... खाना खाने का शौक है तो फिर एक पाव का शारीर क्यों है? चलो फिर हमने कहा सोना... । कितने घंटे सोता है? १० घंटे... तो इसे हॉबी कहते हैं मैं तो १२ घंटे सोता हूँचल तू ये ही बता की हॉबी किसे कहते हैं?

अब ये एक और समस्या खड़ी हुई....
जिसे हम खाली समय में करते हैं
.... अबे चुप खाली समय में तो मैं सोता हूँ, अपने घर फोन करता हूँ ... तो क्या ये हॉबी है?
जी .... मैं और बता रहा था अभी पूरा नहीं बोला पाया था, ... वो काम जो हम अक्सर करते हैं और जिसे करने में आनंद आता है
अब क्या-क्या कमेंट्स आते थे और क्या-क्या मतलब निकाले गए मैं आपको नहीं बता सकता.... मेरे समझ में ये नहीं आता था की सामने वालों को इतना कुछ कैसे आता हैहमने बताया हिन्दी की पुस्तके पढना, सिक्के एकत्रित करना, अखबार पढना, फिल्में देखना, घूमनाआप सोच रहे होंगे की चलो जान बच गयी... हाँ एक दो बार तो बची पर... ऐसे भी मौक़े आये...
अबे मिश्रा इसे हिन्दी पढ़ने का शौक है बे पूछ इससे कुछ... पाठ्यक्रम की कहानियो और कविताओं के अलावा प्रेमचंद तक ही हम संभाल पाते थे ... अखबार पढना तो हॉबी होती ही नहीं और फिल्मों के तो ऐसे उस्ताद थे कि आप ही बोलें तो बेहतर हैसिक्के वाली बात थोडी झूठ बोल के निकल जाती थी... और घूमने में फिर ये जाता था की कहाँ-कहाँ घूम के आये हो? बस ख़त्म बात .... ! खैर वो वक्त निकल गया और अगले साल हम भी लोगो को चुप कर देते थे... ।
आपको बता दूं कि ये रैगिंग के दृश्य थे... ।

पर एक बात तो साफ हो गयी कि कुछ होब्बिस तो होने ही चाहियेसोचना शुरू किया कि मैं क्या करता हूँ ... जिस काम को करते समय मुझे बाक़ी संसार का ध्यान रहे.... ऐसा क्या है जो मैं घंटो कर सकता हूँ... ऐसा क्या है जो करते समय दिमाग कुछ और सोचे यानी फ्री हो जाये सारी चिंताओं से...।

अंततः कुछ काम ऐसे मिल गए और अब मैं कह सकता हूँ कि मेरे शौक क्या हैंपहला तो बहुत ही अजीब है... समुद्र के किनारे बैठना... पता नहीं इसे हॉबी कह सकते हैं कि नहीं पर हाँ इतना मैं जानता हूँ कि मैं समुद्र के किनारे बैठकर लहरों को देखते हुए सब कुछ भूल जाता हूँ... । यही एक काम है जिसमें मेरा दिमाग इधर-उधर नहीं भटकता... बिल्कुल फ्री... । एक एकांत किनारे पर मैं घंटो अकेला बैठ सकता हूँ
दूसरा भी कुछ अजीब सा ही है... किताबों की दुकान .... बस एक किताबों कि दुकान या लाइब्ररी .... । अलग अलग सेक्शन्स और नयी पुरानी किताबें... । किताबें पढना भी अच्छा लगता है मुझे, पर ये देखना कि लोग कैसी-कैसी किताबें लिख जाते हैं... और किसने किस विषय पर कौन सी किताब लिखी है... ज्यादा अच्छा लगता हैऔर फिर घूमना ... तैरना... फिल्में देखना... पर तो सारी मूविस अच्छी लगती हैं ना सारी किताबे... । खाना बनाना मुझे अच्छा लगता है... ।

पर क्या अच्छा लगने को ही हॉबी कहते हैं?

~Abhishek Ojha~

Jan 3, 2008

धन का क्या करें?


मुझे नहीं पता मैं ये क्यों लिख रहा हूँ। मैं कोई उपदेशक नहीं हूँ, न ही मैं कोई बहुत अनुभवी इंसान हूँ... कुल मिला के अभी २४ बसंत गुजरे हैं जीवन के... । और मजे की बात ये है की मैं जो यहाँ लिख रहा हूँ, मैं भी वो नहीं करता.... हाँ जब मैंने पहली बार पढा तो मुझे अच्छा लगा था, और इतना अच्छा लगा था की मैंने इसे अपनी डायरी में लिख लिया था। शायद कभी इसे आजमाने की कोशिश भी करूं, पर हाँ लिखने का उद्देश्य यही है कि जो मुझे अच्छा लगा शायद किसी और को भी अच्छा लग जाये।

आपको जरा ये भी बता दूं कि ये लाइनें मुझे मिली कहाँ से... इस बार गर्मी की छुट्टियों में मैंने कुछ पुस्तकें पढी ... उन्ही पुस्तकों में से एक है... श्रीमद्भागवत महापुराण। ये उसी पुस्तक में है...

जब राजा बलि ने सब कुछ दान करने का निश्चय कर लिया तो शुक्राचार्य ने उन्हें बहुत सी बाते समझाई... ये बाते भी उनमें एक थी। राजा बलि ने शुक्राचार्य की ये बातें तो नहीं मानी, परन्तु उनकी कई बाते नीतिसंगत लगती हैं।

हाँ तो शुक्राचार्य के अनुसार धन को ५ हिस्सों में बाँट देना चाहिए और फिर उनका उपयोग इन कार्यों के लिए करना चहिये:

१ धर्म - धर्म में मुख्यतः परोपकार ।
२ यश - ऐसे काम में लगाना चाहिये जिससे खुद के यश में वृद्धि हो।
३ अभिवृद्धि - आज की भाषा में कहें तो इनवेस्टमेंट।
४ भोग - धन को पड़ा रहने देने से बेहतर है की उसका इस्तेमाल किया जाय।
५ स्वजन - अपने परिवार और जान-पहचान के जो लोग हैं, उनकी जरूरतों में लगाना चहिये।

हिस्सों में विभाजन के अनुपात का कहीं वर्णन नहीं मिला पर वो आप अपने हिसाब से कर सकते हैं। कहाँ कितना खर्च करना है ये आपकी परिस्थिति पे निर्भर करता है। वैसे ये विभाजन इतना व्यापक है कि हर तरह का किया जाने वाला खर्च कहीं न कहीं इसमें आ ही जाएगा। वैसे भी चाणक्य के अनुसार भी धन की जो ३ गतियां होती हैं: 'दान, भोग और नाश' उनमें यदि पहला और दूसरा नहीं किया जाय तो धन की तीसरी गति होती हैं अर्थात नाश हो जाता है । पर शुक्राचार्य का विभाजन मुझे ज्यादा व्यापक और व्यवहारिक लगता है ।


~Abhishek Ojha~