Mar 16, 2007

लप्पू झन्ना - एक संस्मरण...




भारतीय रेल का समय से आ जाना... एक यात्री के लिये इससे सुखद और क्या हो सकता है? भोंपू से आवाज आई... 'यात्रीगण कृपया ध्यान दें! ट्रेन नम्बर २५०६, नार्थ-इस्ट एक्स्प्रेस जो नई दिल्ली से चलकर गुवाहाटी को जायेगी, अपने निर्धारित समय १२ बजकर ५० मिनट से ३० मिनट देरी से प्लेटफार्म नम्बर ४ पर आने की सम्भावना है। यात्रियों को हुई असुविधा के लिये खेद है।' इस मात्र ३० मिनट देर होने की सम्भावना से यात्रियों में हर्ष की लहर दौड़ गयी...।
अरे वाह! आज तो सही समय पर चल रही है ! हम कल १२ बजे तक पहुँच जायेंगे। मेरे मित्र की ये आशावादी प्रवृति और ८:१५ की जगह १२ बजे पहुँचने की सम्भावना होने पर भी खुशी... वाह रे, भारतीय रेल!

कानपुर सेंट्रल की इस उद्घोषिका के मधुर खेद के साथ हमने अपनी बहुप्रतिक्षित उत्तर-पूर्व भारत की यात्रा आरंभ की...। हमारे सामने वाले सीट पर जो महाशय थे, उनकी पान-सुर्ति-रंजित बतीसी सुशोभित मुस्कान कोई कैसे भूल सकता है। उनकी निराली वेष-भुषा और हाव-भाव का वर्णन तो सरस्वती और शेषनाग के लिये भी आसान नहीं होगा...। वो रंगे हुए नाखुन..., वो ५ सितारों से जड़ा हुआ और सुनहरे अक्षरों में NYC अंकित किया हुआ लाल रंग का स्वेटर..., वो Nike लिखी हुई जुराबें, वो अपनी जँघाओं पर तानसेन की तरह अँगुलियों का फिराना...। मेरे मित्र की पैनी निगाहों के निरीक्षण में ये सारे अद्वितीय श्रृंगार और उनकी सारी क्रियाँए आ गयी। अगले ही पल मुझ तक प्रेषित हुई... और हमनें एकमत से कहा... - लप्पू झन्ना।
(सब लोग गंभीर मुद्रा में थे... मैंने हँसना उचित नहीं समझा, वर्ना लोग सोचते... इसके कील-काँटे ढ़ीले हो रहे हैं।)

'आपलोग कानपुर में रहते हैं...?'
'जी'
'आपलोग कहाँ उतरेंगे?'
'न्यु-जलपाईगुड़ी... आप?'
'बस... आपसे एक स्टेशन पहले...!'
ये उत्तर मुझे कुछ अज़ीब सा लगा... अरे 'आपसे एक स्टेशन पहले' का कुछ नाम भी तो होगा। मेरे दिमाग में (n-1)th stage strategy जैसा कोई सिद्धांत, उस पान-सुर्ति-रंजित बतीसी के साथ-साथ चक्कर काटने लगा...। अग़र ट्रेन से किसी का सामान लेकर उतरना हो... तो 'आपसे एक पहले वाला स्टेशन' ही सर्वोत्तम विकल्प होगा...। वाह रे ! मानव मस्तिष्क...।

'भारतीय रेल लाखो लोगो को रोजगार देता है' और इसका सबसे बड़ा प्रमाण- द्वितीय श्रेणी।
चाय... चाय... गरम़ चाय...।
'ऐ चायवाले! एक चाय देना... कैसी चाय है?... पैसा चाय पीने के बाद ही मिलेगा, ...अच्छी हुई तभी दूँगा!' (फिर मेरा दिमाग का कीड़ा कुलबुलाया... क्या कोई ऐसी दशा में भुगतान करेगा...?)
'भाईसाहब, पैसे दे दो।'
'अरे अभी तो मै पी रहा हूँ... और तुम्हारी चाय भी अच्छी नहीं है!'
चाय वाला झल्लाया 'भाईसाहब और भी लोगों से पैसा लेना है, एक आप ही नहीं हो।'
'अच्छा किनने हुए?'
'चार'
'४ कैसे? ३ होते हैं!' समस्या का समाधान कुछ इस प्रकार हुआ कि झन्ना महाशय के पास से १० रुपये का नोट निकला... और चाय वाले ने कुछ हिसाब लगाया... 'आप इनसे ६ रुपये ले लेना...।'
झन्ना महाशय के तर्क-वितर्क को दर किनार कर चुटकी लेते हुए बोला 'अरे! एक ही रुपया तो ज्यादा लिया है आपसे...आप जैसे लोगो के लिये...!' ...झन्ना महाशय की छाती गर्व से चौड़ी हो गयी।

कुछ देर बाद... पान-सिगरेट की दुकान आ गयी। फिर स्मरण हो आया कि सार्वजनिक स्थलों पे धुम्रपान निषेध है...। फिर सोचा कि हमारे देश में हर काम प्राथमिकता के आधार पर होता है... और भारतीय रेल... लाखो लोगो का रोजगार... ज्यादा महत्तवपूर्ण विकल्प है।
'एक पान लगाओ, कितने की दे रहे हो?'
'ये ४ के हैं, और इधर वाले ३ के...' काफी निरीक्षण के बाद झन्ना महोदय एक ३ वाला पत्ता निकालते हुए बोले 'ये लगाओ'
'...अरे तुम तो मसाला ड़ाल ही नहीं रहे हो!' पानवाले की टोकरी से एक पुड़िया उठाते हुए बोले 'ये क्या दिखाने के लिये रक्खा है? ये भी ड़ालो।'
'भाईसाहब इसके ३ रुपये केवल इसके लगते हैं।'
'कमाल करते हो तुमलोग भी... हमारे घर पे तो मुफ़्त का मिलता है!' ये मुफ़्त में मिलना...। पानवाला भी रोबदार व्यक्ति था 'लेना है?... तो लो... बेकार का झिक-झिक मत करो।' अंततः सुपारी के दो टुकड़ों पे समझौता हुआ।

मुग़लसराय आते-आते ट्रेन चीन-निर्मित समाग्रियों की चलती-फिरती दुकान में परिवर्तित हो गयी। हमारे झन्ना महाशय ने कितनी दुकानें रोकी और कितना समय व्यतीत किया...सब स्मरण करना आसान नहीं है। बात आयी अँगूरों की तो झन्ना महाशय के तोल-मोल की क्षमता से मैं दंग रह गया। देखो भाई तुम्हारे अँगूर गोल हैं, मीठे तो लम्बे वाले होते हैं। (लम्बे ही चाहिये, तो गन्ना ले आओ... क्यों बेचारे का सिर खा रहे हो) ऐसे अनगिनत तर्क देने के बाद करीब ४०% बट्टे पर उन्होंने २ किलो अँगूर खरीदे। सब कुछ सकुशल कैसे निपट जाता, झन्ना महोदय ने अचानक जोर से आवाज लगायी 'इधर सुनो! ये २ किलो हैं? मुझे तो कम लग रहे हैं।' मोल में जो बात बनी थी, तोल में आकर अटक गयी...। फल विक्रेता भी इस सौदे को हाथ से नहीं जाने देना चाहता था... अपनी सारी विद्यायें लगाकर उसने अपनी जान छुड़ाई।

विनम्रता जैसे गुण धारण करने वाले पुरुष भारतीय जनसंख्या के उच्चतम घनत्व वाली जगहों पर भी आसानी से पहचान लिये जाते हैं। रसोईयान का भोजन वितरक भी एक ऐसा ही व्यक्ति था।
'३५ रुपये में तो ५ किलो चावल मिल जाता है, ये इतना कम लाये हो! और पनीर का कोई व्यंजन तो है ही नहीं...' लप्पू झन्ना ने आश्चर्यचकित भाव से कहा। भोजन वितरक ने बड़ी ही सहजता से कहा 'साहब हम क्या कर सकते हैं, ये सब तो हमारे मालिक फैसला करते हैं। हम तो साहब जितना कहा जाय उतना ही करते हैं।'
'अच्छा अपने मालिक से कहो कि ऐसा नहीं होता है' (मैं सोच में पड़ गया कि कहीं किसी ट्रेन में ५ किलो चावल तो नही मिलता है)... एक लम्बा व्याख्यान फिर... 'चलो मान लिया तुम्हारी गलती नहीं है, पर अब इतना कम खिलाया है... तो एक पान खिलाओ ! अभी वापस जाना तो एक पान ले आना।' ... वाह रे लप्पू...।

भोजन के साथ प्लास्टिक का एक जल से भरा हुआ बंद गिलास भी मिला था। झन्ना महाशय की नज़रें उस पर काफी देर तक टिकी रही, और वो काफी संतुष्ट लगे। ... इसे तो घर ले जायेंगे... पहली बार वो संतुष्ट दिख रहे थे।

हाय रे दुर्भाग्य ! मैं अन्यत्र व्यस्त हो गया... फिर नींद... झन्ना महाशय कब तक जगे, और मैंने क्या कुछ खोया.. कह नहीं सकता। जब आँख खुली तो वो ट्रेन से उतर रहे थे। मैं प्रसन्न था कि (n-1)th stage strategy गलत साबित हुई...।

मैने कहा 'आपका गिलास' और उन्होंने मुस्कुराते हुए (वो मुस्कान जो अब चिर-परिचित लगने लगी थी) अपने गिलास और पान-सुर्ति-रंजित बतीसी के साथ... हमसे विदा लिया... आगे की यात्रा... फिर कभी... । ~Abhishek Ojha~

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