Feb 27, 2007

कर्मयोग...

प्रकृति गजगामिनी हरी साड़ी का घूँघट अपने अरुण मुख पर से धीरे-धीरे हटा रही थी । चातुर्दिक अरुण (the rosy dawn, the rising of the great sun) रश्मियों से व्याप्त हो रहा था । पवन की गति भी मीठी हो चली थी । धवल और अरुण रश्मिपुंज व्रज कुन्जो की हरीतिमा पर पड़कर मानों बिहारी के दोहे 'हरित बाँस की बाँसुरी इन्द्र धनुष रंग होई'* को साकार कर रहा था ।

कुंजो के अंतराल में नवयौवन के मकरन्द (पुष्पों से प्राप्त होने वाला मधु) से रोमान्चित व्रजबालायें अपने 'मधुकर' कृष्ण को घेरकर गुनगुनाने के लिये बाध्य कर रही थी । उनके सानिध्य से प्रसन्न कृष्ण का मन तो 'जा तन की झाँई परे, श्याम हरित दुति होई'** का भी अतिक्रमण कर अनिर्वचनीय हो गया था ।

रास की रंगीनियों से गोपबालाओं को आत्म-विभोर होता देखकर कृष्ण ने अपना योगेश्वर रुप उनके सम्मुख प्रस्तुत किया । वह ज्ञान-गम्य ब्रह्म जो भक्ति और प्रेम की रस्सियों में बँधकर कठपुतलियों की भाँति संकेतो पर नाच रहा था, क्षणैक में ही अपने ज्ञान रुप में अवस्थित हो रंगीनियों की ओर बहती हुई नदी की धार को अध्यात्म के पवित्र धरातल पर मोड़ लाया ।

कलाकार योगेश्वर की आध्यात्म चर्चा भी कलात्मक ढंग से ही प्रारंभ हुई । चिंतन की महानतम समस्याओं मे से एक ऐसी समस्या का समाधान उन्होंने अपनी रंगीनियों के माध्यम से प्रयोगात्मक रुप मे प्रस्तुत किया, जिसका मौलिक समाधान करने में वेदान्त भी असमर्थ दिख पड़ता है ।


दृश्यः व्रजबालाओं मे से एक प्रश्न करती है ।
व्रजबालाः हमलोग लोकमान्य कर्मों का उल्लंघन कर रही हैं, तो क्या हमलोगों का यह कर्म परलोक मान्य हो सकता है ?

कृष्णः और कुछ ?

व्रजबालाः आप भी तो और लोगों की भाँति संसारिक कर्मों में लिप्त रहते हैं, फिर आपको लोग कर्मातीत क्यों कहते हैं ?

कृष्णः और कुछ ?

व्रजबालाः कैसे आप अपने आपको परमशुद्ध मानते हैं ?

कृष्णः हाँ ! हाँ ! दौड़ो । (यमुना नदी की ओर संकेत करते हैं ।)

गोपियाँ: क्या कह रहे हैं?

कृष्णः महान अनर्थ होने ही जा रहा है !

गोपियाँ: (कोलाहल के साथ) कैसा अनर्थ ?

कृष्णः देखती नहीं ! यमुना का ह्रिदय भी थर्रा उठा है । यमुना के दुसरे किनारे पर बैठे हुए महर्षि दुर्वासा क्षुधा-क्षुब्धता से तड़फड़ा रहे हैं । उन्हें शीघ्रातीशीघ्र भोजन दो ।

गोपियाँ: आप यह कैसे जान गये ?

कृष्णः इसलिये की मैं परमशुद्ध और कर्मातीत हूँ ।

गोपियाँ: (ठहाके की हँसी के साथ) वाह रे परमशुद्ध, वाह रे कर्मातीत !

कृष्णः विश्वाश करो कि मैं वास्तव में मैं परमशुद्ध और कर्मातीत हूँ ।

गोपियाँ: (एक हासपूर्ण कोलाहल) आप वही हैं या आज बदल गये हैं? आँख मे धुल झोंककर साधु बनना चाहते हैं? आपकी शुद्धता से व्रज की कोई ऐसी झाड़ी नहीं जो पतिचीत न हो गयी हो, हमलोगों की कौन कहे !

कृष्णः हमारी शुद्धता की परीक्षा इसी में है ।

गोपियाँ: हममें से कौन महर्षि को भोजन ले जायेगी?

कृष्णः तुम प्रत्येक अलग-अलग भोजन ले जाओ वे दीर्घाहारी हैं ।

गोपियाँ: हमलोग नदी के अथाह जल को पार कैसे करेंगे?

कृष्णः यमुना के किनारे जाकर कहना 'ऐ यमुना ! यदि कृष्ण बाल ब्रह्मचारी, परमशुद्ध और कर्मातीत हों तो तुम सुख जाओ, हमलोग पार चली जाँए।'

गोपियाँ: हँसी और इतनी गंभीर !

कृष्णः नहीं, नहीं, मैं हँसी नहीं करता, तुम लोग जाओ ।

गोपियाँ: (घर से थाली लेकर यमुना के किनारे पहूँचती हैं और) ऐ यमुना ! यदि कृष्ण बाल ब्रह्मचारी, परमशुद्ध और कर्मातीत हों तो तुम सुख जाओ, हमलोग पार चली जाँए।

यमुना गोपियों के ऐसा कहते ही सुख जाती हैं और यमुना पार करती हैं।

दुर्वासाः (भोजन देखकर) तुम लोगों की भक्ति से मैं प्रसन्न हूँ।
(सारी थालियाँ खाली कर देते हैं)

गोपियाँ: (हँसी आते हुए भी ऋषि के क्रोधी स्वभाव से परिचीत होने के कारण चुप हैं) ऋषिदेव हमलोग यमुना पार कैसे करेंगे?

दुर्वासाः यमुना के किनारे जाकर कहो 'ऐ यमुना ! यदि दुर्वासा निराहारी हों तो तुम सुख जाओ। '

गोपियाँ एक आश्चर्यमय उत्सुकता से चल देती हैं।

(आपस में) "रास्ते में कृष्ण तथा दुर्वासा द्बारा प्रस्तुत इन आश्चर्यों का कारण हमलोग कृष्ण के ही नाटकीय शब्दों में सुनेंगी।"

(यमुना किनारे पँहुचती हैं, यमुना उद्दाम तरंगाघातों से कोलाहल और कल्लोलपूर्ण हैं, नीले जल पर प्राकृतिक लालिमा निखर उठी है। जगत का संपूर्ण कृत्रिम सौंदर्य इस प्राकृतिक सौंदर्य के आगे नतमस्तक है)

गोपियाँ: ऐ यमुना ! यदि दुर्वासा निराहारी हों तो तुम सुख जाओ।

यमुना का एकाएक उमड़ा हुआ जल सुख जाता है।

गोपियाँ: ओह यह तो बड़ा आश्चर्य ! प्रकृति ने भी सत्यता को तिलाञ्जली दे दी। जिस दुर्वासा ने सारी थालियाँ खाली कर दी, उन्हें निराहारी कहने पर यमुना सुख जाँय?

(सब सोंचती है की अब शाम हो गयी गोपाल भी घर गये होंगे)


दृश्यः सबेरा होता है। कृष्ण बाँसुरी की ध्वनी से त्रिलोक को मुग्ध करते हुए उन्हीं झाड़ियों की ओर अग्रसर होते हैं। गोपियाँ एक-एक करके सब झाड़ियों की ओर चल देती हैं। कृष्ण के सामने पड़ते ही दोनो तरफ मुस्कान का वातावरण उपस्थित हो जाता है।

कृष्णः (मुस्कुराते हुए) मैं क्या हूँ?

गोपियाँ: आपकी विजय है। किन्तु ये सम्पूर्ण घटनायें हमें विचित्र सी लगती हैं। घटना का वास्तविक कारण क्या है?

कृष्णः तुम लोगो का अज्ञान है कि तुमलोग मुझे संसारिक कार्यों में लिप्त मानती हो। यदि मनुष्य कर्मों के बंधन में न पड़े अर्थात् उनमें आसक्ति न रखे तो कर्म करते हुए भी वह कर्मातीत है, बंधनमुक्त है। ऐसी दशा में कोई भी कार्य उनके लिये न अच्छा है न बुरा। मैं यद्यपि रासरंगो में रहता हूँ किंतु किसी भी कर्म के प्रति मुझे आसक्ति नहीं है। अतः मैं बंधनमुक्त हूँ। महर्षि दुर्वासा सारी भोज्य समाग्री खा गये किंतु उस समय भोजन के प्रति उनमें सुख-दुःख की अनुभुति नहीं हुई। उनमें भोजन के प्रति कोई आसक्ति नहीं थी। इसलिए भोजन करते हुए भी वो निष्काम थे, कर्मातीत थे, बंधनमुक्त थे और हैं। सारांश यह है कि स्वभाविक रुप से किये जाने वाले कर्म जीव के लिये बंधन नहीं होते। आसक्ति ही बंधन है। किंतु इसकी व्याख्या जितनी सरल है, इसे कार्य रुप में परिणत करना उतना ही कठिन भी है। निष्काम जीव कभी दुष्कर्मो में प्रवृत हो ही नहीं सकता।

गोपियाँ: योगेश्वर कृष्ण की जय !


श्रीमद्‌भगवद्‌गीता की ये पंक्तियाँ इसी को दर्शाती हैं:

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः । अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ॥ ३-२७ ॥ (सम्पूर्ण कर्म प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैं परन्तु अहंकार से मोहित हुआ पुरुष 'मैं कर्ता हूँ' ऐसा मान लेता है।)

विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः । निर्ममो निरहङ्कारः स शान्तिमधिगच्छति ॥ २-७१ ॥ (जो मनुष्य सम्पूर्ण कामनाओं का त्यागकर निर्मम, निरहंकार और निःस्पृह होकर विचरता है, वह शान्ति प्राप्त करता है।)


*अधर धरत हरि के परत, ओंठ, दीठ, पट जोति।हरित बाँस की बाँसुरी, इंद्र धनुष दुति होति॥

**मेरी भववाधा हरौ, राधा नागरि सोय।जा तन की झाँई परे स्याम हरित दुति होय।। राधा के पीले शरीर की छाया नीले कृष्ण पर पड़ने से वे हरे लगने लगते है। या फिर राधा की छाया पड़ने से कृष्ण हरित (प्रसन्न) हो उठते हैं। (श्लेष अलंकार :-)

Feb 26, 2007

प्रिय ! मैं तेरा पथ पा न सका...

प्रिय ! मैं तेरा पथ पा न सका

दुनिया की पीड़ा से व्याकुल,
जब रात सिसकती जाती है ।
मृदु अधरों पर मुस्कान लिये,
ऊषा आकर बहलाती है ।
पलकों के प्याले छलक रहे,
पर दिल की प्यास बुझा न सका,
प्रिय ! मैं तेरा पथ पा न सका ॥

कलियों की मूक व्यथा को देखकर,
रवि निज कर से सहलाता है ।
मधुकर निज मधुर तरानों से,
निज प्रणय ज्ञान लहराता है ।
अपनी इन मूक व्यथाओं से,
तेरे मन को अपना न सका,
प्रिय ! मैं तेरा पथ पा न सका ॥

चातक* की विकल पुकारों को,
सुन घनश्याम उमड़ आते ।
देख मयूर निज मस्ती में,
अपना नर्तक दिखला जाते ।
पीड़ाओं से व्याकुल होकर,
तुमसे निज मन बहला न सका,
प्रिय ! मैं तेरा पथ पा न सका ॥ ~

*A mythical bird, drinks only the raindrops of Swati nakshatra before they touch the ground.

Once upon a time I tried to write...



Okay ! Why I created this blog?
To be honest I want to spend my time creatively :-) apart from books and movies, this seems a good thing to do... to write something...

but what?
For a few days I just have to type... because I wrote something back in 2001-2002... so I hope to update my blog atleast 4-5 times... If you understand Hindi then I promise you will like it ! After that I hope I will continue posting my random thoughts here !

The name Ojha-uwaach?
Well, I can't think of a better name... whenever I try to write something, first thing comes to my mind is Hindi/Sanskrit... and the many books in Sanskrit start with someone Uwaaching something...
like...

धृतराष्ट्र उवाचः
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः ।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय ॥

(Dhritarashtra said: O Sanjaya, assembled at the holy-field and place of pilgrimage of Kurukshetra, raring to fight, what did my sons and the sons of Pandu do?)

Why ...(three dots)
I will keep adopting this trend of three fullstops (...) I like the way Phanishwar Nath Renu used it in his writings... (This helps when you don't get what to write next... just put three fullstops instead of one...)

BTW my name is Abhishek Ojha.