May 31, 2007

उत्तर-पूर्व भारत... यात्रा संस्मरण (भाग २): दार्जिलिंग

सिक्किम की तरह दार्जिलिंग की प्राकृतिक सुन्दरता में भी भगवान ने कोई कंजूसी नहीं की है। वैसे यहाँ आपको बता दें कि दार्जिलिंग भी कभी सिक्किम का हिस्सा हुआ करता था। १८३५ में अंग्रेजो ने लीज पर लेकर इसे हिल स्टेशन की तरह विकसित करना प्रारम्भ किया। फिर चाय की खेती और दार्जिलिंग हिमालयन रेलवे की स्थापना और शैक्षणिक संस्थानों की शुरुआत भी हुई। कुछ इस तरह से 'क्वीन ओफ हिल्स' का विकास शुरू हुआ।


मौसम और प्राकृतिक छटा तो मनमोहक है... पर अनियोजित शहरीकरण/विकास, बेलगाम यातायात तथा प्रदूषण मन को दुखित कर देते हैं। पानी की किल्लत तो पूरे शहर में है। सिक्किम में प्राकृतिक छटा के अलावा बाक़ी जिन चीजों ने मन मोह लिया था सबकी कमी महसूस हुई। सड़क पर दुकान लगाना आम बात है... सिक्किम की तरह आवागमन के लिए कोई निर्धारित किराया सूची भी नहीं है। पीछे लग जाना तो कुछ नहीं... अगर आपके होटल के कमरे में भी कोई कुछ बेचने आ जाये तो घबराने की जरुरत नहीं है। और पालीथीन?... हम जिस दिन दार्जिलिंग पहुचे उसी दिन प्रतिबंधित हुआ, शायद अब कोई जाये तो कम दिखे। सिक्किम से आते हुए हम मल्ली नाम की जगह पर राफ्टिंग के लिए रुके तो एजेंट्स कुछ यूं पीछे पडे और आपस में इतना झगड़ा किया कि... राफ्टिंग के ६ घंटे बाद तक हम ठगा हुआ महसूस करते रहे। 'कोस कोस पर पानी बदले, चार कोस पर बानी' ये सुना तो था पर लोगो का व्यवहार भी इतनी जल्दी बदल जाएगा... कभी सोचा ना ।

सिक्किम से दार्जिलिंग जाते समय रास्ते में पडने वाले जंगल, तीस्ता और रंगीत नदियों का संगम देखने योग्य है। चाय के बगान और देवदार के जंगल भी अच्छा दृश्य बनाते हैं। टाइगर हिल पर व्यतीत की गई सुबह , चाय बगान, नैचुरल हिस्ट्री म्यूजियम जैसी जगहें अच्छी तो लगी लेकिन इनके अलावा वो कुछ नहीं दीखा जो मन को भा जाये। एजेंट्स को तो बस लगता था की हमारा ही इंतज़ार था... और बस हमीं से वो राजा बन जायेंगे। अरे भाई! मुर्गी को मार देने से क्या मिल जाएगा... संयम रखो तो रोज़ एक अंडा तो मिलेगा। विकास के नाम पर बनी अनियोजित और अदूरदर्शी कंकरीट की इमारतें... पानी की किल्लत... प्रदूषण ... अरे बख्स दो यार !

दार्जिलिंग हिमालयन रेल में व्यतीत किया गया समय भी यादगार रहा। दार्जिलिंग हिमालयन की बात आयी तो ये बता दें की १८७९ में इसका निर्माण कार्य प्रारम्भ हुआ था। ८८ किलोमीटर में कुल ३ लूप, ६ ज़ेड रिवर्सल और १३ स्टेशन पड़ते हैं। १९९९ से यह यूनेस्को विश्व धरोहर में शामिल है। अभी भी वाष्प से चलने वाले पूराने इंजन इस्तेमाल किये जाते हैं।

५० साल पहले दार्जिलिंग कैसा था ये देखकर ही अनुमान लगाया जा सकता है... आज उजड़ा हुआ लगता है। सोच कर ये दुःख तो होता ही है ... परायों ने अच्छा रखा था... हम ये क्या कर रहे हैं... । प्राकृतिक सुन्दरता तो अभी बरकरार है पर ऐसा ही चलता रहा तो आख़िर कब तक बच पायेगा।



दार्जिलिंग हिमालयन रेल के भीतर

नाइटिंगल पार्क


रेल तो खूबसूरत जगहों से गुज़र रही है... पर क्या आपको प्लास्टिक भी नज़र आ रहे है?

सांस्कृतिक कार्यक्रम: नाइटिंगल पार्क

रेड पांडा: नैचुरल हिस्ट्री म्यूजियम

बोटानिकल गार्डन

शहर और चाय बगान


बादलों का घेरा

बोटानिकल गार्डन

बोटानिकल गार्डन

हैप्पी वैली चाय बगान

बोटानिकल गार्डन

बोटानिकल गार्डन

बोटानिकल गार्डन

तेंज़िंग रॉक: हिमालयन माउन्टैनियरिंग संस्थान का ट्रेनिंग स्थल

बतासिया लूप: दार्जिलिंग हिमालयन रेलवे

दार्जिलिंग का मुख्य चौराहा

गोमू रॉक: हिमालयन माउन्टैनियरिंग संस्थान का ट्रेनिंग स्थल



तुम क्या जानो जीवन कितना कठिन है?... तस्वीर ले लो दुनिया को दीखाना!

तीस्ता और रंगीत का संगम

टाइगर हिल


मल्ली में तीस्ता

May 29, 2007

वो लोग ही कुछ और होते हैं...



बात वर्ष २००० के गर्मियों की है। उस चिलचिलाती दुपहरी में हम दोनों अपनी भौतिकी के व्याख्यान कक्ष से बाहर निकले थे। प्रोफेसर कुमार का वो चेहरा जिसपर शायद ही किसी ने मुस्कान देखी हो, वो यांत्रिकी के तनावपूर्ण ५० मिनट अभी पुरी तरह मानस पटल पर हावी थे। अगला व्याख्यान चालू होने में अभी १ घंटा बाकी था। हमेशा की तरह हम महाविद्यालय परिसर के बाहर मंदिर तक टहलने निकल गये। रास्ते के दोनो तरफ लगे घने वृक्ष मानों उस प्रचंड़ गर्मी में सूर्य से लड़ते-लड़ते थक गये हों। ऐसा प्रतीत हो रहा था, जैसे उनकी झुलसी पत्तियाँ घुटने टेके किसी देवदूत से शीतल मंद बयार की प्रार्थना कर रही हो। उन प्रार्थनालिप्त वृक्षों की छत्रछाया में चलते हुए हम मंदिर तक पहुँच गये।

उस शीतल मंदिर प्राँगण में बैठकर घंटो चर्चा करना हमारी दिनचर्या का हिस्सा बन चुका था। ये चर्चायें विज्ञान और गणित के अलावा राजनिति, दर्शनशास्त्र, कथित मानव मूल्यों के ह्रास इत्यादि विषयों पर केंद्रित हुआ करती थी...। हम ये भरपुर कोशिश करते कि ये चर्चायें कोई और ना सुने, दो अल्पज्ञानियों की इन गूढ़ विषयों पर पारस्परिक चर्चा सुनकर कोई भी हँस देता।

मंदिर प्राँगण से मुख्य सड़क पर होने वाली हर गतिविधी देखी जा सकती है। उस दुपहरी की लू में लोगों को काम करते देख थोड़ी शर्मिन्दगी तो जरुर हुई और शायद यही कारण था कि मैंने उस आदमी पर ध्यान दिया।

उस 'आदमी' की काया का स्मरण करने पर मस्तिष्क में बस निराला की कविता 'भिक्षुक' ही प्रतिबिम्बित हो पाती है...।

एक गर्भवती औरत और छः बच्चे खाली पेत प्रतीक्षा कर रहे हैं। शायद आज क्षुधा की तृप्ति हो। एक बच्चा झोपड़ी के अंदर बीमार लेटा है। बाहर एक बच्चा, अरे हाँ! ये बच्चा ही तो है, मटके सा पेत अत्यंत दुबले हाथ-पैर अपनी माँ का मैला-फटा आँचल खींच रहा है। दो बच्चे भुख को भुलकर खेलनें में व्यस्त हैं। सबसे बड़ा लड़का जो करीब १० साल का होगा दार्शनिक की तरह पेड़ के नीचे बैठा कहीं खोया हुआ है। कभी विद्यालय जैसी वस्तु से उसका परिचय नहीं हुआ। आज बंद होने के कारण वो चाय की दुकान पर नहीं गया... ये सारी बातें एक पल में ही मेरे दिमाग में कौंध गयी थी।

अनायास ही मेरे मुँह से निकल गया 'एक ये 'आदमी' है, इस भरी दुपहरी में ठेला खींच रहा है... और एक हम हैं... वातानुकूलित कक्ष से निकलते ही पसीने और प्रोफेसर के लिये गाली दोनो ही छुटने लगते हैं...।'

हम दोनो की परिचर्चा अंत... उसने कहा 'तुम्हे इस आदमी पर दया रही है, मैं तुम्हारी सोंच का आदर करता हूँ... पर वो लोग ही कुछ और होते हैं, जो जाकर ठेले को धक्का लगा देते हैं...'

~Abhishek Ojha~

May 27, 2007

सिक्किम... हिमालय में बसा एक छोटा सा स्वर्ग


इस वर्ष उत्तर-पूर्व भारत के कई स्थानों को देखने का मौका मिला।

सिक्किम, दार्जिलिंग (फरवरी-मार्च), गुवाहाटी, शिलांग और चेरापूंजी (मई)। यहाँ सिक्किम की कुछ तस्वीरें हैं... बस थोडा इंतज़ार कीजिये बाक़ी के लिए :-)

सिक्किम

बिना किसी संशय के... सिक्किम इस स्थानो में हमें सबसे अच्छा लगा। एक सप्ताह तक सिक्किम में व्यतीत किया हुआ समय भुला नहीं जा सकता। देवदार के वृक्ष और बर्फ की सफ़ेद चादर, कंचनजंघा, जमीं हुई झीलें, भाँती-भाँती के पुष्प, इलायची के बगान, जल प्रपात, कल-कल करती हुई तीस्ता नदी तथा शांत बौद्ध मठ... ।

सिक्किम की अच्छी कानून व्यवस्था, साफ-सफ़ाई और वहाँ के शांतिप्रिय लोग इसकी खूबसूरती में चार-चाँद लगा देते हैं। कुछ सड़कों की हालत और आधारभूत सुविधाओं को छोड़ दें तो ... मुझे प्राकृतिक रूप से यह जगह स्विट्जरलैंड के कुछ जगहों तथा आल्प्स से ज्यादा मोहक लगी। पर्यटन को दृष्टि में रखकर हो रहे कार्यों को देखकर प्रसन्नता हुई। सिक्किम राज्य के बारे में भी काफ़ी रोचक बातें भी पता चली।

पर्वतारोहण और प्राकृति प्रेमियों के लिए तो ये स्वर्ग ही है। सर्दियों में जाने के कारण हमने कई प्रकार के orchids और फूलों की कमी महसूस तो की परंतु जमीं हुई छंगु झील ने वो कमी पुरी कर दी। भारी हिमपात के कारण हम नाथुला-दर्रा तक नहीं जा सके और हमें छंगु झील से ही वापस लौटना पड़ा पर रास्ते में वृक्षों, पहाडों तथा रास्तों पर पडी हुई बर्फ, और जमें हुए एक जल प्रपात ने वो कमी भी पुरी कर दी। लामाओं तथा बौद्ध मठों की शांति देखकर मन कुछ पल के लिए शांत हो जाता है। रास्तों में रंगीन तथा सफ़ेद झंडे... युम्थांग, लाचुंग तथा गंग्टोक की यात्रा भी यादगार रही। वानस्पति उद्यान में जाने के बाद हमारे अन्दर का फोटोग्राफ़र जाग गया... तस्वीरें देखकर ही ये अंदाजा लगाया जा सकता है।

प्राकृतिक सुन्दरता के अतिरिक्त भी सिक्किम की कई बातें मनमोहक हैं। पुरे राज्य में पालीथीन और गुटखे पर प्रतिबंध है। कहीँ भी खोमचे वाले नज़र नहीं आये। कोई कुछ बेचने के लिए आपके पीछे लग जाये... ऐसा भी कहीँ नहीं हुआ। लोगों का पर्यटकों के साथ मित्रतापूर्ण व्यवहार भी अपना प्रभाव छोड़ गया। बाक़ी ट्रेवल एजेंट्स का तो पता नहीं पर हमारे एजेंट ने हमें मेहमान की तरह आदर दिया... । आवागमन के लिए अधिकतम किराए निर्धारित हैं ... पर होटलों में या अगर आपको पूरी गाड़ी लेनी हो तो थोडा मोल-भाव तो करना ही पड़ेगा... ।



कंचनजंघा

रास्ते में पडी हुई बर्फ



झील का चक्कर लगाना है तो ... याक है ना !

सिक्किम विधान सभा



गंग्टोक शहर के ऊपर...




कैसे-कैसे बाँस...

एक बौद्ध मठ


नदी अपने उद्गम के समीप

इलायची के पत्ते...





जमीन चाहे जैसी हो... खेती तो हम कर ही लेंगे... ।



अब बर्फ पडी है तो कुछ सृजनात्मक काम भी कर लें।



सिक्किम में तरह-तरह के पुष्प तो मिलने ही थे।


हम भी पढ़ते हैं।

एक प्यारा बच्चा ... ।



ऐसी ठंड की झील ही जम गयी।










सात कन्या झरना।

देश के प्रहरियों को हमारा भी सलाम...

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