May 29, 2007

वो लोग ही कुछ और होते हैं...



बात वर्ष २००० के गर्मियों की है। उस चिलचिलाती दुपहरी में हम दोनों अपनी भौतिकी के व्याख्यान कक्ष से बाहर निकले थे। प्रोफेसर कुमार का वो चेहरा जिसपर शायद ही किसी ने मुस्कान देखी हो, वो यांत्रिकी के तनावपूर्ण ५० मिनट अभी पुरी तरह मानस पटल पर हावी थे। अगला व्याख्यान चालू होने में अभी १ घंटा बाकी था। हमेशा की तरह हम महाविद्यालय परिसर के बाहर मंदिर तक टहलने निकल गये। रास्ते के दोनो तरफ लगे घने वृक्ष मानों उस प्रचंड़ गर्मी में सूर्य से लड़ते-लड़ते थक गये हों। ऐसा प्रतीत हो रहा था, जैसे उनकी झुलसी पत्तियाँ घुटने टेके किसी देवदूत से शीतल मंद बयार की प्रार्थना कर रही हो। उन प्रार्थनालिप्त वृक्षों की छत्रछाया में चलते हुए हम मंदिर तक पहुँच गये।

उस शीतल मंदिर प्राँगण में बैठकर घंटो चर्चा करना हमारी दिनचर्या का हिस्सा बन चुका था। ये चर्चायें विज्ञान और गणित के अलावा राजनिति, दर्शनशास्त्र, कथित मानव मूल्यों के ह्रास इत्यादि विषयों पर केंद्रित हुआ करती थी...। हम ये भरपुर कोशिश करते कि ये चर्चायें कोई और ना सुने, दो अल्पज्ञानियों की इन गूढ़ विषयों पर पारस्परिक चर्चा सुनकर कोई भी हँस देता।

मंदिर प्राँगण से मुख्य सड़क पर होने वाली हर गतिविधी देखी जा सकती है। उस दुपहरी की लू में लोगों को काम करते देख थोड़ी शर्मिन्दगी तो जरुर हुई और शायद यही कारण था कि मैंने उस आदमी पर ध्यान दिया।

उस 'आदमी' की काया का स्मरण करने पर मस्तिष्क में बस निराला की कविता 'भिक्षुक' ही प्रतिबिम्बित हो पाती है...।

एक गर्भवती औरत और छः बच्चे खाली पेत प्रतीक्षा कर रहे हैं। शायद आज क्षुधा की तृप्ति हो। एक बच्चा झोपड़ी के अंदर बीमार लेटा है। बाहर एक बच्चा, अरे हाँ! ये बच्चा ही तो है, मटके सा पेत अत्यंत दुबले हाथ-पैर अपनी माँ का मैला-फटा आँचल खींच रहा है। दो बच्चे भुख को भुलकर खेलनें में व्यस्त हैं। सबसे बड़ा लड़का जो करीब १० साल का होगा दार्शनिक की तरह पेड़ के नीचे बैठा कहीं खोया हुआ है। कभी विद्यालय जैसी वस्तु से उसका परिचय नहीं हुआ। आज बंद होने के कारण वो चाय की दुकान पर नहीं गया... ये सारी बातें एक पल में ही मेरे दिमाग में कौंध गयी थी।

अनायास ही मेरे मुँह से निकल गया 'एक ये 'आदमी' है, इस भरी दुपहरी में ठेला खींच रहा है... और एक हम हैं... वातानुकूलित कक्ष से निकलते ही पसीने और प्रोफेसर के लिये गाली दोनो ही छुटने लगते हैं...।'

हम दोनो की परिचर्चा अंत... उसने कहा 'तुम्हे इस आदमी पर दया रही है, मैं तुम्हारी सोंच का आदर करता हूँ... पर वो लोग ही कुछ और होते हैं, जो जाकर ठेले को धक्का लगा देते हैं...'

~Abhishek Ojha~

5 comments:

  1. नहीं वो तो साधारण मानव हैं और हम जैसे असाधारण(पढ़े-लिखे)अपनी सक्षमता को भुल जाते है उपर कि हमें करना है उन्हीं के लिए…।

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  2. फोटो बहुत सुन्दर चस्पायी है, रिक्शे वाली की.

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  3. सही कहा ... वो लोग सच मे ही कुछ ओर होते है :)

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