Sep 24, 2008

कोंकण यात्रा (भाग... III)

कोंकण और पुणे के आस-पास बिताये गए कुछ सप्ताहांत की झलकियों की तीसरी कड़ी में... हरिहरेश्वर और श्रीवर्धन.

इससे पहले अलीबाग और दिवेआगर हो चुका है... दिवेआगर से श्रीवर्धन और फिर हरिहरेश्वर कुछ ३०-३५ किलोमीटर की यात्रा है. इस यात्रा की सबसे खुबसूरत बात ये है की ये लगभग पूरे समय समुद्र (अरब सागर) के किनारे-किनारे चलता है.  बस दाहिनी तरफ़ देखते रहो और खुबसूरत समुद्री नज़ारा दीखता रहता है.PICT0516 ये नजारे यात्रा को यादगार बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ते. बीच में मछुवारों के गाँव से गुजरते समय बस थोडी देर के लिए नज़ारा छुटता है और इसी थोडी देर में ही मछली की तीखी गंध भी नाकों में प्रवेश करती है. तटीय क्षेत्र होने के कारण मुख्य यहाँ के जीवन-यापन पर मछ्ली और नारियल का बहुत बड़ा योगदान दिखना स्वाभाविक ही है.

अगर आप धर्म में रूचि रखते है तो कुछ प्रसिद्द मन्दिर भी हैं इस क्षेत्र में.

श्रीवर्धन का समुद्रतट है तो सुंदर ! पर इस क्षेत्र के अन्य समुद्र तटों को देखने के बाद कुछ ख़ास प्रतीत नहीं होता. पर हरिहरेश्वर पहुचने के बाद चट्टान वाला तट... आपको मोहित कर लेगा. अगर आप प्राकृतिक संरचना और नजारों के शौकीन हैं तो फिर निराशा का सवाल ही नहीं उठता. हरिहरेश्वर का प्रसिद्द 'काल भैरव' शंकर भगवान् का मन्दिर है. मन्दिर के समीप प्रदक्षिणा का मार्ग बना हुआ है. PICT0571 धार्मिक भावना हो न हो अगर एक बार आप वहां तक गए हैं और इस मार्ग पर नहीं गए तो बहुत कुछ छुट जायेगा... एक तरफ़ अरब सागर और दूसरी तरफ़ लहरों से कटे-छंटे चट्टान...  प्रकृति के खुबसूरत नमूने हैं. दो खड़े चट्टानों के बीच बनी सीढी से उतरना और फिर तट तक पहुचना... अगर ज्वार का समय हो तो आप चट्टानों से टकराती हुई लहरों को भी देख सकते हैं. पर पत्थरों की संरचना भी अपने आप में बहुत खुबसूरत है. ऐसी मान्यता है की अगस्त मुनि का आश्रम यहाँ हुआ करता था.

इस मन्दिर के समीप ही महाराष्ट्र पर्यटन विभाग का रिसॉर्ट और एक अन्य खुबसूरत समुद्री तट है. यहाँ से चट्टानयुक्त और बालू दोनों के ही तट समीप ही हैं. एक-आध छोटे वाटर स्पोर्ट्स की भी व्यवस्था हैं.

PICT0524

जब कुछ नहीं ... तो यात्रा वृतांत. अगली बार जब कुछ ठेलने को नहीं मिला तो कोंकण यात्रा में आगे चलेंगे... ! बड़ी मजेदार जगहें हैं.

(ये ठीक ऊपर वाली और पहली तस्वीर दिवेआगर और श्रीवर्धन के बीच के मार्ग पर ली गई थी और ऊपर से दूसरी तस्वीर हरिहरेश्वर के समुद्र के किनारे के चट्टानों की है. नीचे के ये सारे चित्र हरिहरेश्वर के हैं. )

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फिलहाल मैं कल से १५ दिनों की छुट्टी पर घर जा रहा हूँ तो तब तक के लिए इधर से भी छुट्टी !


एक पखवाडे के लिए बिलागरी बंद... बस ईमेल और फ़ोन चालु.

Sep 21, 2008

ब्लॉगरी और माडर्न आर्ट

एक साधारण इंसान कला के नाम पर खुबसूरत पेंटिंग और मूर्ति तक ही जानता है। पहली बार जब किसी माडर्न आर्ट के एक विशाल संग्रहालय में अगर चला जाय... तो क्या होगा? ...होगा क्या, होता है !


'क्या है ये?'

'इसे आर्ट कहते हैं?'

'उफ्फ़... ये देखो ! हद ही है... कुछ भाई पोत के टांग दो !'

'अरे पोत के ही क्यों, कुछ भी ठोंक दो कहीं भी... उसमें दो-चार चीजें चिपका दो, कुछ बाँध के... कचरे की पेटी से निकाल के कुछ छिड़क दो... ! भई ऐसा तो हमारे चौराहे पर एक पागल पोटली बांधे खड़ा रहता है... कभी-कभी अपने आपको ट्रैफिक पुलिस समझ के ट्रैफिक कंट्रोल भी करने लगता है... इतनी मेहनत करने से अच्छा तो उसी को यहाँ बैठा देते, कुछ भला हो जाता बेचारे का !'

'उधर देखो, कीडा है या टैंक? मुझे तो गधे के ऊपर आलू लग रहा है...'
'चुप करो ना तो गधा है ना आलू... बन्दर के दिमाग में टमाटर के बीज अंकुरित हो रहे हैं !'

अब ऐसे चित्र का विवरण अगर पढ़ ले तो रही सही कसर भी पूरी हो जाती है... पता चला की ये पेंटिंग दिमाग की २१वीं और तनाव की २८वीं दशा के साथ-साथ... अब छोडो भी, इसके आगे पढने की हिम्मत ही कहाँ बचेगी बेचारे की!

... ये सब देखते-देखते अचानक सोच आती है... 'अरे ये तो मैं भी कर सकता हूँ!'

'पाँच लोगो के अंगूठे का छाप ले लूँगा... चलो अलग-अलग रंग में ! एक कागज पर दूध वाले की भैंस के पुँछ की छाप वो भी जब कीचड में सनी हो... अब ये लोग तो आर्ट के नाम पर किसी को नंगा कर के भी छाप ले लेते हैं... क्या फर्क पड़ता है उस छाप और भैंस की छाप में... दिखेगा तो एक जैसा ही !... होली के दिन एक कैनवास में चेहरा पोंछ लो... होली का इंतज़ार करने भी क्या जरुरत, एक बच्चे को खेलने के लिए ढेर सारा रंग दे दो और कैनवास... बीच में उसी पर पेशाब कर दे तो और अच्छा ! बच्चा छोटा होना चाहिए नहीं तो कुछ मतलब निकल आया तो बाकी जो कुछ भी हो... माडर्न आर्ट कहाँ रह पायेगा... एनसिएंट नहीं तो मेडिएवल आर्ट तो हो ही जायेगा !'

ये सब होते-होते आ जाता है असली विचार... 'बना तो मैं लूँगा ही, पचासों आईडिया हैं... लेकिन साला देखेगे कौन? प्रसंशा कौन करेगा? ये साले बड़े-बड़े चित्रकार, लेखक यही काम करें तो माडर्न आर्ट... हम करें तो कचरा ! इनके बकवास को लाखों-करोड़ों, हम कुछ अच्छा भी बनाएं तो गाली... धत साला पगला गया है... पता नहीं क्या पोत रहा है !... चलो कोई बात नहीं हम भी एक बार किसी तरह प्रसिद्द हो जाएँ फिर बनायेंगे माडर्न आर्ट... अरे चलो अभी बना लेते हैं... पता नहीं प्रसिद्द हो जायेंगे तब समय मिले न मिले। जब प्रसिद्द हो जायेंगे तब यही ठेल देंगे।'

यही सोचते हुए संग्रहालय से बाहर आ जाता है... बाहर आने के कुछ देर तक और कभी-कभी कुछ दिनों तक (निर्भर करता है की कितनी देर तक और कितने ध्यान से संग्रहालय में समय बिताया गया) उसे हर चीज में माडर्न आर्ट ही दीखता है।

और अब ब्लॉगरी... अरे धत तरे की... यही तो होता है।

एक नए, साधारण छोटे ब्लोगर को ब्लॉग जगत माडर्न आर्ट की तरह दीखता है... संग्रहालय की एक-एक बात से जोड़ लीजिये सब कुछ मिल जायेगा यहाँ भी। दो लाइन की तुकबंदी पता नहीं चले की कविता है या गद्य और लोग कह जाते हैं...

'आप महादेवी वर्मा के पाँचवे और निराला के बाइसवें अवतार की तरह लिखते हैं...'


क्या सोच के लिखा (वैसे ब्लॉग पर लिखने के पहले सोचना भी होता है क्या?) और लोग क्या समझ गए ! (टिपण्णी करने से पहले पोस्ट समझाना भी होता है क्या?)।

बेचारे छोटे ब्लोगर भी वो सब लिखते हैं जो बड़े... लेकिन वही माडर्न आर्ट वाली बात... एक बार प्रसिद्द हो जाओ फिर कुछ भी लिखो... 'वाह !'

वाह मिले न मिले लोग ध्यान से पढ़ते तो हैं... इसकी तो गारंटी होती है। होता तो तब भी माडर्न आर्ट ही है पर अब लोग दिमाग पर जोर देकर समझने की कोशिश करते हैं... छोटे का क्या? पढता तो कोई नहीं. बिना पढ़े कचरा और मान लिया जाता है... माल तो वही होता है।

छोटा ब्लोगर सोचता है चलो अभी लिखते जाओ... एक बार लोकप्रिय होने दो... फिर यही पोस्ट वापिस ठेला करूँगा... तब तो लोग पढेंगे ही, और पता नहीं तब समय मिले ना मिले !


1. आप सोचिये... आप पायेंगे की मॉडर्न आर्ट और ब्लॉग ऐसे समुच्चय हैं जिनके बीच एकैक फलन है... (There exists a one to one mapping between Modern art and blogging !) मैं चला... भैंस के पुँछ की छाप लेने :-)

2. अगर कोई छोटा-बड़ा (छोटी-बड़ी), मोटा-पतला (मोटी-पतली), ब्लोगर/नॉन-ब्लोगर इस पोस्ट से आहत हो तो क्षमा... मेरी गलती नहीं मॉडर्न आर्ट के संग्रहालय और ब्लॉग दोनों का संयुक्त असर है.



~Abhishek Ojha~

Sep 17, 2008

सेक्स है क्या?

मार्च २००८, पुणे में एक ढाबा:

ढाबे में बैठा कुछ मेसेज पढ़ रहा था, कुछ डिलीट कर रहा था... सामने मेरे मित्र मेन्यु छान रहे थे. १०-११ साल का बच्चा पानी लेकर आया और बड़ी उत्सुकता से मेरे मोबाइल में झांकने लगा... मैंने भी मुस्कुरा दिया। उसे भी थोडी आत्मीयता लगी... और उसने पूछ लिया 'चित्र है क्या?'
मैंने कहा हाँ हैं... मैंने उसे कुछ इधर-उधर की खिंची हुई तस्वीर दिखाई... फिर उसने पूछा: 'गाना है क्या?'
मैंने गाना भी बजा दिया... २ मिनट में बोला: 'विडियो है क्या?'
चलो भाई विडियो भी सोचा चला ही देते हैं... पहला ही गाना 'कजरारे' दिखा... पता नहीं क्या दिमाग में आया और मैंने उसे न चला कर पंकज उधास का एक गाना है 'और आहिस्ता कीजिये बातें' का विडियो चला दिया. बच्चा बहुत खुश था मैं भी खाने का इंतजार कर रहा था... गाना चलाकर रख दिया नीचे. आपस में मैं और मेरे मित्र कुछ बात भी कर रहे थे. फिर अगली मांग आप समझ ही गए होंगे... थोड़ा धीरे से मुस्कुराते हुए बोला: 'सेक्स है क्या?'
मैं तो कूल हो गया... बस यही कहते हैं हम. कूल हो जाना... मैं कुछ बोला ही नहीं! कहाँ थोडी देर पहले कजरारे बजाने में सोच रहा था...

मेरे मित्र ने बस इतना ही कहा 'क्या रे छोटू क्या बोला? यही सब देखता है !'
मैंने खाना खाया... काफ़ी देर तक चुप ही रहा... मेरे मित्र ने भी कुछ नहीं कहा बस इतना ही कहा 'क्या कर सकते हो यार ऐसी ही दुनिया है... हमें लगता है की हमें ही सबसे ज्यादा पता हैं गरीबी और उनकी समस्याओं को !' बीच में एक बड़ा लड़का आया तो उससे बस पूछा की 'उसकी उम्र क्या होगी?' उसने अलग ही सवाल पूछ लिया की 'क्यों क्या हुआ? कुछ बोला क्या?'

किससे क्या कहें भाई? उसकी क्या गलती है ! १० साल की उम्र होगी... एक तो वहां काम करता है कितनी मजबूरी होगी ये तो वही जानता होगा. हम कुछ कहें तो ज्यादा से ज्यादा पहले बाल-मजदूरी कह के उसका काम बंद हो सकता है ! बस ! भले कोई ये सोचे न सोचे... उसके बाद वो क्या करेगा.

गलती तो उसकी है जिसने बताया है उसे... किसी ने तो बताया है की मोबाइल में ये होता है... बताया ही क्यों दिखाया भी होगा... नहीं तो ऐसे कैसे बोल सकता है वो किसी से ! उन लोगों से कैसे निपट सकते हैं ! इस घटना पर और लिखें भी तो क्या?

~Abhishek Ojha~

Sep 14, 2008

कृष्ण की हार और धमाकों से लाभ

क्या कृष्ण इस युग में हार जाते?

कुछ दिनों पहले ज्ञानजी ने एक सवाल उठाया था: 'दुर्योधन इस युग में आया तो विजयी होगा क्या?' पता नहीं क्यों ये सवाल कुलबुलाता रहा दिमाग में। पोस्ट में क्या था वो ठीक से याद नहीं रहा और फिर देख के आया, पर ये सवाल याद रहा. ऐसे कई सवाल पढ़ के दो मिनट भी दिमाग में नहीं रह पाते लेकिन ये दिमाग से निकल नहीं पाया। उनके सवाल का जवाब तो मन ने तैयार कर लिया कि हाँ भाई विजयी हो सकता है...

लेकिन किससे? कृष्ण से ! ये सम्भव नहीं लगता... मेरा तर्क कहता है की दुर्योधन विजयी हो सकता है लेकिन कृष्ण नहीं हार सकते और आमने-सामने की बात हो तो जीत तो कृष्ण की होनी ही है... युग कोई भी हो।

हम अक्सर कहते/सुनते हैं... वो ज़माना ऐसा था, अब ऐसा नहीं हो सकता। उस जमाने में लोगों के पास बहुत कुछ करने को था, अब क्या करें? हमारे कई मित्र कहते हैं 'गाँधी का समय ही ऐसा था... बाकी देशवाशियों के पास भी कुछ कर-गुजरने वाली बात थी। गांधी आज के युग में होते तो कुछ ना कर पाते ! और हमारे पास वैसा कुछ करने को है भी नहीं। भगत सिंह के पास लड़ने को अंग्रेज थे हम किससे लड़ें?'

एक फॉरवर्ड होते हुए एक ईमेल आती है... मुझे पूरी मिल नहीं पायी पर लाईने कुछ ऐसी होती हैं:

हे कृष्ण तुने कंस को मारा, लादेन को पकड़ के तो दिखा।
हे कृष्ण तुने रास लीला की कलयुग की एक लड़की तो पटा के दिखा।

और भी लाईने होती है (शायद एक लाइन होती है की सॉफ्टवेर के कोड लिख के दिखा) पर याद नहीं। ये तो मजाक की बात है पर अगर इस मजाक पर ही सोचा जाय तो क्या ऐसा है की कृष्ण से ये काम नहीं होते? अगर देखा जाय तो उस समय और इस समय में कोई फर्क नहीं है... हर युग में बात वही होती है। पर जो जीतते हैं वो किसी भी युग में जीतेंगे।

मेरे मित्र कहते हैं की अब शोध करने को क्या बचा है न्यूटन ही सब लिख गए, उनके जमाने में कुछ नहीं था तो बैठ के लिखते गए... आज होते तो क्या कर पाते? बात में दम तो है लेकिन उनके पहले भी तो लोग थे और बाद में भी हुए पर आइन्स्टीन के पहले किसी ने रिलेटिविटी क्यों नहीं सोचा? रामायण तो तब भी था पर तुलसी बाबा का एक बार पढ़ के तो देखो ! पहले से ही सब कुछ था पर क्या कुछ ढूंढ़ गए.

अलग-अलग बातें हैं... बिल्कुल बकवास सरीखी. पर जुड़ कर मतलब यही निकलता है... कृष्ण, न्यूटन, तुलसी, गाँधी या आइंस्टाइन तब भी विजयी हुए आज भी विजयी होंगे। मुझे तो यही लगता है की कृष्ण आज होते तो जींस पहनकर रासलीला कर लेते... मतलब ये की आज भी वो सब कर जाते जो उन्हें करना होता.

ये बातें तो शाश्वत है की आज का युग ख़राब हो गया है पहले बहुत अच्छा था। क्या हमारे बाप-दादा की जवानी में उनके बाप-दादा नहीं कहा करते थे: 'अंधेर गया है हमारे जमाने में तो... ' वही बात आज भी है, ज़माना उसी गति से बदलता रहता है।

अंधेर हर युग में होता रहा है होता रहेगा... पर विजयी होने वाले तो विजयी होते ही रहेंगे।





दिल्ली धमाको से आपको क्या मिला?

इनको तो मुंह माँगा मिला:

मीडिया को: ब्रेकिंग न्यूज़।
नेता को: एक और मुद्दा।
कचरे को: सिक्यूरिटी गार्ड।
ब्लोग्गर को: एक और पोस्ट।
नौकरशाह को: लिखने को एक भाषण और एक जांच कमिटी की सदस्यता।
पुलिस को: बहुत दिनों के बाद काम।
मोबाइल कंपनी को: कॉल में वृद्धि।
जनता को: आदत।
घायलों को: मुआवजा।

सुना है जिंदगी तेजी से सामान्य हो रही है... अब तो रोज़ का नाटक है भूखों तो मर नहीं सकते, क्या करें !

पर आप ही देखिये सब बाहर से दुखी लेकिन अन्दर से खुश हैं... बस मृतकों को कुछ नहीं मिला बाकी सबको कुछ ना कुछ मिला है... आपको क्या मिला?

~Abhishek Ojha~

Sep 11, 2008

अच्छा या बुरा ?

अच्छा बुरा तो कुछ नहीं होता... जो किसी के लिए अच्छा वही किसी के लिए बहुत बुरा... या फिर जो कभी अच्छा होता है वही कभी बुरा हो जाता है । सब अवस्था पर निर्भर करता है (मुझे पता है आप क्या सोच रहे हैं यही ना की साले को सापेक्षता के कीडे ने काट खाया है पिछली दो पोस्ट से यही गाये जा रहा है) आपका सोचना सही भी है लेकिन सापेक्षता के कीडे का जहर उतर ही रहा था की एक मोहतरमा से फोन पर बात हो गई !

कुछ यूँ:

पिछले दिनों एक महीने से भी ज्यादा समय के बाद फोन चालु किया तो एक संदेश आया 'थैंक्स !' ... वो भी एक अज्ञात नंबर से। कई लोगों की शिकायत थी तो कई जगह फोन करना ही प्राथमिकता रही और इस सिलिसिले में वो संदेश भूल ही गया। अगले दिन जब फिर उसी नंबर से वही 'थैंक्स' का संदेश आया तो उत्सुकता होना स्वाभाविक था।

हमने घंटी बजा दी और उधर से जो आवाज आई वो जानी पहचानी थी... फिर भी हमने पूछ लिया 'कौन?'

ये वही मोहतरमा हैं जिनका इस साल का 'वैलेंटाइन डे' मैंने बिगाड़ दिया था। मैं ठहरा आदम बाबा के जमाने के ख़याल वाला मेरे लिए उस दिन का क्या महत्तव? पर जब वो फूट-फूट कर रोई थी तो मुझे लगा था की सच में कुछ गड़बड़ है। मैंने उनका दिल तोडा था... किसी तरह समझा पाया था कि देखो बिना किसी को देखे फोन पर ही ऐसे नहीं बोल देते... अभी तुम्हारी पढ़ाई करने की उम्र है... मन लगाके पढ़ाई करो। और तुम्हारे कॉलेज में भी बहुत अच्छे-अच्छे लड़के होंगे, जिंदगी में बहुत लोग मिलेंगे... ब्ला-ब्ला-ब्ला...! कुल मिला के मतलब यही था की अब माफ़ करो आज से फ़ोन मत करना, मैं तो करूँगा ही नहीं... बाकी पढ़ाई में मन लगाओ !

पर ये मतलब मैं समझ रहा हूँ आप भी शायद समझ रहे हों... पर वो कहाँ कुछ समझता है जिसे इश्क हो जाता है ! खैर मैंने पुछा की ये तो बता दो की थैंक्स किस बात के लिए... उन्होंने बताया की मेरे कहने पर उन्होंने सच में पढ़ाई कर ली और इस बार उनके कैरियर के सबसे अच्छे अंक आए हैं। जब से उनके अच्छे अंक आए हैं तब से वो मुझे फोन करने की कोशिश कर रही थी... और इधर निरंतर फोन बंद !... किसी सोर्स से पता चला की अभी ये कुछ दिनों तक ऐसा ही रहेगा तो उन्होंने ठान लिया कि रोज़ एक संदेश भेजेंगी !

'पर मुझे तो बस दो ही मेसेज मिले?'... मेरी अज्ञानता पर थोड़ा मुस्कुराई और बोली: 'किस जमाने के आदमी हो... मेसेज २४ घंटे तक अगर नहीं पहुचे तो डिलीट हो जाता है !' चलिए ये भी जानकारी मिल गई... हम अपने आपको बहुत हीरो समझते हैं पर मोबाइल के मामले में अभी भी पोल खुल ही जाती है :( ... किस जमाने का आदमी ! खैर ये सब फिर कभी...

फिलहाल ये वाकया जब बकलमखुद में आया था तो कई लोगों का विचार था कि मैंने किसी कन्या का दिल तोड़कर अच्छा नहीं किया ! हाँ ये तो मुझे भी पता था... और फरवरी से लेकर इस फोन वाली घटना तक कभी-कभी बुरा भी लगता था। दिमाग में ये बात भी आती थी कि बद्दुआ लगी है... अब इतनी आसानी से लड़की ना मिलनी भाई ! पर अब बद्दुआ खत्म ! और बहार का इंतज़ार... वैसे तो हमेशा रहता है लेकिन बद्दुआ वाली बात अब दिमाग में नहीं आएगी... क्या अभी भी आपको लगता है की मैंने ग़लत किया था?

ग़लत सही क्या ? सब सापेक्ष है... निर्भर करता है कि देखने वाला किस फ्रेम में बैठा है ! फिर भी आपका फ्रेम क्या कहता है?

Sep 7, 2008

सब कुछ सापेक्ष है... (भाग २)

पिछले पोस्ट थोडी फंडामय थी... इसमें शायद उतने फंडे नहीं आ पायेंगे. शाकाहार-मांसाहार तो छोड़ ही देते हैं। ऐसे ही सापेक्षता के उदहारण भरे पड़े हैं.

अब देखिये एक बार बहुत दिनों के बाद रीडर खोला तो पता चला की अपठित लेखों की संख्या ५०० पार कर गई है। लगा की सबको एक साथ 'मार्क ऐज रीड' कर दूँ। पर जैसे ही न्यूज़ और सम्पादकीय फीड को 'मार्क ऐज रीड' किया तो लगा कि अब तो बहुत कम हो गया... कम तो तब भी नहीं हुआ था लेकिन जब खोला था, तब की तुलना में कम था तो तय हुआ की पढ़ लूँगा... वैसे इसमें क्या है... कम-ज्यादा तो तुलनात्मक होता ही है ! पर ये तो तय हुआ की सब तुलनात्मक है... चाहे धनी-गरीब, पाप-पुण्य, सच-झूठ, परीक्षा में प्राप्त अंक, वेतन या फिर रीडर में अपठित लेख ! सब पर बाबा आइंस्टाइन का सापेक्षता सिद्धांत लगता है... और ये बातें निर्भर करती हैं आस पास के परिवेश और अवस्था पर !

प्यार (या दया) और इर्ष्या में भी सापेक्षता है भाई... वही आदमी जो दया करता है अचानक उसी अवस्था में अगर कुछ बदल जाय तो इर्ष्या करने लगता है। अभी २ साल पहले हम विद्यार्थी थे तो यात्रा में लोगों की नज़र ऐसी थी... 'अच्छा बेटा बाहर पढ़ाई के काम से जा रहे हो? कहाँ रहोगे... अच्छा-अच्छा ! बहुत कुछ अच्छा और बेटा से ही शुरू और ख़त्म होता था। अब वही लोग बात तो छोडिये ऐसे देखते हैं... कि ये साले बच्चे बिजनेस क्लास में क्या कर रहे हैं? होंगे किसी अमीर के साहबजादे... अरे ! हम वही मेहनती और होनहार हुआ करते थे... इतना जल्दी ही...! तब की तरह आज भी पूछ लो भाई कि पैसे कौन देगा, तब भी कोई और देता था अब भी कोई और देता है, बस क्लास ही तो बदला है ! सब सापेक्ष है !

अच्छा एक और बात ये शाश्वत लाइन आप भी इस्तेमाल करते होंगे: 'वो भी क्या दिन थे !'
क्या दिन थे? कभी-कभी तो मन करता है की ख़ुद को बोलूँ... वो भी कोई दिन थे... फटेहाल !, आज हीरो बन रहे हो तो बन लो ! वो दिन थे तब तो आज वाले दिन का इन्तजार था... आज लगता है वो दिन ही अच्छे थे ! ये कमाल की बात क्यों? पता नहीं पर मेरे साथ भी थोड़ा-बहुत ऐसा है... कभी लगता है की अब साइकिल चलाने वाला मजा नहीं आ सकता... घंटो किसी पहाडी के ऊपर बैठने का काम अब नहीं हो सकता, कुछ ऐसे रिश्ते... छोटी-छोटी बातों पर बोरे भर कर मिलने वाली खुशी... अब शायद वो बोरा छोटा होता जा रहा है ! जेब में बहुत कम पैसों क साथ फ्री के पास पर घुमने का मज़ा... पर तब तो लगता था की ये कर लूँगा तो मजा आ जायेगा...
पर क्या करोगे भाई... फ्रेम बदलता है तो सापेक्षता के हिसाब से, मायने भी तो बदल जाते हैं! बचपन में सबको लगता है की दाढी बनाने में बड़ा मज़ा आता होगा... बड़ा होके भी बहुत लोगो को आता होगा... मुझे तो नहीं !

आप पहाडी पर चढ़ते जाओ नीचे से तो यही लगता है की उस ऊंचाई तक ही जाना है... वहां जाने पर पता चला कि अभी तो शुरुआत ही है... दुनिया तो ऊंचाई के साथ दिखनी शुरू होती है... बस चढ़ते जाओ... नई ऊंचाई, नई दुनिया। पर साथ में ये अनुभूति भी होती है की नीचे जो छूट रहा है वो फिर नहीं मिलना, उनमें यादें होती है... ऊपर से जो हिस्सा जितना धुंधला दीखता है उतना ही खुबसूरत लगता है... शायद इसलिए की उसकी बारीकियां वहां से नहीं दिखती... अब पहाड़ से नीचे के खुबसूरत झील ही दिखाई देते हैं... कांटे कम ही दिखाई देते हैं! अगर दिखाई देते भी हैं तो तुलना की बात है... आप कितनी ऊंचाई पर हो और कितने कांटे चुभे थे रास्ते में !

~Abhishek Ojha~

Sep 4, 2008

सब कुछ सापेक्ष है... (भाग १ )

मच्छर हत्या से मांसाहार समर्थन तक:

अगर आपको लगे की लम्बी पोस्ट है तो इस डब्बे में बंद लाइनों को छोड़कर सीधे उसके नीचे की लाइनों पर पहुच जाइए। उसके पहले तो बस ये यात्रा है जिससे इस पोस्ट की उत्पति हुई। समय और अवस्था के हिसाब से चीजों के मतलब बदलते रहते हैं ...

दृश्य १: (सी/१३३, हॉल २, आईआईटी कानपुर): मच्छर हत्या !

'आज ओझा ने मर्डर कर दिया !'
'किसका किया बे? इसकी औकात है?'
'मच्छर मारा होगा !'
'हाँ तुझे कैसा पता?'
'इससे ज्यादा ये क्या मारेगा ... '

कई बार ऐसा होता... मुर्गा, दारु के लिए कई बार चुनौती दी जाती. और हर बार मैं हार स्वीकार कर लेता...
'नहीं मारना चाहिए यार ये भी तो जीव है'

फिर लोग मच्छर मारने के फायदे गिनाते... मैं जीव हत्या का मामूली तर्क ही दे पाता. खैर धीरे-धीरे एक-दो सालों में इतना तो बदल ही गया की कोई बगल में कितना भी मुर्गा नोंच के खाता,मुझे दिक्कत होनी बंद हो गई.

दृश्य २: (शाकाहारी स्विस प्रोफेसर) : छूने में क्या समस्या हो सकती है?

एक बहुत अच्छे प्रोफेसर दोस्त हैं (दोस्त ही कहना ज्यादा उचित है) वो 'लगभग शाकाहारी' बने थे जब तक मैं उनका मेहमान रहा... शायद बाद में भी वैसे ही रहने लगे हों. पर मैंने पूछना कभी उचित नहीं समझा. हाँ मछली को कभी-कभी शाकाहार का हिस्सा मानते.
एक दिन हम साथ खाना खा रहे थे, उनके प्लेट में मछली, मेरे में सब्जी... मेरा खाना निकालने के बाद उन्होंने उसी चमचे से मछली भी निकाल ली. अब उन्होंने मुझे दुबारा सब्जी देने की बात की तो मैंने मना कर दिया (वही... आज भूख नहीं है ! भूख लगी हो तो या कहना बड़ा कठिन काम होता है !). कारण ये था की उसी चमचे से निकाली हुई सब्जी शायद मैं न खा पाता. ये बात अलग है की मैंने उन्हें ये बात नहीं बताई... ऐसा नहीं की उन्हें मेरा शाकाहारी होना पसंद नहीं पर मुझे लगा की उनके लिए ये समझ पाना थोड़ा मुश्किल होगा की छूने से क्या समस्या आ सकती है ! बात भी सही है... जब तक दिमाग में कीडा न हो समस्या होनी भी नहीं चाहिए ।

दृश्य ३: (हाँगकाँग, एक किराना दूकान): पड़ गए बीमार !

साँप, बिच्छु, चमगादड़, गीदड़, केंकडा, चींटी, खटमल, जूं, मधुमक्खी, कुत्ता, बिल्ली, कछुवा, घड़ियाल... बस जो नहीं भी सोच सकते वो सब बिकता है! जिन्दा साँप पालीथीन में पकडो और तौल कर ले जाओ... अब क्या बचा? कुछ शुद्ध मांसाहारी दोस्त भी ये देख के २-४ दिन के लिए शाकाहारी हो गए !
और फिर ये डींग कि 'बगल में कोई कितना भी मुर्गा चबाये मुझे कोई दिक्कत नहीं' कि पोल खुली और हम बीमार हो गए. २-३ दिन तक दिमाग में ये भी नहीं आया कि ब्रेड नाम की भी कोई चीज़ होती है, होटल में ख़ुद खाना भी नहीं बना सकते. और फिर शाकाहारी रेस्टोरेंट में जाओ और पता चले की शाकाहारी भोजन के ऊपर थोडी मांस की ड्रेसिंग कर दी गई और आप बिना छुए बिल देकर आ जाओ... और साथ में १०-१५% टिप भी ! तो इन सबके बीच हम फलाहार करते रहे... वो भी बहुत कम... और बीमार हो गए !

दृश्य ४: (न्यूयार्क, एक किराना दूकान): खाओ भाई क्या दिक्कत है !

आज फिर एक दूकान में पानी में जिन्दा तैरते हुए बड़े-बड़े केंकड़े दिख गए, मस्ती में तैर रहे थे... उनको क्या पता की ऊपर कीमत टंकी हुई है. मुझे बस दुःख हुआ तो यही की फोटो नहीं ले पाया. पर बीमार और ये सब देख के... ना ! जैसे मुर्गा कोई चबाये और मुझे कोई दिक्कत नहीं वैसे ही अब ये देख के भी कुछ ना होना, वैसे भी क्या प्रोब्लम है.

पर हाँ चर्चा जरूर हो गई... मेरे मित्र ने बताया की चीन में ओलंपिक देखने बहुत लोग गए और उसी सिलसिले में किसी टीवी चैनल पे प्रोग्राम आ रहा था की १-२ किलोमीटर लम्बी 'जिन्दा और पके हुए कीडों-मकोडों' की लाइन से स्टाल लगी थी. इस पोस्ट पर उस चर्चा का बड़ा प्रभाव है।

अब देखिये इस मांसाहार के फायदे: भाई चीन ने तो जनसंख्या पर काबू कर ही लिया और जितने लोग हैं उतने में तो खाद्य समस्या नहीं आनी ! खाओ भाई कीडे-मकोडे... कुत्ते-बिल्ली । आप सोचिये अगर भारत में लोग मच्छर फ्राई खाने लगें तो समस्या ही ख़त्म. बीमारी भी ख़त्म और खाद्य समस्या कुछ तो कम होगी, क्यों? कुछ ज्यादा हो गया पर ऐसा तो नहीं है की संभाव्य नहीं ! अच्छा चलिए मच्छर को छोड़ दिया पर भी हजारों तरह के कीडे-मकोडे और जानवर हैं... साले ये चूहे ! इन्हें तो देखते ही खा लेना चाहिए. इनको खा लो तो खाद्य समस्या क्या चीज़ है, अनाज निर्यात करने पर भारत सरकार को सीजनल सेल ना लगानी पड़ जाय ! और कुत्ते? मुन्सिपलिटी की परेसानी तो बड़ी समस्या है, मेरे जैसे लोग भी ऑफिस से लेट आते हैं तो डरते हैं की कहीं दौड़ा दिया तो हम तो नहीं भाग पायेंगे ! सांप उनको तो नहीं खाना उन्हें दूध पिलाने के जैसा ही है भाई. मत खाओ... मरो !

और इधर आपको तो लग रहा है की हम खा ही रहे होंगे दबा के :-)

हाँ हमें भी ऐतराज हुआ इधर... यहाँ ढूंढ़ के शाकाहारी जगहों पर गए तो पता चला की कई जगह दूध या दूध से बना हुआ कुछ भी नहीं डालते. ये वेगन पता तो था पर कभी पाला नहीं पड़ा था इससे पहले, एकाएक मैं अपने मित्र से बोलने वाला था कि दूध में क्या प्रॉब्लम है यार ! फिर ख़ुद को ही मन में बोल के चुप रह गया... 'साले आज पता चला... दूध में क्या प्रॉब्लम है? तो फिर कुत्ते में ही क्या प्रॉब्लम है? कुत्ता तो छोड़ तुझे तो उस चमचे में ही प्रॉब्लम थी... जो जहाँ है उसको दूसरा बुरा लगता है... आज पता चला लोग क्यों खाते हैं? जैसे तुम्हारे लिए मांस वैसे ही किसी के लिए दूध ! वैसे ही किसी के लिए मुर्गा, किसी के लिए कुत्ता और किसी के लिए जूं, खटमल... भाई ये सीढ़ी में कौन आगे पीछे है ये तो सबके लिए अलग अलग. किसी को कुछ अच्छा लग सकता है किसी को कुछ !'

निष्कर्ष तो यही है... खाओ भाई खाओ ! सब खाओ !

आप भी खाइए... जो भी मिले दबा के ! खाद्य समस्या के साथ-साथ कई समस्याएं हल हो जायेंगी... बस अब अपनी राम कहानी इतनी गाई है तो अब ये भी बता दूँ की इस जन्म मुझसे से ये काम तो ना हो पायेगा... मैंने कहा था ना की दिमाग में कीडा हो तो थोडी दिक्कत होती है. सब कुछ सही लगते हुए भी देश का भला नहीं कर सकता... इतना जो लिखा है यही पढ़ लिया मेरे किसी मित्र ने तो कहेंगे कि 'बहुत हीरो बनता है अंडा ही छू के दिखा !'

अगर आपके दिमाग में ऐसा कीडा है फिर तो थोडी दिक्कत है. नहीं तो भाई दबा के खाना जरूर ! बहुत भला होगा देश का... वस्त्र समस्या के लिए तो किसी उपदेश कि जरुरत नहीं वो तो वैसे ही कुछ दिनों में हल हो जाने वाली है !

अब भाई इस पूरे लेख का मूल यही है कि बाबा आइन्स्टीन के नियमानुसार संसार में कुछ भी निरपेक्ष (Absolute) नहीं है सब सापेक्ष (Relative) है... इसकी चर्चा किसी और परिपेक्ष्य में अगले पोस्ट में करते हैं. पर ये तो मानना ही पड़ेगा कुछ भी निरपेक्ष नहीं सब कुछ तुलनात्मक है ! ये तुलना की सीढ़ी संसार की हर बात पर लागू होती है और इसका कोई अंत नहीं... ये तो कभी सोचना भी मत की आप इस सीढ़ी के किसी एक सीरे पर हो... क्योंकि वो तो सम्भव नहीं !

~Abhishek Ojha~


अब ये बताइए की आपका क्या ख्याल है इस वचन पर ! (प्रवचन, सुवचन, कुवचन, दुर्वचन कुछ भी हो सकता है सामने वाले पर निर्भर करता है ! आख़िर सब तुलनात्मक है. )

Sep 1, 2008

सेंट बोरिस पब्लिक स्कूल !

(ये प्रसंग मेरे एक करीबी मित्र के जीवन से है... बिहार के एक गंवई इलाके के रहने वाले हैं, आईटी बीएचयु के ग्रेजुएट हैं और एक प्रतिष्ठित सॉफ्टवेर कंपनी में कार्यरत हैं)

...जब मैं आईटी बीएचयु मैं पढने पहुँचा तो एक रात सब बैठकर अपने-अपने स्कूलों की चर्चा करने लगे. हॉस्टल में स्कूल की चर्चा अक्सर लड़कियों से ही शुरू होती है और अक्सर वहां तक जाती है कि आजकल क्या कर रही है? कैसी दिखती है? कहाँ है? और फिर... ऑरकुट पर है क्या?

सबने चालु किया सेंट थॉमस, सेंट जेवियर्स, सेंट जॉन्स... इतने 'सेंट' और 'पब्लिक' सुना कि लगा अच्छे स्कूल के नाम में दोनों में से एक तो होना ही चाहिए. अगर आगे सेंट और पीछे पब्लिक लगा हो तो फिर सोने पे सुहागा ! मुझे भी किसी ने टोक दिया... तुम किस स्कूल से पढ़े हो? अब मैं क्या बोलता!... स्कूल सोचूँ तो सबसे पहले याद आता है... बोरा ! बोरा भी बड़े काम का होता था... एक दम मस्त ! स्कूल में बिछा के बैठते फिर धुप लगे या बारिश हो तो ओढ़ के चले आओ. और मास्टरजी भी याद आते हैं. खेलते कूदते जाते रास्ते में खेत, बगीचे... खाते-पीते अपनी मस्ती में.

मैंने कहा: 'सेंट बोरिस पब्लिक स्कूल'
'अबे ये कौन सा स्कूल है? कभी नाम ही नहीं सुना !'
'नाम नहीं सुना? अबे साले हमारे जिले में एक ही तो अंग्रेजी मीडियम स्कूल है... मस्त स्कूल है, मेरे बैच से ही पाँच का जेइइ में हुआ है. '

सबने मान भी लिया... बात आई गयी हो गयी। मानते भी कैसे नहीं ! सेंट भी है और पब्लिक भी और बोरिस भी तो पूरा अंग्रेजी ही लगता है. सेंट बोरिस स्कूल की एक और बात बता दूँ. एक बार जब परीक्षाफल निकलने का दिन था तो मास्टरजी आए और उन्होंने सुनाया: 'फलनवाँ फस्ट, चीलनवाँ सेकेण्ड... और बाकी सब पास ! और आज से एक महीने की गर्मी छुट्टी'
घर आके पिताजी ने पूछा: 'रिजल्ट क्या हुआ रे? '
मैंने कहा 'मास्टर जी बोले कि फलनवाँ और चीलनवाँ के रिजल्ट में कोई दिक्कत है बाकी सब पास हैं'
बाबूजी भी खुश ! ससुरे फलनवाँ फस्ट, चीलनवाँ सेकेण्ड... आख़िर कुछ तो सीखा था सेंट बोरिस में, बोरा-बस्ता फेंका और खेलने भागे !

अब स्कूल से तो दो ही बातें बता सकता हूँ बाकी बता दूँ तो गंवार ही कहेंगे लोग। लोगों को भरोसा ही उठ जायेगा जेइइ की कठिनता से. पर क्या करुँ पास कर गया क्योंकि तब आरक्षण नहीं होता था और शायद मेरे जैसे बहुत गंवार वहां पहुच जाते थे... अब ना तो बिना सेंट और पब्लिक के स्कूल ही बचे ना वो परीक्षा ही बिना आरक्षण के रह गई. मेरे जैसे सेंट बोरिस के अलुम्नी कहाँ-कहाँ पहुँच गए... मैं गंवार रह गया ये अलग बात है.

ये सेंट बोरिस का असली मतलब पूरे बीएचयु के चार सालों में कभी किसी को नहीं बताया आज तुम्हें सुना रहा हूँ. '

और मैं आपको सुना रहा हूँ... किसी को बताइयेगा मत :-)



समीरजी और लावण्याजी से बात के बाद निठल्ला चिंतन वाले तरुणजी के साथ लंच पर जाना हुआ... बहुत खुशी हुई, ये यात्रा बहुत अच्छी साबित हो रही है. कमाल की वर्चुअल रियलिटी है ब्लॉग्गिंग भी और हिन्दी ब्लॉग्गिंग वालों में जो आत्मीयता है... वो शायद किसी और भाषा के ब्लोगरों में नहीं.



~Abhishek Ojha~